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नामायन के बारे में संक्षिप्त जानकारी

अनन्त नामधेयाय, सर्वाकारविधायिने 
समस्तमंत्र वाच्याय, विश्व एकपतये नमः ||

जिसके अनन्त नाम हैं,जो समस्त आकारों का रचयिता है,जो समस्त मंत्रों का अभिव्यक्त अर्थ है,जो विश्व का एक मात्र स्वामी है,उसे नमस्कार |Bowing before the oneWho has innumerable nameswho is creator of all beingswho is explicit meaning of all chantswho is sole guardian of world

श्रीमती त्रिवेणी पौराणिक द्वारा एक दशक के श्रमपूर्ण शोध द्वारा रचित भारतीय हिन्दू नामों (लगभग 10,000) की हिन्दी-अंग्रेजी द्विभाषी पुस्तक ‘नामायन’ के बारें में संक्षिप्त परिचय

प्राक्कथन

लड़की हुई है? वाह! बधाई हो! क्या नाम रखा है ? लड़का हुआ है? बधाई, बहुत-बहुत बधाई। क्या नाम रखा है ? अक्सर ऐसा होता है जब किसी संतान के इस दुनिया में आने की सूचना दी जाती है तो सुनने वाला यह पूछे बिना नहीं रहता कि शिशु का नाम क्या रखा है| वह आने वाला किस नाम से जाना जाएगा यह सभी जानना चाहते हैं एक बात और हम भारत वासियों के लिए नाम एक महज किसी को पुकारने का प्रतीक ही नहीं है, वरन्‌ किसी व्यक्ति-विशेष का परिचय उसकी अपने सम्बन्धियों से, अपने चाहने वालों से और सर्वोपरि अपने जन्म दाताओं से जोड़ने वाली कड़ी है| ऐसी कड़ी जो पुरखों के चले जाने के बाद भी उनसे जुड़ी हुई नजर आती है।

पैदा होते ही चंद घंटों में किसी नवजात की प्रकृति का अनुमान लगाना कठिन है पर फिर भी ऐसा देखा गया है कि ‘स्मिता’ या ‘मुस्कान’ या ‘हंसी’ जैसे नाम बच्चे के जन्म के कुछ घंटे बाद दिये गये हैं | और जब ऐसा सुखद अपवाद सामने आये तो माता-पिता ऐसा सार्थक नाम देने से नहीं चूकते | कहने का तात्पर्य यह है कि नाम हमारी एक विशेष अस्मिता है।

नाम ऐसे भी होते हैं जो पैदा होने वाले की कोई खास प्रकृति का द्योतक हो, हालांकि पैदा होते ही चंद घंटों में किसी नवजात की प्रकृति का अनुमान लगाना कठिन है पर फिर भी ऐसा देखा गया है कि ‘स्मिता’ या ‘मुस्कान’ या ‘हंसी’ जैसे नाम बच्चे के जन्म के कुछ घंटे बाद दिये गये हैं | और जब ऐसा सुखद अपवाद सामने आये तो माता-पिता ऐसा सार्थक नाम देने से नहीं चूकते | कहने का तात्पर्य यह है कि नाम हमारी एक विशेष अस्मिता है।

नाम हमारे लिये एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है। नाम सटीक हो, सुन्दर हो, अर्थपूर्ण है यह सबकी इच्छा होती है | सार्थकता का प्रश्न बच्चे के वातावरण, उसके अभिभावक, उसके देश, काल और मौजूदा सौरमंडल से जुड़ जाता है। और यह प्रत्येक कारण अलग-अलग नाम को जन्म दे सकता है। किसी का नाम सिग्निफिकेशन त्रिकोण का एक ऐसा बिन्दु हैं जो त्रिकोण के अन्य दो बिन्दुओं जैसे अर्थ एवं सन्दर्भ से जोड़ता है। अत: व्यक्ति का नाम अर्थपरक तो होता ही है वह व्यक्ति विशेष के संसार को बहुआयामी तरीके से जोड़ता भी हैं| नाम लेते ही अनेकों सन्दर्भ, यादें, अर्थ व सामाजिक बोध का ज्ञान हो जाता है।

कई बार ऐसा देखा गया है कि माता पिता कोई अनोखा, अद्भुत, लीक से हट कर सबसे परे नाम देना चाहते हैं ताकि नाम और नामधारी दोनों ही अद्वितीय हों। यह इच्छा कई बरसों तक बच्चे को नाम देने में विफल होती है। मेरे अपने साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था । मेरे पिता तार-सप्तक के प्रसिद्ध कवि श्री भारत भूषण अग्रवाल ने अद्वितीय नाम की खोज में मुझे पांच साल तक अनामिका ही रखा | पर अब ऐसा नहीं होगा | त्रिवेणीजी की पुस्तक ने बहुत सी खोज आसान कर दी है। यही नहीं पुस्तक में विकल्पों की भरमार है| बच्चे की या अभिभावकों की प्रकृति, सोच, वातावरण, धार्मिक निष्ठा, देश में चल रही राजनैतिक व सामाजिक लहर या फिर किसी इष्ट या पूज्य को ध्यान में रखते हुए सैकड़ों नाम पाठक के सामने हैं | ढ़ेरों नामों में से आपको मात्र एक का चुनाव करना है।

ऐसा माना जाता है कि नामों में इतिहास छुपा होता है। देश और काल की यात्रा का कच्चा-चिट्ठा लिए होता है किसी का नाम । व्यक्ति-विशेष का नाम उसके पैदा होने के समय, उसके माता-पिता के अनुभव उनकी विचार श्रृंखला का प्रतीक होता है। यह सभी विकल्प इस पुस्तक में विद्यमान हैं| आपको बस चुनने की देर है | अब किसी बच्चे का नाम चुनने के लिये हर मित्र, हर सम्बन्धी से पूछताछ करने की जरूरत नहीं होगी। यह काम त्रिवेणीजी ने बहुत आसान कर दिया है। हाँ, परेशानी होगी तो मात्र इतनी ही कि इन सुन्दर-सुन्दर नामों की श्रृंखला में से किसी एक को चुनना पड़ेगा । परन्तु यह परेशानी बड़ी सुखद परेशानी है और इस में से बाहर निकलने की सारी प्रकिया बड़ी सुखद, मनोरंजक, एवं संतुष्टि लिये होगी | यह कामना ही नहीं वरन्‌ मेरा पूर्ण विश्वास है कि ऐसा ही होगा |

इस पुस्तक की सारगर्भिता से मैं विशेष रूप से प्रभावित हूँ | जीवन का ऐसा कोई पहलू नहीं है जो त्रिवेणी जी से छूटा हो | बहुत ध्यान, लगन और परिश्रम से संचित की गई सामग्री आपके सामने है | हर प्रकार के लोगों की सोच, मापदंड और अवधारणाओं का ख्याल रखा गया है।

शब्दों को किस सन्दर्भ में सबसे पहले प्रयुक्त किया गया था, या फिर यह शब्द किस इष्ट का दूसरा नाम है या फिर इसको प्रयोग करने के अन्य क्या-क्या सन्दर्भ हैं, इन सब की जानकारी हर नाम के नीचे दी गई है। मैं समझ सकती हूँ कि यह काम आसान नहीं रहा होगा परन्तु त्रिवेणीजी ने और उनके सहयोगी डॉ. अपूर्व पौराणिक और डॉ. किसलय पंचोली ने इतनी कुशलता से इसे कार्यान्वित किया है कि वे तीनों प्रशंसा के पात्र हैं।

सबसे बड़ी बात है कि यह पुस्तक पूर्ण रूप से द्विभाषी कोश है। हर नाम का लिप्यान्तरण देवनागरी और रोमन में तो है ही उसका अर्थ, और अर्थ-विस्तार भी हिन्दी और अंग्रेजी में भी है। वर्तनी की शुद्धता को बनाये रखने के लिए हिन्दी के शब्दों का अंग्रेजी में सही-सही रूपांतरण करके बहुत सुविधा प्रदान की गई है। मिथकीय, पौराणिक एवं ऐतिहासिक नामों की प्रचुरता है | प्रकृति से सम्बन्धित कई नामों के बोटनिकल नाम भी दिये गए हैं। कई नामों के बाद कोष्टक में लिंग सम्बन्धी सूचना देकर बहुत अच्छा किया है। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि कई नए नामों का अविष्कार भी किया गया है| पुस्तक के अंत में अंग्रेजी वर्णणाला के अनुसार इन्डेक्स देने से इस संग्रह की सार्थकता बढ़ गई है। एक ही नजर में सारे नाम सिलसिलेवार देखे जा सकते हैं और साथ में दी गई पृष्ठ संख्या से उस विशेष पृष्ठ पर तुरंत पहुंचा जा सकता है |

मुझे पूर्ण विश्वास है कि पाठक इस पुस्तक को रवयं ही नहीं पढ़ेंगे वरन्‌ अपने सगे-सम्बन्धियों और मित्रों के बीच बांटेंगे। गोद-भराई या बेबी-शावर के लिए इससे अच्छी पुस्तक हो नहीं सकती | अंततः सबसे बड़ी खूबी इस पुस्तक की यह है कि इसके पाठक मात्र नवजात बच्चों के अभिभावक ही नहीं वरन्‌ बुद्धिजीवी भी होंगे। यह मनोरंजक और उपयोगी तो है ही साथ ही साथ ज्ञानवर्धक भी है | ‘नामायन’ एक अनूठी पुस्तक है।

                                                      – प्रो डॉ अन्विता अब्बी

कोश की विशेषताएँ

1. यह द्विभाषी (अंग्रेजी और हिन्दी) कोश है।

2. लिखित नाम के सही उच्चारण हेतु वर्तनी को रोमन लिपि में ध्वनि विज्ञान सम्मत शास्त्रीय व प्रतिष्ठित उच्चारण निर्देशी चिन्हों के साथ लिखा गया हैं

3. कोश के आरंभ में देवनागरी की वर्णमाला को वर्णक्रमानुसार रोमन लिप्यन्तरण में दर्शाया गया है।

4. सभी ‘नाम’ शब्दों का हिन्दी और अंग्रेजी में शब्दार्थ दिया गया है |

5. कई शब्दों के एकाधिक अर्थ दिये गये हैं।

6. केवल वे नाम संकलित किये गये हैं जिनका अर्थ शुभ, श्लाध्य और युग अनुरूप प्रासंगिक है।

7. नामों को भाषा और व्याकरण की दृष्टि से परखा गया है | वर्तनी की शुद्धता का सर्वत्र ध्यान रखा है।

8. नाम उच्चारण में कठिन नहीं हैं।

9. वनस्पति जगत से आहरित नामों के लोक प्रचलित नामों के साथ उनके बोटनिकल नामों को भी लिखा गया है।

10. नामों के मिथकीय, पौराणिक व ऐतिहासिक उपाख्यान भी यथाशक्‍्य यथा स्थान दिये हैं।

11. कई मौलिक और यौगिक नामों का गठन भी किया गया है पर उन्हें व्याकरण की दृष्टि से विकृत नहीं होने दिया है।

12. शुद्धता और सार्थकता के आग्रह के कारण वर्तमान में प्रचलित अनेक आसान व श्रुतिमधुर परन्तु निरर्थक, घृणास्पद, निंदात्मक, अशुद्ध नामों को इस कोश में स्थान नहीं दिया गया है|

13. कोश के उपयोग संबंधी निर्देश प्रारम्भ में दिये हैं जिनसे कोश के शब्द क्रम का ज्ञान भली भांति हो जाता है। अनुकमणिका में नामों को देवनागरी वर्णों में अकारादि कम में रखा गया है। यद्यपि रोमन अल्फाबेट के अनुसार अतिरिक्त अनुकमणिका भी उपलब्ध है।

14. संस्कृत के समस्त शब्द नियमानुसार संधि युक्त कर लिखे गये हैं।

15. व्यवहार, जीवन व. पत्र पत्रिका, साहित्य से प्रथम नामावलि को आकार दिया। पश्चात्‌ उससे उचित शब्दों का चयन किया गया है। इस हेतु प्रामाणिक स्तरीय शब्दकोशों की सहायता ली गई |

16. अंत में परिशिष्ट में सभी नामों को रोमन वर्णमाला के अनुकम में पृष्ठ कमांक के साथ उल्लेखित किया गया |

प्रस्तावना

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नाम क्या है ? नाम में क्या है ? क्या नाम का कोई महत्व है ? नाम क्यों रखते हैं? कैसे रखते हैं? कैसे नाम रखना चाहिये ? कैसे नाम नहीं रखना चाहिये?

इन्हीं प्रश्नों से मेरा सामना होता रहा – बीसवीं सदी के अंतिम वर्षों से लेकर इक्कीसवीं सदी के एक युग (बारह वर्ष) बीत जाने तक। नाम को किसी परिभाषा में नहीं बाधा जा सकता। नाम बस नाम है, मूल चिन्ह है, नाम को मंत्र कहा गया है| (नमन्त्‌येभिरीश्वरम्‌) नाम के द्वारा ही ईश्वर को नमन किया जाता है | नाम के साथ यश सम्मान, कीर्ति, सौंदर्य वोध, सफलता, गरिमा, गौरव, प्रताप और अनुराग जुड़े रहतें हैं। ‘नाम्नैव कीर्ति लभते मनुष्य:’, नाम से ही मानव कीर्ति अर्जित करता है। नाम सब से संक्षिप्त अभिव्यक्ति होती है|

परिचय और पहचान के लिये नाम का जानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। सबसे पहले हम व्यक्ति का नाम ही पूछते हैं, कहां जाना है, पूछ कर स्थान का नाम जानते हैं | किससे मिलना है? प्रश्न से व्यक्ति का नाम पूछते हैं| कया चाहिये ? प्रश्न से वस्तु का नाम जानना चाहते हैं |

नामकरण की प्रकिया सतत जारी रहती है। आज भी नगरों, मोहल्लों, इमारतों, बाजारों, कारखानों, टाकीजों, भवनों, तालाबों, बाग बगीचों, गाय, बैल, कुत्ते, बिल्ली, पशु-पक्षी सभी का नामकरण हो रहा है।

व्यक्ति का नाम है तो वह व्यक्ति है। नाम से ही नामी की पहचान होती है। जो नामी जितना बलवान होता है उस नाम में उतनी ही शक्ति होती है| राम से राम का नाम बड़ा है।

‘कहों कहाँ लगि नाम बड़ाई, रामु न सकहि नाम गुन गाई ।’

समझने में नाम और नामी दोनों एक से हैं| नाम और रूप दोनों ईश्वर की उपाधि हैं | रूप नाम के अधीन देखे जाते हैं और नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकतीं | निर्गुण और सगुण के बीच में नाम सुन्दर साक्षी है। और नाम ही, दोनों का यथार्थ ज्ञान कराने वाला चतुर दुभाषिया है।

‘अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी, उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी ।’

नाम – विशेष रूप से, व्यक्ति नाम, अपने आप में सार्वभौमिक होते है । वे अपने आप में विशिष्ट होते हैं | व्यक्ति परक होते हैं और उनका इतिहास होता है।

नाम जब भी रखा जाता है वह सुविधा और रागात्मक संबंध के कारण रखा जाता हैं। नाम के साथ सबको मोह होता है। अपनत्व होता है, प्रेम और गौरव होता हैं और यह सब होने के कारण हम सामान्य रूप से तर्क नहीं करते | इसका यह नाम क्‍यों रखा गया ? कब रखा गया ? किसने रखा ? व्यवहार में बराबर चलता रहता है। नाम जो भी हो उसे स्वीकार कर लेते हैं।

नाम के भाषागत अर्थ पर हमारा ध्यान नहीं जाता | प्रायः लोग अपने नाम का अर्थ नहीं जानते | भाषिक अर्थ बतलाने के प्रयत्न में अटकलें लगाते हैं ।

हम स्वयं अपना नाम नहीं रखते | हमारा नाम माता-पिता ने या हमारे अपने लोगों ने रखा होता है | उनका ध्यान जिस किसी तथ्य की ओर जाता है और वे जिन कारणों से प्रभावित होते हैं तथा उनका ज्ञान और सौंदर्य बोध जिस प्रकार का होता है उन उन आधारों पर ही उन्होंने नाम रखा होता है।

नाम मूलतः किसी भी भाषा से संबद्ध रहे उसका व्यवहार सभी भाषा-भाषियों को करना होता है| अलग-अलग भाषाओं के उच्चारण का प्रभाव तत्काल परिलक्षित हो सकता है। प्रयास यही रहता है कि उस नाम को उसी रूप में लिखें, उसी तरह का उच्चारण करें और व्यवहार भी उसी तरह का हो | इस व्यवहार में अन्य भाषा-भाषियों को कठिनाई का अनुभव होता है| उच्चारण लेखन व्यवहार की सुविधा के लिये अन्य भाषा भाषियों को कठिनाई का अनुभव होता है। इस के लिये अन्य भाषा भाषी लोग ध्वनि परिवर्तन कर देते हैं ।

मेरा नाम ‘त्रिवेणी’ है। यह नाम मराठी, बंगला, तेलगु, किसी भारतीय भाषा में ही नहीं अपितु विश्व की किसी भी भाषा में इसी नाम से जाना जायेगा | भाषा बदलने में नाम का अनुवाद नहीं किया जाता | एक ही नाम का व्यवहार सब भाषाओं में होता है | फिर भी भौगोलिक और ऐतिहासिक कारणों से नाम के उच्चारण-वर्तनी-अनुकरण-लेखन-वाचन-मनन-चिंतन व्यवहार में परिवर्तन होता रहता है। नाम चाहे किसी अन्य भाषा से स्वीकार भी कर लें किंतु उच्चारण वर्तनी और व्यवहार उसका सब कुछ अपनी भाषा प्रकृति के अनुसार होता है।

हमारा नाम कोई गलत लिखे या गलत ढंग से उच्चारित करे तो हमें बुरा लगता है। नाम का आदर होना चाहिये। यह तभी संभव है जब हम ध्वनिगत रूपों और उनके ठीक-ठीक उच्चारणों की प्रवृत्तियों से परिचित हों। सही उच्चारण के लिये प्रयत्न होने चाहिये ।

उच्चारण की सुरक्षा के लिये भाषाओं के विशेषज्ञ विशेष-विशेष चिन्हों का प्रयोग करते हैं, किन्तु उन्हें भाषाओं के विशेषज्ञ ही जान सकते हैं | ‘नाम’ का व्यवहार तो जन समूह ही करता है। सब लोग अपने ढंग से ही नामों का उच्चारण करते हैं | बंगाली मोशाय ‘अनिल’ को ओनील बोलते हैं।

यदि किसी के सुनने में नाम न आये और वह केवल दूसरी भाषा की लिपि में ही उस नाम को पढ़ता है तो उस नाम का उच्चारण और लिखित रूप हास्यास्पद बना देता है। एक व्यक्ति ने अपने पोते के नामकरण संस्कार की पार्टी में आमंत्रित किया। एक सुन्दर फलक पर सुन्दर अक्षरों में देवनागरी में शिशु का नाम उकेरा गया था – कनव। मैंने पूछा – भाई, यह नाम कैसा है ? क्या अर्थ है इसका ? उन्होंने बताया – हमारी बेटी ने किसी नाम की पुस्तक से यह नाम चुना है, रोमन में नीचे लिखा था ‘kanav | रोमन लिपि में हिन्दी भाषा लिखने जैसी उदारता का सवाल है- इसमें अंग्रेजी की कोई हानि नहीं पर हिन्दी भाषा के उच्चारण की द्रष्टि से शब्द की हास्यास्पद स्थिति हो जाया करती है | मेजबान की पत्नी को कुछ याद आया – ‘शायद किसी ऋषि का नाम है।’ तब समझ में आया – बेटी ने रोमन लिपि में लिखी भारतीय नामों की पुस्तक के ‘कण्व’ को ‘कनव करके सुझाया था| बेचारे कण्व मुनि भारतभूमि में अपने ही लोगों द्वारा रोमन लिपि की महिमा से  ‘कनंव” लिखे जाकर सुशोभित हो रहे थे। बहुत से नामों का अर्थ हम इसलिये नहीं बतला सकते कि हम नामकरण से अपरिचित होते हैं| नामकरण के अनेक कारण हो सकते हैं।

नाम नाम होते हैं, इस नाते नामों का अनुवाद नहीं हो सकता | मेरा नाम ‘त्रिवेणी’ है। यह नाम मराठी, बंगला, तेलगु, किसी भारतीय भाषा में ही नहीं अपितु विश्व की किसी भी भाषा में इसी नाम से जाना जायेगा | भाषा बदलने में नाम का अनुवाद नहीं किया जाता | एक ही नाम का व्यवहार सब भाषाओं में होता है | फिर भी भौगोलिक और ऐतिहासिक कारणों से नाम के उच्चारण-वर्तनी-अनुकरण-लेखन-वाचन-मनन-चिंतन व्यवहार में परिवर्तन होता रहता है। नाम चाहे किसी अन्य भाषा से स्वीकार भी कर लें किंतु उच्चारण वर्तनी और व्यवहार उसका सब कुछ अपनी भाषा प्रकृति के अनुसार होता है।

नामकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें हम अपने ज्ञान, सौंदर्य बोध, विश्वास एवं गरिमा गौरव का पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं| नामकरण को लेकर प्रियजनों में विवाद भी होता है। एक साथ दो-दो या चार-चार नाम रख दिये जाते हैं | प्रत्येक नामकरण में मनुष्य की बुद्धि का योगदान है। यह योगदान ऐसा है जिसने शब्दों को अर्थ प्रदान किया है| अर्थ शब्द की आत्मा है| नाम का अर्थ होना ही चाहिये। शब्द और अर्थ का संबंध उस देश और जाति की संस्कृति और विचार पद्धति से होता है| नाम का शब्दार्थ बेतुका लगता है यदि उसका संदर्भ मालूम न हो | नाम और नाम के अर्थ के साध जूझना एक कठिन सांस्कृतिक कार्य है। अपने नाम का अर्थ जानने का प्रयास करना भाषा विज्ञान के अध्ययन का एक भाग है। नामों को पहचानेंगे तो ही हमें अपनी विरासत का बोध होगा। अपने नाम का अर्थ जानने की जिज्ञासा हर व्यक्ति में होनी चाहिये। विश्व के किसी भी सुदूर कोने में अपने नाम से ही तो अपने ‘मूल’ से में निवास करने वाला प्रवासी भारतीय अपने नाम से ही तो अपने ‘मूल’ से अपने को जुड़ा अनुभव करता है। शिशु का जन्म वह समय है – जब व्यक्ति अपने मूल की और लौटता है| अपनी सम्रद्ध विरासत से व्यक्ति अपने बालक पर अपने दृढ मूल को ही अंतर्निवेश करता है | नामकरण में हम जिस भाषा के शब्दों को अपनाते हैं, उस भाषा के प्रति हमारा राष्ट्रिय लगाव होता है| भारतीयों के लिये संस्कृत भाषा सरकारी मान्यताओं और राजनैतिक प्रचारों के आधार पर नहीं अपितु अपने आभिजात गुणों के कारण भारत की स्वयं स्वीकृत, स्वयं प्रमाणिक तथा स्वयं तथ्य के रूप में स्वीकृत भाषा है। मारत में संस्कृत का भौगोलिक विस्तार हुआ है अतः भारतीय विशेषकर हिन्दू नामकरणों में संस्कृत भाषा प्रधान रूप से रही है। संस्कृत भाषा ने उत्तर भारत और दक्षिण भारत की भाषाओं को एक सूत्र में जोड़ा है। सस्कृत्त का शब्द समूह तेलगु, कनन्‍नड़ तथा मलयालम में तो आर्य परिवार की किसी भाषा से कम नहीं मिलता | तमिल में भी संस्कृत शब्द समूह मिलता है ।

देवताओं के नाम सीधे संस्कृत भाषा से आये हुए हैं | देवताओं के नाम हमारे अपने नामकरण के लिये आधार रूप में हैं। इन नामों का प्रतिशत आज भी अन्य नामों की तुलना में अधिक मिलेगा। देवताओं के नाम हमारे अपने चिंतन का उत्कर्ष हैं, सांस्कृतिक गरिमा है, जीवन दर्शन है | और सबसे बड़ी बात इनमें भाषा का प्रतीकात्मक रूप सार्थक होकर ऐतिहासिक अर्थ के रूप में परिणत है। जिस नाम की जैसी मान्यता है, उसी के अनुसार उसका प्रतीकात्मक अर्थ कहा जाता है। इन नामों का भाषिक अर्थ भी होता है। इन नामों के पर्यायी रूपों की संख्या बढ़ती गई | पर्यायी नाम भी भाषा में सार्थक हो गए | विशेषणों के रूप में नामों का प्रचलन विशेष्य रूप में होता गया। आर्य परिवार से सम्बद्ध आधुनिक भाषाओं हिन्दी, मराठी, गुजराती, बंगला, उड़िया, असमी, पंजाबी आदि में देवताओं के नाम सीधे संस्कृत से आए हैं। इन देवताओं के नामों के आधार पर ये भाषाएं पारिवारिक रूप से जुड़ी हैं।

इतिहास में व्यक्ति रूप में जिन नामों को पहले महत्व प्राप्त हुआ उनमें देवताओं के, प्राकृतिक शक्तियों के जिन्हें देवता मान लिया गया और उन सब के नाम अधिक हैं जो भूलोक के साथ स्वर्ग के निवासी थे | देवताओं के नामों का इतिहास हमारा धार्मिक इतिहास है। देवताओं के नाम, उनके प्रतीकात्मक अर्थ तथा उनका विकास ध्यान में लेते हुए हमारे धार्मिक विकास की दिशा का परिचय प्राप्त किया जा सकता है।

देवताओं के नामों की व्युत्पत्तियां मिलती हैं। उनके नामकरण से संबंधित कथानक और प्रसंग मिलते हैं | उन नामों का प्रतीकात्मक विवेचन मिलता है| इन सब नामों की संगति भाषा के साथ बैठाई गई है | देवताओं की स्तुति-स्तवन- स्त्रोत सबमे में वस्तुतः नाम की महिमा होती है। देवता के नामों के विस्तार में याने पर्यायनामों में प्रतीकात्मक प्रवृत्तियाँ मिलती हैं | इन प्रवृत्तियों के कारण ही ये नाम हमारे सांस्कृतिक जीवन के अंग हो गए हैं। इन नामों में हमारे जीवन मूल्य हैं और इनके बल पर हम जीवन की गम्भीर व्याख्या कर सकते हैं।

देवताओं के नाम मनुष्यों को देने से मनुष्य ठीक-ठीक देवता नहीं हो गए। पर उनके मन में एक भोला विश्वास बैठ गया कि बालक को पुकारने के बहाने वे अनायास सहज ही देवताओं को पुकार लेंगे। हमारे देवी देवताओं के सहस्त्र-सहस्त्र पर्यायी नामों से जो इष्ट नाम जंचा रख लिया अपनी संतान का नाम | पुराण कथा है – दुष्ट अजामिल ने, मरणासन्न स्थिति में, कातर स्वर में अपने बेटे को पुकारा – नारायण, अरे नारायण | भगवान नारायण “विष्णु’ के पार्षद विमान लेकर उपस्थित हो गए | नाम की महिमा से  से दुष्ट पापी अजामिल विमान में बैठ, गया सीधे बैकुंठधाम|

‘अपतु अजामिल गजु गनिकाउ,भये मुकत हरि नाम प्रभाउ।’

देवताओं के नाम, उनकी पत्नी के नाम के आगे पति, नाथ, ईश, कान्त स्वामी संलग्न करके भी बनाए गये, जैसे रमापति, रमानाथ, रमेश, रमाकान्त, राधास्वामी | देव पति और देवी पत्नी के नामों को जोड़ कर समाहार द्वन्द्र समास बनाए गए – उमाशंकर, सीताराम, लक्ष्मीनारायण, जैसे सामासिक पद पुत्रों के नामकरण में प्रचलित हो गए। दो देवताओं के नामों को जोड़ कर भी द्वन्द्र समास बनाए गए जैसे शिवराम, हरिहर, रामनारायण, शिवनारायण | पुत्र का जन्म माता-पिता के लिये आनन्दकारी होता है। माता के नाम के आगे नन्‍्दन जोड़ कर देवताओं के नाम बनाए गये- देवकीनन्दन, गिरिजानन्दन, सुमित्रानन्दन | पिता के नाम के आगे नंदन जोड़ कर नाम बने- रघुनन्दन, दशरथनन्दन, शिवनन्दन आदि।

रामायण, महाभारत, पुराण, जातककथाएँ, इतिहास, हिन्दु नामों के लिये आकर ग्रंथ रहे हैं| पौराणिक नामों में इतिहास और भूगोल दोनों एक हो गए हैं। इतिहास पहले या भूगोल पहले कहना कठिन है। नामों में भारतीय संस्कृति, इतिहास, भूगोल प्रतिबिम्बित है | नामों ने देश और काल की लम्बी यात्रा की है। भारत के तीर्थ स्थलों के नामों के मूल में भौगोलिक विस्तार के साथ-साथ भाषा का विस्तार और उन सबको भौगोलिक चेतना के माध्यम से मातृभूमि के प्रेम में परिणित किया है।

अयोध्या, काशी, द्वारका, मथुरा, अवन्ती आदि पुण्य नगरियों ने अनेक बालिकाओं का नामकरण किया है और आज भी कर रही हैं | इसी तरह जगन्नाथ, बूंदावन, प्रयाग, बद्रीनाथ, ओंकारेश्वर, रामेश्वर जैसे तीर्थ क्षेत्र बालकों के नामकरण के आधार रहे हैं| भारतीय संस्कृति में प्रत्येक नदी को पूज्य माना गया है- नदियों के नाम पर बालिकाओं का नामकरण होता आया हैं – गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा, सिन्धु, आदि नदियों ने अनगिनत बालिकाओं को नाम दिया है।

पर्वत और नदियों के नाम ठीक-ठीक भौगोलिक नहीं है| ये सब  नाम नामकरण के पूर्व व्यक्तिनाम रहे होंगे| पार्वती पिता पर्वतराज, पत्थर का पहाड़ नहीं, दक्ष प्रजापति का वंशज हिमाचल प्रदेश का राजा था। गंगा राजा शान्तनु की पत्नी और भीष्म की माता थी | महाभारत में ऐसा चित्रण किया गया जैसे पानी से भरी नदी| वास्तव में कोई गंगा नाम की राजकन्या थी | पर्वतों और नदियों के नामों पर व्यक्तिनामों का प्रभाव है| क्‍या वास्तव में व्यक्ति पहले रहे और बाद में नदियों और पर्वतों का नामकरण हुआ |

बंगाल की मेघना नदी इन्दौर में एक लड़की का नाम बनती है| लड़की की मां नहीं जानती ‘मेघना’ किस चिड़िया का नाम है। कहती है चाचा ने यह नाम रखा है। और चाचा ने भी यह नाम उठाया है सिने संसार के चमकते आकाश से – राखी गुलजार की पुत्री मेघना के नाम पर । नाम के संदर्भ में नए-नए सन्दर्भ जुड़ने लगते हैं। नए जुड़ने वाले संदर्भ नामकरण के संदर्भ से भिन्न होते हैं।

माता-पिता दोनों के नामों से एक-एक पद लेकर नया नाम रच लेते हैं। देवेन्द्र और चन्द्रप्रभा के नामों से कमशः प्रथम पद देव और दूसरे नाम से उत्तर पद प्रभा लेकर नाम निर्मित कर लिया पुत्री का – देवप्रभा | इसी तरह वरूण और सुधा की पुत्री का नाम वसुधा बन सकता है। आनन्दीलाल शर्मा और कान्ता शर्मा के पुत्र का नाम हो गया – आकाश । हमने अपने पौत्र को पुकारू नाम दिया नीपू | पुत्र वधू नीरजा से ‘नी’ और पुत्र अपूर्व से ‘पू” लकर ‘नीपू’ लाड़ला नाम दिया जो पुकारने में निष्पू हो गया तो नामकरण में वह निपुण लिखा गया। उसी तरह पौत्री को पुकारू नाम को बनाया अपूर्व से अ’ और नीरजा के ‘नी’ को लेकर ‘अनी’ | नामकरण में वह अन्विता हो गई।

नामकरण में हम अपनी भाषाओं का ही नहीं अन्य विदेशी भाषाओं के शब्दों का भी चयन कर लेते हैं | कुतुबुदुदीन ऐबक के शासन काल से लेकर बहादुर शाह जफर के शासन काल तक – लगभग सात शताब्दियों के काल में तुर्की, अरबी, फारसी के शब्द भारतीय नामों में उतर गए और वे आज भी प्रचलित हैं| चिराग, रोशन, रौशनी, रौनक हैं तो गुलाब, महक, खुशबू , खुशी मीना भी हैं | भारतीय जन “वसुधैव कुटुम्बकम” की भावना रखते हैं। “अयं निजः परोवा” की ओछी भावना, मेरे तेरे का विचार हमारे उदारचरित चित्त्त में व्याप्त नहीं होता है। फारस और अरब में हमारी लक्ष्मी देवी घुस नहीं सकती पर वहां की दौलत को हमने अपनी बहु बेटी बना लिया- दौलत बाई बन वह भारत में सुख से रह रही है | राम भी दौलत से जुड़ कर दौलतराम बन जाते हैं।

नारायण ‘इकबाल’ को कबूल कर इकबाल नारायण बन जाते हैं। चंद लोग ‘फकीर’ से मिलकर फकीरचंद भी हो गए। अरबी फारसी तत्सम तद्भव रूपों का मिलाप करके रामबक्श, प्रेमअदीब, सतीशबहादुर, मुमताजशांति जैसे नाम बनाना हिन्दुओं की एक विशेषता रही है। ऐसे नामों से सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक पक्ष का परीक्षण होता है |

आज अंग्रेजी शब्दों की पहुंच भारत के गांव गांव में हो गई है | इसलिये नामकरण में अंग्रेजी शब्दों का झुण्ड भी प्रविष्ट हो गया है। डाली, डोरा, रोजा, पिंकी, डिम्पल, सिंपल, बेवी, बाबी, नताशा, सोनिया, हमारी लड़कियों के तथा राकी, हनी, सनी, हैप्पी, लकी, हिन्दू लड़कों के नाम होने लगे हैं। हमारे उदार चरित को दर्शाते नाम हिन्दू समाज की प्रकृति की पहचान है|

अपनी रूचि, संक्राति, परिवेश, शिक्षा स्तर के अनुसार माता – पिता या परिजन मूर्त पार्थिव जगत से या अमूर्त आध्यात्मिक जगत से अपने बालको के नाम चुन लेते है | जातिवाचक संज्ञा बालक का नाम बन व्यक्तिवाचक बन जाती है | ‘सागर’ बालक बन जाता है ‘सरिता’ बालिका बन जाती है | निराकार भाववाचक शब्द ‘धीरज’ और ‘प्रताप’ भाववाचक संज्ञाए मुक्ति, शांति, महिमा, अणिमा, गरिमा, ईशिता, सिद्धि बालिकाओं के नाम बन व्यक्तिवाचक होकर ठुमकने लगाती है |

जल, थल, नभ के विशाल साम्राज्य से प्रकृति बड़ी उदारता से बालक बालिकाओं के नाम चयन के आधार प्रदान करती है| जन्म दिन बंगलसिंह कुछ पालक अपने शिशु के नाम रख लेते हैं- रविकुमार, सोमनाथ, मंगलसिंह, मंगला, बुधीराम, गुरुप्रसाद | ऋतु के आधार पर नाम हो जाते हैं – वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर, हेमंत। जन्म स्थान के नाम पर – इन्दौरीलाल, मथुरालाल, बनारसीदास | हिन्दू पंचांग की तिथियों के अनुसार नाम मिलते हैं- तीजनबाई, पूनम, पूर्णिमा एकादशी के नाम – ग्यारसीबाई, पवित्रा, पद्मा, इंदिरा, मोहिनी मोक्षदा, कामदा, रमा, प्रबोधनी, सफला,अचला, अपरा, जया, विजया, | महीनों के नाम भी व्यक्तिनाम बन जाते हैं – कार्तिक, आश्विन, श्रवण, श्रावणी, सावन कुमार, फाल्गुनी | समय के अनुसार भी रख लिये जाते हैं- उषा, प्रभात, प्रभा, संध्या, निशा, रजनी। मानव ने शिशु के नाम देने के लिये वनस्पति जगत और प्राणिजगत के विशाल, विस्तृत, अनन्त सुन्दर संसार से अनन्त सुन्दर, सुन्दर सार्थक उपमान चुन लिए।

कोमलता का उपमान शिरीष पुष्प, शांति का प्रतीक चिन्ह, कमल पुष्प, पंक मे उत्पन्न होने वाला परम पवित्र पंकज सभी व्यक्तिनाम बन जाते हैं। एक साथ कोमलता, सुगंध, रंग और प्रफुल्लता की अनुभूति देते जाई, जूही, चंपा, चमेली, रजनीगंधा, माधवी, मधुमालती, आदि के लता गुल्म के नाम पर बालिकाओं को पुकारा जाता है | आंगन में तुलसी चौरे की परिक्रमा करती, सांझ को दीपक धरती, कई नारियों ने स्वयं पवित्र तुलसी का नाम धारण किया |

कवियों ने नारी सौन्दर्य के वर्णन के लिये प्राणियों की सुसंगत विशेषताएँ ली। स्त्री जिसकी आँखे मृग की आँखों की तरह भोलापन लिए सुन्दर हो उसे कहा गया म्रगनयनी| युवक जिसके नयनकमल की पंखुड़ी जैसे हो उसको कहा  – कमलनयन, राजीवलोचन| मछली के आकर व् चंचल चितवन वाली स्त्री को कहा – मीनाक्षी, मधुर आवाज वाली को कहा कोकिला| इसी तरह पशु-पक्षियों के सुन्दर विशाल अनंत साम्राज्य से उपमान निकल कर व्यक्तिवाचक अमिधान बन जाए| बालक बालिकाओं की पहचान बन गए |

कुछ माता-पिता अपने बच्चों के नामों में अन्त्यनुप्रास सजाते हैं। लाल, प्रसाद, शंकर, दत्त, आदि उत्तरपद लगाकर नाम निर्माण करते हैं। रामलाल, श्यामलाल, गोपीलाल, शिवप्रसाद, गुरूप्रसाद, रामप्रसाद, रमाशंकर, जयशंकर, मणिशंकर, ओमदत्त, देवदत्त, यज्ञदत्त | इसी तरह बालिकाओं के नाम में भी लय मिलाते हैं-कीर्तिलता, तरूलता, प्रेमलता — कमला, विमला, अमला | मानव जीवन के भिन्‍न भिन्न पहलुओं से नाम एक वर्ग या विषय के हो सकते हैं जैसे पूजा, अर्चना, आराधना, आरती, भाई अक्षत है तो बहिन कुमकुम या रोली हो सकती है। उसी तरह यदि भाई का नाम दीपक है तो बहन का नाम वर्तिका या ज्योति |

प्रज्ञा, सुमेधा, महावीर, सत्यकाम जैसे नामों से प्रशंसनीय गुण और भावों की अनुभूति होती है| राजस, सात्विक, गंभीर, आमोदिनी, उज्जवला, हर्षिता, मनोहर, जैसे नामों से व्यक्तिगत विशेषता, रूप या स्वभाव की प्रतीति होती है । शिशु के बिना घर की शोभा नहीं – शिशु अलंकार होते हैं – नाम होते हैं उनके – भूषण, नूपुर, कंगना, कंकणा, कुण्डल, माला, चंद्रहार, पायल, कर्णिका, बिंदिया, गजरा, माला | शिशु मूल्यवान धातु की तरह हैं और अनमोल रतन होते हैं। बडे चाव से उन्हें पुकारा जाता है- सोना, रूपा, रजत, कंचन, हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, नीलम, लाल, जवाहर, मणि | संगीतकार, गायक वादक अपनी संतान के नाम, कल्याण, आसावरी, पूर्वी, तराना, मल्हार, वीणा, बांसुरी, बंशी, संगीता जैसे शब्दों पर रख अपने संगीत प्रेम की अभिव्यक्ति करते हैं।

साहित्यकार या साहित्य प्रेमी माता पिता की पसन्द होते हैं- प्रसिद्ध साहित्यकारों के नाम जैसे प्रेमचंद, रवीन्द्र, प्रसिद्ध साहित्य कृतियों के नाम जैसे – गीतांजली कामायनी, दिव्या, चित्रलेखा या उन कृतियों के पात्रों के नाम – चित्रलेखा, कादम्बरी, महाश्वेता, शकुन्तला |

सिनेमा के प्रभाव में लोकप्रिय अभिनेता और अभिनेत्रियों के नाम घर-घर में पहुंच गये | सगी बहनों को नूतन तनुजा के नाम दे दिये। मधुबाला, मीनाकुमारी, शर्मिला, माधुरी, डिम्पल, ऐश्वर्या, मल्लिका का अर्थ होता है – गंदी बस्ती में रहने वाले माता पिता के लिये केवल एक सिनेतारिका – स्टार उन्हीं बस्तियों में अशोक कुमार, राजेश, दिलीप कुमार, धर्मेंद्र, जितेन्द्र, अमिताभ, अभिषेक के नाम भी पुकारे जाते हैं।

मिठाईयों के नाम शिशु के नाम बन जाते हैं- मिष्टी, फेनी, इमरती, राबड़ी, चंद्रकला, मिठाईयों के नाम हैं | लड़कियों के भी नाम हैं | घेवरमल, बर्फीलाल, लाडूराम, मेवालाल आदि लड़कों के नाम।

शिक्षित पालक संज्ञा और विशेषण और धातु के पूर्व उपसर्ग तथा बाद में प्रत्यय जोड़ शब्द नाम शब्द को अधिक चमकाने वाला व्याकरण सम्मत शब्द गठन कर लेते है। उपसर्ग प्र से जुड़कर दीप और शांत ‘प्रदीप’ प्रशांत बन गए| उपसर्ग सु से जुड़कर शीला सुशीला, कन्या सुकन्या और मति सुमति हो जाती है।

कृत प्रत्ययों और तद्धित प्रत्ययो के योग से भी अनेक सुन्दर सुलभ नाम प्रचलन में आये हैं| विद धातु में ‘कुश्च’ प्रत्यय जुड़ने से ‘विदुर’ जैसा ज्ञानी जन्म लेता हैं| नि धातु और क्र धातु में ‘ति’  प्रत्यय जुड़ने पर हमें नीति और कृति

‘यशस’ शब्द में ‘विनी’ दध्धित प्रत्यय जुड़ कर ‘यशस्वी’ बन जाता हैं सुन्दर ‘य’ तद्धित के योग से सौन्दर्य हो जाता हैं| मम से ‘ता’ मिल कर ममता खड़ी हो जाती हैं| पुल्लिंग विशेषण शब्द अमल, विमल, सरल, अभय टाप(आ) तद्धित स्त्री प्रत्यय के जुड़ते ही अमला, विमला, सरला, अभया, बन बालिकाओं के नाम बन जाते हैं। मिलती हैं|

अनेकता में एकता लिये भारतीय जीवन शैली जो सुदूर अतीत से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती आई है- आध्यात्मिक धार्मिक, परम्पराओं और दार्शनिक विचार धाराओं का योगफल है। हजारों वर्षों की सामासिक संस्कृति ने उसका पोषण किया है। हमारी विरासत सम्पन्न और प्राचीन है। किसी भी सम्रदाय और विचार धारा के लोग दूसरे सम्प्रदाय व धर्म के ऐतिहासिक व मिथकीय देवी देवताओं और महापुरूषों के नाम अपने शिशुओं को देते आये हैं| जैन मतावलम्बियों के लिये आदरास्पद नाम सिद्धार्थ,वर्धमान, महावीर, यशोदा, त्रिशला, प्रियकारिणी ऋषभ, अजित, पारस, वैशाली आदि सनातन हिन्दुओं के लिये भी सामान्य रूप में नामकरण में प्रचलित हैं। उसी तरह बौद्ध जातक कथाओं से भी हिन्दू बालकों के नाम उद्धृत है हैं- जैसे महामाया, मायादेवी, गौतमी, शुद्धोधन, सिद्धार्थ, गौतम, आनंद, राहुल, यशोधरा, का नंदकुमार, सत्य और अहिंसा केवल जैन और बौद्ध के लिये नहीं हिन्दुओं में भी उतने ही ग्राह्‌य नाम हैं।

हिन्दुओं में प्रचलित नाम थोड़े से उच्चारण परिवर्तन के साथ सिख नाम हो जाते हैं| चन्द्र  चंदर हो जाता है चन्दरसिंह होकर बालक और चन्दरकौर बनकर बलिका का नामकरण करता हैं| योगेन्द्र, जोगिन्दर बन जाता हैं| मुल्कराज, मेहर, मन्नत, बलबीर जैसे नाम मुख्य धारा के सामान्य नामों में प्रचलित रहे हैं| हिन्दू नामों का संस्कृतिक संस्करण सतत प्रवाहमान हैं|

धर्मान्तरण के बाद नाम परिवर्तन कर दिया जाता हैं, लाजवंती – लाजो या पुरों के एक हाथ पर हमीदा गुदवा दिया जाता हैं| अनुराधा फिजा हो जाती हैं | शर्मिला इस्लामी नाम आयशा लेकर ही निकाह कबूल करती है या श्री शरद जोशी के साथ इरफाना, इरफाना ही बनी रहती है।

धर्मातरण के बाद ईसाई लोग भी ईसाई नाम और उपनाम रखते हैं | कुछ भारतीय ईसाईयों में यह प्रवृत्ति पनप रही है कि वे अपने जड़मूल से भी जुड़े रहना चाहते हैं | वे प्रथम नाम तो परम्परागत नामों से चयन करते हैं और उपनाम ईसाईमत को व्यक्त करता हुआ धारण करते हैं| मुझे याद है अपनी सहकर्मी शिक्षिकायें – उषा विलियम, नलिनी जेम्स, हेम नलिनी बाल्टर्स और शिक्षक शांतिलाल सालोमन, लीलाधर फांसिस भी | सुनीता विलियम नाम अंतरिक्ष में पहुंच गया | कुछ ऐसे ईसाईजन भी दृष्टान्त रूप में सम्पर्क में आये जिन्होंने अपने प्रथम नाम और अंतिम नाम .सरनेम अपनी भारतीय परम्परा से ही ग्रहण किये हैं। कांग्रेस के मुखर नेता अजीत जोगी से तो आप भली भांति परिचित हैं। हमारा ड्रायवर ईसाई था। नाम उसका था रामनारायण सोलंकी | हमारी परिचित शिक्षिका थी सरला राय, भौतिक शास्त्र की व्याख्याता कोकिला पाल, लेखिका उषा कोल्हटकर ने ईसाईमत ग्रहण करने के बाद भी अपने भारतीय मूल से अपने को दृढ़ता से जोड़े रखा अपने नाम और उपनाम से | विवाह के बाद वधू का नाम बदलने की रस्म होती है| मनु या छबीली को लक्ष्मीबाई नाम दिया यह इतिहास प्रसिद्ध उदाहरण है। सन्यास ग्रहण करने पर मूलशंकर दयानंद हो जाते हैं और नरेन्द्र विवेकानंद |

भारत में जन्म के साथ ही शिशु को नाम नहीं मिलता है | कानूनन यह अनिवार्य भी नहीं है। सुविधानुसार नाम चयन करते रहते हैं। इस बीच शिशु को दुलारे/ प्यारे ‘निकनेम / पेट नेम’ से पुकारते हैं पुचकारते रहते हैं- पप्पू, बब्बू, मुनिया, गुड़िया, भूरिया, कालिया, छोटू, मोटू, गोलू, बबलू, चिंटू, मिंटू, झबली, बबली, आदि | कुछ विशेष प्रकरण में निकनेम चालू रह कर विकल्प नाम बन जाते हैं। कैलाश कुण्डल, पप्पू कुण्डल से ही पहचाना जाता है उम्र के सातवें दशक में भी। बचपन के पुकारू नाम परिवार के उपनाम की तरह संस्थापित हो जाते हैं जैसे – ‘“बच्चन’ |

कई बार तो मध्य नाम (सरनेम) उपनाम बन जाते हैं – किशोर, कुमार, दास, राय, लाल, प्रसाद |

माता-पिता चाहते हैं कि उनका शिशु वह जीवन जिये जो उनके जीवन से बेहतर हो। शिशु के लिये माता-पिता की महत्वकांक्षा नाम के माध्यम से प्रकट होती है। वे अपने बालकों के नाम रखते हैं राजेन्द्र, वैभव, श्रीपति, लक्ष्मीपति, तहसीलदार, सूबेदार, राजकुमार, रानी, राजकुमारी, राजेश्वरी, राजरानी |

यथा नाम तथा गुण या रूप वाले व्यक्ति बहुत कम मिलते हैं। ‘नाम बड़े दर्शन खोटे’ मुहावरे को सार्थक करते नामधारी अनेक होते हैं| बेहत बदसूरत को नाम दिया रूपचंद, रूपराम, रूपकुंवर, रूपमती, क्योंकि अपना बच्चा ही तो सबसे खूबसूरत लगता हैं माता पिता को | कोयले जैसे काली कन्या को नाम  – उज्ज्वला, शुभ्रा, श्वेता| आँख से अंधा नाम नयनसुख | निरक्षर भट्टाचार्य नाम विद्याधर, नहाना न धोना, नाम गंगाधर, नाम शांता है जो हमेशा मचाती रहती है दंगा | नाम मफतलाल है उसके नाम के शेयर बिकते हैं| श्रीनिवास फुटपाथ पर सोता हैं| नाम हैं प्रशांत – क्रोध करने में दुर्वासा | बेहतर डरपोक हैं पर नाम रखा हैं निर्भय, अभय, अमया | अत्यधिक उद्दंड है नाम हैं विनीत, विनम्र, विनीता, सुभाष के मुंह से हमेशा कटुवचन झरते रहते हैं|

हमने अपने पुत्र के जन्मराशी नाम ‘डेमलाल’ को न कभी उच्चारा न इस राशि को उसके विवाह में गुण मिलान के लिये उपयोग में लिया। जबकि तथाकथित ज्योतिषियों ने लोगों के दिमाग में ठूस दिया है कि जन्म समय के नक्षत्र चरण के अनुसार नामकरण किये गए नाम से ही गुण मिलान करना चाहिये।

मनुष्य को समाज में अनेक व्यक्तियों से सम्पर्क करना है, व्यवहार करना है, अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी है। इन सब कार्यों व व्यवहारों के लिये नाम की आवश्यकता है – क्योंकि रूप तो केवल व्यक्ति सत्य होता है किन्तु नाम व्यवहार सत्य होता है। बिना नाम के समाज में व्यवहार कैसे हो सकता है ? इसे समाज ने स्वीकारा अनुभव किया | व्यवहार के लिये शिशु को एक नाम देने की आवश्यकता होती है| इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिये नामकरण सम्पन्न किया जाता है। हमारे प्राचीन ऋषियों मनीषियों ने इसे सोलह संस्कारों में सम्मिलित किया था | यह भारत देश का दुर्भाग्य हैं कि वर्तमान में हम केवल परम्परा के निर्वाह मात्र विवाह और अन्त्यष्टि संस्कार अनिवार्य रूप से कर लेते हैं | उसमें भी केवल बाह्य प्रदर्शन आडम्बर की ओर अधिक ध्यान रहता है। संस्कारों के महत्व को जानने की समझने की, लालसा जिज्ञासा बिल्कुल नहीं होती |

नामकरण संस्कार द्वारा शिशु को उसका नाम दिया जाता है| पंडित या कुलगुरु नाम का पहिला अक्षर जन्मपत्री के आधार पर सुझाते हैं | प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान समय तक ज्योतिष शास्त्र द्वारा निर्धारित अठठाईस नक्षत्र और बारह राशियां हीं नामकरण के मूल हैं| प्रत्येक नक्षत्र में चार चरण होते हैं और नक्षत्र के अनुसार निर्धारित वर्ण ही नाम का पहिला अक्षर होता हैं | नक्षत्र के आधार पर नामकरण करने पर अनेक हास्यास्पद निरर्थक और भौंडे नाम अस्तित्व में आ जाते हैं| ढालूराम, कालूराम, डालुराम, लादूराम, ढेलाचंद जैसे | पता नहीं किसने राशि अक्षर पर नाम रखने की व्यर्थ की परंपरा रखी| मेरे पुत्र का जन्म अश्लेशा नक्षत्र के तीसरे चरण में हुआ| ज्योतिषाचार्य शास्त्री पंडित ने जन्म पत्रिका में उसका नाम लिखा हैं – ‘डेमलाल’| अटपटा निरर्थक हास्यास्पद नाम| विवाह के लिए, शुभकार्यो के लिए जन्म राशि के नाम को प्रधानता दी जाती है और व्यवहार के लिए पुकारते नाम को प्रधानता दी जाती है| यह विधान भी राशि चक्र में फसे लोगो के समाधान के लिए ज्योतिषियों ने कर रखा हैं |

हमने अपने पुत्र के जन्मराशी नाम ‘डेमलाल’ को न कभी उच्चारा न इस राशि को उसके विवाह में गुण मिलान के लिये उपयोग में लिया। जबकि तथाकथित ज्योतिषियों ने लोगों के दिमाग में ठूस दिया है कि जन्म समय के नक्षत्र चरण के अनुसार नामकरण किये गए नाम से ही गुण मिलान करना चाहिये।

आजकल ज्योतिषियों ने अंक ज्योतिष के नाम पर एक नया ढर्रा चला दिया है कि कुंडली उपलब्ध न होने पर अंक शास्त्र की मदद से वर-वधू दोनों के नामांक ज्ञात कर गुण मिलान का परिणाम बताया जा सकता है | नामांक निकालने के लिये हिन्दी नाम को देवनागरी में न लिखकर उसका रोमन लिपि में ट्रांसलिटरेशन / लिप्यन्तरण करा जाता है। रोमन लिपि में प्रत्येक वर्ण का एक निश्चित मूल्य या अंक होता है। मेरी जानकारी में देवनागरी वर्णमाला में वर्णों का कोई अंक निर्धारित नहीं किया गया है। अंग्रेजी में लिखे नाम के वर्णों के अंकों के योगफल को नामांक कहते हैं। नामांक की एक निश्चित संख्यात्मक मूल्य / न्यूमरीकल वेल्यू होती है जिसका एक निश्चित अर्थ होता है। मतलब कि नाम शुभ है या अशुभ | भविष्य कैसा रहेगा? वर-वधू के नामांक निकालकर गुण मिलान का परिणाम बताया जाता है कि विवाह सफल होगा या नहीं |

अंग्रेजी पढे लिखे – शिक्षित लोगों का यह अंधविश्वास है कि नाम व्यक्ति के भाग्य को बदल सकता है। लोग शिशु का नाम पसन्द कर लेते हैं| फिर नाम की “व्हेल्यू’ निकालते हैं यदि वह भाग्यशाली या शुभ हो तो वह नाम रख लेते हैं नहीं तो दूसरी “लकी’ संख्या वाला नाम ढूंढते हैं ।

कुछ पालक ऐसे भी होते हैं जो अपने बालक का नाम निश्चित कर रख लेते हैं। कुछ समय बाद वे उसका नामांक ज्ञात करते हैं। पाते हैं कि नामांक पर्याप्त शुभ नहीं है। किन्हीं अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण वे बालक का नाम परिवर्तन नहीं कर सकते | तब वे उसी नाम के अंग्रेजी लिप्यान्तरण में एक या दो अक्षरों का परिवर्तन कर उस नाम को “’लकी’ बना लेते हैं। हिन्दी नाम का सही उच्चारण और अर्थ ऐसे अंग्रेजी पसन्द लोगों के लिये व्यर्थ होता है।

नाम की वर्तनी (स्पेलिंग) के साथ छेड़छाड़ कर नाम को शुभ नामांक में बदलने से क्या सचमुच में जीवन शुभ हो जाता है ? यदि ऐसा होता तो संसार में कहीं भी कभी भी किसी के साथ अशुभ नहीं होता। नाम की वर्तनी बदलने से नहीं, बालक के साथ नामानुसार व्यवहार करके नाम को सार्थक किया जानी चाहिये, जीवन उच्च बनाने की प्रेरणा देनी चाहिये | उत्तम कर्म ही नाम को यशस्वी और शुभ बनाते है।

नारद ऋषि ने बताया है – ‘नाम पूर्व प्रशस्तं स्यान्मंगलैः शुभमीक्षता’  अच्छे मांगलिक अक्षरों से नाम शुभ होता है। प्रशस्तं खलु नाम कर्म – नामकरण प्रशस्त प्रशंसनीय कार्य है। हमारे स्मृति ग्रंथों और गृहय सूत्रों में बालक तथा बालिकाओं के निर्देशित किये गये हैं| वर्तमान में इन नियमों  का पालन सुविधा और इच्छा के अनुसार  कुछ अंशो में ही किया जा रहा हैं|

महर्षि दयानंद द्वारा निर्दिष्ट विधि के अनु नामकरण संस्कार बालक उत्पन्न होने के बाद सुविधानुसार 11 वें, 404 वें या बालक के जन्मदिन पर एक वर्ष पश्चात करना चाहिए| वैसे ‘संस्कार विधि’ मनुस्मृति से अनुप्राणित हैं |

आश्वालयन और पारस्कर गृहय सूत्रों में समानता है – दशवें दिन पिता नामकरण संस्कार कराता है। बालक का नाम दो अक्षर का या चार अक्षर का हो और वह घोष संज्ञक अर्थात्‌ पांचों वर्गों के दो दो अक्षर छोड़ कर तीसरे चौथे, पांचवे अक्षर -ग,घ, ड, ज,झ, ड ढ ण, द, ध, न, ब, भ, म, ये स्पर्श और अन्तस्थ अर्थात्‌ य, र, ल, व, से युक्त दीर्घ स्वरान्त नाम रखें | और नाम कृदन्त रखे तद्धितान्त नहीं । विषमाक्षर और आकारान्त नाम स्त्रियों के होने चाहिये |

मनुस्मृति में दूसरे अध्याय के छठे और सातवे श्लोक में वर्णानुसार नामकरण अर्थात्‌ वर्ण सापेक्ष गुणों और वर्णगत कार्यों के आधार पर बालकों के नामकरण करने का विधान है।

ब्राहमण के नाम – शिवकुमार, धर्मदत्त, क्षत्रिय के नाम महीपाल, नरेश, वैश्य के नाम धनेश, धनपाल, लक्ष्मीधर और शूद्र के नाम चरणदास, रामसेवक, जैसे शब्दों में रखना चाहिये।

मनुस्मृति में स्त्रियों के नामकरण की विधि उसी अध्याय के आठवें श्लोक में बताई है।

स्त्रीणाम्‌ सुखोद्यमक्रं, विस्पष्टार्थ मनोहरम्‌ |

मंगल्यं दीर्घ वर्णान्‍्तमाशीर्वादामिधानवत्‌ |

स्त्रियों का नाम उच्चारण किया जा सकने वाला, कोमल वर्णों वाला, स्पस्ट अर्थ वाला, आकर्षक लग लगने वाला. शुभ भाव युक्‍त, अन्त में दीर्घ अक्षर वाला तथा आशीर्वाद का वाचक होना चाहिए | ‘संस्कार विधि’ में दयानंद सरस्वती ने लिखा हैं – जो स्त्री हो तो एक तीन या पांच अक्षर का नाम रखे – श्री, यशोदा, सुखदा, सौभाग्यप्रदा इत्यादि |

आश्वलायन ग्रहय सूत्र कहता हैं – अयुजानी स्त्रीणाम, पारस्कर ग्रहय सूत्र भी कहता हैं – अयुजाक्षरम आकारान्तं स्त्रियै ।

मनुस्मृति के तीसरे अध्याय में नवे श्लोक में विवाह प्रकरण में त्याज्य कन्याओं के नामों के बारे में बताया गया हैं |

नर्क्ष वृक्ष नदी नाम्नीं नांत्यपर्वत नामिकाम्‌।

न पक्ष्यहि प्रेष्य नाम्नीं न च भीषण नामिकाम्‌ ||

नक्षत्र, वृक्ष, नदी के नाम वाली पर्वत के नाम वाली, पक्षी सर्प और प्रेष्य नाम वाली, तथा भीषण नाम वाली कन्यायें विवाह के लिये त्याज्य हैं इनके साथ विवाह न करें।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ‘सत्यार्थ प्रकाश” और ‘संस्कार विधिः में मनु के इस विधान का ही समर्थन करते हैं | सत्यार्थ प्रकाश में वे लिखते हैं-

‘न ऋक्ष अर्थात्‌ अश्विनी, भरणी, रोहिणी, रेवती, चित्तारि आदि नक्षत्र नाम वाली, तुलसी, गेंदा, गुलाबा, चंपा, चमेली आदि वृक्ष नाम वाली, गंगा, जमुना, आदि नदी नाम वाली चांडाली आदि अन्तय नाम वाली, विन्ध्या, हिमालया, पार्वती, आदि पर्वत नाम वाली, माधोदासी, मीरादासी, आदि प्रेष्य नाम वाली कन्या के साथ विवाह न करना चाहिये क्योंकि ये नाम कृत्सित तथा अन्य पदार्थों के भी हैं।’ आश्चर्य होता है, समझ से परे है कि दयानंद सरस्वती जैसे तर्क निष्ठ व्यक्ति ने ऐसे नामों को ‘कुत्सित’ नाम क्योंकर माना ? विवाह में वर वधू के नामों का महत्व होता है – मनु ने विवाह के लिये त्याज्य पुरूष नामों का कोई विधान क्‍यों नहीं रचा ?

आगे मनुस्मृति के तीसरे अध्याय के 40वें श्लोक में विवाह योग्य कन्या के बारे में लिखा है

अव्यंगीं सौम्यनाम्नीं हंसवारणगामिनीं |

तनुलोमकेशदशनां मृद्दडगीमुद्वहेत्स्त्रियम्‌ |

इसी श्लोक को सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में उद्घृत करते हुए ऋषि दयानंद लिखते हैं -जिसके अंग सरल सूघधे हों, विरूद्ध न हों,जिसका नाम सुन्दर, अर्थात्‌ यशोदा, सुखदा, आदि हो हंस और हथनी के तुल्य जिसकी चाल हो, सूक्ष्म लोम, केश और दांत युक्त और जिसके सब अंग कोमल हों, वैसी कन्या के साथ विवाह करना चाहिये।

मनुस्मृति की सौम्य नाम्नी कन्यायें. ऋषि दयानंद की यशोदा, सुखदा आदि नाम वाली कन्यायें ही हो सकती हैं | रोहिणी, गंगा, पार्वती, चम्पा, चमेली जैसे कुत्सित नाम वाली कन्यायें विवाह के लिये त्याज्य हैं ।

लोगों ने न तो मनु को माना न दयानंद सरस्वती को। वे जल थल नभ याने प्रकृति के भण्डार से चुन चुन कर अपनी बालिकाओं का नामकरण करते रहे हैं, विवाह करके ससुराल के लिये विदा करते रहे हैं।

आज किसी स्मृति या गृहय सूत्र के विधान को पालन करने की अनिवार्यता नहीं है | बस अपनी रूचि और विवेक के अनुसार अपने बालक का सार्थक, सुगम, सुबोध, श्रुति मधुर नाम चयन करना है।

ऐसे नाम नहीं चाहिये कि बड़े होने पर व्यक्ति अपना पूरा नाम लिखने या बताने में संकोच करे। छेदीलाल को अपने को सी.लाल लिखते, चौधरीराम आहूजा अपने हस्ताक्षर सी.आर. आहूजा लिखते और नाम में भी सी.आर. आहूजा। लोग भी उन्हे सी. आर. कह कर बोलते ।

घसीटाराम, छितरमल, कनछेदी, तिनकौड़ी आदि नाम टोटके के अनुसार रखे जाते थे | एक खास तबके में शैतानमल नाम बहुत पाया जाता है – न जाने क्यों ?

बालिका के लिये ‘सुलभा’ नाम सुन्दर सार्थक सौम्य नाम है पर बालक के लिये ‘सुलभ’ नाम सुन्दर, सार्थक, सौम्य होते हुए भी उपयुक्त नहीं है। बालक को उसके साथी सुलभ शौचालय कहकर चिढ़ा सकते हैं। ‘रक्षित’ नाम बालक को दिया जा सकता है लेकिन बालिका को रक्षिता’ नाम नहीं । क्योंकि ‘रक्षिता’ का रूढ़ अर्थ ‘रखैल’ हो गया है।

बालिका का नाम ‘किन्नरी’ हो सकता है पर बालक को किन्नर नाम देना ठीक नहीं | किन्नर शब्द हिजड़े व्यक्ति के लिये रूढ़ हो गया है।

बालक के जन्म समय की दुर्घटना के आधार पर नामकरण करना उचित नहीं । एक नेताजी जब मीसा में जेल में बन्द थे उनके यहां कन्या ने जन्म दिया । उन्होंने उस कन्या का नाम रखा ‘मीसा’ | इसी तरह पिता जेल में बंद है तो लड़का होने पर उसको नाम दे दो जेलसिंह, जेलकुमार |

बालिका के नाम बब्बी, चुम्मा, पप्पी नहीं रखना चाहिये | युवती होने पर लड़के इन नामों का साथ ले उसे छेड़ सकते हैं – जैसे चुम्मा चुम्मा दे दे।

निरर्थक नाम नहीं रखना चाहिये, बदनाम नाम नहीं रखना चाहिये। वर्तमान में लड़के लड़कियों के नाम के लिये वर्ण संख्या की कोई सख्ती नहीं है। फिर भी उचितहोगा कि नाम सादा, सरल और छोटा हो | नाम में ऐसे वर्ण आयें जिनका उच्चारण सरल हो । वार्घ्न,, (अर्जुन का नाम) शुश्रूषक ,(सेवक) जैसे संयुक्त वर्ण वाले क्लिष्ट नामों का उच्चारण भ्रष्ट होकर हास्यास्पद हो सकता है। सामान्य रूप से माता पिता चाहते हैं कि उनके शिशु का नाम बहुतायत से प्रचलित सामान्य नामों से कुछ हटकर निराला हो। युनिक हो। यह निरालेपन की सनक निरर्थक नामों की बाढ़ ला रही है। भारतीय या हिन्दू नामों की कई पुस्तकों में नामों को रोमन लिपि में लिखा गया है। परिशुद्ध स्वानिकी या ध्वन्यात्मकता का जहां तक प्रश्न है रोमन लिपि उच्चारण की दृष्टि से मजाकिया या हास्यजनक लिपियों में से एक है । एक लेखिका ने रोमन लिपि में लिखे नामों को देवनागरी में भी लिखा यह दर्शाते हुए कि शुद्ध उच्चारण देवनागरी में ही हो सकते हैं| उन्होंने हिन्दी नामों को देवनागरी लिपि में और ज्यादा अटपटे वर्णों में लिख दिया है उदाहरण उसी. पुस्तिका से

Vasavaj(m)- Son Of Indra – वस्वाज

Viksah (f) – knowledge, intelligent – विक्साह

Kanyal (f) – girl – कन्याल

Hemish (m) – Lord of the Earth – हेमिष

पुस्तक 90 प्रतिशत से अधिक ऐसी ही रची गई है | पुस्तक के अनेक संस्करण छप गए और देश विदेश में बालक- बालिकाओं को निराले ‘युनिक’ नाम दिये जा रहे हैं। ऐसी कई पुस्तकें बाजार में आ गई हैं | जिनमें नाम तो पहिले रोमन लिपि में लिखे हैं पर सही उच्चारण के लिये ध्वन्यात्मक वर्तनी चिन्हों का प्रयोग नहीं किया है | लेखिका ने अंग्रेजी अक्षरों का सामान्य रूप से हिन्दी उच्चारण करते हुए देवनागरी में नाम लिख दिया है | ऐसे नामकरण प्रशंसनीय नहीं हैं।

अपने सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़े हुए भारत के वासी और प्रवासीजन जिन्होंने अपने बालकों को सुन्दर सौम्य सार्थक नाम दिये हैं अनुकरणीय और प्रशंसनीय पालक है। उनके बालकों के लिये यही आशीर्वाद उचित है – है बालकः (नाम) त्वमायुष्मान्‌ वर्चस्वी, तेजस्वी, प्रतापी, पुरूषार्थी, परोपकारी, श्रीमान, सुनामा भूया: |

इसी आशीर्वाद की पात्रा बालिकाऐं भी हैं।

हे बालिके (नाम) त्वमायुष्मती, वर्चस्विनी, तेजस्विनी, धर्मशीला, पुरूषार्थिनी,

प्रतापी, परोपकारिणी, श्रीमती, सुनाम्नीभूया: |

 – त्रिवेणी पौराणिक


‘नामायन’ की प्रकाशन पूर्व सराहना

बच्चे के नाम के पीछे जो सांस्कृतिक, सार्थक संदर्भ होना चाहिये, वह अक्सर नज़र-अंदाज कर दिया जाता है।

श्रीमती त्रिवेणी पौराणिक ने इस छोटी सी किताब “नामायन’ में दस हजार से अधिक नाम सुझाए हैं। न केवल सुझाए हैं, उन के पीछे जो वांछनीय सामाजिक अर्थ हैं, वे भी बताए हैं। मेरी राय में यह किताब शादी के तोहफे के तौर पर हर दम्पती को भेंट की जानी चाहिये।

– अरविंद कुमार


“नामायन’ नामक यह पुस्तक व्यावहारिक दृष्टि से बहुत उपयोगी तो है ही, अपने आप में बहुत रोचक भी है। इसका शीर्षक “नामायन’ ही यह बताता है कि लेखक-त्रय की प्रतिभा की उड़ान कितनी उंची है।

इस पुस्तक की प्रस्तावना तो अद्भुत है | गागर में सागर भर दिया है | लेखकों ने जो तर्कसंगत और सारगर्भित बात है, उसी को माना है। इस पुस्तक की लेखकीय प्रस्तावना पढ़कर पाठकों को वह दृष्टि मिलेगी, जो हर माता-पिता के पास अपने शिशुओं का नाम करते समय होनी चाहिये |

                                                            – वेदप्रताप वैदिक


त्रिवेणीजी की इस पुस्तक ने बहुत सी खोज आसान कर दी है। यही नहीं पुस्तक में विकल्पों की भरमार है। इस पुस्तक की सारगर्भिता से मैं विशेष रूप से प्रभावित हूँ। जीवन का ऐसा कोई पहलू नहीं है जो त्रिवेणी जी से छूटा हो | बहुत ध्यान, लगन और परिश्रम से संचित की गई सामग्री आपके सामने है। हर प्रकार के लोगों की सोच, मापदंड और अवधारणाओं का ख्याल रखा गया है।

                                                      – प्रो.डॉ. अन्विता अब्बी


नामायन पुस्तक से लिया गया एक अंश चित्र:

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