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सेवानिवृत्ति उदगार


कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने अपनी एक प्रसिद्ध रचना में कहा था ‘परिवर्तन ही जीवन का एक मात्र सत्य है। और सब बातें परिवर्तनशील हैं। यही एक सत्य अटल है।”

किसी व्यक्ति के जीवन में परिवर्तन, भले ही आंशिक परिवर्तन, का यह आधारभूत सत्य क्यों आयोजित किया जा रहा है? इसके पीछे एक आस्था है, विश्वास है कि परिवर्तन प्राय: भले के लिये होता है। लेकिन प्रश्न भले में आस्था का है।

परिवर्तन होना और परिवर्तन न होना यदि इसमें चयन करना हो तो भी निर्णय जड़ता के विरुद्ध होगा।
पान सड़ा क्यों?
घोड़ा अड़ा क्‍यों?
रोटी जली क्‍यों?

फेरा नहीं पड़ा।   —(अमीर खुसरो)

जीवन में फेरा पड़ना जरुरी है।

मनुष्य के कार्य कभी समाप्त नहीं होते। मेरे कार्य भी अविरत्‌ रहेंगे। फिर भी कुछ अल्पविराम, अर्धविराम, विराम, मोड़ पृष्ठ, खण्ड, अध्याय होते हैं, जहां हम क्षण भर को रुकते हैं, सांस लेते हैं, मुड़कर देखते हैं, सिंहावलोकन करते हैं, विचार करते हैं, सीख लेते हैं, आगे के लिये पुनः समर्पित होकर बढ़ जाते हैं।

मनुष्य के कार्य कभी समाप्त नहीं होते। मेरे कार्य भी अविरत्‌ रहेंगे। फिर भी कुछ अल्पविराम, अर्धविराम,विराम, मोड़ पृष्ठ, खण्ड, अध्याय होते हैं, जहां हम क्षण भर को रुकते हैं, सांस लेते हैं, मुड़कर देखते हैं, सिंहावलोकन करते हैं, विचार करते हैं, सीख लेते हैं, आगे के लिये पुनः समर्पित होकर बढ़ जाते हैं।

‘दिल ढुंढता फुर्सत के रात दिन’ (गुलजार)

मेरे लिए आज एक ऐसा ही दिन हैं, ऐसा ही क्षण है।
भारतीन मनीषा ने जीवन को चार काल खण्डों में देखने की कोशिश की थी। वर्णाश्रम में चार आश्रम है।

ब्रह्ममचर्य : 25 वर्ष – शिक्षा के लिये।

ग्रहस्थ : 25-50 वर्ष – परिवार व बच्चों के लिये।

वानप्रस्थ : 50-75 वर्ष – सचमुच में जंगल तो नहीं परन्तु दैंनदिन की जिम्मेदारियों से धीरे-धीरे निवृत्ति पाने का काल।

संन्यास : 75-400 इस मिथ्या जगत से निस्प्रह होकर आध्यात्मिक अनुभूतियों में डुबोने का समय।

देश और काल के साथ वर्णाश्रम की व्यवस्था भी बदलती है।

अब लोगों की औसत आयु बढ़ गई है। सक्रिय जीवन के वर्ष भी बढ़ गये हैं। तभी तो रिटायरमेंट की उम्र भी बढ़ाई जाती रही है। उत्तरी अमेरिका व यूरोप में प्रोफेसर्स को रिटायर न होने का विकल्प है।

Age is an issue of mind over matter
If you don’t mind,
It doesn’t matter
 ———-(Mark Twain)

मेरे एक प्रिय लेखक श्री हरिवंशराय बच्चन जी की रचना है

‘जाल समेटा’-

जाल समेटा करने में भी
समय लगा करता है मांझी
मोह मछलियों का अब छोड़

बच्चन जी ने 60-70 के दशक में लिखा था- मेरी कविता मोह से प्रारम्भ हुई और मोहभंग पर समाप्त हो गई | मुझे मोहभंग नहीं हुआ है। मैं आसक्त हूँ- जीवन से आसकत, परिवार, छात्र, मरीजों से आसक्त। मेरे सपनो से आसक्‍त।

क्या मुझे जाल समेटना शुरु कर देना चाहिये?
क्या जीवन की महत्वकांक्षाओं को विराम देना चाहिये?
वरना मन-मृग तो मरीचिका के पीछे भागता ही रहेगा?
पर क्‍यों करे: ये दिल मांगे मोर। गालिब के शब्दों में हजार ख्वाहिशें, और हर ख्वाहिश पर दम निकले।

आस्कर वाइल्ड के शब्दों में-

I can resist everything except temptation

हमारे यहां कहते हैं :

गौ धन, गज वन, बाजी धन
सब धन धूरि समान
जो मिल जावै एक संतोष धन
पर इंसान क्‍या करे- (नईम साहब के शब्दों में)

‘तन की तब रह गई अधूरी
मन की प्यास कहां बुझाऊं
बच्चन जी ने कहा था – “मन का हो तो अच्छा, न हो तो और भी अच्छा”

पुनः बच्चन जी के शब्दों में –
‘मेरे भी कुछ कागज-पत्रे
इधर-उधर हैं फैले बिखरे (नीरजा कहेगी समुद्र है)

गीतों की कुछ टूटी कड़ियां,
कविताओं, की आधी सतरें
मैं भी रख दूँ सब को जोड़ (मेरे लिए लेख, पुस्तकें, शैक्षणिक वीडियों फिल्में)

शबर्ट ब्राउनिंग की इन पंक्तियों को हम सूत्र वाक्य मानते हैं।

Grow old with me,
The best is yet to be

इस उम्र तक व्यक्ति प्रायः आगे की बजाय, पीछे की और ज्यादा देखने लगता है। जो गुजर चुका है वह ज्यादा है, जो गुजरने वाला है वह चुक रहा है, छीज रहा है।

ग्रीक पुराण कथाओं में एक पात्र है ‘जानुस’- दो मुँह वाला। एक चेहरा आगे देखता है, दूसरा चेहरा पीछे एक भूतकाल की ओर- दूसरा भविष्य की ओर। समय के साथ इन दोनों चेहरों के आकार का अनुपात बदलता है

क्या मैं इस चेहरे के समान हो गया हूँ?

मैं तो शुरु से भूत में में खूब गोते लगाने वाला इंसान रहा हूँ। भूतकाल में डूबना, विचरण करना, कभी मोती, कभी कंकर बीनते रहता- ये मेरे प्रिय शगल रहे हैं।

मैं शुरु से भविष्योन्मुखी भी रहा हूँ– कल्पनाएं करना, सपने देखना, वे सपने नहीं जो सोने में आते हैं बल्कि वे जो रातों की नींद उड़ा देते हैं। जागते हुए सपने, जगाते हुए के सपने। केवल दिवा-स्वप्न नही, बल्कि कुछ कर गुजरने की नवान्मेसी योजनाएं। शायद मेरे दोनों चेहरों के आकार के अनुपात में उम्र के साथ कोई अन्तर नहीं आया है। लेकिन काल तो तीन होते हैं- भूत और भविष्य के बीच वर्तमान होता है। जानुस की उपमा पर्याप्त नहीं। हमारे यहां दत्तत्रय भगवान हैं, तीन मुँह वाले। ये ब्रह्मा नहीं है। उनके चार मुँह होते हैं। तीसरा काल वर्तमान सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। Here and Now

आगे भी जाने ना तू
पीछे भी जाने ना तू
जो भी है, बस यहीं एक पल है
करले आरजू (साहिर लुधियानवी)

मुझे खुशी और संतोष मिलते हैं आने आप को वर्तमान में डूबोकर। ध्यान साधना योग का वह अभ्यास जिसमें हमें सिर्फ अपने शरीर पर ध्यान केन्द्रित करने को कहा जाता है। मुझे भला लगता है और सुकून प्रदान करता है।

जीवन के महत्वपूर्ण ऋण

आज के दिन मैं जीवन के ऋणों की चर्चा करना चाहूंगा। हमारे यहां तीन तरह के ऋण बताएं गये हैं-

1. पितृ ऋण –    माता पिता, वरिष्ठ मित्र, वरिष्ठ परिजन, पुरखें कैसे उतारुं – सेवा, सम्मान, प्यार, तथा वैसा ही या उससे बेहतर अपने बाद की

पीढ़ियों के प्रति करके । साहित्य कला द्वारा, सेवा द्वारा

2. ऋषि ऋण –  गुरु, वे तमाम जिनसे मैंने कुछ-कुछ सीखा – (Including students)

              उतारने के लिये- नयी पीढ़ियों को ज्ञान देकर शोध द्वारा नये ज्ञान का सृजन करके

3. देव ऋण –    प्रकृति और पृथ्वी- जिसकी गोद में मैं पला बढ़ा उसे बेहतर रुप में छोड़कर जाऊं।

                अपनी छोटी सी आहुतियां डालूं।

ऋणी होना और उऋण होना दोनों साथ-साथ चलते रहते हैं। कभी साथ-साथ | कभी आगे पीछे | कभी पूरी तरह, कभी आंशिक रूप से | उपकृत महसूस होना और उसे अभिव्यक्त करना भी जरुरी हैं |

– मेरी पत्नी नीरजा

– मेरे पुत्र निपुण, पुत्री अन्विता और उनके परिवार

– मेरे गुरु- मेरे विद्यालय, कॉलेज, मातृसंस्थाएं

मेरे मानस गुरु – अनेक लेखक

क्या वास्तव में उऋण होना जरुरी है? क्‍या वाकई में ऋण चुकाये जा सकते हैं?

फिर भी हम कोशिश करते हैं। मन में भावना रहती है। चन्द शब्दों में ऋण नहीं चुक सकता। जुबानी जमाखर्च से काम नहीं चलता। उसके लिये तो सतत्‌ कर्मों की जरुरत है।

मुझसे अनेक गलतियां हुई होगी। आगे भी हो सकती है। क्योंकि

भूलें सत्य के पड़ौस में रहती है
सत्य की सरिता भूलों की निर्झरणी में बहती है
यदि तुम भूलों के द्वार बन्द कर लोगे
तो सत्य स्वतः ही बाहर निकल आयेगा । (रविन्द्रनाथ टैगोर)

कृपया मेरी भूलों को इन्हीं सहज भावनाओं से अंगीकार कर मुझे क्षमा का आशीर्वाद दें और यह भी कि मैं भी वैसे ही क्षमाशील बना रहूं।

आप लोगों ने इतने सारे पुल बांध दिये हैं सारी नदियां पट जाएं- तारीफों के पुल।

It would be a cliché to say that I do not deserve all that but I will have to say it, not only for the sake of modesty but also for the sake of the truth.

Mark twain said – I can live for two months on a good compliment.

मेरी तो पूरी बची हुई जिन्दगी कट जायेगी।
ऐसे ही किन्हीं अवसरों के लिये मानववृत्ति पर टैगोर जी ने लिखा है-
प्रशंसा मुझे लज्जित करती है
मैं चुपके-चुपके उसकी भीख मांगता हूँ।

सामने नहीं, परन्तु पीछ पीछे आपके आशीर्वादों, दुआओं और शुभकामनाओं का प्रार्थी हूँ मैं।

मैं आज कृतज्ञ हूँ, कृतकृत्य हूँ– पर कुछ खास भूलना नहीं चाहता-

मैंने आज वृक्ष को धन्यवाद दिया
जिन्होंने मेरे जीवन को फलवान बनाया
पर मैं घास को याद रखना भूल गया
जिन्होंने उसे सदा हरा-भरा रखा।(रविन्द्र नाथ टैगोर)

मेरे छात्र और मेरे मरीज। मैं उन्हें कभी नहीं भूलूंगा। वे मेरे आशीर्वाद है। तभी तो मैं कहता हूँ – I am doubly blessed.

मुझे इस बात का भी संतोष रहेगा कि मैं गालिब की पंक्ति में एक नुक्ता बदल कर कह सकता हूँ।

“बड़े बाआबरु होकर तेरे कूचे से हम निकले।“

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