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मनुष्य की सबसे लम्बी यात्रा (The Longest Journey of Man)


मई 2007 की उस सुबह, लास वेगास, अमेरिका की होटल एक्सकेलिबर के कमरे में, मैंने ब्रश किया, कुल्ला किया। चाय अभी नहीं पी थी। हिदायत थी कि न कुछ खाउं, न पियूं। नेशनल जियोग्राफिक पत्रिका द्वारा भेजी गई किट को मैंने सावधानी से खोला। इसे मैंने इन्टरनेट पर क्रेडिट कार्ड द्वारा 130 डालर में मय डाक खर्च के खरीदा था और यह किट मेरे पास एक सप्ताह में आ गई थी।

 इसमें दो छोटे ब्रश और दो छोटी परख नलियां थीं जिनमें साफ पानीसा कोई घोल भरा था। एक ब्रश को मैंने अपने मुंह के भीतर दायें गाल की अन्दरूनी सतह पर 30 सेकण्ड तक रगड़ा और उस ब्रश के अग्र भाग को, जो हेंडल से अलग हो जाता था, परखनली के पानी में डुबो दिया और ढक्कन कस कर बन्द कर दिया। यही प्रक्रिया दूसरे ब्रश व परखनली के लिये बायें गाल के साथ दोहराई गई। इस हरकत द्वारा मेरे गाल की अन्दरूनी सतह की अनेक कोशिकाएँ, लार के साथ ब्रश में उलझ कर अब टेस्ट ट्यूब में पहुंच चुकी थीं। किट पर अंकित कोड नम्बर (कूट संख्या) को मैंने तीन जगह सम्हाल कर लिख लिया। दोनों टेस्ट ट्यूब को एक लिफाफे में बन्द कर के, डाकखाने में सुपुर्द कर आया। लिफाफे पर पाने वाले का पता था नेशनल जियोग्राफिक सोसायटी, वाशिंगटन, भेजने वाला गुमनाम था। अब मुझे प्रतीक्षा करनी थी लगभग छः सप्ताह तक। मेरे गाल की कोशिकाओं में निहित जानकारी मुझे इन्टरनेट पर प्राप्त होनी थी । एक ही जरिया था – मेरी किट पर अंकित कोड नम्बर के द्वारा । मुझे मालूम पड़ना था कि मेरे या हमारे पूर्वज कहाँ से आये, कैसे आये, किस मार्ग से आये।

पूर्वजों के बारे में जानने की चाह मनुष्य के मन में शुरू से रही है। हम अपने पुरखों को आदर देते हैं,स्मरण करते हैं, अर्ध्य चढ़ाते हैं, श्राद्ध में पूजते हैं। वंशावली का लेखा-जोखा रखना चाहते हैं। प्रायः हमारे साधन सीमित होते हैं। बहुत कम परिवारों में विस्तृत जानकारी सहेजने की परम्परा होती है। गंगा पंडित होते हैं जो पुरातन किस्म के बही खातों नुमा पुलिंदों में समय-समय पर जानकारी को अद्यतन करने का आधा-सूदा, गलत-सलत प्रयास करते रहते हैं। यूरोप व अमेरिका में गिरिजाघरों में बप्तिस्मा रिकार्ड द्वारा बेहतर तरीके से अनेक पीढि़यों की श्रंखला की जानकारी रखी जाती है। 1970 के दशक में अमेरिकी अश्वेत लेखक एलेक्स हैली का उपन्यास – रूट्स – लोकप्रिय हुआ था जिसमें उसने पश्चिम अफ्रीका से गुलाम बनाकर अमेरिका लाये गये अपने परदादाओं की लम्बी वंशावली पर शोध आधारित कहानियां गूंथ डाली थी। श्री हरिवंशराय बच्चन ने अपनी आत्मकथा के प्रथम खण्ड – ‘क्या भूलूं-क्या याद करूं’ में स्वयं के खानदान का चार सौ वर्षों का इतिहास प्रस्तुत किया है। राजाओं का वंशवृक्ष वर्णन करने के लिये दरबारी इतिहासकार होते थे, परन्तु आमजनों के लिये यह कठिन है। इस सारी उठापटक की एक सीमा है। 5-10 पीढ़ी के पीछे जाना सम्भव नहीं।

यदि हम अपना दायरा व्यक्तिगत से बढ़ाकर जातिगत, नस्लगत या समुदायगत कर लें तो और भी अधिक पुरानी पीढ़ियों के बारे में जानने की दूसरी विधियां हैं। बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में समस्त मानव जाति के पुरातन इतिहास को जानने के लिये हमारे उपाय हैं – जनश्रुतियां या किंवदन्तियां, पुराना साहित्य, महाकाव्य, धर्मशास्त्र, भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन, पुरातत्व ‘आर्कियोलाजी’ और नृविज्ञान ‘एन्थ्रोपोलाजी’। इन सब की भी अपनी सीमाएँ हैं। हालांकि एक से अधिक विधियों से प्राप्त प्रमाणों का तुलनात्मक मिलान कर के विश्वसनीयता बढ़ाई जा सकती है। अनुमान लगाया जाता है कि हमारी अपनी स्पीशीज होमो सेपियन्स का आविर्भाव लगभग दो लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका में हुआ था। मानव जैसी दिखने वाली अन्य प्रजातियां भी थीं जिन्हें होमोनिड कहते हैं।

एक उदाहरण था नीएण्डरथाल। होमोनिड् की कहानी और भी पुरानी है। लगभग साठ लाख साल पहले ओरोरियन नामक होमोनिड ने चार पैरों के बजाय पिछले दो पैरों पर खड़े होकर चलना सीखा। इसी श्रंखला में पहले से नाना प्रकार के बन्दर, चिम्पाजी, ओरांग उटांग, गोरिल्ला, आदि आते थे जिन्हें प्रायमेट्स व एप्स की जाति में रखा जाता है। एक स्पीशीज से दूसरी स्पीशीज में बदलने की प्रक्रिया में हजारों लाखों वर्ष लगते हैं।

स्पीशीज या प्रजाति की परिभाषा है, एक जैसे गुण वाले वे प्राणी जो आपस में संसर्ग करके नई सन्तान को जन्म देते हैं। उदाहरण के लिये कुत्तों के बहुत सारे आकार व रूप होते हैं परन्तु आपस में ब्रीडिंग करवा कर नई पीढ़ी बन सकती है। सारे कुत्ते एक स्पीशीज के हुए। कुत्ते और बिल्ली को आपस में नहीं मिलाया जा सकता क्योंकि उनकी स्पीशीज अलग है।
हमारे वर्तमान स्वरूप होमोसेपियन्स के सबसे पुराना कंकाल ‘फासिल्स’ जो दो लाख वर्ष पूर्व से मिलना शुरू होते हैं – केवल अफ्रीका में पाये गये। अन्य महाद्वीपों में वे बाद में पहुंचे। अफ्रीका के बाहर वे पहली बार लगभग साठ हजार वर्ष पूर्व पाये गये। बाद के पचास हजार सालों में, अर्थात् आज से दस हजार साल पहले तक मनुष्य धरती के समस्त कोनों में तक पहुंच चुका था क्योंकि इतने पुराने उसके कंकाल/जीवाश्म सब जगह मिलते हैं। साठ हजार वर्ष साल से पुराने फासिल्स केवल अफ्रीका में मिले। यह गाथा जो पूर्वी अफ्रीका की पहाड़ियों से शुरू हुई, पिछले एक दशक से गहन शोध का विषय बनी है। अनेक सफलताऐं मिली हैं, ढेर सारी जानकारी प्राप्त हुई हैं, कहानी के अंश जुड़ते गये हैं और खाका भरता गया है।
मेरे गाल की कोशिकाओं को भेजकर मैं जिस जानकारी को पाने की अपेक्षा कर रहा था वह कितनी पुरानी होगी लगभग साठ हजार वर्ष पूर्व से शुरू होकर लगभग 10,000 वर्ष पूर्व तक । न उसके पहले की न बाद की। मुझे यह भी न मालूम था कि पिछली पांच-दस पीढ़ी के पूर्वजों के नाम ठिकाना धन्धा आदि के बारे में कुछ भी नहीं ज्ञात होगा।

मूल रूप से इस प्रकार की पड़ताल एन्थ्रोपोएंथ्रोपोलॉजी नामक विज्ञान का हिस्सा है जिसमें मनुष्य के शारीरिक और सामाजिक पहलुओं का अध्ययन किया जाता है । विभिन्न जातियों, नस्लों और समुदायों के सदस्यों की कद-काठी, रंग रूप, चाल-ढाल, खान-पान, पहनावा, रस्म-रिवाज,भाषा-बोली, कला संस्कृति आदि अनेक पक्षों पर तुलनात्मक गौर फरमाते हैं। मनुष्य मात्र अपनी वर्तमान अवस्था तक किन-किन पायदानों पर होकर पहुंचा ? उसके विकास व परिवर्तन पर असर डालने वाले कारक कौन से थे ? इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने की कोशिश नृविज्ञानी ‘एंथ्रोपोलॉजिस्ट’ करते हैं। उदाहरण के लिये वे अण्डमान निकोबार द्वीप में समाप्त प्रायः जरवा जाति क बचे-खुचे लोगों के रहन-सहन, वातावरण आदि का अध्ययन करके बहस करना चाहेंगे कि जरवा जाति की दीर्घकालिक कथा कैसे गढ़ी गई।

एंथ्रोपोलॉजी के कुछ सबसे शाश्वत और गुरुतर प्रश्न हैं – मनुष्य का प्रथम उद्गम कहां हुआ था ? कैसे थे वे लोग ? उनकी संख्या कैसे बढ़ी ? उनका प्रव्रजन / माईग्रेशन किन मार्गों से किन दिशाओं में हुआ ? वातावरण, मौसम, भूगोल आदि में कौन से तत्व थे जिन्होंने मनुष्य के सांस्कृतिक विकास में भूमिका निभाई ? विभिन्न नस्लें और जातियां कैसे बनीं ? कौन पहले आया, कौन बाद में ? कौन यहां का मूल निवासी, तो कौन प्रवासी ? किसी भूखण्ड में रहने वाले समस्त नागरिक क्या सचमुच वहीं के भूमि पुत्र हैं ? कौन सी नस्ल के लोग शुद्ध रक्त वाले और कौन वर्ण संकर ?

पुरातत्व दूसरा महत्वपूर्ण विज्ञान है जिसमें विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों में मनुष्य द्वारा निर्मित भवनों, वस्तुओं आदि को खोदकर निकालते हैं जैसा कि मोहनजोदड़ो या हड़प्पा में किया गया। मनुष्य के कंकाल की हड्डियों से अनुमान लगाते हैं। कार्बन-आईसोटोप पर आधारित डेटिंग से किसी वस्तु की पुरातन आयु का पता चलता है। पुरातत्व की ये विधियां न केवल मानव जाति बल्कि अन्य सभी जीव जन्तुओं और वनस्पतियों पर भी लागू होती हैं।

धरती की परतों के बीच जीवाश्म फासिल्स दब कर चपटे हो जाते हैं, अपना निशान छोड़ते हैं। फासिल्स ‘जीवाश्म’ के गहन अध्ययन से पता चला कि धरती पर कैसे जीवन का विकास हुआ। डार्विन की थ्योरी ऑफ़ इवाल्यूशन के सबूत के रूप में फासिल्स का महत्व बहुमूल्य है। मुश्किल यह है कि मानव के गढ़े गये पदार्थों और उसकी हड्डियों के गलने और नष्ट होने की एक उम्र होती है। फिर कुछ पता नहीं चलता।
विभिन्न इलाकों और समुदायों के बीच बोले जाने वाली भाषाओं/बोलियों का लिंग्विस्टिक अध्ययन हमें बताता है कि किस भाषा से कौन सी दूसरी भाषा निकली तथा एक भाषा से दूसरी भाषा में जाने वाले शब्दों की दिशा किस ओर थी। नस्लों और जातियों के अविर्भाव और भ्रमण का थोड़ा बहुत निष्कर्ष भाषा वैज्ञानिक शोध से सम्पन्न होता है। उदाहरण के लिये यूरोप में रहने वाली जिप्सी लोग राजस्थान, सिंध और पंजाब से निकल पड़े थे- शायद सन् 1200 – 1300 के आस-पास। और सब कुछ बदल गया। थोड़े से अवशेष रह गये गिने चुने भारतीय शब्द जो आज भी उनकी भाषा का अंग हैं।

पुराने समय में मनुष्य की खानाबदोशी पर असर डालने वाला एक और कारण था – मौसम या जलवायु में परिवर्तन। साल-दर-साल वाले परिवर्तन नहीं बल्कि दीर्घ अवधि वाले – 5000 – दस हजार – पचास हजार साल – इतने लम्बे समय तक धरती पर मौसम के अनेक युग आये और गये।

आजकल हम ग्लोबल वार्मिंग को लेकर चिंतित हैं जो शायद मनुष्य निर्मित है और अत्यन्त नवजात घटना है। धरती के करोड़ों सालों के इतिहास में अनेक हिम युग और गर्म युग आये और गये। किस काल में कितने हजार वर्षों तक कैसा मौसम रहा होगा इस विषय को पूरा मौसम विज्ञान पेलियो क्लाईमेटोलॉजी कहा जाता है। धरती को आबाद करने की इन्सानी यात्रा का अध्ययन पुरा मौसम विज्ञान के बिना अधूरा है।
पुरातत्व व दूसरी गिनाई गई विधियों के अलावा अब एक नया उपाय सूझ पड़ा है। जिनेटिक्स ‘आनुवांशिकता’

आनुवंशिकता का अर्थ है

‘‘आनुवंशिकता का अर्थ है मातापिता न अन्य पूर्वजों से सन्तान को प्राप्त होने वाली जीन्स तथा उन जीन्स द्वारा निर्धारित और प्रभावित होने वाले गुण। गुण हजारों प्रकार के । नाक का सुतंवा होना, आँख का नीला होना, बालों का घुंघरालु होना। दुबलापन, मोटापन, गंजापन, गोरा होना। आधे गुण मां से, आधे पिता से। बीमारी होना या न होना भी आनुवंशिकता पर निर्भर करता है।

माँ के गर्भ में जब बच्चे का बीज बनता है उस समय आधी किस्मत तय हो जाती है। बाकी आधी किस्मत पर प्रभाव पड़ता है गर्भ के नौ महीने व जन्म के बाद की जिन्दगी का। परवरिश, खान-पान, किस्मत की ? जो भृगुसंहिता, लिखी जाती है उसमें से आधे मंत्र मां की तरफ से व आधे पिता की तरफ से आते हैं। कुछ मंत्र शक्तिशाली होते हैं। जो कह दिया सो घटित होकर रहता है। अन्य मंत्रों की शक्ति कम या कमतर होती है। उनका फलित घटने के लिये किन्तु परन्तु यदि जबकि वाली शर्तें पूरी होना चाहिये। इन शर्तों का पूरा होना या न होना बाद वाली आधी किस्मत के हाथ होता है अर्थात् दोनों का मेल होना जरूरी है। कुछ मामलों में ये मंत्र मौन रहते हैं या तटस्थ रहते हैं जिन्दगी को जो खेल खेलना है, खेल ले। आनुवंशिकता न इस तरफ, न उस तरफ। इसी को अंग्रेजी में कहते हैं ‘नेचर’ और नर्चर ‘परवरिश’ की साझी पारी हो पूरी जिन्दगी चलती है।

गर्भ में बच्चे का बीज बनते समय आधी किस्मत की भृगुसंहिता के हजारों मंत्र माँ की तरफ से अण्डकोष में और पिता की तरफ से शुक्राणु में भर कर आते हैं। इन मंत्र की भाषा संस्कृत से भी करोड़ों साल पुरानी और उससे अधिक क्लिष्ट है। उस भाषा की वर्णमाला में सिर्फ चार अक्षर हैं व उनसे मंत्र, शब्दों की एक लम्बी लड़ी है। प्रत्येक लड़ी में हजारों लाखों शब्द हैं।

एक मंत्र यानी एक जीन। एक जीन यानी संकेत की एक लम्बी व दोहरी कड़ी। इन मंत्रों की एक खास विशेषता है। ये अपनी फोटोकापी स्वयं बनाते हैं चाहे जितनी बनाते हैं। खूब तेजी से बनाते हैं। सटीक व सही बनाते हैं। एक कोशिका से दूसरी कोशिका। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी। फैलाते जाते हैं।

ये संदेश, ये मंत्र, ये जीन कैसे किस्मत को नियंत्रित करते हैं ? प्रोटीन नामक रासायनिक पदार्थों की रचना व निर्माण को गति देकर। प्रोटीन भी लाखों प्रकार के। प्रोटीन के अनेक काम। कोशिकाओं व उत्तकों के निर्माण में। एन्जाइम या उत्प्रेरकों के रूप में। एण्टी बाडी के रूप में, जो विदेशी पदार्थों से लड़ती है। हार्मोन्स के रूप में। शरीर का चप्पा-चप्पा किसी न किसी किस्म के प्रोटीन का बना है तथा किसी न किसी के प्रोटीन द्वारा वहां की रासायनिक क्रियाऐं नियंत्रित हो रही हैं।

हमारे शरीर की एक बूंद खून या गाल से रगड़ कर निकाली गई कोशिकाऐं पर्याप्त हैं जिनेटिक्स अध्ययन के लिये। इस सम्भावना को सबसे पहले पहचाना और परखा इटली के पुरावेत्ता और नृविज्ञानी ‘लुगाती’ ने। 1970 के दशक में उन्होंने अफ्रीका के कुछ कबीलों का जिनेटिक शोध प्रारम्भ किया। तब साधन कम थे। आनुवंशिकी विज्ञान का पर्याप्त विकास नहीं हुआ था। बड़े परिवर्तन 1990 के दशक में आये। मानव जीनोम प्रोजेक्ट शुरू हुआ और अनुमान से अधिक तेजी से पूर्ण हुआ। मनुष्य और उसके बाद अनेक जीव जन्तुओं, पौधों के जीनोम की सम्पूर्ण संरचना को जानने का काम होता चला गया। बड़ी प्रयोगशालाओं में स्वचलित, रोबोटिक्स मशीनों द्वारा जटिल रासायनिक परीक्षणों को द्रुतगति से निरन्तर किये जाने की विधियां विकसित हुई। एक साथ हजारों सेम्पल्स पर हजारों परीक्षण सम्भव हुए। वर्षों का काम सप्ताहों में होने लगा

स्पेन्सर वेल्स नामक जीव विज्ञानी व जिनेटिसिस्ट ने महसूस किया दुनिया के कोनों-कोनों में रह रहे लोगों का इस बात का इतिहास कि उनके पुरखे कहां से किस मार्ग से किस काल में भ्रमण या प्रव्रजन करते हुए आये अब जीन्स के माध्यम से अधिक सटीक तरीके से जाना जा सकता है। उन्हें मदद मिली नेशनल जियोग्राफिक सोसायटी से जो इसी नाम की पत्रिका आरम्भ 1888 के लिये विख्यात है। टेलीविजन चेनल बाद में आया। यह सोसायटी भूगोल, पर्यावरण, विज्ञान आदि क्षेत्रों में शोध को मदद देती है। इसके साथ प्रसिद्ध कम्प्यूटर कम्पनी आई.बी.एम. और एक निजी ट्रस्ट वाईट फेमिली फाउण्डेशन ने सहयोग का बीड़ा उठाया। विश्व भर में दस वैज्ञानिक दल बने। समान वैज्ञानिक और नीतिगत कार्यविधि अपनाई गई। इस प्रकल्प का नाम रखा गया जीनोग्राफिक प्रोजेक्ट।

पिछली एक सदी में कुछ गिने चुने महा-प्रकल्प, मेगा प्रोजेक्ट हुए हैं जिनके लिये मिलजुल कर योजना बनाई गई, तैयारी की गई, बड़ा बजट जुटाया गया और दूरगामी परिणाम हुए। एक था आपरेशन मेनहट्टन जिसके तहत 1940 के दशक में पूर्वाद्ध में ताबड़तोड़ परमाणु बम का विकास किया गया। 1960 के दशक के उत्तरार्ध में अपोलो चन्द्र अभियान द्वारा मानव चांद पर उतरा। 1990 में मानव जीनोम प्रोजेक्ट शुरू हुआ। उसी के पदचिन्हों पर जीनोग्राफिक प्रकल्प चल रहा है। तुलनात्मक रूप से बजट कम है पर निष्कर्ष गहरे और महत्वपूर्ण होंगे।

जीनोग्राफिक प्रकल्प के तहत दुनिया भर में अनेक शोध केंद्र स्थापित किये गये हैं जो स्थानीय विशेषताओं के आधार पर निम्न प्रश्नों का उत्तर खोजने की कोशिश कर रहे हैं –
– ‘जोहान्सबर्ग, साउथ अफ्रीका’: किस अफ्रीकी समुदाय की जीन्स सबसे पुरानी है और बाहर से कौन आया ?
– ‘बेरूत/लेबनान’: सिकन्दर महान और दूसरी विश्वविजयी सेनाओं के जिनेटिक्स पदचिन्ह कहां-कहां किस प्रतिशत में मौजूद हैं ?

– ‘मदुराई/तमिलनाडू’: भारत की जटिल और रूढ़ जाति प्रथा के कारण यहां क्या सचमुच में अलग-अलग जिनेटिक समुदाय हैं या फिर आमतौर पर सच माना जाने वाला निम्न कथन भारत पर भी लागू होता है कि – भिन्न जातियों के सदस्यों के मध्य मौजूद जिनेटिक असमानताऐं और एक ही जाति के सदस्यों के मध्य मौजूद जिनेटिक असामनताऐं – इन दोनों में कोई फर्क नहीं है ?

– शंघाई/चीन: मनुष्य सबसे पहले ताइवान और जापान कब और कैसे पहुंचा ? उत्तरी और दक्षिणी शाखाओं को बांटने वाली क्या बातें थीं ? क्या उस जमाने के नाविकों ने एशिया के पूर्वी तट में विशालकाय प्रशान्त महासागर को पार करके अमेरिका तक पहुंचने की कोशिश की थी या किस हद तक सफल हो पाये थे ?

– मेलबर्न/आस्ट्रेलिया: यूरोप और एशिया के मध्य स्थित काकेशस पर्वत, एक बाधा थे या पुल ? इस क्षेत्र में पाई जाने वाली भाषागत और जिनेटिक विविधता के क्या कारण हैं ? साईबेरिया में बसने वाले प्रथम जत्थे कौन से थे और कौन सबसे अधिक प्रमाण में अमेरिका पहुंचे 

– पेरिस/फ्रान्स: प्राचीन यूरोप की आरम्भिक जातियां कौन सी थीं ? यूरोप के बड़े-बड़े उपनिवेशों की दुनिया के जिनेटिक नक्शे पर क्या छाप पड़ी ?

– फिलाडेल्फिया/यूएसए: उत्तरी अमेरिका में मानव कब-कब किस-किस मार्ग से आया ?

– ‘मिनास/ब्राजील: क्या मूलनिवासियों के चिन्ह आज भी मौजूद हैं ? एन्डीज पर्वत और अमेजान के जंगलों में रहने वालों के मध्य क्या समानताएँ तथा क्या अन्तर हैं ?

हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका के नाभिक में गुणसूत्रों ‘क्रोमोसोम’ पर अवस्थित डी.एन.ए. का अणु हर व्यक्ति का अपना अनूठा, अद्वितीय होता है क्योंकि प्रत्येक शिशु के बनते समय मां व पिता की ओर से आने वाली हजारों जीन्स में से कौन सी आधी जीन्स शुक्राणु में आयेंगी और कौन सी आधी अण्डकोशिका में, यह जुआ है, पासा है, ताश के फेंटे गये पत्ते हैं। ‘हमशक्ल, जुड़वा बच्चों को छोड़कर, जिनका डी.एन.ए. समान होता है। डी.एन.ए. अणु हमारी हजारों जीन्स की संरचनात्मक इकाई है। वाय क्रोमोसोम अपवाद है। यह पिता से पुत्र को मिलता है, बिना परिवर्तन के, बिना मिश्रण या आदान-प्रदान के। सतत् एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी। एक जैसा अवतरित होता जाता है – सिवाय फिर एक अपवाद के। कोई म्यूटेशन ‘व्युत्क्रम’ न हो गया हो।

म्यूटेशन या व्युत्क्रम-प्रजनन कोशिकाओं और नये डिम्ब की कोशिकाओं में विभाजन के समय क्रोमोसोम ‘गुणसूत्रों’ पर अवस्थित जीन्स की जब दुहरी कापी या प्रतिलिपि बनती है तो कभी-कभी नकल में खलल पड़ जाता है। प्रुफ रीडिंग में गलती हो जाती है। हर पीढ़ी में नहीं। हर विभाजन में नहीं। हजारों जीन्स में नहीं, केवल कुछ गिनीचुनी में। इस गलती को म्यूटेशन कहते हैं।

म्यूटेशन के कारण नई सन्तान की जिनेटिक संरचना में थोड़ा सा फर्क आ जाता है। प्रायः इस भेद में प्राणी के जीवन पर कोई असर नहीं पड़ता। परन्तु कभी-कभी पड़ता है। कभी अच्छा, कभी बुरा। समग्र रूप में व्याप्त विविधता में म्यूटेशन की प्रमुख भूमिका है। मानव जीनोम का 99.9 प्रतिशत एक जैसा है। जो बचा रहा 0.1 प्रतिशत वह जिम्मेदार है हमारी भिन्नताओं के लिये। बदलते हुए देशकाल में कुछ जीव अधिक सफल होकर अपनी संतति फैलाते हैं तो दूसरे कालकलवित हो जाते हैं। डार्विन की थ्योरी सर्वाइकल आफ फिटेस्ट ‘श्रेष्ठजन जीता है’ इन्हीं म्यूटेशन द्वारा नियंत्रित विविधता और परिवर्तन पर आधारित है।

अनेक म्यूटेशन ऐसे भी होते हैं जो कोई प्रत्यक्ष प्रभाव पैदा नहीं करते, बस गुपचुप रूप में मौजूद रहते हैं और परवर्ती पीढ़ियों में उतरते चले जाते हैं। किन्हीं दो व्यक्तियों में यदि इस प्रकार का एक जैसा म्यूटेशन मिले तो कह सकते हैं कि उनके पूर्वज कहीं न कहीं, कभी न कभी एक रहे होंगे। विभिन्न समुदायों व नस्लों में पाये जाने वाले म्यूटेशन्स की व्यापकता का तुलनात्मक ब्यौरा देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उनके मध्य कितना और किस दिशा में, किस देशकाल में कैसा सम्बन्ध, कैसा सम्पर्क, कैसा मिश्रण रहा होगा।

एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अनवरत रूप से वहीं-वहीं म्यूटेशन या जीन के उतरते चले जाने की सम्भावना सदैव गड़बड़ हो जाती है क्योंकि माँ के गर्भ में बीज बनने के पहले पिता की ओर से कौन सी पचास प्रतिशत जीन्स का समूह शुक्राणु में तथा मां की जीन्स में से कौन सी पचास प्रतिशत का समूह अण्ड कोशिका में आयेगा – यह एक शुद्ध लाटरी है। इस कारण बहुत सारे म्यूटेशन परवर्ती पीढ़ियों में पहुंच नहीं पाते। उन्हें धारण करने वाले शरीर के साथ नष्ट हो जाते हैं। दो अपवाद हैं। पिता की ओर से प्राप्त वाय क्रोमोसाम पर अवस्थित समस्त जीन्स मय उनके व्युत्क्रम के ‘जो केवल पुत्र को मिलती है’ तथा माता की ओर से प्राप्त माईटोकांड्रियल जीन्स मय उनके व्युत्क्रम के जो पुत्र या पुत्री दोनों को मिलती है। ये दोनों प्रकार के जीन समूह नये डिम्ब को प्राप्त होने वाली जिनेटिक थाती ‘धरोहर’ की लाटरी प्रक्रिया से परे रहते हैं तथा अपरिवर्तित रूप से हस्तान्तरित होते हैं।

धरती पर बिछे हुए इन्सानों के गलीचे के तानेबाने में ये दोनों धागे – वाय क्रोमोसोम और माईटोकान्ड्रियल जीन पहचाने जा सकते हैं – और उस सुन्दर कालीन की जटिल अबूझ डिजाईन का रहस्य तोड़ने में हमारी मदद करते हैं।
यह म्यूटेशन स्वतः प्राकृतिक रूप से होते हैं, निष्क्रमिक ‘रेन्डम’ होते हैं और प्रायः हानिरहित होते हैं। इन्हें रासायनिक विधियों से पहचाना जा सकता है।

जिनेटिक शोध में इनका उपयोग मार्कर्स ‘चिन्हक’ के रूप में करते हैं। दक्षिण भारत की कुछ परम्परावादी ब्राह्मण जाति के सदस्यों को हम उनके कपाल पर लगे टीके के रूप रंग से पहचानते हैं – शैव या वैष्णव आदि । ललाट का टीका एक तरह का चिन्हक हुआ। जीन्स में पाये जाने वाले या पुराने व्युत्क्रम झण्डाबरदार की तरह है। वे हमें आगाह करते हैं ‘यदि हमारे पास ज्ञान हो तो’ कि इस चिन्हक को धारण करने वाले में फलां-फलां गुण या अवगुण हो सकते हैं, खासियतें हो सकती हैं, रोग हो सकता है या वह फलां समुदाय या कबीले का सदस्य हो सकता है

किसी एक पीढ़ी में पुरुष के वाय क्रोमोसोम में होने वाले व्युत्क्रम बाद की समस्त पीढि़यों को उसी रूप में हस्तान्तरित होताचला जाता है। अनेक पीढि़यों के बाद यदि फिर कोई नया म्यूटेशन हुआ तो बाद की सन्तानों, पोतों, पड़पोतों, पड़-पड़ पोतों की श्रंखला में अब दोनों प्रकार के म्यूटेशन मिलेंगे। पहले वाला भी और बाद वाला भी। इसके बाद तीसरा, चौथा, पाँचवां आदि म्यूटेशन यदि अलग-अलग अन्तराल पर हुए तो वे भी जुड़ते जायेंगे। सभी शाखाओं में नहीं, किसी किसी शाखा में। कल्पना कीजिये कि एक पिता के वाय क्रोमोसोम में क, ख, ग नाम के तीन म्यूटेशन थे जो उसके अपने पितृपक्ष से प्राप्त हुए थे। अब उसके दो पुत्र हुए। उनमें से एक के अण्ड कोष में शुक्राणु बनते समय नया म्यूटेशन घ पैदा हुआ। दूसरे भाई के मामले में ऐसा कुछ नहीं हुआ। प्रथम पुत्र की समस्त परवर्ती पीढि़यों के वाय क्रोमोसोम पर क, ख, ग, घ चारों व्युत्क्रम का समूह ‘हेप्लोग्रुप’ पाया जाएगा जबकि द्वितीय पुत्र की वंशावली में पाये जाने वाला हेप्लोग्रुप केवल तीन म्यूटेशन के समूह क, ख, ग द्वारा चीन्हा जाएगा। अगली किसी पीढ़ी में सम्भव है कि नया म्यूटेशन जुड़ कर वह समूह क, ख, ग, च हो जाए।

मानों वृक्ष की प्रत्येक शाखा का अपना हेप्लोग्रुप होता है। सबसे मोटे तने की पहचान हेतु म्यूटेशन श्रंखला छोटी होगी। जैसे-जैसे शाखाऐं बढ़ती जायेंगी उनके हेप्लोग्रुप लम्बे होते जायेंगे। आरम्भिक अक्षर वही रहेंगे, बाद वाले अक्षर बदलते जायेंगे। दुनिया भर के लोगों में पाया जाने वाला प्रत्येक मार्कर ‘चिन्हक-म्यूटेशन’, एक नई श्रंखला की शुरूआत की ओर इशारा करता है। शोधकर्ता पता लगाने की कोशिश करते हैं कि फलां म्यूटेशन किस काल में, किस भूखण्ड में, किस समुदाय में प्रथम बार पैदा हुआ होगा और फिर किस तरह उसके बाद की पीढ़ियां फैलती गईं।

किसी पुराअवशेष की गहरी खुदाई में जमी हुई परतों के समान हमारे डी.एन.ए. में म्यूटेशन एक के बाद एक जमा होते गये हैं। विश्व के विभिन्न भूखण्डों में रहने वाले विभिन्न समुदायों के व्यक्तियों के रक्त में म्यूटेशन्स के क्रम को जब दुनिया के नक्शे पर रख कर देखते हैं तोएक खाका सा तैयार होने लगता है कि मानव की आरम्भिक यात्राएँकहाँ से कहाँ की ओर रहीं होंगी। ये हमारे पूर्वज के जिनेटिक पदचिन्ह हैं, जिन्होने अफ्रीका से निकल कर बाकी धरती को आबाद किया। सीता द्वारा टपकाए गये गहनों या ग्रिम की परीकथा में हेन्सल द्वारा छोड़े गये रोटी के टुकड़ों से उनके अपहरण या भटकन का मार्ग खोजा गया था। डी.एन.ए. म्यूटेशन भी ऐसे ही छूटे हुए टुकड़े हैं।

अभी तक की शोध के आधार पर माना जाता है कि साठ हजार वर्ष पूर्व सब के साझा पुरखे पूर्वी अफ्रीका में पहाड़ी क्षेत्र में रहते थे। केन्या, इथियोपिया, तान्जानिया आदि देशों में। उनकी संख्या कम थी, लगभग 10,000 । विलुप्ति के कगार पर थे। शायद समाप्त हो जाते । धरती पर हिमयुग था। ठण्डा मौसम था। भोजन की कमी थी। अन्य होमोनिड्स की तुलना में हमारे होमोसेपियन्स का विकास बेहतर था। मस्तिष्क बड़ा था, अधिक क्षमता वाला था। भाषा का आविर्भाव हो रहा था। एक दूसरे से संवाद करके सहयोग की योग्यता पनपी थी। भौगोलिक स्मृति को मिट्टी या रेत में नक्शा बनाकर दर्शाने, की निपुणता तब शायद जन्मी होगी। पत्थर के औजार बनाना सीखा जा चुका था। एक तरफ क्षमताएँ और संभावनाएँ थीं। दूसरी तरफ अस्तित्व को चुनौति देती परिस्थितियाँ।

फिर एक चमत्कार सा घटित होता है। न जाने कैसे और क्यों कर एक छोटा सा दल अपनी भूमि छोड़कर निकल पड़ता है। मंजिल का पता नहीं। अजीब सा जज़्बा है। कोई कल्पना आई होगी। कोई उम्मीद जागी होगी। कठिन जुआ था। पूर्वी अफ्रीका के सींग नुमा कोने से जो वर्तमान में सोमालिया है, ये लोग लाल सागर पार करके साउदी अरब पहुंचे। उस हिम युग में सागर उथले थे। कम गहरे थे। ज्यादा भूमि उजागर थी ।

लाल सागर में पानी न था, जमीन थी। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव प्रदेशों पर बर्फ की टोपियाँ विशालकाय थीं। पानी बर्फ के रूप में कैद था इसलिये सागर थोड़े कम व धरती थोड़ी अधिक थी। एशिया महाद्वीप के दक्षिणी किनारे चलते हुए ये जत्थे ईरान, इराक, पाकिस्तान, भारत, बर्मा, थाई देश, मलाया होते हुए इण्डोनेशिया तक पहुंचे और वहीं से एक लघु सागर यात्रा से आस्ट्रेलिया। अफ्रीका के बाहर पाई जाने वाली समस्त आबादियों में वाय क्रोमोसोम का एक म्यूटेशन मिलता है जिसका नाम है एम-168 है। आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों में यह चिन्ह 50000 वर्ष पुराने कंकाल/फासिल्स में मिलता है। इसके पहले कहीं नहीं, केवल अफ्रीका छोड़कर।

अजीब दास्तां है। दस हजार कि.मी. की दूरी। बीच में अथाह समुद्र। सागर किनारे लम्बी यात्रा रेत के पदचिन्ह तो चन्द मिनटों में मिट जाते हैं। इस कहानी के जिनेटिक पदचिन्ह अमर-अजर हैं, जिन्हें आज पुख्ता और विश्वसनीय माना जाता है।

क्या उस जत्थे ने अपने कुछ रक्तबीज ‘जिनेटिक मार्कर्स’ मार्ग में न छोड़े होंगे ? दक्षिण भारत में तमिलनाडु राज्य के मदुराई जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में हजारों लोगों का जिनेटिक परीक्षण करके सचमुच ये चिन्हक/मार्कर्स पाये गये। स्पेन्सर वेल्स की टीम के लिये इस तरह के परिणाम उत्तेजना के क्षण होते हैं। उनका सिद्धान्त, उनकी परिकल्पना, प्रायोगिक प्रमाणों की कसौटी पर खरे उतर रहे होते हैं। जिग-सॉ पज़ल के सैंकड़ों टुकड़ों में एक, अपनी जगह पाकर सही तरह से फिट हो जाता है।

एम-168 के अलावा प्रथम म्यूटेशन वाले समुदाय केवल अफ्रीका महाद्वीप में मिलते हैं। एम-168 की दो प्रमुख शाखाएँ बनीं। पहली एम-130 आस्ट्रेलिया पहुंची। दूसरी एम-89 लाल सागर की सूखी खाड़ी पार करके अरब देश पहुंची। आस्ट्रेलिया और अफ्रीका को छोड़कर बाकी सारे महाद्वीप एशिया, यूरोप, उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका आदि एम-89 समुदाय की सन्तानें हैं। एक खास जत्था एम-9 था जो मध्य एशिया और युरेशिया के घास के मैदानों वाले इलाकों स्टेपीस में पहुंचता है। हजारों साल तक वे यहां पनपते रहे। दक्षिण की ओर पामीर, हिन्दकुश और हिमालय जैसे पर्वत तथा ताक्लीमान जैसे रेगिस्तान ने मार्ग रोका था। फिर भी कुछ जाबांज नये समुदाय ‘अपने नये म्यूटेशन मार्कर्स एम-20 के साथ’ इन बाधाओं को लांघ कर भारत पहुंचते हैं। एम-9 की एक दूसरी बड़ी शाखा एम-45 और भी उत्तरी एशिया में बढ़ती है। इसी दल के सदस्य अन्ततः यूरोप में और समस्त अमेरिका ‘उत्तरी और दक्षिणी’ को आबाद करते हैं।

दोनों अमेरिकी महाद्वीपों में मनुष्य सबसे बाद में पहुंचा। केवल दस हजार वर्ष पूर्व। आज हम जिन्हें रेड इंडियन या अमेरिका के मूल निवासी कहते हैं वे इसी दल के सदस्य थे। उनके आगमन का मार्ग आश्चर्यजनक था। उत्तरी एशिया में रहने वाले एम-45 समूह की एक शाखा एम-242 पूर्व में साईबेरिया की दिशा में बढ़ती है। कड़ी सर्दी में, शून्य से 50 डिग्री सेल्सियस नीचे के तापमान में जीवित रहने वाले लोग आज भी इनके सीधे वंशज के चुजकी जाति रूप में वहां मौजूद हैं तथा अपने जीनोम में उक्त एम-242 चिन्हक धारण करते हैं। साईबेरिया का पूर्वी किनारा और अलास्का, उत्तरी अमेरिका का पश्चिमी किनारा उस हिमयुग में 10,000 वर्ष पहले बर्फ मार्ग से जुड़े हुए थे। आज वहाँ सागर है, तब नहीं था। इसी मार्ग से एम-3 नामक शाखा वर्तमान कनाडा में प्रवेश करती है और फिर लगभग एक हजार वर्ष में दक्षिणी अमेरिका के दक्षिणी छोर तक जा पहुंचती है।

क्रिस्टोफर कोलम्बस के 1490 में अटलांटिक महासागर पार करके अपनी कल्पना के भारत पहुंचने का नया पश्चिमी मार्ग खोजने के उपक्रम में अमरीका की धरती पर कदम रखा था। पिछले पाँच सौ वर्षों में यूरोपीय और अन्य देशों के लोगों ने अमेरिका को पुनः भर दिया और बहुसंख्यक हो गये। 10,000 वर्ष पूर्व पहुंचने वाले एम-3 मूलनिवासी, रेड इंडियन मारे गये, मर गये और आज मुट्ठी भर संख्या में बचे हैं। इसी प्रकार आस्ट्रेलिया में 50,000 वर्ष पहले पहुंचने वाले एबोरिज़नी एम-130 गिनती के हैं, बाकी सब वे हैं जो पिछले दो सौ सालों में ब्रिटेन व अन्य देशों में वहाँ पहुंचे।

नेशनल जियोग्राफिक से जो किट मैंने मंगाई थी उसमें बोनस के रूप में एक डी.वी.डी. है जिस पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म – ‘जर्नी आफ मेन’ रिकार्ड की गई है। मेरे गाल की कोशिकाओं में निहित जिनेटिक म्यूटेशन चिन्हकों के परिणाम की प्रतीक्षा के दिनों में मैंने इस फिल्म को बार-बार देखा। गजब का अनुभव है। कला, विज्ञान व इतिहास का अद्भुत संगम।

इस प्रकल्प के प्रमुख वैज्ञानिक स्पेन्सर वेल्स ने आदि मानव की यात्रा स्वयं दोहराने का बीड़ा उठाया। पैदल कम, अन्य साधन ज्यादा, फिर भी रोमांचक, श्रमसाध्य, कठिन और खतरनाक।

स्पेन्सर वेल्स हमें कहाँ-कहाँ नहीं ले जाते। सबसे पहले अफ्रीका के साल – कबीले के बीच जो आदम व हव्वा की सीधी सन्तानों के रूप में माने जाते हैं। इसके जीनोम में जो व्युत्क्रम हैं वे और कहीं नहीं । इनकी जीवन शैली और भाषा में जो है वह कहीं नहीं। क्लिक-क्लिक, टच्-टच की चटखारे जैसी ध्वनियाँ इनकी जिव्हा से निकलती हैं और भाषा का प्रमुख हिस्सा है। तजाकिस्तान के एक परिवार से हमारी मुलाकात है जिसके पड़-पड़ दादाओं ने उस समूह का प्रतिनिधित्व किया था। जिसने अन्ततः एशिया, यूरोप व अमेरिका को आबाद किया ‘एम-9’। मदुराई जिले के तमिल भाषी गाँवों में हम एक कैम्प में पहुंचते हैं जहाँ तम्बुओं के बाहर ग्रामीणजन कतार में बैठे हैं और परीक्षण हेतु सहर्ष अपना रक्त दे रहे हैं। भूसे के विशाल ढेर में से वह सुई मिल ही जाती है जो सिद्ध करती है कि आस्ट्रेलिया जाने वाले प्रथम जत्थे ‘एम-130’ के कुछ वंशज दक्षिणी भारत में आज भी मौजूद हैं गोकि भारत की अधिकांश आबादी के पूर्वज अन्य मार्गों से, अन्य कबीलों के रूप में, अलग-अलग कालों में अवतरित हुए थे। धुर उत्तर में कड़ाके की ठंड में, साईबेरिया की चुचकी जाति को हम रेनडियर दौड़ाते देखते हैं और रात में तम्बु में खुद के शरीर की गर्मी से गरमाए खोल में जिन्दा रहने के दैनिक चमत्कार को देखकर ठिठुरते हैं। अमेरिका व आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों के बीच पहुंचते हैं तथा उनके परिवेश, जीन्स, नाक-नक्श और मान्यताओं से रूबरू होते हैं।

हमें यह भी जानना जरूरी है कि इस जीनोग्राफिक प्रकल्प का विरोध भी हुआ है। अमेरिकी मूल निवासियों रेड इंडियन के अधिकांश कबीलों ने इस प्रक्रिया में अपने सेम्पल्स देने से इन्कार कर दिया। मानव जीनोम विविधता प्रकल्प ‘ह्यूमन जिनेटिक डायवर्सिटी’ का भी ऐसा ही विरोध हुआ था। जैव उपनिवेशवाद पर मूल निवासियों की समिति इन्डीजीनस पीपुल काउन्सिल आन बायो कालोनिएलिज्म तथा मूलनिवासियों के मुद्दों पर संयुक्त राष्ट्रसंघ के स्थायी फोरम युनाईटेड नेशन्स पर्मानेन्ट फोरम ऑन इन्डीजीनस इश्यूज ने भी इस प्रकल्प का विरोध किया है।

इस प्रतिरोध के कारण बड़े अजीब हैं और मेरे गले में आसानी से नहीं उतरते। लोगों का डर है कि उनके सदियों पुराने विश्वास, मान्यताएँ और मिथक टूट जायेंगें। वाचिक परम्पराओं, धर्मग्रन्थों और महाकाव्यों में बताया गया है कि दुनिया कैसे बनी, धरती कब गढ़ी गई, इन्सान कैसे आया आदि-आदि। इन आस्थाओं का क्या होगा ? हरा कबीला मानता है कि वे ही इस भूमि पर सबसे पहले अवतरित हुए या कि उनका भू-भाग, धरा का केंद्र है। वे पूछते हैं कि क्या विज्ञान की सच्चाई के खातिर हमारे हजारों वर्षों के मिथकों को कूड़े में डाल दिया जावे। कितनी मानसिक पीड़ा होगी ? कितना दुःख होगा यह जानकर कि जिन गाथाओं पर हम गर्व करते थे वे महज काल्पनिक थीं, गल्प थीं।

अनेक आस्थावान लोगों को लगता है कि पूर्वजों की जीन्स आदि के बारे में जानने से उनकी पवित्रता नष्ट होगी। पुरखों के प्रति हमारी श्रद्धा के चलते हम उनकी काल्पनिक छवि को एक अलौकिक आभा से महिमा मण्डित किये रहते हैं। हेप्लोग्रुप और म्यूटेशन की शब्दावली द्वारा वह आभा, वह महिमा खण्डित होती है। इसलिये हमको नहीं चाहिये यह विज्ञान।

बहुत से वनवासियों को डर लगता है कि उनके भूमि अधिकारों पर खतरा मण्डराएगा जो कि उन्हें इस वाचिक परम्परा की बिना पर मिले हुए हैं कि उनके पूर्वज आदि काल से यहीं रहते आये हैं। इस बात को लेकर आशंकाएँ और विरोध दर्ज हुआ कि जांच हेतु दी गई कोशिकाओं को टिश्यु कल्चर में लम्बे समय जीवित रख कर उनमें विभाजन की क्षमता विकसित करके नई कोशिकाएँ और अमत्र्य सेल लाइन्स कोशिका श्रंखला स्थापित कर ली जायेंगी।

कुछ लोगों को पेरानाइड किस्म की कुशंकाऐं सताती हैं कि जीनोग्राफिक प्रोजेक्ट के द्वारा विभिन्न नस्लों के डी.एन.ए. को हड़पने, चोरी करने, संग्रहित करने, पेटेंट करने, गुप्त शोध करने, व्यावसायिक उपयोग करने, निजता को भेद कर ब्लेकमेल करने आदि का षडयंत्र है।

यह भी आरोप लगाया जाता है कि इस प्रकार की शोध द्वारा जातिगत उच्चता रेसियल सुपीरियोरिटी की मान्यता वाले वैज्ञानिकों द्वारा यह सिद्ध करने की कोशिशों को बढ़ावा मिलेगा कि कुछ नस्लें बेहतर हैं और कुछ घटिया। राजनैतिक औचित्य ‘पोलिटिकल करेक्टनेस’ के इस जमाने में जातियों या समुदायों के मध्य विद्यमान थोड़ी बहुत बायोलाजिकल विभिन्नताओं का उल्लेख करना और थोड़ी सी ऊँच नीच की तरफ इशारा करना महापाप है, वर्जित विषय है। बात भी मत करो। शोध मत करो। जिस गली जाना नहीं उसका मार्ग मत खोजो।

वैज्ञानिक प्रगति और सोच के खिलाफ ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण विरोध पहले भी होता रहा है और भविष्य में भी होगा। यह मानव स्वभाव है, पर विज्ञान को कोई रोक नहीं सकता क्योंकि वह भी मानव स्वभाव है और ज्यादा ताकतवर और ज्यादा सच्चा है, और साथ ही ज्यादा सुन्दर-मोहक-काव्यमय-अलौकिक भी है। इन गुणों पर साहित्य धर्म, अध्यात्म और कला संकाय ‘ह्यूमेनिटीज’ की बपौती नहीं है। जब न्यूटन ने प्रकाश-भौतिकी के माध्यम से समझाया कि आकाश में इन्द्रधनुष की रचना पानी की लाखों बूंदों में से सूर्य किरणों के परावर्तन के द्वारा होती है तो प्रख्यात कवि जॉनकीट्स ने कहा कि न्यूटन ने अपने शुष्क ज्ञान से इन्द्रधनुष की सुन्दरता, मोहकता, रहस्यमयता, गूढ़ता, काव्यात्मकता, अलौकिकता आदि को नष्ट कर दिया है। लेकिन मुझे लगता है कि न्यूटन की व्याख्या ने इन्द्रधनुष के आकर्षण में बढ़ोतरी की न कि कमी। ऐसी ही मानसिकता जीनोग्राफिक शोध के साथ रखी जानी चाहिये।

उपरोक्त समस्त डर, शंकाऐं, कुशंकाऐं, विरोध आदि को बातचीत व समझाइश द्वारा दूर करने के प्रयास किये जा रहे हैं और सफल हो रहे हैं। समस्त भागीदारों का डी.एन.ए. अनाम-अज्ञात रूप से संग्रहित किया जा रहा है जिसका कोड नम्बर ‘कूट संख्या’ केवल भागीदार के पास रहता है। पूर्वजों के वाय क्रोमोसोम के म्यूटेशन के अलावा अन्य कोई जिनेटिक परीक्षण नहीं किये जा रहे हैं। इस किट की बिक्री से प्राप्त धन का पचास प्रतिशत विलुप्ति की कगार पर खड़ी नस्लों के सांस्कृतिक संरक्षण में खर्च किया जा रहा है। अलास्का में रहने वाली लोरियान रासन को शुरू में यह जानकर धक्का लगा कि उसके पूर्वज, उनकी जाति के परम्परागत रूप से दुश्मन माने जाने वाले यूपिक एस्किमो थे। लेकिन फिर उसने अपने आप को समझाया कि क्या पुरानी रूढ़ मान्यताओं को बनाये रखना वैज्ञानिक सत्य की तुलना में अधिक उपयोगी है ? क्या हम सदैव शुतुरमुर्ग या कूप-मण्डूक बने रहना चाहते हैं। इस प्रकल्प में भागीदारी पूर्णतया स्वैच्छिक है। किसी प्रकार का दबाव या प्रलोभन नहीं है। जीनोग्राफिक प्रकल्प की समस्त जानकारी एक खुली किताब के रूप में पारदर्शी तरीके से इन्टरनेट पर ओपन सोर्स में उपलब्ध रहेंगी ‘केवल निजी पहलू छोड़कर’। इस शोध का कोई व्यावसायिक उपयोग नहीं होगा। कोई पेटेंट नहीं किया जाएगा। मेडिकल जानकारी नहीं निकाली जायेगी। टिशुकल्चर में अमत्र्य सेल लाइन्स नहीं विकसित की जायेंगी।

कबीलाई मान्यताओं का आधार केवल किंवदन्ती या जनश्रुति या धर्मग्रन्थ ही नहीं होते। नई-नई आधुनिक लेकिन अवैज्ञानिक मान्यताएँ और विश्वास राजनैतिक कारणों से भी पनपते हैं । एक विचारधारा के अनुसार अमेरिका के मूल निवासी प्राचीन इज़राइली थे या एटलान्टिस नामक खोई सभ्यता के वंशज। नौ हजार वर्ष पूर्व पुरानी एक खोपड़ी जो उत्तरी अमेरिका के वाशिंगटन राज्य में मिली, दिखने में तथाकथित काकेशियन प्रतीत होती थी, इसलिये दावा किया गया कि प्रथम अमेरिकी जन उत्तरी यूरोप से आये होंगे।

अपनी राजनैतिक व सामाजिक सोच के साथ जो सिद्धान्त या धारणा पटरी पर बैठती है, वैसा ही रंगीन चश्मा लोग अपनी आँखोंखों पर चढ़ा लेते हैं तथा वैज्ञानिक तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं या उनका उल्टा पुल्टा अर्थ निकालते हैं। हिटलर की नाजी विचारधारा के अनुसार जर्मन लोग आर्य जाति के श्रेष्ठतम समूह का प्रतिनिधित्व करते थे।

भारत में आर्य कहाँ से आये ?

भारत में आर्य कहाँ से आये ? क्या वे यहाँ के मूल निवासी थे या बाहर से आये ? किस काल में आये ? कितनी बार में, कितने समय तक आते रहे ? आर्य की परिभाषा क्या है ? क्या द्रविड़ और आर्य भिन्न थे ? क्या इन दोनों के अलावा अन्य भेद अधिक महत्वपूर्ण हैं जिनमें हम भारतीय जन समुदाय को वर्गीकृत कर सकते हैं ? ब्राह्मण और शुद्र या क्षत्रिय और वैश्य के पुरखे अलग थे या समान ? उपरोक्त समस्त प्रश्नों के उत्तर जिनेटिक शोध के आधार पर अधिक सटीक और पुख्ता तौर पर मिल पायेंगे। फिर अधिकांश बहसें समाप्त हो जाना चाहिये। वैसे देखा जावे तो जीनोग्राफिक सबूतों के बगैर भी इस तरह की सोचों का कोई मतलब नहीं है।

दक्षिण पंथी राष्ट्रवादी सोच वाले विचारक मानते रहे हैं कि यह सिद्ध होने के कि आर्य लोग, मध्य एशिया या बाहर कहीं से आये हमारी भारतीय संस्कृति की नाक नीची हो जायेगी । उनके अनुसार पश्चिमी विद्वान जानबूझ कर दुर्भावनापूर्वक, पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर आर्यों को बाहर से आया बताना प्रतिपादित करते रहे हैं ?

स्पेन के उत्तरी भाग में बास्क संस्कृति के लोग दावा करते हैं कि उनकी भाषा और दूसरी तमाम बातें शेष स्पेन से बहुत भिन्न हैं और उन्हें अपने स्वतंत्र राष्ट्र का हक है। उनका आन्दोलन अनेक दशक पुराना और आतंकवादी गतिविधियों से भरा रहा है। जिनेटिक प्रकल्प से सुस्पष्ट उत्तर मिलने की उम्मीद है। मोहम्मद अली जिन्ना के अनुसार हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र रहे हैं। हमारे क्रोमोसोम इस प्रकार की धारणाओं को सदैव के लिये समाप्त करने में सहायक होंगे। इस पृष्ठभूमि के साथ यदि कमलेश्वर होते हो अपनी रचना कितने पाकिस्तान के निष्कर्षों को और भी दृढ़ता से कह पाते।

विभिन्न जातियों के मध्य अलगाव कभी भी एक सौ प्रतिशत नहीं रहा । मिश्रण सदैव हुआ। आतिगत शुद्धता की धारणा बेमानी है। हमारा खून शुद्ध, तुम्हारा खून अशुद्ध, यह बेकार की मिथ्या धारणा है। हम सब वर्ण संकर है और हमें इस बात पर गर्व होना चाहिये न कि शर्म। वर्ण संकर होना, उत्सव मनाने की, खुशी मनाने की बात है। हर देश-काल में, हर जाति में लोगों की दूसरी जाति के साथ भेंट हुई, मित्रता हुई, प्यार हुआ, रोटी-बेटी का नाता जुड़ा और नई नस्ल की नई पीढि़याँ बनीं। एक नृविज्ञानी ‘एन्थ्रोपोलाजिस्ट’ ने सही कहा कि दुनिया भर की तमाम जातियाँ, नस्लें एक रात के सम्मिश्रण में गायब हो सकती हैं।

हम सब भाई-भाई, बहन या कजिन्स हैं। एक परिवार के सदस्य हैं। वसुधैव कुटुम्बकम और सबैभूमि गोपाल की। ऐसे सन्देश कितने लोग, कितनी सदियों से देते रहे हैं। वेद, उपनिषद्, पैगम्बर, मसीहा, सन्त, विद्वान, गुरु, दार्शनिक आदि यही तो कहते रहे हैं। जीनोग्राफिक प्रकल्प के निष्कर्ष उक्त सन्देशों को और भी पुख्ता आधार प्रदान करेंगे।

जीनोग्राफिक प्रकल्प द्वारा उजागर होती सच्चाइयों के बाद इस बहस में क्या दम कि कौन भूमिपुत्र ‘सन आफ दि साईल’ कौन बहिरागत, कौन शुद्ध खून वाला और कौन वर्ण संकर ?

विभिन्न हेप्लोग्रुप्स ‘म्यूटेशन श्रंखला’ को धारण करने वाले समुदायों की संख्या छोटी बड़ी होती है। सुदूर, अगम्य, अलग थलग इलाकों में पाये जाने वाले छोटे-छोटे कबीलों के हेप्लोग्रुप अन्य कहीं न मिलेंगे। भारत या मध्य एशिया जैसे भूभाग जहाँ पर लम्बे काल तक समुदायों का आवागमन और मिश्रण होता रहा वहाँ पर करोड़ों की जन संख्या वाले हेप्लोग्रुप समुदाय मिलेंगे। अभी यह भी ज्ञात नहीं है कि दुनियाभर में कुल कितने हेप्लोग्रुप जिनेटिक समुदाय हैं। पर्याप्त मात्रा में जानकारी ‘डाटा’ उपलब्ध नहीं है। जीनोग्राफिक प्रकल्प का प्रमुख उद्देश्य है नृविज्ञान ‘एन्थ्रोपोलाजी’ की दृष्टि से और अधिक जिनेटिक डाटा जुटाया जाए। शोधकर्ताओं के दल विश्व के कोनों तक यात्रा करके, आदिवासी, वनवासियों और मूल निवासियों के लगभग एक लाख सेम्पल्स इकट्ठा कर रहे हैं। अब तक जो नक्शा बना है वह अधूरा है। बहुत सारे गेपा बाकी रह गये हैं। जंगल सा दृश्य देखा है, वृक्षों के बारे में बहुत कम मालूम है। दुनिया भर से ज्यादा देशों से, ज्यादा नस्लों के ढेर सारे सेम्पल्स की जरूरत है । विशेषकर वे कबीले जो लम्बी अवधि से अलग-थलग रहे हों, दूसरों से जिनका सम्मिश्रण न हुआ हो। उन लोगों तक पहुंचना और उन्हें इस जिनेटिक शोध में शामिल होने हेतु राजी करना, एक अर्जेन्ट चुनौति है क्योंकि ऐसे समूह तेजी से विलुप्त हो रहे हैं या मिश्रित होते जा रहे हैं।

जीनोग्राफिक प्रोजेक्ट के वेबसाईट पर कुछ-कुछ दिनों के अन्तराल पर, बार-बार मैं अपने सेम्पल के परिणाम जानने हेतु मेरी किट का कोड नम्बर उसमें भरता हूँ। अनेक प्रकार के उत्तर मिलते हैं – अभी तक इस नम्बर की किट हम तक नहीं पहुंची। अब पहुंच गई है, प्रक्रिया शुरू होने वाली है, परीक्षण जारी है, परीक्षण दोहराए जा रहे हैं, यह रहा आपका परिणाम – एक नक्शा, एक प्रमाण पत्र और एक आलेख के रूप में।

मेरे पिता की ओर से हमारे पूर्वजों का हेप्लोग्रुप एम-124 ‘आर 2’। जैसा कि अनुमान था कि आरम्भिक म्यूटेशन एम-168 और एम-89 थे जो अफ्रीका से निकलकर अरब देश पहुंचने की पुष्टि करते थे। पश्चिम एशिया को सच ही मानव जाति का प्रथम गैर अफ्रीकी पालना कहा गया है। अनुमान के अनुसार हमारे पूर्वजों का तीसरा सबसे पुराना समूह एम-9 था जिसने 40000 वर्ष पहले, पूर्व दिशा में मुड़कर ईरान और दक्षिणी मध्य एशिया को आबाद किया। इसे यूरेशियन जत्था कहते हैं क्योंकि आगामी 30000 वर्षों में इसी की सन्तानों ने यूरोप व एशिया की जनसंख्या में सबसे अधिक श्रीवृद्धि की।

मेरे पूर्वज उस आरम्भिक दल के सदस्य नहीं थे जिसने 50000 साल पहले सागर किनारे का मार्ग अपनाते हुए आस्ट्रेलिया तक की यात्रा 1000 साल में पूरी की थी और अपने चिन्ह, न्यूगिनी, मलेशिया और दक्षिण भारत में छोड़े थे। दक्षिण एशिया, भारत आने वाले बड़े समूह के रूप में एम-20 और एम-69 की पहचान भी हुई है। परन्तु मेरे पूर्वज इस समूह के सदस्य भी न थे। भारत आने से पहले उन्हें उत्तरी दिशा में भटकना था।

35000 साल पहले एम-45 चिन्हक धारण करने वाला एक समुदाय मध्य एशिया में फैलता है । आजकल के देश है, कज़ाकिस्तान, उज़्बेगिस्तान और दक्षिणी साईबेरिया। धरती के अन्तिम हिमयुग में इन लोगों ने बड़ी कठिनाई से हजारों साल तक अपना अस्तित्व बनाये रखा। 30000 साल पहले एम-207 नामक ये नये म्यूटेशन वाला एक जत्था और उत्तर पश्चिम दिशा में बढ़ता है जो अन्ततः पश्चिमी यूरोप की आबादी बनायेगा। परन्तु मेरे पूर्वज फिर मार्ग पलटते हैं। लगभग 25000 वर्ष पहले एम-124 यह पूरी शृंखलामिलकर कहलाई आर-2, हेप्लोग्रुप। इस ग्रुप को धारण करने वाले लोगों की संख्या भारत में 5-10 प्रतिशत है। अर्थात् मैं एक अल्पसंख्यक समुदाय का सदस्य हूँ। गौर करने के लायक एक तथ्य यह भी है कि केवल 1000 साल पहले पश्चिमी भारत से पूर्वी यूरोप पहुंचने वाले जिप्सी लोगों का हेप्लोग्रुप भी आर-2 है। चलें अपना तम्बूओं का कारवां लेकर और हो जाए गीत संगीत।

भारत दुनिया के उन भू भागों में से है जहाँ सबसे अधिक सम्मिश्रण हुआ है। अभी बहुत कम लोगों का जिनेटिक सर्वेक्षण हुआ है और अधिक लोगों को अपना परीक्षण करवा कर जानकारी बढ़ाना और बढ़वाना चाहिये। जीनोग्राफिक वेबसाईट पर मुझे बताया गया कि मेरे पूर्वजों की पुरानी जानकारी को मैं चाहूं तो अपने तक गुप्त रख सकता हूँ। किसी को भी मालूम नहीं पड़ेगा कि इस किट को भेजने वाला, मैं कौन था ? या फिर चाहूँ तो अपने बारे में कुछ सामान्य जानकारी बता दूँ ताकि दुनिया के जिनेटिक चित्र में रंग की एक टिपकी और पड़ जाये तथा वह चित्र बिन्दु-बिन्दु, धीरे-धीरे अपनी पूर्णता प्राप्त कर सके। मैंने बाद वाला विकल्प सहर्ष स्वीकार किया और मुझे गहरे आत्मिक संतोष की अनुभूति हुई।

अच्छी कहानी सुनना सबको भाता है। यह कहानी जब पूरी लिख ली जायेगी तो सबसे महान गाथा होगी। इसकी शुरूआत दो लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका में होती है। मानव पूर्वजों का एक छोटासा समूह। कुछ जमा कुछ सौ रहे होंगे। आज साढ़े छः अरब बाशिंदे चप्पे-चप्पे पर बसे हुए हैं। कहीं शांतिपूर्वक, कहीं लड़ते हुए, हजार किस्म के देवताओं को पूजते हुए या किसी को भी नहीं, अलग-अलग रूप व रंग के उनके चेहरों पर या तो चूल्हे की आग की रोशनी तमतमा रही है या फिर कम्प्यूटर के पर्दे की।

मानव समूहों का परिव्राजन ‘माईग्रेशन’ आहिस्ता-आहिस्ता, मंथर, धीर-गम्भीर गति से हुआ था। मानों समुद्र किनारे, बीच पर, भीड़ अधिक होने से एक छोटा समूह अगले दिन कुछ दूर जाकर, थोड़ा खुले में पहुंच जावे। दिन ब दिन, सप्ताह दर सप्ताह यह फैलाव बढ़ता जाए । अनेक सहस्त्राब्दियों में मील दर मील यह यात्रा बढ़ती रही।

यह गाथा है जिन्दा रहने की, बच निकलने की, गतिमान होने की, कभी बिछुड़कर छिटक कर अलग थलग पड़े रह जाने की, कभी कारवाओं के मेलों की, कभी हार की, कभी जीत की । इस कहानी का अधिकांश अज्ञात, अल्पज्ञात, हिस्सा प्रागैतिहासिक युग के मौन में डूबा हुआ है। जो ज्ञात है वह बहुत बात का है, हाल ही का है।

कैसे रोमांचक रही होगी यह यात्रा। अलग-अलग समूह, अलग-अलग कबीले, कोई छोटा कोई बड़ा। कोई यहाँ ठिठुका, कोई वहाँरुका, कोई चलता ही गया। भूमि के मानचित्र पर लम्बी छोटी रंगीन रेखाएँ-यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ, एक दूसरे को काटती हुईं, कुछ सीधी, कुछ घूम कर मानों वापस लौटतीं। ये सारे कारवां या तो समुद्र तटों से सटे रहते हैं या रेगिस्तानों को टालते या घास के मैदानों में विचरते और कभी तो पहाड़ों को लांघ जाते। महाकाल की दीर्घकालिक घड़ी की इकाइयों में, जो दिन, सप्ताह, माह या वर्ष में नहीं, वरन् सहस्त्राब्दियों में नापी जाती हैं। ये यात्राएँ चलती रहीं, कभी धीमी, कभी तेज परन्तु सदैव अनवरत। पीढ़ी दर पीढ़ी। शिकार करते हुए, बीनते चुनते हुए।

मानव की सबसे लम्बी यात्रा अब पूर्ण हो चुकी है। इन्सान धरती के कोने-कोने तक पहुंच चुका है । पर क्या यह यात्रा सचमुच में पूर्ण हो चुकी है ? नहीं, यात्रा तब तक अधूरी रहेगी जब तक कि हम सब बंधुत्व के अहसास को नये ज्ञान के प्रकाश में, पूरी तरह अपने मन में आत्मसात न कर लेंवें।

थोड़े समय पहले समाचार आया था कि एन्जीलोना जोली और ऐश्वर्या राय की नीली आँखें बताती हैं कि उनके पूर्वज एक ही रहे होंगे। जीनोग्राफिक शोध से ज्ञात हुआ कि विश्व में नीली आँखों वाले सभी लोगों का कोई पुरखा, आज से हजारों साल पहले मध्य एशिया के काला सागर क्षेत्र में रहा होगा। उसके जन्म के समय जीन में म्यूटेशन से आँख का आईरिस का रंग बदल गया जो बाद की पीढ़ियों में प्रगट होता रहा है। ऐसी अनेक रोचक उपयोगी कथाएँ जन्मेंगी।

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