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डॉ. हरिवंशराय बच्चन : जीवन और कृतित्व


डॉ हरिवंश राय बच्चन एक हीरे के समान थे। हीरे के अनेक फलक होते हैं। अनेक मुख या चेहरे या सतहे होती है। प्रत्येक फलक की अपनी आभा होती है। बच्चन जी की प्रतिभा के बहुतेरे रूप थे। प्रत्येक पहलू श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर। वे सचमुच सरस्वती पुत्र थे। वैसे सांसारिक जीवन में उनकी मां का नाम भी सरस्वती था। सरस्वती उनकी जिह्वा पर विराजती थी, लेखनी पर अवतरित थी, मेघा में अन्तर्निहित थी।

आप लोग उन्हें मधुशाला के कवि के रूप में जानते हैं। वे निसंदेह एक महान गीतकार थे। लेकिन वे इससे कहीं अधिक, बहुत कुछ थे। उनका गद्य लेखन उच्च कोटि का था।  विशेषकर उनकी आत्मकथा (चार खंडों) में उन्हें गद्य में भी वही ऊंचा मान प्रदान करती है जो पहले उनके गीत काव्य ने किया था। हरिवंश राय बच्चन एक अच्छे लोकप्रिय वह मेहनती अध्यापक थे। जब-जब कर्तव्य का प्रश्न उठा उन्होंने अपने कवि को अपने शिक्षक पर हावी ना होने दिया। बच्चन जी डॉक्टर कहलाए जब उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि डब्ल्यूबी यीट्स के साहित्य के एक खास पक्ष पर शोध प्रबंध लिखा। यह शोध ऊंचे दर्जे का तथा मौलिक था। डॉक्टर बच्चन ने अनुवाद का काम भी बहुत किया और उसे पूरी ईमानदारी व लगन और निष्ठा दी। वे उन साहित्यकारों में से नाथे जो अनुवाद कार्य को नीची नजर से देखते हैं। यह अलग बात है कि अनुवादक को प्रायः प्रसिद्धि नहीं मिलती। बच्चन जी हिंदी भाषा के पुरजोर हिमायती थे। विदेश मंत्रालय व राज्यसभा के सदस्य के रूप में तथा शेष काल में भी उन्होंने हिंदी के लिए प्रशासनिक स्तर पर बहुत कुछ करने की कोशिश करी, हालाकी परिस्थितियों के आगे वे विवश थे ।

डॉ हरिवंश राय बच्चन की कलात्मक समझ साहित्य के अतिरिक्त कुछ हद तक रंगमंच, शिल्पकार्य, संगीत व चित्रकला में भी थी। बच्चन जी का मूल व्यक्तित्व बौद्धिक था।  वे स्वाध्याय के धनी थे। उनका पठन व ज्ञान भंडार विशाल था। वे विचारवां थे। अनेक निबंधों, लेखो, वार्ताओं, साक्षात्कारों और भाषणों में उनकी बौद्धिकता की झलक देखने को मिलती है। डॉक्टर बच्चन की रुचि आध्यात्मिकता में भी रही परंतु जीवन की सरसता का मोह सदैव अधिक प्रबल रहा। डॉ हरिवंश राय बच्चन की प्रतिभा की मानस यात्रा और उनकी दैनदिनी जीवन यात्रा में क्या तालमेल था? लेखक ने स्वयं यादों की गहराइयों में बैठकर, अत्यंत बेबाकी, सहजता, रोचकता व समझदारी के साथ दोनों का विस्तृत सजीव चित्रण लिख रखा है। उसे पढ़ना, उसमें डूब ना, उस देश काल में विचरण करना.  उन पात्रों की छवियां गढ़ना, समझाना, बूझना, गुड़ना – यह सब अत्यंत आनंदमई व मन को संतोष से भर देने वाला अनुभव है। बच्चन जी के जीवन के अनेक प्रसंग करुण हैं। संघर्ष व गर्दिश से भरे हैं। मनुष्य की अजेय जिजीविषा की यशोगाथा है। इंसान की कमजोरियों की ईमानदार स्वीकारोक्तियां है। भाग्य के खेल के अप्रत्याशित मोड हैं। नष्ट नीड़ को पुनः गढ़ने का माद्दा है। कुछ नया और बेहतर कर गुजरने के लिए बसेरे से दूर दीर्घ काल तपस्या करने की क्षमता है। अनेक घरों का फेरा है। आज यहां। कल वहां। लेकिन अपना स्वाध्याय और अपना लेखन सदा जारी है।

डॉ हरिवंश राय बच्चन प्रगतिशील थे, अपने वक्त से आगे थे। राष्ट्रवादी थे। अपने हिंदू धर्म पर उन्हें गर्व था और उसकी उदात्त परंपरा में पगे होने के नाते संकीर्णता और कट्टरता से दूर थे। असली संगम वासी होने के नाते वे देश की गंगा जमनी तहजीब के हिमायती थे। इंदौर और मालवा से उनका अच्छा पर्याप्त सम्बन्ध रहा।

बाबू जी, जैसा कि उनके बच्चे उन्हें कह कर पुकारते थे, एक पारिवारिक इंसान थे। एक अच्छे पति, पिता, दादा, नाना, पुत्र, भाई और मित्र के रूपों में उन्होंने एक सार्थक जीवन जिया इस लेख माला में इन्हीं रूपों को तथा लेखन के अंशों को संजोया गया है।

छोरा गंगा किनारे का मोहल्ले का लड़का पूर्वजों की कहानी संस्कारों की बानी

वह कैसा समय था जब हरिवंश राय का जन्म हुआ। 27 नवंबर 1907। अंग्रेजों का राज पूरे शबाब पर था। इलाहाबाद एक गांव नुमा शहर था।  कायस्थों की एक उपजाति हुआ करती थी जो अगोड़ा के पांडे कहलाते थी। बामनो सी इज्जत थी, और उन्हीं जैसे रीति रिवाज। उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में एक गांव था अमूढ़ा। वहां से बाद में फैलते गए। प्रतापगढ़ जिले के बाबू पट्टी गांव से प्रथम ज्ञात पूर्वज मनसा ने इलाहाबाद में डेरा डाला। चक मोहल्ला ठेठ देहाती था। पीढ़ी बाद पहला चरित्र उभरता है मिट्ठू लाल नायक साहब का जो हरिवंश राय के परदादा थे। दिलेर, जांबाज, दबंग, छः फूटे जवान। राजसी, व्यसनी, आनंदवादी। खूब कमाया और खर्च किया। 1857 के गदर के समय से अंग्रेजों की नौकरी में थे। ससुराल में सताई गई, अपनी परित्यक्ता बहन राधा को उन्होंने प्यार और सम्मान से घर पर रखा।

बच्चन जी ने लिखा है कि उनके सपनों और संस्कारों में परदादा नायब साहब मिट्ठू लाल की छाप जरूर रही है। लेखक 6 वर्ष तक यूनिवर्सिटी ट्रेनिंग कोर में रहा,  महा युद्ध के समय हथियार चलाने का प्रशिक्षण लिया ———

“मैं कलम और बंदूक चलाता हूं दोनों”

किसी वास्तविक युद्ध में बच्चन जी ने भाग नहीं लिया। लेकिन उनकी राष्ट्रवादीता, कायरता का विरोध, अभय अदम्य – अपराजेय रहने के प्रति आस्था, उन्हें फणीश्वर नाथ रेनू (नेपाल युद्ध) पाब्लो नेरुदा स्पेनिश ग्रह युद्ध जैसे द्विआयामी सिपाहियों के नजदीक ले जाकर खड़ा करती हैं।

विवश जीविकोपार्जन को मैं

हुआ न किस-किस पथ का राही

पर मेरा बस चलता तो मैं

होता कवि के साथ सिपाही।

परदादा के क्रांतिकारी व्यक्तित्व के नीचे बाबा दादा। भोलानाथ का व्यक्तित्व पूरी तरह उबर नहीं सका। उनका मन पढ़ने में अधिक था। फ़ारसी शायरी की दुनिया में डूबकर वे शांत, सुसंस्कृत और संयमित बन गए थे। संकोची थे पर दब्बू नहीं। अपने पिता की भांति उनके माथे भी एक अतिरिक्त बोझ आ पड़ा था। 

राधा बुआ की बेटी महारानी भी ससुराल से प्रताड़ित हो एक नन्हीं पुत्री के साथ घर लौट आई थी। उनका जीवन गरीबी में बीता। पिता का बनाया किले जैसा मकान टुकड़े-टुकड़े बिकता गया। साहित्य उनके लिए जिंदगी से पलायन था, रेत में मुंह दबाए रखने के समान। दादाजीवन के शिकार थे,  परदादा जीवन के शिकारी। बच्चन जी ने परदादा को बेहतर आदर्श स्वीकार किया है। दादा जी भोलानाथ को बाद में ललितपुर में जेलर की नौकरी मिली। वही रहते प्रताप नारायण का जन्म हुआ जो हरिवंश राय बच्चन के पिता थे। उसके 13 वर्ष बाद परिवार इलाहाबाद वापस लौट आया। दादा भोलानाथ की मृत्यु पुत्र प्रताप नारायण को ओलों की बरसात से बचाने में हुई। एक ढाल की तरह, खुले मैदान में उन्होंने बेटे को ढक लिया खुद लहूलुहान हो गए। चार 6 दिन बाद घायल अवस्था में चल बसे। दादी निर्भीक थी, व्यवहार बुद्धि वाली थी। मृत्यु भोज व संबंधित परंपराओं को धता बता दिया। खर्च करने को कुछ था नहीं। कर्ज लेने से मना कर दिया। बच्चन जी के मन में दादी के साहस के लिए सदा सम्मान रहा। दादा की दुर्बलता थी कि कठोर वास्तविकताओं के बीच में भावनाओं में बह जाते थे। दादी यथार्थ को परखकर फौरन भावनाओं से ऊपर उठ जाती थी। बच्चन जी मानते हैं कि जीवन की परिपूर्णता में कुछ शक्तियों की आवश्यकता है तो कुछ दुर्बलताओं की भी। दोनों एक दूसरे को संतुलित करते हैं।

पिता प्रताप नारायण को किशोरावस्था में महती जिम्मेदारियां वहन करना पड़ी। चार स्त्रियां, तीन विधवा, एक कुंवारी। इंटर की परीक्षा में फेल। नौकरी मिलना मुश्किल। दादी ने पढ़ाई को प्राथमिकता दी। पर सामाजिक मान्यताओं व दबाव के चलते बेरोजगार युवक की शादी की शायद बना दी गई। इलाहाबाद शहर के मुंशी ईश्वर प्रसाद की कन्या सुरसती (सरस्वती) से रिश्ता तय हुआ जो बच्चन जी की मां हुई शादी में थोड़ा बहुत कपड़ा बर्तन पैसा मिला जो राधा बुआ की नातिन बुद्धि के ब्याह में लगा दिया गया। पिता प्रताप नारायण ने अंग्रेजों के अख़बार पायोनियर में नौकरी जीवन पर्यंत करी। सेवानिवृत्ति के अवसर पर सहयोगीयों द्वारा दिए गए मानपत्र पत्र में उन्हें पायोनियर कार्यालय का आधार स्तंभ कह कर संबोधित किया गया।

मां सरस्वती ने बहुत जतन से मितव्ययिता पूर्वक गृहस्थी चलाई। अपनी इच्छाओं को सीमित रखा। खूब श्रम किया। उन्हें हिंदी और उर्दू का प्राथमिक ज्ञान था। हरिवंश राय की साक्षरता की शुरुआत मां के द्वारा उर्दू हरफ़ों से हुई थी। नाना जी के एक पुराने वयोवृद्ध नौकर माताभीक की अंतिम बीमारी में सरस्वती ने अथक सेवा की थी। स्नेह संवेदना और समादर का व्यवहार किया था। उन स्मृतियों से अभिभूत बच्चन जी कहते हैं कि मैं उन्हें मानवीय की श्रेणी से ऊपर उठाकर देवी की श्रेणी में रखता रहा हूं। दीन दुखी रोगी के लिए उनके मन में अपार ममता थी।

पिता प्रताप नारायण का चरित्र, बच्चन जी की आत्मकथा में अनेक उच्च गुणों से आधारित होकर उकेरा गया है। समय की पाबंदी, नियमबद्ध, नैमित्तिक, विनम्र निश्चल व्यवहार, दूसरों के कार्य में मदद, पैदल चलने का अभ्यास। एक विशेष घटना का उल्लेख आता है। हिंदू-मुस्लिम दंगों के दौरान अपने मोहल्ले में मुसलमानों से अकेले बातचीत करके उन्होंने शांति स्थापित करवाई थी। हरिवंश राय ने मानो साक्षात आत्मविश्वास को धरती पर चलते देखा था। पिताजी प्रतिदिन रामचरितमानस का नवाहिनक  पाठ करते थे, यानी प्रतिदिन इतना कि 9 दिन में पूरी रामायण समाप्त हो जाए। बच्चन जी याद करते हैं कि आवाज की पहली स्मृति उन्हीं के मानस पाठ के स्वर की है तथा यह कल्पना भी कि जन्म के पहले दिन से ही उन्होंने उनका पाठ स्वर सुनना शुरू कर दिया होगा। रात को चाहे जितनी देर से सोए, उठते हुए सुबह 3:00 बजे ही थे। उनका कहता था कि नींद लंबाई नहीं गहराई मांगती है।

प्रताप नारायण और सरस्वती की अनेक संताने शैशव काल ग्रस्त हुई। केवल एक पुत्री भगवान देवी रही जो लेखक की बड़ी बहन हुई। किसी की सलाह पर अगली गर्भावस्था में हरिवंश पुराण का पाठ कराया गया, व्रत रखा गया पुरोहित को दक्षिणा दी गई। और इसी से नाम रखा गया हरिवंशराय मोहल्ले की किसी बड़ी बूढ़ी ने एक और सलाह दी थी कि जब लड़का हो तो उसे किसी चमारिन के हाथ बेंच देना और मन से उसे पराया समझकर पालना पोसना। मां सरस्वती ने हरिवंश राय को पांच पैसे में लक्ष्मीनिया चमारिन के हाथों बेच दिया और उसके बतासे  मंगा कर खा लिए। चमारिन अम्मा का बच्चन ने दूध भी पिया और लड़कपन में उसे चम्मा कह कर बुलाते रहे।

वो बचपन के दिन

वह बचपन व किशोरावस्था ढेर सारे पात्रों,  स्थानों और घटनाओं के वर्णन से अटी पड़ी है। बहुत सघन, बहुत समृद्ध,  बहुत विविध अनुभूतियों को संसार था वह। कवि बच्चन के प्रौढ़ गद्दे की प्रांजल शैली में बुना गया यह बहुरंगी ताना-बाना अनेक बिम्बों  की सृष्टि करता है। ढेर सारे भाई बहन दें। छह बड़े, छः छोटे। बड़ों से कुछ सीखने को। छोटों को कुछ सिखाने को। सबसे प्रिय सहेली थी मोहन चाचा की बेटी पत्तों। उसकी मृत्यु हरिवंश के कोमल मन पर पहला आघात था। उसका सहसा गायब हो जाना बाल मन की एक पहेली थी|  बाद के चिंतनशील कवि ने मृत्यु पर बहुत लिखा है। बालक हरिवंश ने तब सोचा था मरना क्या होता है? क्या बच्चा भाप सा बन कर  शून्य में विलीन हो जाता है? क्या मैं भी ऐसे ही कभी लोप हो  जाऊंगा? अन्य बच्चों की तुलना में भावी लेखक शायद अधिक भाव प्रवण था। अनेक वर्षों तक बच्चन को भय के दौरे आते रहे।

बच्चन जी जब यादों की रील घूमाते  हैं तो एक से एक अनूठे चरित्र उभरते हैं। बूढ़ी पर बुलंद आवाज वाली काघिन और उसकी लकड़ी की टाल। गिरधारी पहलवान, उसका अखाड़ा, रखैल पासिन, तगड़ी बैल जोड़ी। अनेक बनती बिगड़ती दोस्ती और दुश्मनी। कुछ  अस्थाई। कुछ स्थाई। आर्य समाज विचारधारा से प्रथम परिचय करवाने वाले मुक्ता प्रसाद जी। श्रमजीवी मुसलमानों के ढेर सारे घर, ढेर सारे बच्चे, टाट के पर्दे, बुर्के, मुर्गियों की चक चक, कबूतर बाजी, तितरबाजी। एक सब्जीबाग। एक फूल बाग। चाह चंद का कुआं। बाग में सुनसान खंडहर होता बंगला। भूत होने की कल्पनाएं। कुछ तीज त्यौहारों पर बाग में पूजन-  कुवे का,आंवले का। भुतहा बंगले से जुड़ी अनेक कहानियां। कुछ घर शिया मुसलमानों के थे। बेहतर माली हालत और सभी तहजीब वाले। उन्हीं में एक सर्वबराकार थे तो पिताजी व चाचा जी के साथ कभी-कभी गंजीफा नामक ताश खेलने आते थे। मोहर्रम की रातों में सरबराकार अपने आंगन में मरसिया करते। लोग मातम मनाते। सिसकियां भरते हैं। गांधीजी की शहादत पर बच्चन जी ने एक लंबी कविता मरसिया की धुन में लिखी थी। सूत की माला की पहली कविता है –

उठ गए आज बापू हमारे

झुक गया आज झंडा हमारा

बच्चन जी उन दिनों घुंघराले बालों वाले सुंदर नटखट किशोर थे गुरुओं के अभाव में पांव में कुंजियां के गुच्छे  बांधकर मोहल्ले की लड़कियों व् स्त्रियों के साथ नाचा करते थे।

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