Date 14 September 1995 morning
इस यात्रा में अभी तक कोई रोटरी मीटिंग में भाग नहीं ले पाया परन्तु Friendship carvings मित्रता विनिमय के दो उदाहरण पूरे हुए। मेलबोर्न में डॉ. ऐलप फ्रायडे व कैंर्स में अब्दुल मोहम्मद के घर ठहरना मिला – भरपूर आतिथ्य के साथ।
1987 में GSE की अमेरिका की यादें कुछ हद तक पुन: दोहराई गई। अपने डिस्ट्रिक्ट गवर्नर कमल भुराडिया द्वारा चार आस्ट्रेलियन गवर्नर को पत्र भिजवाये थे /(मैंने स्वयं सिडनी आकर पोस्ट किये थे) बस उसी के आधार पर अच्छी स्थानीय व्यवस्था हो गई। प्रश्न पैसों का नहीं है। अधिक महत्वपूर्ण है मित्रता व साहचर्य। जो सुविधाएं, स्नेह रोटेरिपन घरों में मिलता है उसकी कीमत नहीं आंकी जा सकती। पूरा घर हमारे लिये खुला रहता। चाहे जो खाओ, पीयो, पकाओ। घूमते जाते समय हमें छोड़ने व लेगे आना, चाहे रात्रि को 11.30 बजी हो। शहर में आसपास दूर तक ड्राइव पर ले जाना। दोनों व्यक्तियों के बारे में विस्तार से बाद में बताऊंगा। ढेर सारी बाचतीत होती रहती थी।
मेलबोर्न सिडनी से कुछ छोटा है। परन्तु शायद अधिक सुन्दर। खूब चौड़ी सड़के, वृक्षों की कतारें, बड़े-बड़े बगीचे। एक दोपहर व शाम फिलिप द्वीप गये। रास्ते में कंगारु, कोआला, वामटेब आदि देखे – सिर्फ आस्ट्रेलिया में पाए जाने वाले प्राणी। शाम को ठिठुरत हुए समुद्र किनारे बैठ गए। भला हो एलन का जिसने हमें ढेर सारे गरम कपड़े निकाल कर दे दिये थे। शाम को 6 बजे अंधेरा हो गया था। सागर स्याह हो गया था। कुछ सीगल पक्षी मंडरा रहे थे। लहरों का सफेद झाग व शोर सदैव की भांति मौजूद थे। लगभग दो-तीन हजार सैलानी दम साधे बैठे हुए थे। एक परेड देखने के लिये। 6:30 का समय घोषित था। परन्तु कोई बिगुल या बैण्ड नहीं। नजरें सागर तट पर गड़ी-मुड़ी और लो देखो। वे निकल आये। अवतरित हुए पानी के भीतर से। नन्हें पेंग्विन्स। हाँ पहली बार पेंग्विन्स देखे। वहीं Antarctica वाले या Kelvinator वाले। परन्तु स्पीशीज दुसरे थी। अत्यन्त छोटे आकार के। ऊँचाई 30 इंच। पहले एक दो, फिर तीन-चार। कुल दस-बारह के समूह में। फिर दूसरा समूह, तीसरा समूह। शरीर से पानी झटकारते। सहमते। खड़े रहते। फिर डगमग-डगमग नन्हें कदमों में, वन-टू, वन-टू की शैली में परेड की माफिक बढ़ चले किनारे की और। अर्थात् हमारी ओर। फ्लड लाइट के प्रकाश में साफ दिख रहा था। परन्तु फ्लैश फोटोग्राफी वर्जित थी। अगले एक घण्टे तक पेंग्विंस बढ़ते रहे – रेत के टूहों व घास के मध्य उनके बिलों की तरफ जहां वे रात गुजारेंगे। सुबह फिर समुद्र की ओर। दिन भर पानी में डूबते-तैरते रहेंगे, मछलियां खाएंगे। नायाब नजारा था।
ऐसी ही एक मायावी दूनिया कैंर्स में देखी। द ग्रेट बेरियर रीफ। किशोरावस्था में मूंगे का द्वीप या Coral Island नामक लघु उपन्यास पढ़ा था। स्कूल में भूगोल के Reef के बारे में जाना था। प्रत्यक्ष दर्शन अदभुत है। कैंर्स उतरने से पूर्व वायुयान से ही, सागर तट से दूरी पर नीले जल के मध्य सुनहरी, हरी (मुंगिया) आभा लिये रुपाकार दिखने लगे थे। पानी से डूबे हुए। छोटे द्वीपों के समान। बड़ी नौकाओं में बैठकर वहां तक गये। ग्रीन आईलैण्ड सचमुच ही मूंगे का द्वीप है। पूरी परिधि आधे घण्टे में घूमी। बीच में घना जंगल – Tropical Rain-forest ।
एक गाइड ने न जाने कितने प्रकार के फल, वृक्ष, पक्षी, छिपकलियां महज आधे घण्टे में बता दिये। फिर हमारी बोट बाहरी Reef की और गई। समुद्र में पहली बार 70 km भीतर गये। हल्की Sea-Sickness महसूस करी। रीफ हजारों मील लम्बी है। हमने 200-300 मीटर के दर्शन किये। अर्थ-पनडुब्बी में बैठकर। ऐसा हमने पहले कभी न देखा था। इतनी सुंदर डिजाइने, इतने रंग, इतने Texture – पानी बेघती सूरज की किरणों की आभा और मछलियां ही मछलियां। छोटी-बड़ी। उत्तेजना में बार-बार वाह-वाह निकलता रहा।
प्रकृति में कितनी विविधता है। मन करता था कि निहारते रहें। जिन्हें तैरना आता था उनके लिये Snorkeling व गोताखोरी की व्यवस्था थी। ऊपरी डेक पर खूब तेज ठण्डी हवा थी। चुबती हुई। गोली फरफराती हुई। कानों को शोर से भरती। बात करना मुश्किल। धेपेड़े लगते। सांस लेना मुश्किल। ज्यादा देर खड़े न रह पाते। रेलिंग पकड़ चलते। वरना लगता हवा उड़ा ले जावेगी। नार्वे का ठण्डा अनवरता निहारने का मन होता। आँखों में बसा लेने की चाहत होती। आकाश के रंग बदलते रहे। बिना बादल का आकाश नार्वे में कभी न देखा। श्रेष्ठतम मौसम में भी रुई के फाहों या गोलों से बादल छितरे रहते और धूप-छांव की आंखमिचौली चलती रहे। लगातार घण्टों सूरज दमकता रहे, ऐसा यहां नहीं होता। आकाश के रंगो का बदलना अपने आप में एक सुन्दर अनुभव था। तभी गह गये। तेज बारिश हुई। बूंदे तीखे छोटे तीरों के समान चुभी। लहरें ऊंची उठी। जहाज ने हिचकोले अधिक लिये। सबकुछ स्याह हो गया। Fjord पहाड़, बोट सबकी रहस्यमयता बढ़ गई। दूरिया अधिक प्रतीत होने लगी। अनजाना अकेलापन घेरने लगा। परन्तु आधे घण्टे में फिर धूप निकली।
रात्रि आठ बजे बर्गेन पहुंचे। काफी दूर से छोटी बस्तियां, उपनगर, अनगिनित द्वीप, अनगिनत किनारे हैं, अनगिनत नावें और इनके प्लेटफार्म। शाम की पीली धूप 8 से 10 बजे तक रहती है। 12 घण्टे के दिन को खींच कर 20 घण्टे का कर दिया जाता है। इसलिये सूरज धीमी गति से चलता है। Slow motion movie के समान। शाम की सुनहरी आभा जो हमारे मुँह से वाह निकलती है, हमें अपने कमरे से बाहर आने को मजबूर करती है, अपने यहाँ मुश्किल के 20-30 मिनिट रह कर रात के अंधकार में धूप जाती है वही हसीन शाम यहां बर्गन के आकाश, पहाड़ियां, फियोर्ड, मकानों पर बस टंग कर रह गयी थी। जी भर के देखो। तकते रहे। निहारते रहे। छक के पियो। 10 बजे सूरज डूबता है। उसके बाद भी एक घण्टा या बेढ़ घण्टा शाम का सुहाना उजाला भोगा जा सकता है। ऐसी शाम हम अनजान शहर में उतरे। पूरी तरह अपने आप के सहारे।
एक दो जगह पूछते-पूछते पर्यटक सूचना केन्द्र पहुँचे। भीड़ थी। स्टॉफ पूरी मेहनत में सबको संतुष्ट करने की कोशिश में ढेर सारी सामग्री पर्यटन पर मुफ्त वितरित। अच्छे से पढ़ो। अपनी योजनाएं बनाओ। हमने कहा, सस्ता स्थान चाहिये, रहने को, जहाँ किचन की सुविधा हो, शहर के मध्य हो। स्टॉफ ने दो जगह फोन लगाए। थोड़ी दूर एक निजी घर में कमरा खाली था। मार्ग का तरीका समझाया। किराया वसूल कर लिया। घर ढूंढने में देर लगी। बारिश शुरु हो गई ठंड बढ़ गई। घर खाली था। सुनसान था। सुसज्जित था। थोड़ा डर लगा। फिर आरामदायक गरम बिस्तर में सो गये।
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