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एड्स रोग के मनो-सामाजिक पहलु


वैसे तो मनुष्य का इतिहास विभिन्न जीवाणुओं से लड़ने का रहा हैं। इस धरती पर बहुत साड़ी स्पीशीज़ रही और जो जीवाणु है जिसमे की हम बेक्टेरिया, वायरस, प्रोटोजोआ, पैरासाइट सबको गिनते हैं पर जीवियों को भी जो इस धरती पर रहते है, और मनुष्य भी इस धरती पर रहा हैं, और उसके संघर्ष की कहानी है, वो भी अनादि काल से चली आ रही है। ये बदलती रहती है। कभी हम जीतते है कभी हम हारते हैं। अलग अलग देश काल में अलग अलग किस्म की स्पीशीज़ बढ़ती है और कम होती हैं, और मनुष्य उनके खिलाफ अपनी प्रतिरोधक क्षमता विकसित करता है।  उनसे बचे का रास्ता निकालता है। फिर जीतता है फिर हारता है, और इस कहानी में नया अध्याय जो तिस साल पहले जुड़ा इस एड्स वायरस  के रूप में या एच आई वी वायरस के रूप में उसने हमें झकझोर दिया और हमें यह सोचने के लिए मजबूर किया की मनुष्य के मन में जो अहंकार आ गया था कि उसने एंटीबायोटिक्स का अविष्कार कर लिया है।  उसने तरह तरह के टीको का अविष्कार कर लिया है।

उस अहंकार को उस विश्वास को इस बिमारी ने झकझोरा, लेकिन यह भी सही है कि इन तीस सालों में जितनी तेजी से इस वायरस कि मार्फोलॉजी उसकी बायोलॉजी, उसकी इम्यूनोलॉजी, उसकी इंतिजीनोसिटी का अध्ययन हुआ और उसके उपायों पर काम हुआ, वह भी मनुष्य कि उतनी ही सफलता कि कहानी है और कम से कम विकसित देशो में इसकी मोर्बीडिटी और  मोर्बीलिटी  कि दर कम होने लग गई।  इसके नए जो केसेस कीसंख्या विकसित देशों में काम होना शुरू हो गई है तो कुछ हद तक यह हमारे आर्थिक स्तर का सवाल है कि हम इस बिमारी पर काबू पा पाएंगे या नहीं। यदि विकसित देश कर सकते है तो विकासशील देश भी कर पाएंगे लेकिन उसके लिए बहुत बड़े दृढ निश्चय कि आवश्यकता है। तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि तरह तरह के माइक्रो ओर्बिज़म होता आते हैं और एड्स भी उसी श्रेणी का एक हिस्सा था और जैसे की स्माल फॉक्स खत्म हुई डिस्ठिरिया खत्म हुआ टिटेनस बहुत कम हो चूका है। पोलियों शायद इस धरती से एक दो साल में नेस्तोनाबूद हो जाएगा, लेकिन नए इन्फेक्शन होते चले जाएंगे और इसकी वजह होती है म्यूटेशन। ये जो माइक्रो ओर्बिज़म होते हैं इनका जो जीनोम है जो डी एन ए है उसकी रचना में अपने आप परिवर्तन होते रहते है और कोई नई बिमारी उग आती है हम नहीं जानते की वह कहा से आती है हो सकता है वह पहले से रही हो या सुप्तप्रायः रही हो और फिर बहुत बनकर पैदा हो जाती है। इस तरह का संघर्ष तो मनुष्य के इतिहास में सदैव चलता ही रहेगा।  मैं यहाँ  इस बात को रेखांकित करना चाहूंगा  कि एड्स उन बीमारियों में से है जिसमे कि बिमारियों से पैदा होने वाली पीड़ा और उस बीमारी के प्रति लोगों के मन में जो रुख है उससे पैदा होने वाली पीड़ा ये उससे कई ज्यादा हो जाती है। जैसे हम कहते है कि “दुनिया कि पीड़ाओं में से अधिकाँश मानव निर्मित हैं” इस धरती पर दुर्भाग्य और पीड़ा के कारणों में प्रकृति से भी अधिक योगदान मानव स्वयं का हैं। 

मिथ, अंधविश्वास, मिथ्या – बीमारी के प्रति लोगो की मानसिकता

पूरी तरह से बीमारियां जो दुःख पैदा करती है उससे कही अधिक उस बीमारी के प्रति लोगो का जो रुख है उस वजह से पैदा होती है। इस बात को हमने पहले भी अनेक बिमारियों के सन्दर्भ में देखा हैं। चाहे वो कुष्ठ रोग हो। कुष्ठ रोग को भी हम हिकारत कि नजर से देखते थे। उसके बारे में भ्रांतियां थी लोग उसका इलाज नहीं कराते थे।  इसी बात को यदि टी बी सन्दर्भ में देखे तो आज से तीस से चालीस साल पहले लोग छुप छुप कर बाते करते थे कि इसको टी बी हो गई है।  लेकिन अब मामले ले लोगो में चेतना आ  गई है। इस मामले को हमने मिर्गी के सन्दर्भ में देखा है।  एक न्यूरोलॉजिस्ट के रूप में मैंने मिर्गी मरीज़ों कि पीड़ा को पास से अनुभव करने कि कोशिश कि है। लोग इस बिमारी को छिपाते है बताते नहीं है इसको लेकर इतने मिथ और अंधविश्वास और मिथ्या धारणा लोगो के मन में फैली हुई है और यही कहानी दोहराई जाती है मानसिक रोगियों के साथ, विक्षिप्तता के साथ, एक जमाना था जब मानसिक रोगियों को चेन से बांधकर रखा जाता था। मानसिक अस्पतालों में बंद करके कोंधवाड़े में जैसे जानवरों को रखते है ऐसा रखा जाता था बड़ी मुश्किल से हम उस मानसिकता से पीछा छुड़ा पाए है। पिछले कुछ सालों के अंदर तो मनुष्य का जो स्वभाव है वह बदलता नहीं हैं। जब किसी बिमारी के बारे में अज्ञान और दुर्भावनाएं फैली रहते है तो उस अज्ञान के कारण होने वाले जो दुःख है उसने एड्स के रोगियों का जीवन दूभर बना दिया है और इसी वजह से एड्स का मरीज़ सामने आने से कतराता हैं।वह अपना परिक्षण कराने से कतराता हैं। इस बीमारी को लेकर मनुष्य के चिंतन को दो धाराओं में हम समझ सकते हैं। एक रूढ़िवादी धारा तथा दूसरी उदारवादी धारा होती हैं।  रूढ़िवादी धारा के लोगो का सोचना है कि यह गलत सभ्यता का परिणाम हैं।  हमारी भारतीय सभ्यता तो बड़ी महान हैं। हम इससे बड़े दूर रहेंगे , ये तो भुक्त भोगी हैं। जिसने जैसा किया है वैसा भरेगा। उसको भुगतने दो।

जिसको एड्स की बीमारी है वो बड़ा गिरा हुआ इंसान है। अपने कर्मों का फल भुगत रहा है और हम उसे हिकारत की नजर से देखते है।  वे सोचते है की आप असामान्य विकृत व्यवहार वाले समलैंगिक इंसान हो। आप एक से अधिक लोगो से यौन सम्बन्ध रखते हो। आप अपनी मोरोलिटी उस इंसान पर थोपने लगते हो जो लोगो के सोचने की रूढ़िवादी धरा है और अपने आप को उनसे अलग रखकर सोचने लगते है। ये कोई दूसरी दुनिया के लोग है जो इससे पीड़ित होते होंगे हम लोग तो इससे परे है हम तो बड़े अच्छे हैं। हम हायर लेवल के मॉडर्न लोग हैं। इस तरह की रूढ़िवादी धारा लोगो के मन में फैलने लगती है।  इस तरह के लोग सभी देशों में है। पश्चिमी देशों में भी ऐसे लोग है जो सोचते है कि क्यों उनके देश कि संसद एड्स के शोध के लिए राशि मंजूर करती हैं। 

किसी ने कहा कि मनुष्य कि अंतर्प्रवत्ति के विरुद्ध अगर आप जाएंगे तो आप कभी सफल नहीं हो पाएंगे।  मैं इस बात से पूरी तरह से सहमत हूँ । जैसा कि मनुष्य का स्वभाव है उसके अनुरूप ही रोकथाम के और उपचार के तरीकों को विकसित करना पड़ेगा। हमें उन लोगो के स्वभाव को समझने  की कोशिश करना चाहिए बजाये की अपना फैसला उन पर थोपने की कोशिश करे।  इस मामले में पश्चिमी और पूर्वी सभ्यताओं में कोई अंतर नहीं है।  जो भी अंतर है वह आर्थिक तथा शैक्षणिक स्तर का हैं। एक और मुद्दा जो एड्स की बिमारी ने उठाया  है वो यह की HIV बाधित व्यक्ति की गुप्तता का अधिकार उसका यह अधिकार की उसका अनिवार्य टेस्ट किया जाए या न किया जाय और यदि किया जाय तो उस परिणाम की जानकारी कौन रखे मई सोचता हु कि व्यक्ति का अधिकार ज्यादा बड़ा है बजाय के समाज के अधिकार के। एक बार फिर यह पश्चिमी विचारधारा है।  मैं सोचता हूँ कि क्यों अधिकांश लोग व्यक्तिगत विचार धारा को अधिक मतत्व दे रहे है बजाय समाज के अधिकार के।  धीरे धीरे मुझे यह कारण समझ आया।  यदि हमें इस स्थिति में व्यक्ति के अधिकार को सम्मान नहीं दिया तो लोग टेस्ट कराने नहीं आएंगे।  यदि अनिवार्य टेस्ट चालू कर दिया तो डॉक्टर और मरीज़ का विश्वास का रिश्ता खत्म हो जायेगा इसलिए सारी दुनिया के एडमिनिस्ट्रेटर्स ने यह निश्चय किया है कि अनिवार्य टेस्ट नहीं होना चाहिए। यदि कोई टेस्ट कराये तो उसका नाम गुप्त रखा जाना चाहिए। कुछ देशों ने यह निष्कर्ष निकाला की उस व्यक्ति का एक कोड नम्बर होना चाहिए जिससे व्यक्ति उस कोड से यह निष्कर्ष निकाल सके कि वह पॉजिटिव था या नहीं। 

जुडुगोडिन थेरेपी

एक और मुद्दा इस बिमारी को लेकर उठ रहा है वह यह है कि क्या तीसरी दुनिया के देशों में जो शोध हो रहा हैं वह विकसित दुनिया के शोध कि तरह है या उसके मापदंड अलग हैं। 

अमेरिका में एक शोध किया गया था जिसमे वे गर्भवती महिलाये जो HIV positive है उनके बच्चो में इस बीमारी के होने की दर कितनी है इस बात को लेकर जुडुगोडिन थेरेपी का एक प्रोटोकॉल सफल पाया गया था और अमेरिकन मेडिकल असोसिएशन की तरफ से यह अनुशंसा दी गयी कि यह प्रोटोकॉल सफल है तथा इसे गर्भवती महिलाओं पर इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन यह प्रोटोकॉल महंगा है, तथा भारत या युगांडा जैसे देश इसका खर्च नहीं उठा सकते।  यूगांडा सर्कार ने अमेरिकन सर्कार से यह अनुरोध किया कि कोई सस्ती रेजिन निकालिये जिसको हम अपने देश में लगा सके।  इस सस्ती रेजिन का इफ़ेक्ट देखने के लिए एक double blind placebo control study design किया जिसमे आधो को सही दवाई दी गई तथा आधो को placebo control study design कि दवा दी गई इससे यह निष्कर्ष निकला कि जिन्हे placebo control study design की दवा दी गई थी उन बच्चों में बिमारी की  दर अधिक थी। इस बात की बहुत आलोचना हुई क्योकि अमेरिका में इस तरह के किसी भी शोध की इज़ाज़त नहीं दी जाती है। लेकिन यूगांडा सर्कार ने इस बात की इज़ाज़त दी। यूगांडा वालो का कहना था कि माना कि शोध अनैतिक था लेकिन वैसे भी वे बच्चे HIV positive थे और मरने वाले थे।  इस बात कि भी बहुत आलोचना हुई थी। 

एक और केस पाया गया था जिसमे अमेरिका के एक Dentist ने एक मरीज़ का इलाज़ करने से मना कर दिया क्योंकि वह HIV पॉजिटिव था।उस डॉक्टर का यह कहना था कि यदि मैं इस मरीज़ का दांत निकलता हु तो मुझे वो इन्फेक्शन होने कर डर है और मेरे द्वारा अन्य को।  वह व्यक्ति कोर्ट में चला गया। अमेरिकन डिसेबिलिटी एक्ट के अनुसार एड्स के खिलाफ किसी भी प्रकार का भेदभाव गैरकानूनी है। इस आधार पर जज ने यह निर्णय दिया कि उस डॉक्टर को मना करने का अधिकार नहीं था। 

एक और अपवाद एड्स की बिमारी को लेकर किया है आमतौर पर अमेरिका की मेडिकल संस्थाएं जब कोई नयी खोज करती है तो वह press conference बुलाकर उस नयी इलाज़ की प्रक्रिया को घोषित नहीं कर सकते है जब तक कि वह किसी peer reviewed general process का बायपास किया गया है क्योकि एड्स के इलाज़ को लेकर लोगो में बहुत उत्सुकता रहती हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि किस तरह एड्स ने हमारे शैक्षणिक जगत को, हमारे शोध जगत को प्रभावित किया हैं।

और अंत में मैं मनुष्य के स्वभाव को लेकर एक बात और कहना चाहूंगा कि जब लोगो को यह मालुम पड़ने लगा कि एड्स का इलाज़ संभव होने लगा हैं तो एड्स को लेकर पहले युवा वर्ग में जो सावधानी की भावना आ गई थी वो फिर कम होने लगी हैं। अतः मनुष्य का स्वभाव तो वैसा ही रहेगा उसे बदलना मुश्किल हैं। 

और अंत में मैं यह कहूंगा कि इस HIV को खत्म करना है तो इसके एक से अधिक मोर्चे खोलना पड़ेंगे। एक मोर्चा तो यह हैं कि एक नेशनल स्टैण्डर्ड होना चाहिए सर्विलांस और रिपोर्टिंग का, जो एनोनिमस कोड वाली बात थी वो शायद सबसे अच्छा होगा। लेकिन उसमे कई दिक्कते आ सकते है। दूसरा लोगो में इसको उपचार की औषधि की उपलब्धता हमें बढ़ानी होगी। तीसरा इस बात को लेकर की लोग प्रशिक्षित चिकित्सको तक पहुंचे। चौथा है Protection of the patient from the violation of privacy and discrimination. Privacy और discrimination वाला भाग बहुत मत्वपूर्ण हैं, क्योकिं जब तक हम प्राइवेसी और discrimination नहीं रखेंगे यह बीमारी छुपी रहेगी। और अंतिम जो सबसे महत्वपूर्ण है वो है Awareness और Education।

अतः ये एक से अधिक मोर्चो पर लड़े जाने वाली लड़ाई हैं, जिसमे की हमारी मानव सभ्यता को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया हैं। हमें इस बात के मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि कोई सभ्यता ऊँची होती है या morally superior होती हैं।  मनुष्य स्वभाव पूरी धरती पर एक सा होता हैं, और उसकी मुलभुत विशेषताओं को समझे बिना हम इन समस्याओं से नहीं लड़ पायेंगे।

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