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डॉ. आलिवर सॉक्स के साथ चाय पर गपशप


डॉ. आलिवर-सॉक्स चिकित्सक लेखकों की बिरली जमात के बिरले उदाहरण है । आपका जन्म 1933 में लन्दन में एक समृद्ध यहूदी परिवार में हुआ था । पिता जनरल प्रेक्टीशनर थे और माता प्रसूति व स्त्री रोग विशेषज्ञ । ज्ञान, साहित्य, संगीत, प्राकृतिक अवलोकन और वैज्ञानिक प्रयोगों के लिये अदम्य भूख और तीक्ष्ण मेधा के चिन्ह बचपन और किशोरावस्था में नज़र आने लगे थे । बड़े संयुक्त परिवारों के उस जमाने में ओलिवर को विविध रूचियों और योग्यताओं वाले अंकल और आंटी (मामा, मौसी, बुआ आदि) द्वारा देखभाल और मार्गदर्शन का सौभाग्य मिला । उनमें से एक टंगस्टन मामा का बालक आलिवर के कच्चे संवेदी मन पर गहरा प्रभाव पड़ा था ।

19 वीं शताब्दी की प्रयोगात्मक भौतिकी, रसायन और जीव-विज्ञान की अद्भुत दुनिया से आलिवर का परिचय हो चुका था । इस अच्छी परवरिश ने द्वितीय विश्वयुद्ध की त्रासदियों के मानसिक सदमें और अनेक सालों के लिये लन्दन के घर से दूर एक नीरस, कठोर बोर्डिंग स्कूल की यातनाओं को सहन करने और अपने आप को टूटने से बचाने में बहुत मदद करी । युवावस्था के वर्षों तक दिशाएं अनिश्चित रहीं । अन्तत: चिकित्सक बनना, न्यूरालाजी में आना और अमेरिका पहुंच जाना और लेखक बनना – शायद नियति ने यही तय कर रखा था ।

आगे का न्यूरालाजी प्रशिक्षण लास एंजलिस में हुआ | अधिकांश जीवन न्यूयार्क में बीता । अल्बर्ट इन्सटाईन कालेज में प्रोफेसर ऑफ मेडिसिन रहे ।युवावस्था में मोटर साईकल चलाना और बचपन से अभी तक तैरना आपकी अभिरुचियां रहीं । आज भी लेखन जारी है । छोटी बड़ी किताबों के अलावा ढेर सारे लघु लेख, सभाओं में भाषण, रेडियो, टी.वी. पर साक्षात्कार और वक्तव्य आदि चलते रहते हैं । चिकित्सा शोध में भी अच्छा योगदान रहा है । मेडिकल जर्नल्स में अनेक शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं | आजकल मरीज बहुत कम और बहुत चुनकर देखते हैं | पारम्परिक रुप से प्रशिक्षण प्राप्त न्यूरालाजिस्ट, मस्तिष्क व नाड़ियों के काम व उसमें आई खराबियों के बारे में एक बन्धे बन्धाए तरीके से सोचते हैं। लकवे का कोई मरीज सामने आने पर उनका दिमाग चलने लगता है मस्तिष्क के किस भाग में खराबी आई है ? किस किस्म की व्याधि है ? निदान पुख्ता करने के लिये क्या जाचें करवाना है ? कौन सा उपचार सम्भव है ? भविष्य में सुधार की क्या सम्भावनाएं हैं ? पुनर्वास हेतु क्या करना होगा? डॉ. ओलिवर का सोच इससे कहीं आगे तक जाता है । उनके लिये स्वस्थ और रोग ग्रस्त दोनों प्रकार के मस्तिष्क के कार्यकलापों का क्षितिज अनन्त तक विस्तारित है । न्यूरालाजी की रूटीन दुनिया में वैसा नहीं सोचा जाता । ओलिवर के लिये बीमारी के बाद की स्थिति में मस्तिष्क द्वारा अपने अपने को नये रूप में ढाल लेना, नैतिक, मॉरल, दार्शनिक, अस्तित्ववादी और इपीस्टेमियोलाजीकल प्रश्न खड़े करता है । लकवे का कोई मरीज सामने आने पर वे सोचते हैं कि शेष स्वस्थ बच रहा दिमाग कैसे काम कर रहा है, उसमें क्या परिवर्तन आ रहे हैं – और इस बदली हुई परिस्थिति का तथा नयी न्यूरालाजिकल पहचान का उस इन्सान के लिये क्‍या अर्थ है? और न केवल उस मरीज के लिये बल्कि दूसरे मरीज के लिये भी और हम सब के लिये भी । डॉ. ऑलिवर हमें एक नये संसार में ले जाते हैं और सोचने के लिये मजबूर करते हैं । न्यूरालाजिकल अवस्थाओं की यह दुनिया यहां इसी धरती पर है । हमारे जैसे लोग उसके नागरिक हैं | कुछ ऊपर से अलग दिख जाते हैं। ज्यादातर हमारे आपके जैसे ही दिखते हैं । उनके मन की खिड़की खोल कर देखो । ढेर सारे प्रश्न उठ खड़े होते हैं । सामान्य मनुष्य होने की परिभाषा को कितनी दिशाओं में कितनी तरह से खींचा ताना जा सकता है। कुछ उत्तर भी मिलते हैं ।
डॉ. आलिवर सॉक्स अपनी न्यूरालाजिकल रूचियों के बारे में लेख और पुस्तकें लिखते हैं । यह लेखन केवल न्यूरालाजिस्ट के बजाय एक वृहत्तर पाठक समुदाय को लक्षित है । डॉ. सॉक्स का लेखन मरीजों से प्राप्त अनुभवों और उन पर की गई शोध में से उभर कर आया है । वे एक घनघोर पाठक भी हैं । पार्किन्सोनिज़्म के किसी मरीज पर लिखते लिखते वे न जाने किन किन लेखकों का सन्दर्भ ले आवेंगे – जेम्स जॉयस, डी.एच. लारेन्स, हर्मन हेस, एच.जी. वेल्स या टी.एस. इलियट ।

डॉ. आलिवर सॉक्स के बारे में मैंने सबसे पहले मई 1987 में जाना था । फिलाडेल्फिया, पेन्सिल्वानिया में मेरे एक न्यूरोसर्जन मित्र के घर प्रसिद्ध पुस्तक वह आदमी जो गलती से पत्नी को टोप समझ बैठाङ्ख पढना शुरु की थी । उसमें डूब गया था । अपनी पसन्द की चीज मिल गई थी। उसके बाद से ऑलिवर सॉक्स के व्यक्तित्व और लेखन में रुचि लगातार बढती गई । शुरु में धीरे-धीरे और बाद में जल्दी-जल्दी मैंने उनकी सभी किताबें पढ डाली ।

मैं आभारी हूँ हैदराबाद से डॉ. रेड्डीज लेबोरेटरी द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका हाउसकाल्सङ्ख की संपादक सुश्री रत्ना राव शेखर का जिन्होंने सुझाव दिया कि क्यों न मैं डॉ. आलिवर से भेंट का समय लूं, साक्षात्कार करूं और उन पर आलेख लिखूं । समय मांगने हेतु पत्र में मैंने लिखा – मैं आपका अनन्य प्रशंसक हूँ । आपके लेखन से प्रेरित होकर उम्मीद करता हूँ कि मैं भी हिन्दी में अपने मरीजों के बारे में लिखूं । एक गुरु के रूप में आपकी छवि और विचारवान अर्न्तदृष्टि का भारतीय सांस्कृतिक मानकों और दार्शनिक परम्पराओं का साथ मुझे मधुर सामंजस्य प्रतीत होता है ।ङ्ख
मिलने का समय तय हुआ 27अप्रैल 2007, न्यूयार्क दोपहर 2:30 बजे । मैं और पत्नी नीरजा उनके द्वार पर पांच मिनिट पहले पहुंच गये थे । गलियारे में एक सज्जन बाहर आये और पूछा कि क्या आप डॉ. ओलिवर सॉक्स का कमरा ढूंढ रहे हैं । हमारे हाँ, कहने पर उन्होंने एक ओर इशारा करा और बोले – जाओ, अन्दर जाओ, खूब आनन्द आयेगा । नीरजा ने पूछा – आपको कैसे मालूम कि हम किसे ढूंढ रहे हैं । जवाब मिला – अभी मैं उनके साथ था और उन्होंने अगले मुलाकाती से भेंट के बारे में बताया था । जाओ, मजे लो ।

और निःसन्देह आगामी दो घण्टे हमें भरपूर आनन्द से सराबोर कर देने वाले थे । एक शुद्ध आल्हाद जो महान मेघा के सान्निध्य मं प्राप्त होता है । ऐसे विनम्र विद्वान जो दूसरों को उनकी तुच्छता का अहसास नहीं कराते । ऐसी प्रतिभा जिससे ज्ञान, समझ व बुद्धि झरते हैं । डॉ. ऑलिवर में सतत्‌ बोलने, कहने, बताने, साझा करने टिप्पणी करने, दर्शाने और समझाने की चाहत है । वाणी का ऊर्जावान आवेग है । कोमल, मुलायम, धीमी, मधुर वाणी । अपने श्रवण यंत्र के साथ वे अच्छे श्रोता भी हैं । आप उन्हें रोक सकते हैं । वे आपके लम्बे, घुमावदार प्रश्न या कथन को ध्यान से सुनेंगे और आप क्या कहना चाहते हैं इसे शीघ्र बूझ कर, आपको बीच में रोक देंगे तथा दोनों पक्षों का समय बचा लेंगे ।

उनके दफ्तर और आवासीय कक्ष दोनों, ढेर सारी दुर्लभ, सुन्दर, महत्वपूर्ण, ऐतिहासिक और अर्थवान वस्तुओं द्वारा घनीभूत और समृद्ध तरीके से भरे हुए हैं । ऐसी तमाम चीजों को दिखाने और समझाने के लिये एक अच्छे गाईड की जरूरत होती है । डॉ ओलिवर सॉक्स इस हेतु स्वतत्पर हैं । उन्हें आनन्द आता है । स्वयं चुनते हैं या हमारे इशारा करने या पूछने पर बताते हैं । ढेर सारी किताबें, कागजात, दस्तावेज और पत्र-व्यवहार से टेबल, अलमारी आदि पटे पडे हैं । कमरा ठसाठस है पर बेतरतीब नहीं । चीजें व्यवस्थित हैं । उनके पुरस्कारों और सम्मानों की पट्टिकाएं हैं । दीवार पर लगे प्रदर्शन-तख्तों पर बहुत से फोटोग्राफ चिपके हैं दृश्य इन्द्रियों के लिये देख पाने का सैलाब हैं ।

सुश्री केट एडगर लम्बे समय से डॉ. ओलिवर की सहयोगी, मित्र व उनकी पुस्तकों की संपादिका रही हैं । वे आपका स्वागत करती हैं । डॉ. सॉक्स के लिये समस्त पत्र व्यवहार, ई-मेल व एपाईन्टमेंट आदि वे ही सम्हालती हैं । मुलाकात के पहले जब मैं अपने विभिन्न केमरा और डायरी आदि के साथ घबराया हुआ जूझ रहा था तो उन्हीं ने मुझे शान्तिपूर्वक धैर्य धारण करवाया ।

शीघ्र ही डॉ. ओलिवर का ऊंचा पूरा, सुदर्शन, सुन्दर व्यक्तित्व हमारे सामने उपस्थित होता है । आरम्भिक अभिवादन और हाथ मिलाने के बाद हम दोनों उनके पैर छूते हैं और बताते हैं कि भारत में बडों और सम्माननीय व्यक्तियों से मिलते और जुदा होते समय इसी प्रकार आदर व्यक्त किया जाता है । वे शायद पूरा समझे नहीं । खुद झुक कर हमारे शिष्ट आचरण की नकल करने की कोशिश करते हैं । बीच में रुक जाते हैं । मुझे कमर दर्द है मैं झुक नहीं सकताङ्ख । हम शर्मसार हो जाते हैं । नहीं नहीं… आपको ऐसा कुछ नहीं करना है । आप बस हमारे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद देवें ।ङ्ख और अपने हाथों से हम उनसे यह करवा लेते हैं ।
उन्होंने हल्के नीले रंग की कमीज पहनी है, गहरे नीले रंग की टाई व जैकेट है । उनकी प्रसिद्ध ढाढी व निश्छल मुस्कान सदैव विमान है । पास से देखने पर ललाट पर हल्के रंग का लांछन है ।
अध्ययन कक्ष की ओर जाते समय, एक टेबल पर डॉ. ओलिवर हमें तरह-तरह की धातुओं के अयस्क बताना शुरु करते हैं । मुझे मालूम था कि बचपन से डॉ.ओलिवर को रसायन शास्त्र, धातुएं और पीरियाडिक टेबल द्वारा उनके वर्गीकरण में गहरी रूचि थी । मुलाकात का अन्त होते होते हम अनेक कमीजों, टोपी, पोस्टर, चादर, तकिया, लिहाफ, काफी-मग आदि पर रासायनिक तत्वों के चिन्हों या फार्मूलों का कलात्मक, कल्पनामय और बौद्धिक चित्रण देख चुके थे । धातुओं और तत्वों के रसायन विज्ञान में ओलिवर का मन जब बचपन से डूबा तो अभी भी वैसा ही निमग्र है । एक खास प्रकार का जुनून है । लेकिन डॉ. ओलिवर अपने असली रूप में स्थितप्रज्ञ, मध्यमार्गी और उदार हैं ।

उनकी लिखने की मेज पर दो प्रकार के लेम्प हैं । एक पुराना पारम्परिक जिसमें टंगस्टन का तार विुत द्वारा गरम होने से दमकता है । और दूसरा आधुनिक, प्रयोगधर्मी, दैदीप्यमान गैस से भरा हुआ, जिन्हें हम ट्यूब लाइट, वेपर लेम्प या सी.एफ.एल. के रूप में जानते हैं । दूसरे लेम्प में इलेक्ट्रानिक रूप से उसके प्रकाश की तीव्रता, रंग और आभा को नियंत्रित करने की व्यवस्था है । हमारे मेजबान को पुराने प्रकार का बल्ब अधिक सुन्दर लगता है । मैं कहता हूँ कि ऊर्जा के उपभोग में कमी लाने के लिये नये प्रकार के प्रकाश स्रोत जरूरी हैं । वे भी मानते हैं और उल्लेख करते हैं कि आस्ट्रेलिया में गरम तन्तु वाले पुराने लेम्प बन्द किये जा रहे हैं । जब मैं कहता हूँ कि मुझे भी फिलामेंट बल्ब में ज्यादा सौन्दर्य अनुभूति मिलती है तो वे खुश हो जाते हैं । उनके अध्ययन कक्ष के बाहर लगे एक पुराने बल्ब के बारे में फख्र से बताते हैं कि वह उनके मामा की फेक्टरी के जमाने का है ।
मेज के ऊपर एक बोर्ड पर लगे चित्रों की ओर इशारा करके कहते हैं – ये मेरे नायक हैं । मैं शर्मिंदा हूँ कि मैं उनमें से किसी को भी पहचान नहीं पाता । चेहरों के बारे में मेरी स्मृति (ओलिवर की भी, जैसा कि उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है) कमजोर है । अधिकांश चित्र १८वीं और १९वीं शताब्दी के रसायन और भौतिकी के वैज्ञानिकों के हैं । नाम मेरे सुने हुए थे । बीसवीं सदी में से , डी.एन.ए. की रचना के खोजकार नोबल विजेता डॉ. फ्रांसिस क्रिक का चेहरा मैं जानता हूँ । एक भरे बदन की स्वस्थ खुशनुमा स्त्री का चित्र है जो खोजी है और तैराक है, एन्टार्कटिका के ठण्डे समुद्र में भी बिना गर्म सुरक्षा के चली जाती है ।

टेबल की दराज से डॉ. ऑलिवर दो चमकीले चिकने, रुपहले, धातुओं के गोले निकालते हैं और हमें अपने हाथ में उठाने को देते हैं । देखो – कितने सुन्दर एलिमेन्ट्‌स हैं – यह टंग्स्टन है – कितना भारी है । दूसरा थोडा हल्का है – टेन्टालम । वर्गीकरण में टेन्टालम का क्रम 72 और टंग्स्टन का 74 है। और मैं बीच में हुआ 73 । डॉ. ओलिवर का जन्म 1933 में हुआ था । वर्ष 2007 में साक्षात्कार के समय वे 73 वर्ष के थे । हल्के मुदित हास्य की बालसुलभ लेकिन वैज्ञानिक अदा पर हम निहाल हो गये ।

मैं अपना छोटा सा वीडियो कैमरा शुरु करता हूँ और एक लघु तिपाये स्टेण्ड पर उसे कस कर बीच की टेबल पर रखता हूँ । तुम्हारा कैमरा और तिपाया कितने सुन्दर हैं । किसी दूसरे ग्रह से आये प्राणी की तरह हमें आंख गडा कर घूरते प्रतीत हो रहे हैं । है न जिज्ञासा की और सोचने की बात कि जीवन के बायोलाजिकल विकास में चौपाये और दो पाये बने पर तीन या पांच पांव वाले प्राणी नहीं । हालांकि लेखन साहित्य के कल्पनालोक में इक्का दुक्का उदाहरण हैं । साइन्स फिक्शन (विज्ञान-गल्प) के उपन्यास द डे आफ टेरेफिकङ्ख (भयानक का दिन) में एक डरावना पौधा है जिसमें जानवरों के गुण हैं और तीन पांव हैं । महान लेखक एच.जी. वेल्स के उपन्यास दुनियाओं का युद्धङ्ख में तीन पांव वाली मार्शल-मशीन है ।”

मैं साक्षात्कार व मुलाकात का अवसर प्रदान करने के लिये आभार व्यक्त करता हूँ । ईमारत से बाहर निकल कर पचास कदमों की दूरी थी । लगी हुई बिल्डिंग थी । न्यूयार्क शहर की पूर्वी नदी के किनारे वसन्त की उस दोपहर सूरज की धूप चटख परन्तु सौम्य थी । हवा ठण्डी और ताजी थी । नौकाएं और छोटे जहाज लंगर डाले पडे थे । ये क्षण मानों मेरे लिये जिन्दगी में किसी मुकाम पर पहुंच पाने के क्षण थे । नीरजा ने हम दोनों का पीछे से एक चित्र लिया ।
डॉ. ऑलिवर का सजग, अवलोकनशील, विश्लेषणात्मक और मुखर मन आपको बारम्बार आश्चर्य चकित और मनोरंजित करता है । आवासीय इमारत में लिफ्ट में ऊपर जाते समय नीरजा ने डॉ. ओलिवर का एक फोटोग्राफ लिया तो वे टिप्पणी करने से न चूके । किसी लिफ्ट में फोटो लिये जाने का यह मेरे लिये प्रथम अवसर है ।ङ्ख भाग्यशाली हम थे कि हमें अनेक प्रथम अनुभवों का मौका मिला । जैसे कि स्वयं डॉ. ओलिवर के अनुसार उनके शयन कक्ष में आगंतुकों को ले जाया जाना । केवल इसलिये कि मुलाकात की शुरुआत में मैंने रासायनिक तत्वों के वर्गीकरण हेतु मेन्डलीफ की पीरियाडिक तालिका के बारे में पूछ लिया थाऔर वे हमें अपने बेडरूम में चादर, तकिया और लिहाफ पर उक्त तालिका की सुन्दर कढाई दिखाना चाहते थे । प्रथम अवसर का एक और उदाहरण था – डॉ. ओलिवर के किचन में गपशप जब कि वे हमारे लिये खास ब्रिटिश चाय बना रहे थे । चौके में उनका एक मात्र और सर्वाधिक हुनर, जो भी था, हमारी सेवा में हाजिर था । चाय-पत्ती, पानी, दूध, चीनी सभी चीजों को सावधानीपूर्वक मापा गया । हम गद्‌गद्‌ थे कि दूध अलग से गर्म किया गया । वरना उत्तरी अमेरिका व यूरोप में चाय-काफी में या तो दूध डालते नहीं या फिर फ्रिज का ठण्डा दूध रख देते हैं । गरमागरम पेय का मजा जाता रहता है । चाय बनाने के बाद उसे भिन्न आकार के तीन मग में समान रूप से वितरित किया गया । पूरे समय डाक्टर साहब की कमेन्टरी और नीरजा का कैमरा चलते रहे । मैं तो सातवे आसमान पर था । प्यालियों के बाहर अलग-अलग डिजाइनें थीं । एक पर फर्न्‌स,दूसरे पर शक्कर का फार्मूला (C6H12O6)तीसरे पर भेडिया (डॉक्टर साहब का पूरा नाम ओलिवर वोल्फ सॉक्स है) । बशियों या प्लेटों पर भी इसी प्रकार की कलाकारियां थीं । एक दौर में ओलिवर सामुद्रिक जीव वैज्ञानिक (मरीन बायोलाजिस्ट) बनना चाहते थे । कटलफिशङ्ख नामक प्राणी उन्हें प्रिय है । उसकी एम्ब्रायडरी से युक्त एक केप पहन कर उन्होंने हंसते हुए फोटोग्राफ का पोज दिया । डॉ. ओलिवर के अन्दर एक शो-मेन छिपा हुआ है – जिसका दिखावा आपको चुभता या चिढाता नहीं, बल्कि आपके हृदय को हल्का और खुशनुमा बनाता है । कैमरे के सम्मुख उनका चेहरा और भी अधिक भावप्रवण हो उठता है तथा मुस्कान अधिक संक्रामक ।

हर वस्तु के बारे में कुछ न कुछ कहना अनवरत जारी था। यह मग इस्टोनिया से है । इस बोन चाइना जार में मैं नमक रखता हूँ अतः इस पर फार्मूला छरउश्र छपा है । यह फॉसिल डॉ. जेम्स पार्किन्सन ने ढूंढा था । हाँ, वही डाक्टर जिसके द्वारा वर्णित बीमारी बाद में पार्किन्सन रोग के रूप में जानी गई । वह एक महान बायोलाजिस्ट भी था ।

अपूर्व – आप कभी भारत गये या नहीं ?

ऑलिवर – लगभग तीन चार वर्ष पूर्व एक बार गया था । जान क्ले फाउण्डेशन की संस्कृत लाइब्रेरी के प्रकाशन के सन्दर्भ में | पहले या दूसरे ही दिन बीमार पड़ गया था । दस्त और उल्टी लगे थे । मैं पुन: जाना चाहता हूँ । इस बार मेरी अपनी इच्छा और योजना से जो देखना चाहता हूँ वह देखूंगा – खास तौर से पहाड़ों में ।
अपूर्व – हिमालय में फर्नूस की बहुत सी प्रजातियां हैं, जिनमें शायद आपकी रूचि हो ।
आलिवर – अरे हाँ, फर्नूस । मुझे याद आया कि रहोडेन्ड्रान्स की बाटनी और हिमालय की वनस्पतियों पर एक किताब 19 वीं शताब्दी में प्रसिद्ध हुई थी और उसे एक श्रेष्ठ यात्रा-वर्णन की कोटि में भी रखा जाता है । संयोगवश यह भी बताना चाहूंगा कि मेरी माँ ने एक छोटी किताब लिखी थी, जिसका किसी भारतीय भाषा में अनुवाद हुआ था । मेरी सदैव से इच्छा रही है कि मेरी किसी किताब का भारतीय भाषा में अनुवाद हो, पर यहां तो बहुत सारी भाषाएं हैं।
अपूर्व – प्रमुख भाषा हिन्दी है जो औपचारिक रूप से भारत शासन द्वारा मान्य है और लगभग 40-50% लोगों द्वारा बोली जाती है ।
नीरजा – आपकी माता प्रसूति व स्त्री रोग विशेषज्ञ थीं । मैं भी वहीं हूँ । (उनके समान) मैं भी शिशुओं में स्तन-पान की सक्रिय समर्थक हूँ ।
आलिवर – क्या … स्तनपान … इसका मतलब कि आपको (मेरी आत्मकथा में से) वह किस्सा पसन्द आया । मेरी माँ की लिखी किताब का विषय रजोनिवृत्ति (मीनोपॉज) था और शीर्षक था “स्त्रियां – चालीस के बाद’ | उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह किताब बेहद लोकप्रिय हुई, बेस्ट सेलर बनीं | अरबी और शायद हिन्दी में उसका अनुवाद हुआ । मेरी किताबें चीनी कोरियन, हिब्रू और रूसी भाषा में निकली हैं परन्तु भारतीय भाषाओं में किसी में नहीं ।
अपूर्व – मेरी दिली ख्वाहिश है कि मैं आपके कुछ कार्यों का हिन्दी में अनुवाद करूं । मैं कर सकता हूँ । मैं उसके साथ न्याय करूंगा । यह करके मुझे खुशी होगी ।
ओलिवर – परन्तु तुम्हारे अपने दूसरे काम हैं ।
अपूर्व – यह सच है। न्यूरोफिजिशियन के रूप में मेरा अपना व्यावसायिक काम है और मुझे अध्यापन भी करना होता है।
ओलिवर – शायद किसी दिन, मेरी रचना का हिन्दी संस्करण होगा ।
नीरजा – (अपूर्व के प्रति) न्यूरालाजिस्ट होने के नाते आप इसे बेहतर कर पायेंगे।
ओलिवर – मुझे याद आता है कि भारत से मेरा पहला सम्बन्ध वहां की चाय से रहा । तुम्हें मैं एक मजेदार किस्सा बताता हूँ । बहुत वर्ष पहले, शायद 60 से भी अधिक, एक भारतीय व्यक्ति था, उसके चाय के बागान थे । वह केट की माँ के प्यार में पड़ गया । परन्तु नियति को अपनी अलग राह चलना था| फिर भी वे अच्छे मित्र बने रहे । अपने चाय के बागानों से वह श्रेष्ठ चाय के पेकेट्स केट की माँ को भेजा करता था । माँ उन्हें अपनी बेटी को और केट मुझे दिया करती थी । मैं सोचता हूँ कि लगभग छ: माह पहले उस व्यक्ति का देहान्त हो गया । चाय का मेरा अन्तिम पेकेट मैंने हाल ही में खोला, पर भूल से उसका पैकिंग – डब्बा और बाहर से लेबिल सम्हाल कर नहीं रखा । अब थोड़ी सी चाय बची है और उसकी छाप (ब्राण्ड) मैं नहीं बता सकता । शायद तुम पहचान पाओ । या फिर थोड़ा सेम्पल अपने साथ ले जाओ। मेरे पास अब इतनी ही बची है । जरा देखो इसे ।
मैंने अपनी असमर्थता व्यक्त करी । मैं अच्छी नाक वाला नहीं हूँ | एक मूर्खता भरी बात कही कि शायद दार्जलिंग की है । डॉ. आलिवर ने बहुत हौले से बताया कि दार्जलिंग क्षेत्र से सैकड़ों विशिष्ट फ्लेवर्स (गंध) की चाय पैदा होती है ।
ओलिवर – मैं तुम्हें मेरे एक मित्र के बारे में बताना चाहता हूँ । जानक्ले, स्कूल के जमाने में बहुत मेधावी व अध्ययनशील था और उसे भारतीय सभ्यता, संस्कृति,साहित्य और इतिहास में गहरी रुचि थी । सब सोचते थे कि आगे चलकर वह विद्वान भारतविद्‌ (इन्डालाजिस्ट) बनेगा । परन्तु वह व्यापार की दुनिया में चला गया और जैसा कहते हैं न, बड़ी किस्मत बटोरी । जीवन के उत्तरार्ध में रिटायरमेंट जैसी स्थिति में उसने एक बेजोड़ और सार्थक काम करने की ठानी । अपने मित्रों की आशाओं को पुनर्जाग्रत करते हुए उन्हें पूरा करके दिखाया । साथ ही लम्बे समय से खुद की संजोयी इच्छा और सपनों को साकार किया । उसने जान क्ले फाउण्डेशन की स्थापना की और एक महती काम को पूरा करने का बीड़ा उठाया – संस्कृत के प्राचीन शास्त्रीय (क्लासिकल) साहित्य का लब्धप्रतिष्ठित विद्वानों द्वारा अंग्रेजी में प्रामाणिक अनुवाद करवाना और उसे सुरूचिपूर्ण कला से सुसज्जित ग्रन्थमाला के रूप में प्रकाशित करवाना । डॉ ओलिवर ने जान क्ले संस्कृत ग्रन्थमाला की जानकारी देने वाली दो लघुपुस्तिकाएं हमें दी जिन्हें पढ़कर विश्वास होता है कि यह प्रकाशन कितना पठनीय और नयनाभिराम होगा ।
डॉ. ओलिवर की कुर्सी के पीछे की खिड़की से दोपहर का तीव्र प्रकाश आ रहा था और उनका चेहरा तुलनात्मक रूप से अंधेरे में था | फोटोग्राफी
की दृष्टि से यह स्थिति उत्तम नहीं होती । मैंने सुझाया कि खिड़की को ढंकने वाले वेनेशियन ब्लाइन्ड्स को पलट दिया जावे । डॉ. सॉक्स फुर्ती से उठ खड़े हुए और मैं उस काम को करने का उपक्रम करता उसके पहले वे स्वयं करने लगे । इस चक्कर में ब्लाइन्ड्स का एक सिरा पेल्मेट से उखड़ गया । वे बोल पड़े “बग-अप” और पुन: कुर्सी पर आ बैठे | फिर बताया कि जब कोई काम गड़बड़ा जाता है तो इंग्लेण्ड में बग-अप कहते हैं | अमेरिकन्स ऐसा नहीं कहते ।
अपूर्व – सांज्ञानिक न्यूरोमनोविज्ञान (काग्रिटिव न्यूरोसायकोलाजी) परीक्षण में हम मरीजों को कोई एक शब्द देते हैं और कहते हैं – इस शब्द को सुन कौन से दूसरे शब्द आपको याद आते हैं – एक मिनिट तक बोलते जाईये | उसी प्रकार कृपया आप बताएं कि “इन्डिया” शब्द सुनकर आप क्या क्या कहेंगे|
ओलिवर – चाय और आप लोगो का रूपया, माउंटबेटन, भारतीय विद्रोह, राज,संस्कृत, …हूँ अब कुछ दिक्कत आ रही है, प्राचीन सभ्यता, मेरे प्रिय मित्र रामचंद्रन(न्यूरो साइंटिस्ट), प्रसिद्द गणितज्ञ रामानुजन, गांधी, टैगोर…
अपूर्व – आपकी वेबसाईट(जालस्थल) के प्रथम पृष्ठ पर आपके परिचय में लिखा गया हैं – डॉ ओलिवर सॉक्स : लेखक और न्यूरोलॉजिस्ट । इसी क्रम से । आपको यह अहसास कब हुआ कि आप एक लेखक पहले हैं ।

ओलिवर – सबसे पहले स्पष्ट कर दूं कि मैं वेबसाइट के लिए जिम्मेदार नहीं हूं। यदि मुझे पता होता कि ऐसा है तो मैं उसे दूसरे क्रम से उलट कर रखता। मैं पहले एक फिजीशियन (चिकित्सक) हूं। आज सुबह मैंने एक मरीज को देखा। यह सही है कि मैंने उसके बारे में कहानी लिखी है पर जब मैं उसे देखता हूं तो वह मेरे लिए पात्र नहीं बल्कि सदैव एक मरीज ही होता है। शुरू से मेरे अंदर शोध पत्रिकाओं के लिए वैज्ञानिक लेख और केस हिस्ट्री (मरीज कथाएं) लिखने का जज्बा रहा था। शुरू शुरू में मेरे दिमाग की दो विशिष्ट अंतप्रज्ञाओं के बीच विरोध या तनाव था, मानो कि वे मस्तिष्क के भिन्न भागों में अवस्थित हो। फिर धीरे-धीरे वे पास आए और मिल गई। उस अवधि में मैंने क्लीनिकल रिकॉर्ड लिखना शुरू की है। मेरी पहली पुस्तक 1960 के उत्तरार्ध में आई। मैंने सैकड़ों लंबी मरीज कथाएं लिखी हैं और 8000 से अधिक मरीज देखे हैं। शुरू में मैंने उन्हें प्रकाशित नहीं करवाया। मेरी माता और पिता दोनों चिकित्सक थे और एक मायने में कहें तो वह भी निपुण कथाकार से। कथाकथन, चिकित्सा विज्ञान का अनिवार्य अंग है। उसके द्वारा आपको किसी व्यक्ति की फिजियोलॉजी कार्यप्रणाली समझने में मदद मिलती है।

अपूर्व – रासायनिक तत्वों के वर्गीकरण की मेन्डलीफ तालिका से आप बचपन से अब तक अभिभूत रहे हैं | आपने लिखा कि उस तालिका ने आपको पहली बार महसूस कराया कि मानव मन में ट्रान्सिन्डेन्टल(अतीन्द्रिय, पराभौतिक) शक्ति होती है और इसीलिये यह विश्वास जागा कि शायद इन्सान के दिमाग में वे क्षमताएं हैं कि वह प्रकृति के गूढ़तम रहस्यों को जान सकें । क्या आप यह कहना चाहते थे कि ईश्वर के अस्तित्व का सवाल मनुष्य के दिमाग की पहुंच में हैं ?
ओलिवर – क्या मैंने ऐसा कहा ?
अपूर्व – हाँ, आपने कहा । क्‍या आप मानते हैं कि ईश्वर का प्रश्न मानवमन की ट्रान्सिडेन्टल शक्ति के दायरे में हैं ?
ओलिवर – मेरे शब्दों को कुछ-कुछ गलत समझा गया है । धार्मिक और वैज्ञानिक के बीच एक अजीब सी भ्रम की स्थिति है | पीरियाडिक टेबल मानव निर्मित है – एक ब्रह्माण्डीय कोटि का दर्शन है । जब कभी मैं “ईश्वर का मन’ ऐसे वाक्यांश का उपयोग करता हूँ तो वह महज दीइस्टिक रूप से होता है। एक ऐसा ईश्वर जिसने शुरु में दुनिया और नियम बनाए और फिर उसे उसके हाल पर छोड़ दिया ।

दर असल मैं किसी ऐसी सत्ता, शक्ति या चेतना को नहीं मानता जो प्रकृति से ऊपर या परे हो । दूसरी तरफ, स्वयं प्रकृति (नेचर) के प्रति मेरे मन में अथाह/असीम कौतूहल और आश्चर्य (वण्डर) है । यदि मुझे कभी ईश्वर शब्द का उपयोग करना पड़े, जो बिरले मैं ही करता हूँ तो मैं उसकी पहचान प्रकृति से करूंगा ।
अपूर्व – एक अर्थ में क्या आप आइन्स टीनियन ईश्वर में विश्वास करते हैं ।
ओलिवर – बिलकुल सही…
अपूर्व – और जीवोहा जैसे ईश्वर में नहीं जो ईष्यालु है और सजा देता है।
ओलिवर – हाँ… लेकिन मैं ईश्वर को गढ़ने और उसमें विश्वास करने की आम लोगों की भावनात्मक जरूरत को देख पाता हूँ .. हालांकि स्वयं मेरे मन के अन्दर वैसी कोई जरूरत महसूस नहीं होती ।
अपूर्व – क्‍या ईश्वर का प्रश्न वैज्ञानिक है या पारभौतिक ? (जैसा कि रिचंर्ड डाकिन्स ने सुझाया है)
ओलिवर – (हंसते हुए) मैं नहीं सोचता कि यह किसी भी प्रकार की खोज या पूछ-परख का प्रश्न है । इस मुद्दे पर किसी प्रकार का सबूत मिलना सम्भव नहीं है । ईश्वर का सवाल आस्था से जुड़ा है जो सबूत से परे है । इस दृष्टि से, व्यक्तिगत रूप से मैं आस्था को नहीं मानता । लेकिन रिचर्ड डॉकिन्स की तरह मैं धर्म के खिलाफ सार्वजनिक मोर्चा नहीं खोलूंगा | गौर करने की बात है कि मैंने वर्षों तक धार्मिक संस्थानों में काम किया – यहूदी और ईसाई | यदि वे संस्थाएं हिन्दू या मुस्लिम होती तो मैं वहां भी काम कर लेता । धार्मिक आस्थाओं से भरे वातावरण मुझे प्रिय हैं फिर चाहे मैं उन विश्वासों से स्वयं साझा न करूं । धर्म के अच्छे पहलुओं को मैं देखना चाहता हूँ, यद्यपि उसके नुकसानदायक, कठमुल्ला पहलू मुझे आतंकित करते हैं ।
फ्रीमेन डायसन ने, जो मेरे अच्छे मित्र हैं, एक बार कहा – ‘मैं व्यवहार में ईसाई हूँ पर आस्था में नहीं,” मैं सोचता हूँ कि यह एक बहुत चतुराई भरा बयान है । मेरे मातापिता यहूदी धर्म का व्यवहार करते थे – पुरातनपन्थी यहूदी । मुझे कोई अन्दाज नहीं कि वे किसमें विश्वास करते थे । मैंने उन्हें कभी अपनी आस्थाओं के बारे में बात करते नहीं सुना। मैं सोचता हूँ कि खास बात सिर्फ इतनी है कि यहां और अभी की दुनिया को सलीके से जीने की कोशिश करी जावे । इसके परे और कुछ भी नहीं है । मेरे मन में एक धार्मिक संवेदना सदैव रही परन्तु उससे कहीं अधिक मेरे मन में ब्रह्माण्ड के प्रति आश्चर्य, कृतज्ञता और आदर का भाव है । मेरे धर्म का किसी ऐसी सत्ता से वास्ता नहीं जो सुपरनेचरल (प्रकृति से ऊपर, प्रकृति से पहले), परा भौतिक या अतीन्द्रिय हो । मेरा धर्म ईश्वरविहीन धर्म है । जब आइन्टीन ने परमाणु के रहस्यों की चर्चा में कहा कि ईश्वर पासा नही फेंकता है तो मैं सोचता हूँ कि वह महज कथन की एक शैली (मेनर ऑफ स्पीच) थी । वह विनम्न होना चाह रहे थे । अन्तत: मैं ट्रान्सीन्डेन्टल (पराभौतिक) से माफी मांगना चाहूँगा ।
अपूर्व – एक गर्भस्थ प्राणी के प्रजजनक विकास (आंटोजेनी) में वे समस्त अवस्थाएं दोहराई जाती हैं जो निम्न प्राणियों से लेकर उक्त प्राणी के जीव वैज्ञानिक विकास (फायलोजेनी) में देखी जाती है । इस कथन के सन्दर्भ में आपने कैनिज़ारों को उद्दत किया है कि किसी नये विज्ञान को सीखने वाले व्यक्ति को स्वयं उन अवस्थाओं से गुजरना होता है जो उस विज्ञान के ऐतिहासिक विकास में देखी गई थी ।
ओलिवर – (केनिज़ारों का) यह कथन पढ़कर मुझे खुशी हुई थी क्योंकि वह मुझ पर लागू होता था । सौभाग्य से रसायन शास्त्र की मेरी शिक्षा 19 वीं सदी की पाठ्य पुस्तक द्वारा शुरु नहीं हुई, बल्कि 18 वीं शताब्दी की पृष्ठभूमि के मेरे मामा द्वारा शुरु हुई जिन्होंने मुझे धातुविज्ञान और उस काल के सिद्धान्तों और धारणाओं से परिचित कराया – उसके बाद में मेरा सामना डाल्टन के परमाणुवाद में हुआ, फिर मेन्डलीफ (तत्वों की तालिका) और फिर क्वान्टम सिद्धान्त । मेरे अपने अन्दर ज्ञान का एक जीवित, विकासमान इतिहास फलीभूत होता रहा । मुझे यह स्वीकार करना होगा कि कैनिज़ारो की यह राय अधिकांश शिक्षाविदों को स्वीकार्य नहीं होगी । वे कहेंगे कि इतिहास में किसकी रुचि है ? समय क्यों व्यर्थ जाया किया जावे ? किसे फिक्र पड़ी है कि विचारों का विकास कैसे हुआ ? व्यक्तियों और घटनाओं का क्या महत्व ? हम तो जानना चाहेंगे कि आधुनिकतम क्या है । जहां तक मेरा – सवाल है, रसायन शास्त्र, बनस्पति शास्त्र, न्यूगलाजी किसी भी विषय का विकास, ज्ञान की किसी भी शाखा की वृद्धि, एक जीवित प्राणी के समान है जो अनेक अवस्थाओं से होकर गुजरता है ।

अपूर्व – शैक्षणिक दृष्टि से इसका कया महत्व है ? न्यूरालाजी विषय के एक प्राध्यापक के रूप में अपने छात्रों के सम्मुख आप न्यूरोविज्ञान के विकास के इतिहास को कितनी बार महत्व देते हैं ?
ऑलिवर – सदैव … और यदि किसी को मेरा पढ़ाना पसन्द न हो तो बेशक वह दूसरे टीचर के पास जा सकता है। मैं दावा नहीं करता कि अध्यापन में कैनिज़ारो का तरीका एक मात्र तरीका है। वह एक विधि है जो कुछ लोगों को ठीक लगती है तो कुछ को नहीं ।

अपूर्व – मैं भारतीय योग के बारे में कुछ कहना चाहूंगा इसका सम्बन्ध आत्मपरकता (सेल्फहुड) से है और शरीर और चेतना से | आपने फ्रायड को उद्दत किया है कि सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्व का “ईगो (अहं), शरीर का ईगो है । मैंने थोड़ा बहुत योग करना सीखा है । हालांकि मैं उसे व्यवहार में नहीं लाता । योग सीखने वाले शिक्षक, विभिन्न आसन या मुद्राओं के दौरान सदैव शरीर के अहसास को जागृत करने, तीक्ष्ण करने, घनीभूत करने पर जोर देते हैं । विभिन्न सन्धियों (जोड़ों) पर क्या स्थिति है(प्रोप्रियोसेप्शन) इसे महसूस कराया जाता है । प्रत्येक पद पर कहा जाता है “शरीर के बारे में सोचो, जोड़ कैसा महसूस कर रहे हैं, श्वास के अन्दर आने और बाहर जाने पर ध्यान दो, केवल “अभी” और ‘यहां” पर मन केंद्रित करो, आंखें मूंद कर ध्वनियों को सुनों, नीचेजमीन के स्पर्श पर गौर करो ।’मैं सोचता हूँ कि यह सब हमें रिलेक्स (शान्त) करता है ।
ओलिवर – बिल्कुल सही ! मैं सोचता हूँ कि हमें शरीरवान होने के बारे में गहराई से सचेत होना चाहिये – यहां और अभी में शरीर की संवेदना । नीत्शे ने कहा था कि दर्शनशास्त्र में सभी गलतियां शरीर को ठीक से न समझ पाने के कारण पैदा होती हैं । संगीत पर मेरी किताब एक पहलू (थीम) संगीत की शारीरिकता पर है ।
अपूर्व – अब जबकि हम शरीर की चेतना की बात कर रहे हैं तो क्या एन्तोनियो दमासियो की पुस्तक “द फीलिंग आफ व्हाट हेप्पन्स’ (जो होता है उसका अहसास) में प्रतिपादित बात से सहमत हैं कि चेतना उस समय जागृत होती है जब मस्तिष्क में शरीर की अनुभूति के बिम्ब क्षण-क्षण बदलते हैं।
ऑलिवर – हाँ, मूल रूप से .. (सहमत हूँ)
अपूर्व – मैंने आपके लेखन में अनेक द्वन्दों या विरोधाभासों के अक्ष या या पैमाने काफी करीब से देखे हैं – एक रूपता के विरुद्ध बहुरूपता, अद्वैत के विरुद्ध द्वैत, समांगी विरुद्ध विषमांगी और न्यूरालाजी में सर्वव्यापकता (होलिज़्म) के विरुद्ध स्थानिकता (लोकेलाईलेजनिस्टिक) | आप इन द्वंदों को कैसे साधते हैं ? क्या आप अपने आप को घुर सिरे की किसी स्थिति में पाते हैं या बीच का मार्ग पकड़े हैं ?
ओलिवर – अजीब संयोग है, अभी कुछ देर पहले मित्र, न्यूरालाजिस्ट से चर्चा के दौरान मैंने एक शब्द कहा था, जो उन्हें मालूम न था – ‘आयरीनिक’ ग्रीक भाषा से आया है – शान्त या शान्तिपूर्ण । (धीरोदात्त, स्थितप्रज्ञ) इसे हम अति का विलोम मान सकते हैं । कोई भी शान्त व्यक्ति विचारों को लेकर कठोर मुद्राएं अख्तियार नहीं करता । वह सब के बारे में सोचता है और सन्तुलन की कोशिश करता है ।
अपूर्व – भारतीय दर्शन में, विशेषकर जैन और बौद्ध परम्पराओं में मध्यम मार्ग पर जोर दिया जाता है । अनेकान्तवाद है । कहते हैं कि सत्य के अनेक चेहरे हैं | कोई एक सत्य नहीं होता । प्रत्येक व्यक्ति सत्य तक अपने अलगगमार्ग से पहुंचता है ।
ओलिवर – कुछ लोग जैसे कि रिचर्ड डॉकिन्स विज्ञान और धर्म को दो अतिवादी धुवों के रूप में देखते हैं |लेकिन फ्रीमेन डायसन इसे अलग नजरिये से देखता है | वह उदाहरण देता है एक घर का जिसमें अनेक खिड़कियों हैं । एक खिड़की विज्ञान की है तो दूसरी धर्म की | बहुत साल पहले मेरे एक न्यूरालाजिस्ट सहकर्मी ने पूछा था – आप लम्पर हैं या स्प्लिटर ? भेल करने वाले, मिलाने वाले है या उधेड़ने वाले, वर्गीकृत करने वाले ? मैंने कहा ‘कुछ भी नहीं ” मित्र बोला ‘कुछ भी नहीं कैसे हो सकता है
।’ मैंने कहा – आपके लिये हो सकता है पर मेरे लिये नहीं ।
अपूर्व – मेरी पत्नी को मुझसे अक्सर शिकायत रहती है कि मैं प्राय: निश्चित राय नहीं देता ।मैं कहूँगा यह सही हो सकता है, पर व्रह भी सही हो सकता है । मेरी पत्नी और पुत्री मेरी इस बात पर असहजता महसूस करते हैं। वे पूछते हैं कि आप दृढ़गत धारण क्यों नहीं करते ?
ओलिवर – पर कुछ मुद्दों पर मेरे दृढ़ मत हैं ।
अपूर्व – हर एक के होते हैं ।
ओलिवर – मैं नहीं जानता कि इसे राजनैतिक कहूँ या इकॉलाजिकल (पारिस्थितिक) पर मैं सोचता हूँ कि राष्ट्रपति बुश (की नीतियों) ने जो नुक्सान किया है उसकी भरपाई (यदि कभी हुई भी तो) करने में अनेक दशक लग जायेंगे । मैं राजनैतिक मामलों पर कभी समाचार पत्र नहीं पढ़ता था, आज से पांच छ: साल पहले तक, अब पढ़ता हूँ ।
अपूर्व – पर मैं उम्मीद करूं कि आप घनघोर इकालाजिस्ट (पर्यावरणवादी) या अतिवादी ग्रीन नहीं हैं ।
ऑलिवर – नहीं, मैं नही हूँ । मैं सोचता हूँ कि वे (ग्रीन) कुछ ज्यादा ही दूर तक जाते हैं । जो कुछ थोड़ा बहुत मैं कर सकता हूँ, करता हूँ । मेरे पांस हायब्रिड कार है (पेट्रोल व बिजली दोनों से चलने वाली) । मैं जिस घर में रहता था उसकी छत पर सौर ऊर्जा की पट्टिकाएं लगी थी ।
अपूर्व – आपके लेखन की केन्द्रीय विषय वस्तु है – पहचान की न्यूरालाजी । आप कहते हैं कि इस दिशा में न्यूरालाजी ने पर्याप्त प्रगति नहीं करी है । आपको दुःख है कि मनोरोग विज्ञान न्यूरोमनोविज्ञान और भी ज्यादा साईंटिफिक होते जा रहे हैं और पहचान के विषय के रूप में वे नहीं उभरे हैं । न्यूरालाजी विषय को लेकर भी आप के मन में ऐसी ही चिन्ता है ।
ऑलिवर – मैं सोचता हूँ कि स्थिति बदल रही है । यह बात बहुत पहले से शुरु होती है । फीनिस गेज की कहानी याद है ? उसके सिर में से लोहे की मोटी छड़ बेध कर निकली थी । उसकी बुद्धि बची रही, उसकी वाचिक क्षमता, मानसिक विधाएं और मांसपेशियों की शक्ति, सब ठीक हो गये । पर उसके मित्र कहते थे – गेज, अब पहले वाला गेज न रहा । इन्सान की नैतिक या मॉरल पहचान में बदलाव की यह एक सुन्दर आरम्भिक कहानी थी । गेज विचारशून्य रूप से, यकायक आवेग में कुछ कर बैठता था । मस्तिष्क के फ्रोन्टल खण्ड की बीमारियों के कारण पैदा होने वाले लक्षणों की समझ के विकास में फीनिस गेज की केस हिस्ट्री (1870) एक खास मील का पत्थर थी । अवेकनिंग (जागरण) की कथाओं के मेरे मरीजों की चेतना की पहचान अवलम्बित (सस्पेन्डेड) हो गई थी । उनमें से कुछ के लिये, अनेक दशकों जक कुछ घटित ही नहीं हुआ । सब मातापिता जानते हैं कि उनके प्रत्येक बच्चे की अपनी एक अलग पहचान होती है । हमशक्ल जुड़वां बच्चों का व्यक्तित्व एक सा नहीं होता । उनकी जीन्स एक जैसी हो, परन्तु दूसरे कारक अपना असर डालते हैं । मुझे क्‍यों कहानियां कहना भाता है ? मुझे क्यों कहानियाँ मिलती हैं ? क्योंकि ये पहचान की कहानियाँ हैं । और न्यूरालाजिकल दुर्घटना के कारण उस पहचान में आये बदलाव की कहानियाँ हैं | मैंनेएक कथा लिखी थी “देखना और न देखना (सी एण्ड नाट सी) – एक अन्धे व्यक्ति की कहानी जो अपने अन्धेपन की पहचान के साथ आराम से खुश था – और रोशनी पाने पर उस पहचान का नष्ट होना वह सहन नहीं
करपोर्तो ।
अपूर्व – क्या आप सन्तुष्ट हैं कि न्यूरालाजी की मुख्य धारा के अध्यापन और व्यवहार दोनों में पहचान की न्यूरालाजी की परिकल्पना को अधिकता के साथ ग्राह्म किया जा रहा है ।

ऑलिवर – हाँ, मुझे ऐसा लगता है ।
अपूर्व – क्या आप आशावादी हैं कि यह भविष्य में बढ़ेगी ?
ऑलिवर – हाँ यह ग्राह्मता बढ़ रही है । मैं सोचता हूँ कि आज से बीस साल तक इस बात का डर था कि वैयक्तिक अधययन या प्रत्येक पहचानदार इन्सानों पर अध्ययन कहीं गुम न हो जाएं, सांख्यिकी के गणित में, औसत में डूब न जाएं | मैं अपना असली गुरु डॉ. अलेक्सान्द्र लूरिया को मानता हूँ । उनसे मैं कभी मिला नहीं पर पत्र व्यवहार हुआ । उनकी दो महान रचनाएं पहचान की न्यूरालाजी के देदीप्यमान उदाहरण हैं । “आदमी जिसकी दुनिया बिखर गई” का पात्र अपनी तमाम बौद्धिक-साज्ञानिक हानियों के बावजूद अपनी पहचान बनाये रख पाता है । जब पहचान को चोट किसी भारी-भरकम शक्ति के कारण पहुंचती है तो मेरी रुचि और भी बढ़ जाती है । अपूर्व – मैं भी लूरिया को उद्दत करते हुए कहना चाहूंगा कि काश बाह्य तंत्रिका तंत्र (पेरिफेरल नर्वस सिस्टम) की बीमारियों के सन्दर्भ में न्यूरालाजी वर्तमान पशुचिकित्सकीय सोच से ऊपर उठ पाये …
ओलिवर – (रोकते हुए) … ऐसा लगता है कि तुमने मेरा लिखा एक एक शब्द पढ़ा है ।
नीरजा – बहुत गहराई में ।
अपूर्व – (जारी रखते हुए) .. एडलमेन ने कहा कि यदि न्यूरालाजी वेटरनरी (पशुचिकित्सा) स्तर के सोच व व्यवहार से ऊपर उठ पाये तो यह न्यूरालाजी के लिये वैसी ही युगान्तरकारी क्रान्ति होगी जैसी कि गैलीलियो की खोजें उस युग में भौतिक शास्त्र के लिये थीं । मुझे लगता है कि यह जरा ज्यादा ही जोर से कहा गया स्ट्रांग कथन है ।
ओलिवर – एडलमेन का केन्द्रीय योगदान पहचान की समझ को लेकर है । चेतना की न्यूरोवैज्ञानिक व्याख्या पर उसे नोबल पुरस्कार मिला ।
अपूर्व – क्या आप नहीं मानते कि उक्त कथन जरा ज्यादा (स्ट्रांग) ही है?
ओलिवर – हाँ, वह है तो और ऐसा भी जो लोगों को संशंकित करे । जिस शब्द का तुमने शुरु में उपयोग किया था – ट्रान्सिन्डेन्टल, या अतीन्द्रिय, सुपर नेचरल, पराभौतिक आदि दृष्टि से सोचने वाले लोग, जो मानते हैं कि शरीर के अन्दर आत्मा नाम की कोई अन्य सत्ता निवास करती है उन्हें पहचान की न्यूरालाजी का विज्ञान और विचार अच्छा न लगेगा । वे इससे अपमानित महसूस करेंगे और कहेंगे कि यह रिडक्शनिज्म है – किसी महान गुण की तुच्छ भौतिक रूप से व्याख्या कर उसे घटा देना, रिड्यूस कर देना | एडलमेन को मैं अच्छे से जानता हूँ और उसने कहा है – मैं यहां क्या कर रहा हूँ, शेक्सपीयर सब कह चुका है ।
अपूर्व – सबूत पर आधारित चिकित्सा (इवीडेन्स बेस्ड मेडिसिन) की फैशन के इस जमाने में क्या आप को लगता है कि एनीकडोटल (अर्थात्‌ कथा-किस्से पर आधारित) अपना स्थान बचा पायेगा ?
ऑलिवर – उसे बचाना चाहिये । और मैं सोचता हूँ कि वह बचेगा । मैं नहीं जानता कि सबूत-आधारित चिकित्सा का अर्थ क्या है ? मरीज कथाएं भी एक सबूत हैं | इसका विकल्प कया है ? क्या आस्था पर आधारित चिकित्सा या होमियोपेथी ? सबूत अनेक प्रकार के होते हैं | केवल एक मरीज भी जिसका लम्बे समय तक विस्तार से अध्ययन किया गया हो।
केट-एडगर – मुझे लगता है कि अब आप लोगों को समेटना होगा ।
अपूर्व – क्या मुझे पांच दस मिनिट मिल सकते हैं ?
केट – नहीं, दस मिनिट नहीं | ओलिवर, आपको मेरे साथ बैठना है । पांडुलिपि के प्रुफ आ गये हैं ।

ऑलिवर – (आश्चर्य से) क्या कहा – प्रुफ आ गये हैं ! (उनकी आगामी पुस्तक संगीत अनुराग के) मुझे समाप्त करना होगा । केवल पांच मिनिट । और प्रश्न नहीं ।

नीरजा – मुझे पांच मिनिट दीजिये । मैं भारत से कुछ भेंटे लाई हूँ ।
अपूर्व – जेम्स ह्रुग्स द्वारा प्रतिपादित परामानवतावाद (ट्रान्सह्यूमेनिज्म) के बारे में आप क्या सोचते हैं ? जीन-थेरापी द्वारा उपचार से परे जाकर मानव-जाति के उत्थान के बारे में आपकी क्‍या राय है?

ऑलिवर – क्या स्टेम सेल्स (स्तम्भ कोशिकाएं) ?
अपूर्व – नहीं जीन उपचार और अभिवृद्धि ।
ऑलिवर – जीन उपचार व परिवर्धन में तकनीकी रूप से अपार सम्भावनाएं हैं परन्तु नैतिक और पारिस्थिकी दृष्टि से मामला जटिल है । थोड़ी बहुत अभिवृद्धि तो पहले भी होती रही है । खिलाड़ी लोग स्टीराइड लेते हैं। इन विषयों पर मैंने ज्यादा सोचा नहीं हैं ।
अपूर्व – अन्तिम प्रश्न । ब्लेज पास्कल ने बीमारी के भले उपयोग की प्रार्थना की चर्चा करी है । क्या आप मानते हैं कि व्यक्ति या समाज के जीवन में बीमारी का कोई उद्देश्य हो सकता है ।
ओलिवर – हाँ वे कुछ भरती तो हैं, पराभौतिक या अतीन्द्रिय दृष्टि सेनहीं । फिर भी सोचता हूँ कि किसी भी सभ्यता का कुछ हद तक आकलन
इस बात से किया जाना चाहिये कि वह अपने बीमार व विकलांग व्यक्तियों के साथ कितनी करुणा और समझ के साथ पेश आती है । बीमारी का उद्देश्य ? नहीं, उद्देश्य शब्द का उपयोग मैं नहीं करूंगा । यदि कोई बीमार पड़े या मैं स्वयं बीमार पड़ तो मुझे खेद होगा – हालांकि मैं यह भी महसूस करता हूँ कि उसका (बीमार पड़ने के अनुभव का) अधिकतम सम्भव उपयोग किया जाना चाहिये ।
अपूर्व – आपने एक बार लिखा था कि मैं इन मरीज कथाओं की जटिलताओं से आल्हादित हूँ..
ओलिवर – हाँ, मेरी पुस्तक माईग्रेन की भूमिका में मैंने यह लिखा था ।
इनका तात्पर्य वास्तविकता की सघनता और समृद्धि से था | मैं मानता हूँ कि वर्तमान में विद्यमान अधिकांश मरीज कथाएं बड़ी झीनी हैं । पार्किन्सोनिज़्म का एक मरीज कैसे धीरे-धीरे उठकर एक कमरा पार करता है यदि इसे सघन और समृद्ध रूप से लिखना हो तो 30 से 40 पृष्ठ लगेंगे | तभी एक उपन्यासकार और एक चिकित्सक एक दूसरे के पास आपायेंगे ।
ओलिवर – (केट एडगर से) मैंने जो लिखा है, उसका प्रत्येक शब्द इसने पढ़ा है । उसे सब याद है और वह विषय को सीधे ऊपर लाता है और मुझे कहना पड़ता है कि अब मैं वैसा नहीं सोचता और मुझे माफ किया जावे।

साक्षात्कार के बाद डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा लिखित भारतीय गया और उस पर सुन्दर सी एक टिप्पणी । इस मुलाकात में मिले अनेक प्रथम सौभाग्यों में से यह सबसे अहम और नायाब था। प्रकाशन से छ: माह पहले उसकी पांडूलिपी पा जाना । बिदा होते समय हमने फिर उनके पैर छुए । एक क्षण पुन: उनके चेहरे पर विमूढ़ता का भाव आया और चला गया । पर अब वे जानते थे । आशीर्वाद रूपी सौम्य मुस्कान ओठों पर तिर रही थी ।

कुछ कहने और बताने का उनका आवेग और ऊज विसे ही थे । बाहर निकलने के द्वार तक ले जाये जाते समय, डॉ आलिवर सॉक्स पुन: रुके, हमें एक अंधेरे कोने में ले गये और अल्ट्रावायलेट रोशनी की टार्च के माध्यम से विभिन्न अयस्कों के प्रकाशवानगुण बताने लगे – इरीडिसेन्स, फास्फोरेसेन्स, फ्लूओरोसेन्स । मुलाकात के आखिरी क्षण तक हमारे अनुभवों की झोली भरते रहे । ज्ञान के प्रकाश के नाना रूप दमकाते रहे ।
काश ये रोशनियाँ सदैव हमारे साथ रहे ।

पोस्ट-स्क्रिप्ट
दो माह बाद डाक से एक लिफाफा आया । बाहर से भी सुन्दर व कलात्मक | डाक टिकिट चुन कर लगाये गये थे। लिफाफे तथा लेटर पेड पर आकर्षक रेखाचित्र बने हुए – लेखक की रुचियों को दर्शातें हुए – जिम्नोस्पर्म प्रजाति के दो प्रकार के सायकेड वृक्ष खत का मजमून यूं था – प्रिय डाक्टर्स अपूर्व और नीरजा पौराणिक, केट और मैं अभी भी तुम लोगों की अद्भुत भेंट की चर्चा करते हैं | हालांकि मिठाईयां कभी की हजम कर ली गई हैं (आनन्द, आदर और उत्सुकता के साथ) । तुम्हें धन्यवाद कि हमारे पास सुनने को भारतीय संगीत का अनन्य खजाना है – धीरे-धीरे कानों को सीख मिल रही है, और भारतीय दर्शन का पूरा इतिहास, और कहना ही क्या हेन्डलूम की कमीज, एलीफेन्ट ईश्वर व कांसे की मूर्तियों का । मैं इस बात से अभिभूत था कि कितनी सावधानी से तुमने मेरा (लगभग सभी) बिखरा हुआ लेखन पढ़ा है । मेरी तुलना में शायद तुम उसे बेहतर जानते हो । और तुम लोगों का प्यारा शिष्टाचार और परिष्कृत संस्कार – वे गुण जो हमारे हिंसक, उत्तेजित और पगले अमेरिका में नहीं मिलते | अत: हमाराधन्यवाद और तुम दोनों के प्रति हार्दिक शुभेच्छाएं

Tea time with Dr. Oliver Sacks : Visit and Interview

Dr. Oliver Sacks belongs to a rare breed of physician authors. He was born into a well to do Jewish family of doctor parents in London in 1933. His intelligence and voracious appetite for knowledge, literature, music, naturalistic observations and scientific experimentations were evident during early boyhood and adolescence. In that era of extended families he had the  good fortune of being groomed and guided by a number of uncles and aunts with diverse interests. One of them, ‘Uncle tungsten’, on maternal side had a profound impact on the young impressionable mind of Oliver.

Young Oliver was introduced to the wonderful world of experimental chemistry, physics and biology of 19th century, thus preparing the mind to come to grasp with 20th century advances in a sequential evolutionary manner. This upbringing saved the tender psyche of Oliver from the traumas of 2nd World War and the dislocation away from family to the harsh milieu of a dull, rigid boarding school for many years. After the war, Oliver drifted in a few directions including marine biology but finally settled into the stream of medical education with ease. His coming to neurology and to the USA in the 1960s was probably pre-ordained by destiny.

Oliver Sacks writes books and articles about his neurological interests that are intended for a far wider audience than his fellow neurologists. His writings have to a large extent grown out of his experiences with his patients and his research on those patients. He is a voracious reader. He can write about a patient with Parkinson’s disease and can relate that patient to James Joyce, D.H. Lawrence, Herman Hesse, H.G. Wells or T.S. Eliot.

Classically trained neurologists normally think about the nervous system within a particular framework. When they see a patient with hemiplegia, they immediately think about the deficit and its anatomical location within nervous system. The disability and its meaning come first. Oliver is special. He has never worn these blinkers. He thinks about brain within a framework that not only has different borders, but also includes aspects that are never even considered in routine world of neurology. The brain and how it functions, is to Oliver, a philosophical issue. When Oliver sees the hemiplegic patient, his primary concern is with the function of the rest of the brain, how that brain readapts and what that means to the patient and his life. An average clinician tries to ask simple questions, research questions that can be proven right or wrong. Oliver tries to understand on a far different plane. He asks questions that are far more profound or seminal

I first came to know about Dr. Oliver Sacks in 1987 when I spotted his book ‘The Man Who Mistook His Wife for a Hat’ on the desk of a neurosurgeon friend of mine in Philadelphia, Pennsylvania. Since then my fascination for his personality and his writings has grown exponentially. I have read all his books, initially at long intervals and later rapidly. I am thankful to Ratna Rao Shekhar, editor of magazine Housecalls for suggesting me to do a story on Dr. Oliver Sacks, incorporating an interview. While seeking an appointment, I wrote to Dr. Oliver SacksI have been an ardent admirer of your writings. Having been inspired by you, I hope to write in Hindi about some of my patients. Your sage or Guru like demeanor and thoughtful introspections do resonate a synchronous chord with Indian ethos and philosophical traditions

The annointed hour was 2.30 pm on 27th April 2007 in New York. Myself and my wife Dr. Neerja were at the door about 10 minutes earlier. A gentleman came out in the corridor and guessing that we were searching the room of Dr. Oliver Sacks, asked us so. On our nodding, he pointed in the direction and said – ‘just walk in and have fun’. Neerja asked ‘How do you know that we are looking for Dr. Sacks ?’ He said ‘While, I was with him, he mentioned about the appointment with you. Go, go and have fun’. Lots of fun was indeed in store for us. A pristine pleasure of being in the blessed company of a genius who does not make you feel a lesser mortal; one who exudes wisdom, knowledge and understanding. There is a constant urge in him to speak, to comment, to share and to show. A almost of sort of pressure of speech.

And he is a good listener too, with his hearing aids. You can interrupt him. He will lend on attentive ear to your long winding questions and comments and will occasionally interrupt, at the correct moment, having understood the gist of what you intended to ask or say, thus saving time for all.

The office apartment and residence are richly and densely filled with objects of rarity, beauty, significance, history and meaning. You need a good guide to explore and understand the artifacts. Dr Oliver Sacks is one he enjoys talking about them, selecting them at random or on our pointing and prodding. Lots of books and papers and documents and correspondence are occupying tables, desks and shelves. The space is crowded and cluttered but not chaotic. Things are in order. There are plaques of many awards and honors. Multitudes of photographs are pasted on display boards. It is a visual deluge.

Kate Edgar, his long time associate, friend and editor of many books, greets you first. She is the one who handles all correspondence, email and appointments. She made us feel at ease while we were frantically and fumblingly setting up our paraphernalia of digital still and video cameras and the diary.

Soon, the tall, handsome, smiling persona of Dr. Oliver appears.  After the initial greeting and handshake, we both touch his feet and tell him that this is the way we pay respect to elders in India, while meeting or parting from them. Dr. Sacks looks perplexed. He attempts to bend forward, thinking that he should also reciprocate the courtesy. He then stops, saying ‘my low back hurts, it is painful to bend’. We are embarrassed. ‘No you do not have to do any thing of that sort. You simply bless us by putting your hands on our heads’; and we made him do that, literally.

He is donning a dark blue jacket, blue tie, and light blue shirt over – jeans/trousers. The famous trademark beard and the innocent smile are a constant. From a close quarter, I notice lightly pigmented birthmarks on his forehead, made visible by receded hairline. I recall Mikhail Gorbachev and also the fact that the maternal grandfather of Dr. Sacks was of Russian descent.

En route to his chamber and writing table, Dr. Sacks starts showing the various ores of metals on a table. I was aware of the fact that Oliver Sacks had always been fascinated with the Periodic Table of Elements since his childhood. By the end of interview we have seen a score of posters, shirts, mugs; imprinted and embedded with designs, motifs and imaginative renderings of the periodic table of elements, mainly metals, their chemistry and their fascinating intelligent ordering in the form of Mendeleeve’s historic table and chemical formulae. He is obsessed with elements. Yet, Oliver is a man of moderation and equipoise. Chemistry, including its physical aspects is a passion of unique nature for Dr. Sacks.

He shows us two lamps on his desk. One is traditional, iridescent filamentous lamp of tungsten. The other is an incandescent lamp, modern, experimental and intelligent with special provisions for automatic adjustment of luminosity, hue and shade. For him the tungsten bulb is far more beautiful. I mention the ecological argument in favor of incandescent lights. He also notes that Australia has banned the use of filament bulb but nods happily when I concur my liking for the aesthetics of traditional bulb. He proudly shows us the original tungsten filament bulb from the factory of his uncle, still in use outside his study. On the wall, just above the writing desk, he points to a crowded collage of photographs – ‘these are my heros’. I feel ashamed on not recognizing any of them. My face memory, like that of Oliver’s (as he concedes in his Memoirs of chemical Boyhood) is rather poor. Most of the pictures are of scientists in chemistry and physics, from 18th and 19th Century. I recognize Francis Crick after being told so. There is a single color photo of a healthy, joyous lady who is a great adventurer and swimmer in all sorts of extreme locations including Antarctica, without any protective gear.

He brings out two round shining heavy dark ingots of metal from a drawer and asks us to hold them in our hands. “Look here, it is a beautiful element – Tungsten – feel how heavy it is. The other one is not so heavy – it is Tantalum. Tantalum is element number 72, Tungsten is 74, and I am 73 at present”. The chemistry which he imbibed in childhood keeps exuding.

 I set up my small Samsung video-camera on a small tripod on the center-table between us. He comments ‘You are having a cute little camera on tripod – like an alien creature intently watching us. Isn’t it curious that in biological evolution there are bipeds and quadripeds but no tripeds or pentapeds ? However there are a couple of mentions in literature. In the science fiction novel ‘The day of the Terrific’ there is a very aggressive animal like plant with three legs. In ‘War of worlds’ by H.G. Wells, the marshal machines are tripeds.’

I formally express my thanks and gratitude for the opportunity. Dr. Sacks appreciates my letter, the magazine ‘House calls’ and many of its articles including the one written by me about my almamater, MGM Medical College, Indore.

Before we could settle in study of Dr. Sacks for the beginning of formal interview, a disturbing knocking noise started coming from a neighboring apartment. A carpenter was fixing something. He pondered whether we should move to his apartment in the neighboring building ?

‘Let’s see and wait for a while here’, we suggested But the sound would stop for a while and resume again. Finally only a few minutes later, Oliver said ‘Let us go’. It was a short walk of about 50 paces. The afternoon of spring was bright and soft along the east river of New York. The breeze was cool and fresh. Boats and small ships were docked along the coast. Those were the moments of reckoning for me. Neerja followed behind and captured our back profile in stills. The observant analytical, thoughtful and expressive mind of Dr. Oliver Sacks keeps surprising and amusing you. When Neerja clicked a snap as were ascending up in the lift, Dr. Sacks quipped’ I have never been photographed in a lift before’. We were privileged for many more firsts. For example the chance of having a look in his bedroom while he wanted to satisfy my initially expressed inquisitiveness about his fascination with the periodic table of elements. The letter was shown to us artistically crafted on bedspread, quilt and pillow covers. And the rare honor of having a light tete-a-tete with our great host in his kitchen while he prepared typical British tea for us. His only and whole culinary skill was on display. He meticulously measured all ingredients. We were delighted to see milk being warmed separately. Usually in North America and Europe you get cold or chilled milk to add to your brew, marring the joy of sipping hot tea. He ensured to distribute equal volume of the concoction into three unequal size mugs, all decorated with different themes. He took the one with the periodic table. Ours had ferns and chemical formulae. Another mug bore a picture of a wolf (his middle name). Many plates had beautiful engraving of ferns. He is member of ‘New York Fern Society’ and joined one of their expeditions to Oxhaca region in southern Mexico. Dr. Sacks seriously wanted to become a marine biologist initially. He retains a deep interest in the subject. (There is  a bit of showman in Oliver, which lightens and gladdens your heart and which is not in the least pompous or showy). He poses willingly and voluntarily for photographs. His face is expressive and smiles are infective and enchanting. He donned a cap with embroidered cuttlefish for one of the pictures.

There was something to be told about every object. “‘This mug is from Estonia’. This formula on the bone china jar is depicting glucose. This fossil was collected by Dr. James Parkinson’s, Yes the same fellow who described an illness which later bore his name. He was a great biologist too.”

As a semiformal beginning to our conversation I ask ‘Have you ever been to India ?’

Oliver Sacks : I went about 3-4 years back, in connection with Clay’s Sanskrit library. I fell ill on 1st or 2nd day with diarrhea and vomiting. I will love to go there again, this time, on my own insistence and to see what I want to see, particularly the mountains.

Apoorva : There are many varieties of ferns in the Himalayas. You may be interested in that.

Oliver : Oh, yes, Ferns. One of the famous botany books on Rhododendrons and all the flora of Himalayas in 19th century is considered a great travel book too. Incidentally my mother wrote a little book, which was translated into one of the Indian Languages. I have always wanted one of my books to be translated into Indian Languages, but there are so many different languages.

Apoorva : The main language is Hindi, which is also the official language and spoken by about 40-50% of the population.

Neerja : Your mother was an obstetrician. I am also one. I am also a great promoter of breast-feeding.

Oliver : What … breast feeding… so you liked the story. (in ‘My Memories of Childhood’). My mother wrote a book on menopause – titled ‘Woman at 40’, and to her great surprise it became a bestseller. It was translated into Arabic and Hindi, I guess and other languages. I have books in Chinese, Korean, Hebrew, Russian but never had one in any Indian language.

Apoorva : I wish I get time to translate some of your works in Hindi. I can do it. I can do justice to that. I would love to do.

Oliver : But you have your own works.

Apoorva : Yes that is true. I have my professional work as a neuro-physician and I have to teach.

Oliver : Perhaps one day, I will get an Indian edition.

Neerja : Being a neurologist you (Dr. Apoorva) can do it better.

Oliver : This reminds me that my first association to India was tea. I tell you something interesting. Many years, perhaps 60 yrs back there was an Indian man, a tea planter who fell in love with Kate’s mother. But the things moved in their own ways, though they remained very good friends. He had his own tea plantations and he used to send her packets of tea, and Kate’s mother would give the packets to Kate and Kate would give them to me. I had a wonderful collection of tea. I think this man died about 6 months back. Recently I opened the last packet, I threw away the box-cover. I have only a little tea left and I can’t identify that brand. Can you recognize it ? May be you can identify it. Or may be you take some sample back. That is the only available sample now left with me.  Look at it.’

I confessed my inability by saying that I am not a good nose but made a stupid comment that the tea may be from Darjeeling. Oliver softly reminds me that there are hundreds of flavors from that area. He also mentions his liking for coffee from South India.

Oliver told us about one of his friends since school days : John Clay; who was very intelligent, studious and interested in Indian culture, civilization, literature and history. Everybody thought that he would become a scholar Indologist. But he ventured into business and earned, as they say it, ‘a big fortune’. Late in his life, after a sort of retirement he did something unique and worthwhile, redeeming the expectations of his friends and fulfilling his own long cherished desire and dream. He established the John Clay Foundation and took upon himself the onerous task of bringing out a large volume of ancient classical Sanskrit literature into authentic English translation. (Oliver gave us a couple of sample booklets from that series)

There was a bright light from a window behind, masking the face of Dr. Oliver Sacks in relative darkness from the photographic point of view. I suggest that we may turn the venetian blinds down. He promptly gets up to do so and in the process one of them unhinges from the pelmet. Oliver utters ‘bug-up’ and leaves the blind as such and comments that the expression ‘bug-up’ is used in England when something goes wrong. Americans do not say it.

Apoorva : In cognitive neuropsychology we present a word to a patient and then seek its associations by whatever comes to the mind of the patient on listening that word. Similarly please let us know what comes to your mind on listening the word INDIA’

Oliver : ‘Tea, how about your rupee, Mount batten, The Indian Mutiny, Raj, Sanskrit…, now, now, trouble…, the ancient civilization, my good colleague Ramchandran, the famous mathematician Ramanujam, Gandhi, Tagore.

Apoorva : On your website, you are introduced as an author and a neurologist, in that order. When did you realize that you were an author first ?

Oliver : First I am not responsible for the website. If I knew that it is that way, I would have put it the other way round. I am a physician first. This morning I saw a patient. It is true that I have had written a story about him. But when I see him, he is a not subject for me, but always a patient. I had a scientific impulse to write – initially in the form of article in journals and case histories. There was initially some conflict in my brain about two distinct instincts, which were located in different parts. Gradually they came together in the 1960s when I started writing clinical records. My first book came in 1970.

I have written hundreds of long case histories and seen more than 8000 patients, but I had not published them earlier. My mother and father both were clinicians but in a way they too were storytellers. Story telling is an essential part of medicine. It helps you understand the physiology of a person.

Apoorva : The periodic table gave you, for the first time, a sense of the transcendental power of the human mind and the fact that it might be equipped to discover or decipher the deepest secrets of the nature, to read the mind of God. Do you mean that the question about the existence of God is also within grasp of human mind ?

Oliver : Did I say that ?

Apoorva : Yes you did. Did you mean that the question of God is also within reach of the transcendental power of the human mind ?

Oliver : My words were somewhat… misconstrued. I forget to put it in book, though I mentioned there is some sort of strange confusion between religious and scientific. Periodic table is a human construct; though it is a vision of cosmic order. Whenever I use the phrase ‘the mind of God’, it is really in a deistic manner. In fact I do not have any sense of transcendental agency or spirit or force. On the other hand my wonder at nature itself is boundless. If I were to use word God at all, which I do very seldom, I would identify it with nature.

Apoorva : In a way you believe in an rensteinian God.

Oliver : Exactly…

Apoorva : And not the God of Jehovah, or a god who is punishing and jealous.

Oliver : Yes, … but I see the emotional need for creating and believing in such a God, though I do not share it

Apoorva : Is question of God a scientific one or a metaphysical one? (as suggested by Dawkins)

Oliver : I do not think that it is not a subject of enquiry at all (laughs). There is no possible evidence, which can be brought on the matter. The question of God is a matter of faith, which is beyond evidence. In this sense, I do not believe in faith. But…unlike Dawkins, I would not make a public attack on religion. Strangely I worked for many years in religious institutions – Jewish and Christian. If they were Hindu or Muslim, I would be happy to work there too. I love and enjoy the atmosphere of religious belief, strangely, even though I do not share it. I like to see its good aspects, although I am terrified at its harmful fanatic aspects.

Freeman Dyson, who is a good friend of mine, once said ‘I am a practicing Christian, though not a believing one’, which I think was a very-very clever statement. My parents were practicing Jews, orthodox. I have no idea, what they believed in, I never heard them talk about beliefs. I never spoke them about beliefs – I think it basically is a matter of trying to lead a decent life in here and now. There is nothing or any thing beyond. I think I have a sort of  religious sensibility but I more so have a sense of wonder, gratitude and awe at universe. My religion will be without anything supernatural in it; a Godless religion.

When Eienstien talked about secrets of (atom) and God not playing dice – I think he was using only a ‘manner of speech’, He was only being polite. So I have to excuse my self from transcendental.

Apoorva : Taking the analogy from ‘Ontogency repeats phylogency’ you have quoted Cannizaro that the mind of a person who is learning a new science, has to pass through all the phases which science itself has exhibited in its historical evolution.

Oliver : I was delighted to read (this phrase from Cannizaro) because it applied to me. My chemical education, fortunately did not start with 20th century text book, it started rather with my 18th century uncles, who introduced me to metallurgy and concepts of that era and then I encountered Dalton’s atomic theory, then Mendeleev and then quantum theory – a wonderful growing and living the history in myself but, I have to admit that this notion of Cannizaro would not be agreeable to most of the educationists. They would say who is interested in history, let us not waste time, who cares about evolution of ideas, who cares about personalities and (events) – let us just look at the latest. For myself, chemistry or neurology or botany, development of any subject, evolution of a subject, growth of a subject, every subject is like a living organism.

Apoorva : What is its pedagogical significance, as a teacher in neurology, how often have you emphasized the history of evolution of neuroscience to your students?

Oliver : Constantly … if people do not like my teaching they can always go to another teacher. I do not claim that Cannizaro’s method (of teaching) is the only method, but it is a method, which is agreeable to some people, suits some people and not others.

Apoorva : I will make one comment about Indian yoga. I will refer to question to self hood – of body and soul. You quote Freud – that ego is first and foremost a body ego – in this context – I have learnt a little bit of yoga, through I am not a great practitioner. In yoga, teachers emphasize proprioception, awareness of the body through various asans (postures). At every step they say ‘think about your body, how your joints are feeling, how your muscles are feeling, think about your body position, posture, proprioception, breathing, inspiration, expiration. The teachers ask us to think only about here and now – listen to the sounds, noise, music, feel the ground beneath you. I feel this is a great relaxation.

Oliver : This is absolutely right. I think we need to be deeply conscious of embodiment, sense of our body in the here and now. Nitsche says that in philosophy, all errors arise from misunderstanding of body. One of the theme in my book on music is physicality of music ..

Apoorva : As we are talking about awareness body, do you agree with Antonio Damasio when he writes in his book ‘The feeling of what happens’, that consciousness really arises when there is awareness of body and constant changing of bodymaps in brain.

Oliver : Yes I basically do (agree)

Apoorva : I have been closely observing many axes or scales of opposites or dialectics in your writing – the dialectics of diversity versus uniformity, monism versus dualism, heterogeneous versus homogenous, and in neurology, localizationist versus topist or holistic. How do you balance all these ? Are you a person of extreme position or you tread the middle way ?

Oliver Sacks : Strangely, just earlier with a friend who is a neuroscientist, I told him a world he did not know – ‘ireinic’. It comes from Greek, meaning  ‘peaceful’, and it is the opposite of extremes. A person who is (ireinic) does not take-up strong position of views. He considers them all and balances.

Apoorva : In Indian philosophy, Jains and Buddhists particularly also talk of the middle way and truth being multifaceted. There are multiple faces of truth, there is no single truth, every body has his own way of reaching the truth.

Oliver : Some people like Dawkins consider science and religion at opposing extremes. But Freeman Dyson looks at it somewhat differently. He considers a house with many window. One is the window of science, the other is of religion. Many years back, a colleague neurologist asked me, are you a lumper or a splitter ? I said ‘neither’. My friend said “how can you be neither ? You have to be one or another”. I said you many have to be one or other. But I do not

Apoorva : My wife has complaints with me that I do not take any position often. I would say, this can be correct, that can also be correct. My wife and daughter are many times uncomfortable with me. Why are you not taking a position ?

Oliver : But I do have some positions.

Apoorva : Every body has.

Oliver : I do not know whether it is political or ecological, but I think it will take many decades, if ever, to undo the harm which President Bush has done. I never used to, until 5 or 6 years ago, look at papers for political matters, but now I do.

Apoorva : But I hope you are not a deep ecologist or a staunch green.

Oliver : No I am not. I think they (greens) also go too far. I do whatever little I can do. I have a hybrid car, I lived in a house with solar panels.

Apoorva : Coming to the neurology of identity you say that neurology has not grown as much. You talk of psychiatry and neuropsychology both becoming more scientific rather than being subject of identity and you want neurology also to grow in that direction of identity.

Oliver : I think it has been, and also in important and interesting ways. I think this goes long back into time. Remember the story of Phineas Gage. An iron bar pierced through his head. He preserved his intelligence, his verbal power, mental & verbal functions and motor power and many functions, but his friends used to say ‘Gage is no longer Gage’. That was a nice early case history of altered, moral identity – he became so thoughtless and impulsive.

It was a very important milestone in the study of frontal lobe syndrome. In a very strange way, my patients in stories of awakening showed in a way a sort of suspension of their identity of consciousness. for some of them nothing happened for many decades. Every parent feels that identity of their children is different. I think sometimes even the identity of identical twins is different. They are genetically identical but some epigenetic processes are going on.

One of the reasons why I like to tell stories and I like to get stories, is that these are stories of identity and impact upon it of neurological mishap. One such story I wrote was to see and not see; a story about the blind man, who has such a comfortable identity as a blind man, which is destroyed by restoration of vision.

Apoorva : Are you satisfied that mainstream neurology teaching and neurology practice are accepting this concept of neurology of identity in a significant way?

Oliver : I think so.

Apoorva : Are you optimistic that it will increase ?

Oliver : Yes… it is increasing. I think there was a danger about twenty years ago that individual studies or studies of individual would get lost in statistics and lost in getting averaged out. My real teacher, though I never met him but only had correspondence was Luria and specially his two great studies in neurology of identity. The protagonist in the man with shattered world preserves his identity despite profound cognitive deficit.

It interests me even more when identity is hurt by an extravagant power. I want to quote a letter from a yong man who says ‘I have a truatized soul’

I am deeply interested in the impact of neurologically and of course one one’s life … sort of .. (Listen)

Apoorva : If we quote Luria and if we can think that neurology can move away from veterinary approach to peripheral nervous system disorders.

Oliver : (interrupting) … it seems that you have read every word.

Neerja : ….. deeply.

Apoorva : (continuing) .. if neurology can move away from veterinary approach than to quote Edelman, will it be as momentous a revolution (for neurology), as Galileo’s discoveries were for physics ? I think that it is a very strong statement.

Oliver : Edelman’s own central contribution has to do with understanding the basis of identity –first the neurological identity – where he got his noble prize then the personal or neural identity

Apoorva : Yet I feel it is a very strong statement.

Oliver : Yes… indeed it is and also it is one which may frighten people. To use the term you used before, those with a metaphysical or religious or transcendental view, those who believe in a soul inhabiting a body – they would see the notion of neuroscience of identity as reductive and insulting and may be. Edelman himself says, and I know him personally well, ‘What am I doing here, Shakespeare said it all’.

Apoorva : In this current era of evidence based medicine, do you think that the anecdotal will hold its place or increase its space ?

Oliver : It needs to. And I think it will. I do not know what is meant by evidence-based medicine. Even case histories are evidence. What could be the alternative? Will it be faith based medicine or homeopathy. There are different sorts of evidence. Even a single case, which has been deeply studied for many years.

Neerja : The tea was excellent

Oliver : Thanks.

Kate : I think you people will have to wrap it now

Apoorva : Can I have 5-10 minutes ?

Kate : No, not ten minutes. Oliver you have to sit with me, before I leave. The proofs have arrived.

Oliver : What! have the proofs arrived ( of his new forthcoming book musicophilia). OK I have to conclude now. Only five minutes. No more question ?

Neerja : Give me five minutes for some gifts which I have brought from India.

Apoorva : Please give a word about transhumanism, as proposed by James Huges and the concepts of enhancement versus correction, the gene therapy – What is your stand about these issues ?

Oliver : Do you mean stem cells ?

Apoorva : No gene therapy and genetic enhancement.

Oliver : Enormous technical potential with gene therapy and every form of genetic modification, but ethically and ecologically the ground is very complex. This (some sort of enhancement) has already been with us even without gene therapy. The cyclists and athletes taking steroids – one has to define, I have really not thought much about these subjects.

Apoorva : One concluding Question : Blaise Pascal has talked about prayer for the good use of the disease. Would you believe that disease or ill health might have some purpose in the life of an individual or in the lives of a community?

Oliver : Well, they can fill, not in any transcendental sense obviously, but I think any civilization is to be judged to some extent by its tenderness and understanding of the disabled and ill. But whether it has a purpose – no, purpose is not the word I will use. If some one becomes ill or I my self become ill, I do regret it in a way, but I also feel that fullest use should be made.

Apoorva : Once you said. ‘I am delighted by the complexities of case histories –

Oliver : Well, I said that right in my preface to book on migraine.

It refers to richness and thickness of reality. I think our existing case histories are much too thin. A description of a Parkinsonism patient getting up and moving across a room, would need 30 or 40 pages of dense writing. It is in this way that a novelist and clinician will come together.

Oliver : (to Kate) He has read every word I have written. He remembers and brings the topics right away and I have to say that I no longer think that way and I have to excuse myself.

We presented him a two volume set of ‘Indian Philosophy’ by Dr. Sarvapalli Radhakrishnan. Inside the cover we pasted ‘With respect and love to the knowledge and wisdom of Dr. Oliver Sacks’. He and Kate were delighted to taste the sweets and namkeen and expressed joy on receiving Ganesha in brass. However, he was most impressed by a set of 20 CDs on Indian Classical music, Hindustani as well as Carnatic, brought out by Aurobindo Ashram, Pondicherry on behalf of Times Music. Inside the cover we kept a message ‘with respect for the musicality of poetic prose of Dr. Oliver Sacks’. He said ‘I am glad you brought music. I admit that my interests in music have been rather narrow and parochial. I needed to widen them. How did you know that I am writing a book on music ? I said, I did not know but I was aware of your interest in music through your writing and website.

Dr. Oliver and Kate pondered for a while what should they give us in return. They wanted to offer one or other of his books but I had read them all. Suddenly a unique idea came to his mind. The final proofs of his forthcoming book ‘Musicophilia; tales of music and brain’ had just arrived. He brought out an earlier version of the same (loose, unbound papers) and wrote a nice note on it, privileging us for yet another first -receiving the manuscript 6 month before its publication.

While bidding good-bye we once again touched his feet. A transient expression of perplexity come on his face but was soon replaced by a gentle blessful smile.

His irresistible urge to show and tell was evident even as we were being escorted to the exit. He took us to a small dark corner and demonstrated the phenomenon of iridescence, phosphorescence and fluorescence of a few elements and ores with the help of an ultraviolet light source. We cherish every moment of it – let the lights be with us.

Post Script:

About two months later we received a letter in conventional mailbox. The envelop bore the name: Oliver Sacks and an image of …………………. The pages were from two different pads imprinted with botanical images. The text read thus : Dear Drs. Apoorva and Neerja Pauranik, Kate and I still talk about your amazing visit and although the sweetmeats have long been devoured (with relish, curiosity and respect), we have thanks to you, an infinite amount of Indian music to listen to -gradually, gradually, the ear gets educated,  and the entire history of Indian philosophy, to say nothing of hand made shirts, elephant gods, brasses etc.

I was quite overwhelmed by how carefully you had read (most of !) my scattered works. You seemed to know them better (than) I do! And your lovely courtesy, even courtliness – qualities rare in our barbaric frenzied US. So, our thanks and all our warmest best wishes to you both. Oliver and Kate.

Books by Dr. Oliver Sacks

Migraine (1970) : This is the first and the most medical book of all by Dr. Oliver Sacks, yet so different from others in that category. It caters, surprisingly, to specialist as well as layperson. Innumerable symptoms and signs of migraine are described in vivid detail, as also the epidemiological and pathophysiological aspects. The differences from medical texts are stark, pleasing, interesting and illuminating. Many case histories (delightful ?) are interwoven with lot of cultural, historical and literary references and allusions. Therapy is covered briefly. Finally the author speculates, philosophically, along with Ralph M Seigel about Migraine as a universal phenomenon and an example of self-organizing systems.

Awakenings (1973) : To quote from the preface to the original edition : The theme of this book is the lives and reactions of certain patients in a unique situations and the implications which these hold out for medicine and science.’ An epidemic of a now unknown or forgotten disease had occurred in 1920s – encephalitis lethargica a viral infection of brain. Many of the survivors later developed parkinsonism and became disabled in rigidity and extreme paucity of movements, almost frozen. They lived for many decades in chronic care hospitals. Dr. Oliver, as a young inquisitive, observant, humanist neurologist was on the scene when a new drug, L-DOPA was tried on these patients in late 1960s. The dramatic, though turbulent transformations in these patient’s lives, their awakenings from a prolonged slumber, from an incommunicable state, is the core of the book. The author then tries to discuss the far reaching implications of these events – implications which extend to, the most general questions of health, disease, suffering, care and the human condition in general. The book was later adapted for a Hollywood movie with same title, starring Robin Williams (portraying Dr. Oliver) and Robert De Nero (acting the role of a patient and nominated for Oscar).

A leg go stand on (1984) : Doctors are bad patients but when a doctor-patient happens to be a good thinker and author like Oliver Sacks, what we get is a profound, marvelously rich and thoughtful tale. Dr. Oliver suffered injury to his left thigh on a mountain in Norway tearing the tendon of quadriceps muscle and femoral nerve. He experienced for next couple of weeks, a horrifying sense of being unaware of that limb, ceasing of its existence and its image in his mind. Dr. Oliver later learnt, through his own observations in other patients and through remarks by Dr. A.R. Luria (Moscow) that such syndromes are common but very uncommonly described because neurologists often follow a veterinary approach to peripheral disorders, measuring and defining only the so called ‘objective’ and neglecting the inner experience of ‘subjective’.

The man who mistook his wife for a hat (1985) : The most famous and most quoted book is a compendium of 24 clinical tales about subjects suffering from a variety of neurological disorders which may be common or rare, , mundane or significant . You need to have the genius mix of uncanny observations, vast repertoire of background knowledge and thoughtful speculations to cull out the pearls of wisdom and inferences from these tales as the author has delightfully done for us. The tales underscore the adage that truth is stranger than fiction. The subjects though strange and unhappy are treated with utmost understanding, sympathy and respect.

Seeing voices (1989) : I could not have believed, like Dr Oliver Sacks himself, before reading this book, that I would become interested about deaf people, deafness and deaf culture. What a remarkable journey and exploration into the word of sign language, its beauty and richness! The author compels us to look at language, at the nature of talking and teaching, at the development and functioning of nervous system, at the formation of new ethnicities, communities and cultures, in a way which has been totally new to us. There are interesting events and personalities, interwoven seamlessly with the history of evolution of knowledge and attitudes about social and scientific aspects of Deafness.

An Anthropologist on Mars (1994) : Mr I is an accomplished painter who develops rare achromatopsia (color blindness) due to head injury; changes in his world view and art from are profound. Gred F. lost his vision and memory due to large tumor but retains his identity in his love for music of a particular genre. Dr. Bennett has incessant tics, urging him to touch or move or shift or shuffle or gesticulate, yet his surgery is musical and flawless. Virgil had no vision since early childhood and he was comfortable with his identity as a blind person. Restoration of vision in late adulthood creates havoc and he disproves the Hindi saying ‘andha kya mange, do aankhe’. (What does a blind man ask for; two eyes) Seven such stories in this book are about individuals who inhabit and who have created a world of their own. These are tales of survival under radically altered conditions. The naturalist and anthropologist in Dr. Oliver Sacks is making visits or House-calls at the far borders of human experience.

The island of the color blind (1996) : Part travelogue, part investigations into congenital color blindness and another neuro-degenerative disease with parkinsonism, paralysis and memory loss, on a few small islands in pacific ocean, this fascinating book, takes us, along with author, to his old passions of island life, botany and geology.

Oaxaca Journal (2001): This book and Uncle Tungsten are the only pure non-medical books. Dr. Oliver Sacks has a good habit of keeping a regular diary or journal. He joins a group of amateur and professional fern lovers to Oaxaca region in southern Mexico. What we get in bargain is not only botany but a light, fast moving, erudite amalgam of culture, history and archeology. The book reminds us of nineteenth century natural history journals; blends of the personal and scientific.

Uncle Tungsten (2003) : Memoirs of a chemical childhood. The narrative starts from first memories of childhood and stops around the age of 15 years. The focus is rather narrow, particularly referring to young Oliver’s travails into wonderful world of chemistry, physics and biology. The recollections are vivid and interesting. It was a special time and a special house environment when and where the special mind of Oliver Sacks was evolving and maturing. The early signs of genius are all too evident but no portends about neurology.

Musicophilia (2007) (The tales of the music and brain) : This latest book is another treat for fans of Oliver Sacks and music alike. Music is as essential an identity as language for human beings. There are a few who lack that sensibility. Most enjoy it. The range of musicality is wide, mostly innate, partly acquired. It may be enhanced or wiped by disease in brain. Whether music has any biological, adaptive role in Darwinian sense is not the question for author. He is contended with his tales and the fact that music is part of being human.

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