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“भाषा बहता नीर” न्यूरोज्ञान व्याख्यान माला (तृतीय अंक)


1.0 “संस्कृत कूप जल, भाषा बहता नीर

ऐसा कहा कबीर दास जी ने । इसी उक्ति पर वर्ष 1981 में समालोचनात्मक निबन्ध लिखा वरिष्ठ साहित्यकार श्री कुबेरनाथ राय ने । उन्होंने कहा “कबीर की कही हुई बात है, सही होनी ही चाहिये । कबीर थे बड़े दबंग और साफ़ दिल । लेकिन कबीर के पास इतिहास बोध नहीं था । उनका यह वाक्यांश तत्कालीन पुरोहित तंत्र के खिलाफ़ ढेलेबाजी भर है ।”

संस्कृत की भूमिका कूपजल या कुँए का पानी से कहीं अधिक विस्तृत है जिसकी चर्चा मैं आगे करूँगा । “भाषा बहता नीर” से भला कौन असहमत होगा । यह एक सतही नहीं, वरन गंभीर कथन है । इसके अनेक संर्वाग अर्थ है जो तमाम युगों और समस्त देशों, भूखण्डो पर लागू होते हैं ।

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2.0 भाषा क्या है और क्या नहीं?

2.1 भाषा एक चमत्कार है जो इस समय हम और आप कर रहे है — चाहे आप मुझे सुन रहे हों या मेरा लिखा पढ़ रहे हो — यह चमत्कार जारी है । मेरे मुंह से निकलने वाली श्वास पर आधारित कुछ अजीब सी ध्वनियां हवा में तैर रही हैं। कहकहाहट, चहचहाहट, फुसफुसाहट, खरखराहट जैसा शोर आपके कानों के माध्यम से दिमाग में घुस कर छैनी चला रहा है — मस्तिष्क में सूक्ष्म सूक्ष्म रुपान्तरण कर रहा है। कुछ नये विचार व तथ्य रोपित कर रहा है ।

यही काम आंखों के माध्यम से होता जब हम पढ़ते हैं ।

मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों में भी सूचनाओं का संचार होता है, संवाद होता है, भावनाओं की अभिव्यक्ति होती है । लेकिन मनुष्य की भाषाओं की बात ही अलग है। कोई तुलना नहीं । बहुत बड़ी खाई है । भाषा सीमित ध्वनियों, सीमित शब्दों, सीमित नियमों द्वारा असीमित वाक्य और असीमित विचार गढ़ती है ।

2.2 भाषा एक अन्त: प्रज्ञा है। Language is an Instinct

प्राणियों के डार्विनियन विकास में अनेक नायाब अंग और हुनर विकसित हुए । जो उन्हें धारण करने वाली स्पीशीज द्वारा स्वयं की संतानों की संख्या बढ़ाने में मदद करते हैं । इन्सान द्वारा दो पैरों पर चलना, मछलियों के फिन और गिल, कछुए की पीठ पर ढाल, कुत्तो की घ्राण क्षमता, चील की आंख, चमगादड़ का रेडार, चिड़ियां का घोसंला बनाना, जिराफ की लम्बी गर्दन, प्रवाजक पक्षियों की हजारों मील की उड़ान, मकड़ी का जाल आदि आदि ।

मनुष्यों की भाषा भी इसी सूची में आती है । प्रत्येक नवजात शिशु के ब्रेन में भाषा रूपी Operating System फिट हो कर आता है । लेकिन यह प्रणाली अकेले इन्सान के बूते की बात नहीं । उसके लिये समाज चाहिये । भेड़िया बालक कभी भाषा नहीं सीखते ।

2.2.1 भाषा एक पहचान है ।

भाषा केवल भाषा नहीं होती । उसकी अपनी खास पहचान, रंग और गन्ध होते हैं

बाईबिल में “टावर आफ बेबल” की कहानी आती है । लोगों ने एक ऊंची मीनार या टॉवर बनाना शुरू किया । आकाश छूने लगा । ईर्ष्यालु और डरपोक God ने सोचा मेरी सत्ता खतरे में पड़ सकती है । उस समय तक सारे  लोग एक ही भाषा बोलते थे । भगवान के जादू से वे ढेर सारी अलग अलग भाषाएं बोलने लगे । आपस में संवाद व  सहयोग टूट गया । झगड़े होते लगे । टॉवर टूट‌ गया । हमारे सनातन धर्म के देवता शायद ऐसे इर्ष्यालु और गुस्सैल नहीं होते ।

सच देखा जाये तो भाषाई विविधता कोई अभिशाप नहीं वरन वरदान है ।

2.3 भाषा का लिखित स्वरुप, मूल रूप से भाषा नहीं है ।

इतिहास के किसी भी काल में, भूगोल के किसी भी कोने में, कोई भी मानव समूह ऐसा नहीं हुआ जिसके पास भाषा न हो । यह गाथा लगभग दस लाख वर्ष पूर्व आरम्भिक Homo जातियों के साथ शुरू हुई होगी, या उससे भी पहले ।

जबकि होमो सेपियंस (हम) दो लाख वर्ष पूर्व विकसित हुए । लेकिन भाषा का लिखित स्वरूप मुश्किल से 5000 वर्ष पहले पनपा । कुछ सीमित सभ्यताओं । सब में नहीं ।

जन्म से ही लिखने-पढ़ने की अन्तःप्रज्ञा नही आती । उसे तो सीखना पड़ता है ।

2.4 भाषा महज शब्द कोश और व्याकरण नहीं है ।

भाषा के नियम ऊपर से नहीं आते । नीचे से उभरते है । स्वतः पनपते है । जब चल पड़ती है तो उसके उपयोग का अध्ययन करके भाषा वैज्ञानिक ‘व्याकरण’ के सूत्र ढूंढते है शब्दों और अर्थों के मध्य में बहुविध सम्बन्धों को डिक्शनरियों में सूचीबद्ध करते है Language is a bottoms up process, not top down.

2.5 भाषा, विचार नहीं है ।

कुछ सीमित अर्थो में बिना भाषा के सोचना, विचार करना, अनुभव करना, अभिव्यक्त करना सम्भव है। नन्हे शिशु और पालतु पशुओं का अनुभव हमें यही बताता है ।

हम वयस्कों में भी बहुत सारा सोच बिना भाषा के होता है । हमारी भावनाएं, Emotions, रसनिष्पति, Sixth sense, Gut feeling, आंखों की जुबान, मुख मुद्रा, तन-भाषा, आवाज का लहजा आदि बिन बोले कितना कुछ कह जाते हैं । कहीं जाने के लिये Google map पर एक नज़र हमे गंतव्य पर पहुंचा सकती है जबकि उस मार्ग को शब्दों में बयां करना कतई जरुरी न हो । कहते हैं एक चित्र हजार शब्दों के बराबर होता है ।

बैजींन नामक एक कार्बनिक यौगिक की रासायनिक संरचना का चित्र रूप, एक वैज्ञानिक को सपने में दिखा था ।

आइन्सटाइन ने सापेक्षता सिद्धान की परिकल्पना को बन्द आंखों के साथ अनेक दृश्य रूपों में पाया था ।

अभी तक आपने जो सुना या पढ़ा, उसे यदि दोहराने का कहा जाये तो शब्दश: ऐसा कर पाना सम्भव नहीं होगा लेकिन उसका सार सार निष्कर्ष अनेक लोग कह पायेंगे, लिख पायेंगे हालांकि उनके वाक्य नितान्त भिन्न होंगे । स्मृति में जो रह जाता है वह Abstract होता है, अमूर्त होता है, विचार होता है, हुबहू भाषा नहीं होता । बिना भाषा के सीमित विचार सम्भव है । विस्तृत और समृद्ध और विचारों के लिये भाषा अनिवार्य है। E=mc2 को बिना भाषा समझाना असम्भव है । फिर भी भाषा स्वयं विचार नहीं है, हालाँकि वह विचारों की वाहक जरुर है ।

3.0 भाषा कैसे काम करती है ।

3.1 भाषा के अवयवों में से एक है “शब्द” “Words”.

शब्द एक इकाई है जिसका कोई अललटप्पू अर्थ होता है । कोई तर्क नही । कोई नियम नही । कोई साम्य नहीं । बस शब्द है और Arbitrary रूप से, बेतरतीब रुप से उसका एक अर्थ है । कभी कभी एक से अधिक अर्थ हो सकते हैं । एक उदाहरण लेते हैं । “घोड़ा” । यह ध्वनि [घो…ड़ा] न तो घोड़े जैसी दिखती है, न घोड़े जैसी हिन हिनाती है, न घोड़े जैसे दौड़ती है । लेकिन इस शब्द को सुनते ही आप सभी के मानस पटल पर घोड़े के कोई चित्र और उससे जुड़े अनेक तथ्य व स्मृतियां उभर आये होंगे । ऐसा इसलिये होता है कि हम सब हिन्दी भाषियों में इस लघु ध्वनि-पुंज का अर्थ साझा रूप से स्वीकार किया, अपने आप किया, किसी कोष-कार के आदेश से नहीं करा ।

एक शिक्षित स्नातक के मानस-कोश [Lexicon] की शब्द क्षमता गजब की होती है । लगभग 60,000 शब्द । 20 वर्ष उम्र में हासिल हो जाती है । प्रत्येक नये शब्द का अर्थ उसकी मन मर्जी का । उतना ही Arbitrary जितने कि टेलीफोन डायरेक्टरी में फोन नम्बर होते हैं । क्या कोई 60000 नंबर याद करता है ?  अर्थ कुछ ऐसे कि

जो नन्ही “एलिस” ले अपनी वण्डरलैण्ड में कहा था ।

“When I use a word, it means exactly what (I) want it to mean.”

हमारी भाषा शब्दों का अनियमित उल्टा पुल्टा क्रम नहीं है । उसके अपने नियम हैं ।

3.1.1 What is in a name? नाम में क्या होता है?

“That which we call a rose

By any other name. would smell as sweet.”

ऐसा कहा शेक्सपियर ने । लेकिन सच्चाई तो यह है कि There is great deal in a name. वरना वस्तुओं की ब्रांड वेल्यु क्यों होती?

“बद अच्छा, बदनाम बुरा” क्यों कहलाता?

3.2 भाषा के नियम: व्याकरण [Grammar] और रूपविज्ञान [Morphology]

भाषाओं की मौलिक इंजीनियरिंग ट्रिक है [“असतत संयोजी प्रणाली”] [Discrete Combinatorial System.]

जो दो स्तरों पर काम करती है —

(अ) – वाक्यों के निर्माण में जिसकी ईटें हैं “शब्द” – और नियम है व्याकरण या grammar

(ब) – शब्दों के निर्माण में जिसकी ईटें है [ध्वनिम] [Phoneme] और [Morpheme] तथा उनके नियम है

Morphology — [रुप विज्ञान]

फोनीम या ध्वनिम से भी छोटी इकाई है Phonetic features.

3.2.1 रूपविज्ञान के कुछ उदाहरण [Morphology]

वाक्यों के समान शब्दों का गठन भी उनके अवयवों के सम्मिश्रण – संधि – संयोजन आदि प्रक्रियाओं से होता है ।

3.2.2 Syntax व्याकरण

भाषा की रचनात्मकता [Creativity] और उर्वरता [Productivity, Fecundity] गजब की होती है । इसकी क्रान्तिकारी व्याख्या 1950-60 के दशक में महान भाषाविज्ञानी नोअम चॉम्स्की ने करी । हालांकि इस प्रकार के सोच की कुछ झलक 3000 वर्ष तक्षशिला में पाणिनी के काम में मिलती है।

कुछ गिने चुने Cliché [पिष्टोक्ति, रुढ़ोक्ति) को छोड़‌ कर हमारे भाषाई अनुभव में प्रति पल हम कोई नया वाक्य बोलते हैं या सुनते हैं । जी हाँ, नया मौलिक वाक्य ।

मैं दोहराता हूँ ——— “इस प्रकार के सोच की कुछ झलक 3000 वर्ष पहले तक्षशिला में पाणिनी के काम में मिलती है ।” मेरा दावा है कि हुबहु ठीक ऐसा ही वाक्य “न भूतो न भविश्यति है ।” विचार हो सकता है वाक्य नहीं ।

प्रतिदिन अरबों लोग, खरबों अवसरों पर खरबों प्रकार के नये नये मौलिक वाक्यों का सृजन करते हैं, या सृजन करने वाले के उच्छवास या चितरी हुई आकृतियों को समझते हैं ।

शब्दों का स्मृति भण्डार होता है लेकिन वाक्यों का नहीं । व्याकरण और रूप विज्ञान के सौ-पचास नियम होते हैं जिन्हें एक बच्चा, तीन वर्ष की उम्र तक आते-आते स्वत: आत्म सात कर लेता है । माता पिता या किसी शिक्षक द्वारा पढ़ाये जाने की जरूरत नहीं होती ।

इन नियमों का निवास और निष्पत्ति हमारे मन [Mind] में अर्थात् [मस्तिष्क] में होती है । चॉम्स्की के अनुसार Linguistics is nothing without – Psycho-Linguistics. मनोभाषिकी के बगैर भाषाविज्ञान कुछ नहीं है ।

मानव मन को समझने के लिये भाषा विज्ञान एक खिड़की या कुंजी के समान है ।

व्याकरण के नियम, शब्दों के अर्थों से स्वतंत्र होते हैं । दोनों का अपना अपना अलग वजूद है । Syntax या ग्रामर की दृष्टि से इस वाक्य पर गौर कीजिये जिसमें कोई त्रुटि नहीं लेकिन अर्थ विज्ञान (Semantics) की नजर से वह अण्डबण्ड हैं ।

Colourless Green Ideas Sleep furiously. रंगहीन हरे विचार गुस्से में सोते हैं ।

(विशेषण) (विशेषण) (भाववाच्चक (क्रियाविशेषण) (क्रिया) संज्ञा)

इन्हीं शब्दों के क्रम को यदि हम उलटपुलट कर दें तो AI वाली मशीन Error Signal दे देगी ।

[हरे गुस्से सोते रंगहीन में विचार है ।]

यह भी अर्थ हीन है लेकिन इसे हम वाक्य भी नहीं कहेंगे । AI वालों ने बहुत मेहनत से दिमाग लगा करा Auto-Correction की सुविधा बनाई हैं जो कभी काम की होती है तो कभी अनर्थ कर देती है । उन्होंने Auto Suggestion के Tools भी बनायें है जिन्हें हम कभी स्वीकार करते हैं तो कभी Dismiss करते हैं । Grammarly जैसी अनेक, Paid applications हैं, जो हमारी शब्द चयन, वाक्यविन्यास और शैली को सुधारने का दावा करते हैं । हम हमेशा से सहमत नहीं होते ।

मुद्दे की बात यह है कि

Syntax does not consist of a string of word by word association, as in Stimulus Response, theories of behavioural psychology.

व्यवहारगत मनोविज्ञान की गई गुजरी मान्यताओं के अनुसार Stimulus होते हैं और Response होते हैं —

उद्दीपन या कारण होता है तथा प्रतिक्रिया या परिणाम होता है ।

उक्त सिद्धन्त भाषा पर लागू नहीं होते । बच्चों को भाषा की कितनी सीमित आवक मिलती लेकिन जावक/Output इतना प्रचुर ।

* यदि शब्द ‘अ’ आया है तो उसके आगे शब्द ‘ब’ य ‘स’ या ‘द’ के आने की सम्भावना इतने-इतने प्रतिशत होगी, ऐसे Algorithm भाषा पर थोपना गलत हो जाता हैं ।

भाषा कही अधिक कठिन और मौलिक होती है ।

वाक्यों में और संवाद /कथोपकथन /Discourse में लम्बी दूरी की निर्भरताएं होती है। Long Distance Dependencies ।

आइये निम्न बक्य पर फिर गौर करते हैं

वाक्य के के आरम्भ में “यदि” है तो आगे कही जाकर “तो” जरुर आयेगा ।

“बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी”

एक और उदाहरण —

“गर तुम मुझे न चाहो, तो कोई बात नहीं, किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी ।”

वाक्यों का मतलब, शब्दों की एक लड़ी नहीं होता । उसके विन्यास में वृक्ष की शाखाओं के फूटने की नियम बद्ध प्रणाली होती है ।

The Rajasthan Royals will win the world cup soon.

भाषाई व्याकरण के नियम खुली खुली रचनात्मकता का साधन बनते हैं । जैसे गणित में संख्याएं अनन्त होती हैं वैसे ही भाषा में वाक्यों की विविधता अनन्त होती है । तीन वर्ष के बच्चे को शब्द और अर्थ याद रखने पड़ते हैं परन्तु Syntax के नियम और उनके आधार पर बनने वाले नये नये वाक्य नही रटना पड़ते ।

एक बच्चे को चित्र दिखाया और कहा

This is a Wug.

फिर दूसरा चित्र दिखाया और पूछा ये क्या है —

बच्चे ने कहा दो….. Wugs

देखते ही देखते तमाम नियम आत्मसात हो जाते हैं । वयस्कों में विदेशी भाषा सीखते समय यही काम बहुत कठिन व श्रम साध्य होता है ।

ऐसा लगता है कि दुनिया की सभी भाषाओं की व्याकरण को संधारित करने वाला Operating System एक ही होता है । Universal Grammar द्वारा वाक्यों  की सृजन प्रक्रिया में एक Deep structure गठित होता है । प्रजनक व्याकरण । (Generative Grammar) द्वारा एक Surface Structure बनता है ।

3.3 Phonology ध्वनिविज्ञान

प्रत्येक भाषा में “ध्वनिम” की संख्या और सदस्यता थोड़ी थोड़ी अलग होती है । मराठी का ळ हिंदी में नहीं है । तमिल में ‘ख’, ‘घ’ नहीं है । भोजन के पश्चात मेरा तमिल मित्र कहता है “मैंने काना का लिया” ।

जब में लोकमान्य तिलक बोलता हूँ तो मेरे मराठी मित्रों के चेहरों पर एक रेखा आ जाती है । मैं अभ्यास करता हूँ, ‘तिळक’. पंजाबी में भगवान को पगवान कहते है । जापानी लोग ‘ल’ के स्थान पर ‘र’ बोलते है ।

मेरे एक जापानी मित्र ने कहा:

In we Japan also, we are very much interested in Clintons “ERECTION” (Election)

बचपन से जो Phonemes या ध्वनिम सुने उन्हें ही हमारा बाजा बजा पाता है और कान सुन पाते है — हमारे बाजे की फिटिंग स्थायी बन जाती है । बड़े होते होते, दूसरी भाषा बोलते समय हम उस भाषा की ध्वनियों को हमारी प्रथम भाषा की ध्वनियों की शैली में ही बोल पाते है ।

इसे Accent या लहजा कहते है ।

आस्ट्रेलिया में हम वहां के Aborigines मूल निवासियों से बात कर रहे थे । उन्होंने हमने प्रसन्नता और गर्व से बताया कि भारत के गोंड आदिवासियों और उनकी भाषा की ध्वनियों व लय खूब मिलते है । यदि दूर से एक समूह को बातचीत करते सुनें तो लगेगा मानो अपनी ही भाषा में बात कर रहे है ।

एक न्यूरोलाजिस्ट के रूप में पिछले 40 वर्षो में मैंने चार पांच मरीज ऐसे देखे हैं जिनका Accent लहजा बदल गया । घर वा गाँव वाले कहते ‘इसकी बानी अंग्रेजों जैसी हो गई।’ ‘साला ये तो साहब बन गया।’

इस अवस्था का नाम है Foreign Accent Syndrome. मस्तिष्क द्वारा उच्चारण में काम आने मांसपेशियों को संचालित करने वाले एक छोटे से भाग में रोग आने से ऐसा होता है । अच्छे Mimicry आर्टिस्ट यही काम सायास कर लेते हैं ।

3.4 भाषा के अतर्पटल Interfaces of Language

आवक – जावक, Input : Output, सृजन – ग्रहण, Decoding : Encoding, Reception : Production

3.4.1 भाषा का बाहर निकलना

इस वादक की बाहर निकलने वाली सांस पर कितने सारे बटन, छेद, पिस्टन आदि खेला करते हैं और मधुर संगीत की सृष्टि करते हैं ।

वाणी क्या है ? हमारे फेफड़ों से बाहर निकलते वायु की नदी पर खेला है । यह खेला कौन करता है ?

बांसुरी के छेद ! सेक्सोफोन के पिस्टन । हमारी एनाटॉमी में यही काम करते हैं निम्न अंग: —

(i)           Vocal cords  स्वर तंतु

(ii)          Pharynx        ग्रसिका

(iii)        Soft Palate — nasal cavity. नरम तालु, नासिका मार्ग

(iv)         Tongue — base, mid, tip. जीभ पश्च, मध्य और अग्रभाग

(v)          Cheek muscles       गाल की मांसपेशिया

(vi)         Jaw muscles — जबड़े की मांसपेशिया up-down, side wards, back-front

(vii)       Lips                होंठ

उपरोक्त छिद्रों, पिस्टन्स आदि को चलाने वाली मांसपेशियों की सूक्ष्म त्वरित गतियों का नियंत्रण बायोलोजिकल इंजीनियरिंग का एक चमत्कार है ।

हमारे फेफड़ें इलास्टिक गुब्बारे के समान है । उसके मुंह को ढीला छोड़ दो तो फुस्स से हवा निकाल जाती है । लेकिन बोलते समय हम उस उच्छवास को Control करते हैं । हौले-हौले टूकड़े-टूकड़े में थोड़ी-थोड़ी सांस् छोड़ते हैं, छोटी छोटी सांसे अन्दर भरते है । जैसा वाक्य वैसा उच्छवास । शंकर महादेवन के Breathless गायन में कार्बन डाय आक्साइड के ऊपर Lyrics and music हावी हो जाते है ।

मानव स्वर में इतनी विविधता के पीछे एनाटॉमी में परिवर्तनों को डार्विन ने नोट करा था । हमारा Larynx (स्वरयंत्र) अन्य प्राणियों की तुलना में बहुत नीचे रहता है ताकि Pharynx और जीभ को ज्यादा खेला करने का स्थान मिल जाये । हालांकि इसकी एक कीमत चुकानी पड़ती है। The Risk of Aspiration । निगलते समय खाद्य पदार्थ की कुछ मात्रा का भोजन नली [esophagus] के बजाय श्वास नली [trachea] में चले जाना ।

3.4.2 भाषा को सुनकर समझना

सुनी जा रही भाषा को मस्तिष्क द्वारा Decode कर पाना बायोलाजी का एक और चमत्कार है । भाषा-बोध [Language instinct] का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है । शब्द एक धोका है ? शब्द कृत्रिम है ? कहां शुरू कहां खत्म जबकि Spectrograph सतत है । हमारा मस्तिष्क ध्वनियों में शब्द ढूंढ़ता है । ध्वन्यात्म दृष्टि से भाषा का स्पेक्ट्रोग्राफ सतत होता है । यदि हमें भाषा आती है तो हम शब्द पहचान लेते है । विदेशी भाषा में ऐसा करना सम्भव नही होता ।

मोर की पुकार में मैं और मेरी पत्नी “नीरू” “नीरू” सुनते हैं । मिट्ठू की नकल, सिर्फ नकल होती है । मैना की श्वास नली पर वाल्व होते है जिन्हें बजाकर वह का भ्रम पैदा करती है । Sine Wave Speech कम्प्यूटर जनित होती है । विदेशी भाषा की फिल्मों के Subtitles पढ़ते-पढ़ते और अभिनेताओं के होठों की गतियां देखते-देखते हम उनकी आवाजों में अपनी भाषा सुनने लगते हैं । लिखित शब्दों को बीच खली स्थान होता है । लेकिन बोले गये शब्दों के बीच कोई गेप नहीं होता । विदेशी भाषा हमें ध्वनि की निरंतरता के रूप में सुनाई पड़ती है । सुने और पढ़े गये शब्दों का प्रथम मिलान मस्तिष्क में मौजूद शब्द कोश से होता है । यदि Entry मौजूद है तो उसे अर्थ-भण्डार के डिपार्टमेंट में Meaning जानने के लिये भेजा जाता है । न केवल अर्थ वरन अन्य शब्दों से रिश्तों की फेहरिस्त भी पेश हो जाती है । वाक्यों में उपयोग के नमूने पेश हो जाते है ।

4.0 भाषा और बोली: कोई ऊंच नीच नहीं

कोई भाषा या बोली कमतर नहीं होती । अपनी भाषा पर गर्व जरूर करो लेकिन घमण्ड व्यर्थ है । सब में सम्प्रेषणीय क्षमता गजब की होती है ।

लेकिन अंडमान का आदिवासी, निराला से कम नहीं होता । प्रागैतिहासिक समाज [Stone Age Society] होते हैं। पाषाण युग समाज होते थी। पाषाण युग भाषाएं नहीं होती। Stone Age Language नहीं होती । साउथ अफ्रीका की बांटू कबीले की भाषा में एक क्रिया शब्द के आगे-पीछे सात प्रकार के प्रत्यय होते है तथा चौदह काल [Tense] होते हैं । क्रिया निर्भर करती है कर्ता (Subject) पर, एक से अधिक कर्म (Object) पर, क्रिया के 16 Gender होते हैं [मानवीय, प्राणी, वस्तु, वस्तु समूह, शरीर अंग आदि] अशिक्षित गरीब लोगों की भाषा ‘गरीब’ नहीं होती । बोलियां या Dialect किसी भाषा से कम नहीं होती । Language is a dialect with an army and navy.

4.1 मालवी बोली

हूँ थोड़ी घणी मालवी जानु । म्हारी मालवी कच्ची है । घेंचपेच है । घालमेल है । घणी गलतियां वे । जितनी भी मालवी म्हणे आवे, हे खुब काम की । मरीज लोगाँ से बात करवा के टेम, उनकी तकलीफां जानणा के वास्ते, यो जरुरी है कि वी डाक्टर लोग गामड़ा के लोग की जुबान में बोलां, न उने समझा भी, म्हारी गलत सलत मालवी सुणी ने अख्खो परिवार खुस होई जावे, मन से जुड़ी जावे, भरोसो बैठी जावे, बीमार मनक की दुख भरी कहाने महारे झट अच्छे से समझ अई जावे । मरीज न उनका घरवाला जो जो केनो चावे, बतानो चावे, सई-साट तरीका से के पावे, एक अच्छा डॉक्टर ने और कई चावे, दुखियारा मरीजों से, दिल से जुड़नो, न उनकी कथा समझनो, न आपणो इलाज के बारे में अच्छे से समझाई देणो । सच बात तो या हे के घणा सारा टेम पे, कई बीमारी हे यो ज्ञान मरीज के मुण्डा से उको किस्सो सुणी ने ई अई जावे, मेंगी मेंगी जांचां करवाने की जरवत ही नी पाड़े । मूं जो मालवी सीखी, म्हारों बड़ो धन है। म्हारा हाथ नीचे काम करवा वाला, भंड᳝वा वाला छोटा डाक्टर, वे म्हारी मालवी सुणी ते चकित रई जावे, म्हारा मुण्डा आडी देखे, डाक्टर साब ने या बोली कैसे आवे । सब लोगों ने गामरा की बोली जरूर सीखणी चईये ।

5.0 भाषा का विकास (Evolution of Language)

लिखित भाषा के शिलालेख मिल जाते है लेकिन वाचिक भाषा अपने पीछे कोई फसिल्स या पॉटरी नहीं छोड़ जाती । क्या तरीका है आरम्भिक भाषाओं [Proto—Languages] के बारे में जानने का ।

लगभग 2 लाख साल पहले Homo Sapience का आविर्भाव हुआ । अन्य होमो स्पीशीज 10 लाख साल पहले से थी । इन सबकी भाषाएँ जरुर रही होंगी । वर्तमान समय में हम अध्ययन करते हैं ऐसे कबीलों की भाषा का जो शेष आधुनिक मानव समाज से पूरी तरह कटे रहे है । इनके छोटे-छोटे समूह होते है। प्रत्येक की भाषा पृथक । दो समूह के सदस्य जब आपस में साथ रहना शुरू करते हैं। तो PIDGIN विकसित होती है ।

[गिरमिटिया मजदूर या अश्वेत गुलाम जब परदेश पहुंचे तो [पिडगिन] बनी । एक शब्द समूह और उनकी लघु श्रंखलाएं जो अलग अलग भाषाओं से ली गई और उनमें वाक्य बनाने की व्याकरण मौजूद नही है ।

मानों एक टूरिस्ट ने किसी विदेशी भाषा के गिने चुने शब्द रट लिये  हों । प्रिंस फिलिप को न्यूगिनी द्वीप के बाशिंदों ने नाम दिया था Fella belong Mrs. Queen.

[पिडगिन] का अगला पड़ाव होता है क्रियोल [Creole] बच्चों की एक या दो पीढ़ी लगती हैं। व्याकरण बनने लगती है ।

महज सवासौ साल पहले की घटना है । प्रशान्त महासागर के हवाई द्वीप समूह में गन्ने की खेती के लिये मजदूरों की जरूरत पड़ी । चीन, जापान, पुर्तगाल और फिलीपींस से लाए गये मजदूरों के बीच फटाफट पिडगिन विकसित हो गई । अगली पीढ़ी में बच्चों द्वारा “हवाईयन क्रियोल” का जन्म हुआ । जिसकी ग्रामर इन बच्चों के मन मस्तिष्क में स्वत: स्फूर्त बनी, किसी ने पढाई नहीं । Creolization of children can be observed in real time

बच्चो में क्रियालीकरण हमारे देखते देखते देखा जा सकता है ।

5.1 साइन भाषा Sign Language

ऐसा ही कुछ गूंगे-बहरों की साइन भाषा Sign Language के साथ होता है ।

साइन भाषा को लोग गलत समझते हैं । इसमें हावभाव, मुखमुद्रा, इशारे, Symbols आदि नहीं हैं । इसे पढ़ाया नहीं जाता हैं । यह भी Pidgin और क्रियोल अवस्थाओं से गुजर कर विकसित होती है । बच्चों में किसी भी भाषा के विकास के लिये उसे बोलने वालों के एक समुदाय की जरुरत होती है जो साथ में समय गुजारता है । वैसे ही गूंगे-बहरों के समुदाय में Sign Language का अपने आप जन्म होता है । उन्हें बस आपस में छोड़ दो । देखते ही देखते समृद्ध Vocabulary और Grammar बनने लगते हैं । व्याकरणकर्ता बाद में आते हैं । भाषा पहले । अलग-अलग देशों के भिन्न समुदायों में Sign Language के विविध रूप पनपते हैं । कुछ समानताएं होती हैं । बहुत सरे अन्तर होते हैं । यदि बहरे शिशु के माता-पिता भी बहरे हो, तो Sign Language समृद्ध बनती हैं, बजाय कि तब, जब माता-पिता बहरे न हों ।

6.0 बहुभाषिता

आप लोगों में कितनों को सिर्फ एक भाषा आती है — जैसे कि केवल हिन्दी ? हाथ उठाइ‌यो । कितनों को के दो भाषाएं आती है? हिन्दी के साथ एक कोई सी भी और? कितनों को तीन या अधिक भाषाएं आती है?

भारत सहित दुनिया के अधिकांश देशों के नागरिक बहु‌भाषी है। हमें इसका गर्व होता चाहिये ।

एक-भाषिता या तो ग्रामीण, आदिवासी अल्पशिक्षित लोगों में मिलेगी या अंग्रेजी जानने वाले अमीर देशों में – अमेरिका, इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया और सिर्फ चीनी भाषा बोलने वाले चीन में ।

बहु‌भाषी और बहुलिपिज्ञ होना मस्तिष्क के लिये अच्छा है । NIMHANS बैंगलौर में, मेरी मित्र डॉ. सुवर्णा और एडिनबर्ग, स्कॉटलैण्ड से मेरे मित्र थामस बाक की शोध से सिद्ध हुआ है कि बहु‌भाषी लोगों में एल्जीमर्स रोग /डिमेन्शिया कम होता है, देर से होता है । बाद की उम्र में भी नई भाषा सीखने से मस्तिष्क के न्यूरल नेटवर्क समृद्ध और पुख्ता होते हैं।

मेरी शोध के विषय वाचाघात /अफेजिया में द्विभाषी मरीजों में रोग की तीव्रता कम होती है, सुधार तेज होता है, वाणी चिकित्सा बेहतर हो जाती है ।

बहुभाषिता को प्रामाणिक तरीके मापने के लिये अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त लोकप्रिक एक पैमाना है LEA-P-Q Language Experience And Proficiency – Questionnaire जिसका हिन्दी प्रारूप मैंने बनाया और इस लिंक पर उपलब्ध है । [ https://bilingualism.northwestern.edu/wp-content/uploads/2021/03/LEAP-Q-Hindi.doc ]

अफेजिया /वाचाघात से प्रभावित बहु‌भाषी मरीजों में आमतौर पर वह भाषा अधिक प्रभावित होती है जो बाद में सीखी गई । प्राथमिक या मातृभाषा बची रह जाती है। लेकिन कभी कभी अपवाद भी मिलते हैं ।

बहु‌भाषिता के अनेक पहलू है । कौन सी भाषा कब सीखी, कितनी सीखी, कितनी काम में आती है, भावनात्मक लगाव कैसा है? किन परिस्थितियों में सीखी, कब छूट गई, केवल बोलना सीखा या लिखना-पढ़ता थी, कौन सी लिपियां आती है?

बहुभाषी लोगों में भाषाओं का मिश्रण होता है कहीं कम, कहीं ज्यादा । सम्पर्क में आने वाले समाज में कौन सी भाषा बोली जा रही है । कितने मिश्रण वाली भाषा चालू है, इस पर भी निर्भर करता है ।

कोड मिश्रण – Code Mixing एक प्रकार का Hybrid है — जैसे काजल की स्याही से तूने लिखी है न जाने कितनों की लव-स्टोरियां । एक ही वाक्य में संकर-पना दिखता है । या फिर “जब वी मेट”

कोड-स्विचिंग तब होता है जब एक वाक्य या वाक्यांश की एक भाषा को दूसरी में व्याकरणीय दृष्टि से पुन: संरचित किया जाता है ।

“तुम्हें नहीं पता, She is daughter of The CEO, यहां दो चार दिन के लिये आई है । मैंने सोचा, I should introduce my self to her.

कोड मिश्रण और कोड-स्विचिंग पर के अनेक पहलुओं पर बहुत शोध हुई है ज़ो इस वक्तव्य या आलेख के दायरे से बाहर की है ।

7.0 भाषा और लिपि

भाषा लिपि नहीं है । भाषा मूल स्वरूप में वाचिक है। डार्विनियत विकास में मानव मस्तिष्क पढ़ने के लिये नहीं बना था । इस हेतु न तो कोई जीन्स हैं, न कोई अंग । जबकि बोलने- सुनने के लिये हैं ।  अन्य कार्यों के लिये ब्रेन में जो सर्किट बने, उन्हीं को ट्रेनिंग देकर इन्सान पढ़ना लिखना सीखता है । As a by procduct or Secondary Use. जन्म से हमारे दिमाग में कोई पठन-केन्द्र या लेखन केन्द्र नहीं होते ।

मानव इतिहास साक्षी है कि जब भी कोई नया अविष्कार, नयी तक्नालाजी विकसित होती है — [जो कि अनिवार्य रूप से स्वतः स्फूर्त होती है — किसी के किये कराए नहीं होती।] तो समाज का एक तबका उसका विरोध करता है, दूसरा उसे तुरन्त आत्मसात करना है तथा ज्यादातर लोग बीच में ढूलमुल रहते हैं । तेल देखते हैं, तेल की धार देखते हैं ।

प्राचीन यूनान में सुकरात के समय लेखन की शुरुआत हुई थी । उन्हें अच्छा नहीं लगता था । वे कहते थे “लिखकर याद रखना भी कोई याद रखना हुआ । याद तो मन में रखना चाहिये । हम अपने आप को कागज व स्याही का गुलाम क्यों बनाये?”

क्या ऐसी ही सोच हमें अन्य आविश्कारों के साथ सुनने को नहीं मिलती? भला हो समाज के उस तबके का जो नये को ग्रहण करता है । सुकरात के परम शिष्य प्लेटो अपने गुरु का आदर करते थे, लेकिन असहमत थे । चुपके चुपके गुरु के उद्‌गार लिखते रहते थे । अरस्तू के आते आते लेखन सर्वमान्य हो चुका था । हमारी अपनी वैदिक वाचिक परम्परा उपनिषदों, पुराणों और रामायण-महाभारत (इतिहास) तक आते आते लिखित स्वरूप धारण कर चुकी थी ।

लिपियां क्या है? आड़ी तेड़ी लकीरें । डिजाइनें । इन्हें आंखे देखती है । फिर मस्तिष्क के पिछले भाग में स्थित आस्सीपिटल खण्ड तक भेजती है । वहां पर इन आकृतियों की छटाई या वर्गीकरण होता है, पहले से मौजूद एल्बम में से मिलाप होता है । प्रत्येक आकृति [Grapheme] का किसी ध्वनि [Phoneme] से रिश्ता पनपता है । अक्षरों की सत्ता स्थापित होती है । उनके छोटे-बड़े समूहों को ‘शब्द’ की पहचान स्टोर किये रहते हैं । पर्दे पर डिज़ाइन आते ही पूरा जाल झंकृत हो उठता है ।

विश्व में लिपियों के चार प्रमुख प्रकार हैं ।

1. Logo graphic          चित्रलिपि, चीनी, जापानी

2. Syllabic                    जापानी ‘काना’

3. Alphabatic              अंग्रेजी, अन्य यूरोपियन भाषाएं, रोमन, लेटिन

4. Alpha-syllabic        देवनागरी-संस्कृत, हिन्दी, मराठी नेपाली, अन्य भारतीय लिपियों, दक्षिण पूर्व एशिया

7.1

देव नागरी लिपि सच में बहुत व्यवस्थित और वैज्ञानिक है । इसे पढ़ कर उच्चारण सही होता है । मेरी पुत्री का विवाह एक तेलुगु परिवार में हुआ है । स्वागत भाषण मैंने देवनागरी लिपि में तेलुगु भाषा में लिखवा कर पढ़ा था। सबने कहा कि आपका उच्चारण व Accent अच्छा था ।

मानवसंस्कृति-चरित्रलो विवाहमु अतिपुरातनमैन पद्धति ।

अन्नि संस्कृति-सभ्यतगल देशाललो अन्नि कालाललो अयिननु विवाहानिकि चाला प्रामुख्यत उन्नदि ।

विवाहमु प्रीतिकरमु, सुन्दरमु सुमधरमु मरियु कल्याणकरमु, इदि पूर्णत्वानिकि चिन्हमु, शाश्वतमु । दीनिगुरिंचि अन्दरू आशीर्वदिस्तारू । ई बंधमु पवित्रमु, मण्गलकरमु, कुटुम्बालनु कलुपुतुन्दि । इदि वन्तेन वन्टिदि, मित्रत्वान्नि पेंचुतुन्दि, वंशान्नि अभिवृद्धि चेस्तुन्नदि ।

मानव सभ्यता के इतिहास में विवाह की संस्थ बहुत पुरानी है।

लगभग सभी संस्कृतियों में सभी देशों और कालों में इसे खूब महत्व दिया गया है।

विवाह प्रीतिकर है, सुन्दर, सुमधुर है, कल्याणकारी है, पूर्णत्व का अहसास कराता है, शाश्वत है, स्थायी है । विवाह पवित्र है, मंगलमय है। परिवारों को जोड़ता है। पुल है। सम्पर्क है। साझेदारी है। मित्रता है। पीढ़ियों का दायित्व है ।

यदि उर्दू, मराठी व नेपाली के समान कुछ और भा‌षाएं भी देवतागरी मे लिखी जावें तो राष्ट्रीय एकता में बढ़ोतरी होगी । जैसे यूरोप में रोमन लिपि के कारण है अरब जगत के अनेक देशों, चीन के समस्त प्रान्तों, पूर्व सोवियत संघ से टूटे देशों में एक ही लिपि है ।

हम लोग कभी कभी अंग्रेजी में Spelling की हंसी उड़ाते हैं । Put पुट है तो But बट क्यो ? लेकिन एक बात याद रखिये Nothing Succeeds like success और The proof of pudding is in Eating.

आज की तारीख मे रोमन लिपि में अंग्रेजी दुनिया‌भर में हिट है तो उसे कठिन या अनियमित या बेतरतीब आरोपित करने में कोई दम नहीं है ।

एक न्यूरोलाजिस्ट के रूप में मैं ऐसे बच्चे और वयस्क मरीज देखता हूँ जिनका और सब तो ठीक है लेकिन मस्तिष्क में वे हिस्से क्षतिग्रस्त है जहां पढ़ने वाला नेटवर्क फैले रहते हैं । शुरू में मैं सोचता था कि ऐसे मरीजों में देवनागरी वाली हिन्दी पढ़ना तुलनात्मक रूप से आसान होगा बजाय के रोमन वाली अंग्रेजी के । लेकिन मैने ऐसा नहीं पाया । 50-50 परसेन्ट व्यक्तियों में बराबरी से दोनों प्रकार की कमी पाई गई ।

मैं प्राय: इस बात पर भी दुःख मनाता था कि नयी पीढ़ी के युवा मोबाईल आदि के कारण हिन्दी को रोमन लिपि में टाइप करते और पढ़ते है । मुझे अच्छा नही लगता । समझ‌ने में दिक्कत होती है । हमारी फिल्मों के अभिनेता अपने हिन्दी डायलाग रोमन लिपि में पढ़ते हैं । यह जान कर बहुत कोफ्त होती थी ।

आज फिर दिल ने एक तम्मना की

आज फिर दिल को हमने समझाया

भाषा बहता नीर है ।

स्वयं कम्प्यूटर पर हिन्दी टाइप करने के लिये मैं रोमन का फोनेटिक की-बोर्ड इस्तेमाल करता हूँ । अनेक देशों ने रोमन लिपि को पिछले 100 वर्षो में अपनाया है — जैसे Bahasa Malaysia, Bahasa Indonesia, Swahili, Turkei आदि ।

हिन्दी वर्णमाला लम्बी और जटिल है । अकारादि क्रम याद रखना कठिन है । अक्षर विन्यास में मेहनत लगती है — ऊपर, नीचे, आगे-पीछे मात्राएं व अन्य चिन्ह लगाने पड़ते है । आधे अक्षर व संयुक्त अक्षर की झंझट है । टाइपिंग और लिखने की गति धीमी रहती है । फॉण्ट का आकार रोमन जितना छोटा नहीं कर सकते वरना पढ़‌ना मुश्किल । निःसन्देह हमें अपनी देवनागरी से प्यार है, उस पर गर्व है । उसे बचा कर रखना है । बढ़ावा देना है वह हमारी पहचान है । लेकिन उसकी सीमाओं को भी पहचानना है ।

8.0 संस्कृत के पक्ष में

संस्कृत की भूमिका भारतीय भाषाओं और साहित्य के संदर्भ में ‘कूपजल’ से कहीं ज्यादा विस्तृत है। वह भाषा नदी को जल से सनाथ करने वाला पावन मेघ है, वह हिमालय के हृदय का ‘ग्लेशियर’ अर्थात् हिमवाह है। जब हिमवाह गलता है तभी बहते नीर वाली नदी में जीवन-संचार होता है। हिमवाह के अतिरिक्त नदी के बहते नीर का दूसरा स्रोत हैं परम व्योम में विचरण करने वाले मेघ ।

संस्कृत एक प्राणवान स्रोत के रूप में भाषा-संस्कृति आचार-विचार पर दृष्टि से अस्तित्वमान है। इसी से ‘यूनान, मिस्र, रोम’ के मिट जाने पर भी हम नहीं मिटे हैं। हमारा अस्तित्वमान है। हमारा अस्तित्व कायम है ।

संस्कृत भाषा के समृद्ध तथा अभिव्यक्ति-क्षम होने का रहस्य है यही भूमावृति अर्थात शब्द-संपदा को चारों दिशाओं से आहरण करने की वृत्ति। यही कारण है कि संस्कृत में एक शब्द के अनेक पर्याय हैं। ये पर्याय मूल रूप से विभिन्न भारतीय अंचलों से प्राप्त उस शब्द के लिए क्षेत्रीय प्रतिशब्द मात्र हैं । संस्कृत में जो शब्द पयार्यवाची रूप में आए हैं, वे सब कहीं न कहीं की जनभाषा के सामान्य शब्द ही हैं ।

संस्कृत मम प्रिय भाषा अस्ति ।

प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक श्री निकोलस ओस्तलर ने अपनी कालजयी पुस्तक “Empires of The word” में संस्कृत वाले अध्याय का आरम्भ निम्न सूक्त से किया ।

भाषा प्रशस्ता सुमनो लतेव

केषाम्न चेतांस्यावर्जयति।

Language, auspicious, charming, like a creeper,

Whose minds does it not win over?*

संस्कृत का साम्राज्य विशाल था । वह आज भी अपनी बेटियों और नातिनों के माध्यम से विश्व के बड़े भूभाग पर प्रभावशील है तथा हिन्दू और बौद्ध धर्म की परम्पराओं की वाहक है । चीन के एक विद्वान ने कहा था कि भारत ने एक सैनिक भेजे बगेर चीनी मानस पर संस्कृत के माध्यम से एक हजार साल तक राज किया है । संस्कृत नई पारिभाषिक शब्दावलियों के निर्माण हेतु अकूत स्रोत है । राष्ट्रीय एकता में सहायक है ।

उड़ीसा का किस्सा

संस्कृत की पूरे भारत में पहुंच के अनेक साक्ष्य, देशाटन के दौरान मिलते है । उड़ीसा में एक युवती रेलवे प्लेटफार्म पर कुछ बेच रही थे — “कड़ली” “कड़ली” चिल्ला रही थी । पूछने पर मालुम पड़ा “कदली फल” है — केले की एक प्रजाति । वहीं के ढाबे में भोजन परोसने में देर हो रही थी । बैरे से गुस्से में शिकायत करी तो विनम्रता पूर्वक टूटी फूटी हिन्दी में बोला “हम पूर्ण चेष्टा करते पर वर्षा होने से कठिन हो गया है”

इजराइल ने मृत भाषा हिब्रू को पुनजीर्वित किया । हमारी राजनैतिक परिस्थितियां भिन्न रही । बहुत बड़ा और विविध देश है हमारा । वरना हम भी कर सकते थे ।

पिछड़ी जातियों और दलितों के मध्य अंग्रेजों और मार्क्सवादियों द्वारा विचार भरे गये कि संस्कृत ब्राह्मणों द्वारा शोषण की भाषा है । कुछ गिने चुने उद्धरणों को प्रसंग व पृष्ठ भूमि से हटा कर बार-बार प्रचारित किया गया ।

मैं अनुशंसित करता हूँ श्री राजीव मल्होत्रा की पुस्तकें — Breaking India और Battle for Sanskrit । जिसमें वे एक श्वेत विद्वान श्री शेल्डन पोलॉक का विरोध करते हैं। पोलॉक के अनुसार संस्कृत का चरित्र ही कुछ ऐसा है कि वह Oppression या दमन के लिये बनी है । इस नरेटिव  का अकादमिक और राजनैतिक दोनों स्तरों पर प्रतिकार जरुरी है।

कुछ अति उत्सा‌ही राष्ट्रवाबी लोग मिथ्या विज्ञान के चक्कर में पड़ कर झूठी बातों पर भरोसा करने लगते हैं कि संस्कृत कम्प्यूटर की भाषा है ऐसा NASA वालों ने कहा । यह गलत है — संस्कृत की महानता दर्शाने के लिये ऐसे अपुष्ठ दावों पर विश्वाश नहीं करना चाहिये ।

9.0 मेरी खाला — जबान ए उर्दू ए मौला

उर्दू और हिन्दी बहनें हैं । उर्दू का ननिहाल हिन्दुस्तान है । वह यही पैदा हुई, और पली-बढ़ी । संस्कृत उसकी मां है । बाप का खानदान फारस (ईरान), तुर्कशा और अरब से आया । गर लिपि देवनागरी हो तो बहुत सारी समझ आ जाती है ।

पांच वर्ष की उम्र में मैंने पहला कायदा “अलिफ बे तें” का सीखा था, बुरहानपुर के मदरसे में, जहां मेरी मां हिन्दी की टीचर थी । जो कि बाद में भूल गया । मुझे उर्दू अदब पढ़ने का शौक हैं । दिल करता हूँ कि उर्दू में तकरीर करूं ।

मेरी आज भी तमन्ना है उर्दू लिखना सीख जाऊ । उर्दू जुबां वाले अफेजिया मरीजों पर रिसर्च के लिये ।

खालिस अदबी उर्दू में अरबी, फारसी, तुर्कशा लफ्जों की भरमार है लेकिन बाकी कलेवर, क्रियाओं के रूप, विशेषण, संज्ञाएं आदि संस्कृत से आते हैं ।

हिन्दुस्तानी बर्रे-सबीर में उर्दू और इस्लाम मजहब का रिश्ता एक हकीकत है । पाकिस्तान के हुक्मरानों ने जमीन से जुड़ी जबानों को दरकिनार किया — पंजाबी, सिन्धी, पश्तो । ऊपर से उर्दू थोपी । बंगलादेश इसी वजह अलग हुआ । एक जमाना था जब उर्दू हिन्दुओं, सिखों, मराठों के शिक्षित लोगों द्वारा काम में लायी जाती थी । रघुपति सहाय फिराक गोरखपूरी, गोपीचन्द करेंगे जैसे तमान नामचीन शायर हुए । श्रीनगर के शंकराचार्य मन्दिर में मैंने एक पण्डित को पोथी खोलकर पूजा करते देखा । पूछने पर मालूम पड़ा कि आज गणेश चतुर्थी है । ध्यान से गौर किया तो पाया कि उसकी पोथी में संस्कृत के श्लोक उर्दू लिपि में लिखे हुए थे ।

चुनांचे मुसलमानों ने उर्दू के साथ अपनी पहचान बनाई इस बिना पर दूसरे Religion वालोँ को उर्दू से ताल्लुक तोड़ लेना चाहिये यह गलत बात होगी । हमारी दिलो दिमाग की दुनिया को गरीब मत बनाइये । उर्दू एक खजाना है । एक नायब जरिया है । शौक से उसमे गोते लगाइये ।

उर्दू की खूबसूरती का कायल होने के वावजूद मैं गाँधी नेहरु की हिन्दूस्तानी,  जिसमें संस्कृत के कम और उर्दू के लफ्ज, इस गरज से ज्यादा हों कि आम लोगों को आसान जुबान चाहिये — मैं इस बात से ताकीद नहीं रखता  । मुझे खालिस हिंदी की दरकार है ।

10.0 भाषा और विचार

ज्यार्ज आर्वेल की दो महान रचनाएं है । एनिमल फार्म और 1984. एनिमल फार्म एक व्यंग है। It is a scathing satire. स्टालिन के जमाने के तानाशाही सर्वसत्रात्मक सोवियत संघ के बारे में । 1984 is a dystopaian vision. । एक दुःस्वप्न हैं। 1949 में लिखा गया था। चिन्ता प्रकट करी गई थी । तानाशाही ताकते भाषा को तोड़ मरोड़ कर लोगों की सोच को परिवर्तित कर देंगी । एक Newspeak बनेगी । शब्दों के अर्थ जकड़ दिये जायेंगे । ‘स्वतंत्र’ शब्द का कोई राजनैतिक व बौद्धिक सन्दर्भ नहीं रहेगा । ज्यादा से ज्यादा इतना कहेंगे “मैं जूं से स्वतंत्रा हूँ । पार्टी ज़ो तय करेगी वही अर्थ रहेंगे। पार्टी की विचारधारा से असहमति वाले शब्दार्थ Unthinkable अ-विचारणीय हो जाएंगे

समय समय पर लेख छपते रहते हैं कि कैसे विभिन्न भाषाओं में शब्द व अर्थ उक्त समाज की परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं और कैसे लोगों के सोच को प्रभावित करते हैं ।

नारीवादी चिन्तन ने पुरुष सत्तात्मक भाषा को संशोधित किया है ।

वामपंथी, और मार्क्सवादी, उत्तर आधुनिकता वादी, वोक विचारधाराए भाषा और ideology के अन्तसर्बधों के प्रति खासी सजग रहती हैं । एक अध्ययन में दावा किया गया था एस्क्रिमों लोगों में Snow या बर्फ के लिये 40 शब्द हैं।  हालांकि बाद में उसका खण्डन हुआ । विज्ञापन वाले भी हमारी भाषा से खेला करते हैं  I Such type of arguments are called Linguistic Determinism भाषा गत नियति वाद तथा Linguistic Relativity भाषागत सापेक्षता ! शेतडन पोलाक द्वारा संस्कृत पर आरोप की चर्चा मैं कर चुका हूँ । यह एक जटिल व विस्तृत विषय हैं । फिलहाल इसके विस्तार में जाना संभव नहीं ।

11.0 भाषा की सरलता और समृद्धि

प्रायः उपदेश दिये जाते हैं, सलाह दी जाती है — भाषा सरल रखना । लोग मुझे कहते हैं ‘सर आपकी हिन्दी मेरे सिर के ऊपर से जाती है।’ विज्ञान के विभिन्न पहलूओं पर मेरे लेखों और भाषणों को लेकर अनेक लोग असहज हो उठते हैं ।

हमारा आदर्श सहजता और बोधगम्यता ही होना चाहिए। बिना जरूरत भाषा को दुरूह करना कबीर के इस महावाक्य की प्रकृति के प्रतिकूल होगा। पर जहाँ जरूरत हो, वहाँ भाषा के समग्र प्रवाह से, सर्वकालव्यापी प्रवाह से शब्द लेने का हमारा अधिकार होना चाहिए। जो हमें इस अधिकार से वंचित करने के लिए कबीर की इस बात का सीमित बौना अर्थ लगाते हैं, वे किसी कूट मतलब से ऐसा कर रहे हैं। सर्वदा वर्तमान के बाज़ार में चालू शब्दों से ही हमारा काम नहीं चल सकता। लेखक, शिक्षक भी है। उसका कर्तव्य जनमानस को ज्यादा से ज्यादा समृद्ध करना है। और इस दृष्टि से वह नए शब्द अपने पाठकों को सिखाएगा ही।

कहने का तात्पर्य यह कि भाषा को अकारण दुरूह या कठिन नहीं बनाना चाहिए। परंतु सकारण ऐसा करने में कोई दोष नहीं । कबीर को खुद जरूरत पड़ती है तो योगशास्त्र और वेदांत की शब्दावली ग्रहण करते हैं। हर जगह लुकाठी हाथ में लिए सरे बाजार खड़े ही नहीं मिलते। मानसरोवर में डूबकर मोती ढूँढ़ते समय की भाषा बाजार वाली भाषा नहीं।

निबंधकार का काम होता है। पाठक के मानसिक-बौद्धिक क्षितिज का विस्तार। वह फिल्म प्रोड्यूसर नहीं कि पाठक की बुद्धि-क्षमता की पूँछ को पकड़े-पकडे चले। साहित्यकार पाठक की उँगली पकड़कर नहीं चलता, बल्कि पाठक साहित्यकार की उँगली पकड़कर चलता है। सनातन से यही संबंध रहा है । आज जनवादीयुग का सस्ता नारा उठाकर इस संबंध को परिवर्तित नहीं किया जा सकता।

हिंदी की भूमिका आज बहुत बड़ी हो गई है । उसे आज वही काम करना है जो कभी संस्कृत करती थी और आज जिसे एक खंडित रूप में ही सही अंग्रेजी कर रही हैं उच्च शिक्षित वर्ग के मध्य । उसे संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान का वाहन बनना है, उसके अंदर वैसी आंतरिक ऋद्धि सिद्धि लानी है जो भारत जैसे विशाल देश की राष्ट्रभाषा के लिए अपेक्षित है । अतः ‘बहता नीर’ का चालू सतही अर्थ न लेकर उसे एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा ।

हिन्दी और भारतीय भाषाओं में विज्ञान व उच्च कोटि के लेखन की वर्तमान स्थिति दुःखद व निराशाजनक रूप से खराब है। मात्रा और गुणवत्ता दोनों का अभाव है। प्रदाता लेखक व पत्रकार और गृहिता, पाठक, दर्शक दोनों का अभाव है । कलेवर /(Content ) की कमी है। भाषा अधोसंरचना /(Linguistic infrastructure ) का विकास अवरूद्ध है। भारत में अंग्रेजी का अत्याधिक प्रभाव और महत्व इसका प्रमुख कारण है। अंग्रेजी भाषा से मेरा विरोध नहीं है। चाहे जो ऐतिहासिक कारण रहे हों, भारतीयों का अंग्रेजी ज्ञान एक लाभकारी गुण हो सकता है। मेरा विरोध अंग्रेजी माध्यम में स्कूली व महाविद्यालयीन शिक्षा से है, जिसकी वजह से नई पीढ़ियां हिन्दी और भारतीय भाषाओं के वृहद शब्द संसार को खोती जा रही हैं। नई शब्द सम्पदा गढ़ने के अवसर खत्म हो रहे हैं। वैज्ञानिक विषयों की शब्दावली भी इस हानि का शिकार हो रही है। प्रश्न ‘कूप जल’ और ‘बहता नीर का नहीं है। हिंग्लिश की पिडगिन और क्रियोल रूपी खिचाड़ी किसी का भला नहीं करती। न हिन्दी या अंग्रेजी भाषा का और न ही उन्हें उपयोग में लाने वाले व्यक्तियों का, उनकी अपनी कोई पहचान नहीं रह जाती ।

हिन्दी लेखकों को सदैव इस समस्या का सामना करना पड़ा है कि या तो वे भाषा व ज्ञान को अति सरलीकृत रखें और विषयवस्तु की गुणवत्ता व मात्रा दोनों की बलि चढ़ा दें या फिर सचमुच में कुछ गम्भीर व विस्तृत व आधुनिक लिखें, फिर चाहे ये आरोप क्यों न लग जाए कि भाषा दुरूह है। बीच का रास्ता निकालना मुश्किल है। हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में उच्च स्तर की भाषा पढ़ने समझने वालों का प्रतिशत घटता जा रहा है। हिन्दी शब्दावली इसलिये दुरूह महसूस होती है कि हमने उस स्तर की संस्कृतनिष्ठ भाषा सीखी ही नहीं और न उसका आम चलन में उपयोग किया । अंग्रेजी शब्द आसान प्रतीत होते हैं क्योंकि वे पहले ही जुबान पर चढ़ चुके होते हैं। समाज का वह बुद्धिमान व सामर्थ्यवान तबका जो उच्च स्तर की हिन्दी समझ सकता है, अपना अधिकांश पठन-मनन अंग्रेजी में करता है । हिन्दी पर उसकी पकड़ छूटती जाती है। वह निहायत ही भद्दी मिश्रित भाषा का उपयोग करने लगता है। बचे रह जाते हैं अल्पशिक्षित विपन्न वर्ग के लोग । हिन्दी जब तक श्रेष्ट्रिवर्ग या उच्च स्तर के बुद्धिजीवी वर्ग में प्रतिष्ठित नहीं होती तब तक हिन्दी लेखकों को अपनी भाषा को सरलीकृत करने को मजबूर होना पड़ेगा और वैज्ञानिक तथ्यों को कुछ हद तक छोड़ना पड़ेगा ।

अंग्रेजी में सोचने वाले लोग प्रायः आम लोगों की हिन्दी को कम करके आंकते हैं। चूंकि वे खुद हिन्दी का उपयोग छोड़ चुके हैं और अपनी शब्द सम्पदा गवां चुके हैं, दूसरों को भी वैसा ही समझते हैं। थोड़ी सी अच्छी और शुद्ध हिन्दी से अंग्रेजी परस्त विद्वत्जनों की जीभ ऐंठने लगती है । ‘परिस्थितियाँ’ जैसा शब्द उनके लिये टंग-ट्विस्टर है परन्तु “Circumtances” नहीं। हिन्दी में लिखने वालों को अपने बुद्धिमान व पढ़े लिखे पाठकों की क्षमता पर सन्देह नहीं होना चाहिये। यदि आपकी भाषा शैली प्रांजल व प्रवाहमय हो तो लोग सुनते हैं, पढ़ते हैं, गुनते हैं, समझते हैं, सराहते हैं, आनन्दित होते हैं ।

जब भारत शासन ने नयी शिक्षा नीति में मातृभाषा माध्यम पर जोर दिया तो मुझे खुशी हुई । होलांकि धुकधुकी है इसका विरोध होगा और अमलीकरण में रोड़े अटकाये जायेंगे । मनेसर स्थित Nakonal Brain Research Centre में मेरी मित्र नंदिनी चैटर्जी की शोध और न्यूरोविज्ञान की मेरी समझ यह इसी बात की पुष्टि करती है कि न केवल प्राथमिक वरन उच्च स्तर तक शिक्षा भारतीय मातृभाषाके माध्यम से दी जानी चाहिये ।

म.प्र. शासन द्वारा हिन्दी में चिकित्सा शिक्षा अभियान की टीम में मैं एक सलाहकार व समर्थक के रूप में हूँ हालांकि क्रियान्कूल में मेरी कुछ सहमतियां हैं ।

11.1 शब्दावली के संदर्भ में । एक तिहाई का नियम । The rule of one Third

लगभग 33% तकनीकी शब्द ऐसे होगे जिन्हें हुबहु अंग्रेजी रूप में ले लेना चाहिये — उन्हें दोनों लिपियों में लिखो — रोमन और देवनागरी । अन्य 33% ऐसे हैं जिनके लिये हिन्दी मे अच्छे शब्द है । या बन सकते है लेकिन चलन में कम होने से अंग्रेजी व हिन्दी दोनों पर्याय, दोनों लिपियों देवे । एक तहाई ऐसे हैं जो हिन्दी में चलन में है और उनके लिये Hinglish मत घुसाओ ।

क्या जिन्दगी और जिन्दगी के ज्ञान विज्ञान नितान्त सरल है ? फिर भाषा सरल कैसे हो सकती है । भाषा की सरलता का दुराग्रह हमारे मानस को गरीब बनाता है और सत्य से दूर ले जाता है ।

तालिका

12.0 भाषा की प्रामाणिकता और परिवर्तन

1960 के दशक में जब मैं हाई स्कूल मैं पढ़ता था तब हमारे घर में एक किताब आई थी – श्री रामचंद्र वर्मा की “अच्छी हिंदी” । उसे पढ़ कर मैं और माँ अभिशप्त हो गए थे । जगह-जगह हमें भाषा में गलतियां और अशुद्धियां दिखने लगी । धीरे-धीरे समझ आया कि भाषा बहता नीर है । हालांकि उसका मतलब यह नहीं कि पानी में गंदगी आने दो । मतभेद इस बात को लेकर हो सकते हैं की ‘गंदगी’ की क्या परिभाषा ।

आम जनता और पापुलर कल्चर में भाषाओं के गिरते स्तर को लेकर पंडित-ज्ञानी-ध्यानी हमेशा दुखी रहते है। उन्हें लगता है कि मोबाइल पर सोशल मीडिया की भाषा और बोलचाल में slang हमारी भाषा और सोच को भ्रृष्ट कर रहे हैं ।

Not to worry. We are so lucky. फ्रेंच वालों की एक Academic Francaise है जो आए दिन Prescriptic Rules (मानो फतवा हो) जारी करती रहती है कि क्या सही है और क्या गलत । अधिकांश भाषाओं के लिए ऐसी कोई संस्था नहीं है । अच्छा ही है कि नहीं है ।

कल्पना कीजिए आप वन्य जीवन पर National Geographic या Discovery Channel की कोई डॉक्यूमेंट्री देख रहे हैं । एक नरेटर कमेंट्री कर रहा है

“इस चीते ने ठीक से छलांग नहीं लगाई, यह बाज अपने पंख गलत ढंग से फड़फड़ा रहा है, इस कोयल का गायन बेसुरा है ।”

लोग बात कर रहे हैं, Texting हो रहा है, संवाद है, आदान-प्रदान है, संदेश सही-सही पहुंच रहे हैं और ऐसे में भाषा पंडित बिना बुलाए अपनी टिप्पणियां करने लगते हैं। मैं भाषा की प्रामाणिकता, स्थायित्व और सटीकता की हंसी नहीं उड़ाना चाहता । उसका अपना महत्व है ।  लेकिन इसका निर्णय लोगों पर छोड़ दो ।

भाषा बिगड़ जाएगी, नष्ट हो जाएगी ऐसे डर शायद अतिरंजित है । तथाकथित नियमों के जाने अनजाने में टूटने से भाषा बदलती है, बेहतर होती है । शेक्सपियर और चार्ल्स डॉकिंस और प्रेमचंद – सभी के लेखन में ऐसी गलतियां मिल जाएगी, जो तर्कसंगत थी और बाद में चलन में आ गई । भाषा पंडित आम जनता को कम IQ वाला समझते हैं । औपचारिक लेखन या भाषण में निःसंदेह खूब गलतियां निकाली जा सकती है लेकिन दैनंदिन के अनौपचारिक संवाद में लोग सटीक व सही तरीके से भाषा का उपयोग करते हैं । तभी तो दुनिया चलती रहती है, बढ़ती रहती है ।

अंग्रेजी में अच्छे औपचारिक लेखन के लिए प्रसिद्ध पुस्तक हैं – The Elements of style by Strunk and White Style : Towards clarity and Grace by Williams. ऐसी पुस्तकों के निर्देश देखते ही देखते बेमानी होते जाते हैं ।

हिंदी के लिए भी मिल जाएगी । तो फिर निष्कर्ष क्या रहा ? आप कहेंगे – मैं हमेशा की तरह मध्य मार्ग की अनुशंसा करता हूं।

किसी भी लेखन को बेहतर बनाने के लिए एक सामान्य सलाह है । उसे लिखकर रख दो । कुछ दिनों या घंटों बाद पुनः पढ़ो । संपादित करो । इस प्रक्रिया को दोहराते जाओ । इस आलेख के साथ मैंने तीन बार ऐसा किया है । चार बार करूंगा तो और अच्छा बन पड़ेगा ।

सबसे अच्छा भाषा-पंडित कौन है । आप स्वयं या कोई आपका नजदीकी –  spouse या मित्र ।

13.0 हिंगलिश को अवॉइड करो

मेरे फ्रेंड्स सरप्राइज हो जाते हैं जब वह देखते हैं की भाषा बहता नीर की बात करते-करते मैं सडनली इंग्लिश को अपोज़ करने लगता हूं । उन्हें बहुत पेरडाक्सिकल लगता है । ये भी कोई बात हुई ? पब्लिक को जो इजी लगता है करने दो । आज का यूथ तो ऐसी ही लैंग्वेज लाइक करता है ।

मैं एग्री नहीं करता । मेरा थिंकिंग है कि हम लोग अपनी लैंग्वेज लूज कर रहे हैं । प्युर हिंदी ऐवरी बडी अंडरस्टैंड कर सकता है ?

जनरली मैं कान्सपिरेसी थ्योरीज में बिलीव नहीं करता हूं लेकिन समटाइम लगता है कि मेरे लेट फ्रेंड प्रभु जोशी करेक्ट थे, कि केपिटलिज्म और मार्केट फोर्सज हम लोगों की इंडियन आइडेंटिटी धीरे-धीरे खत्म करना चाहते है, लार्ड मैकाले ने 1830 में जो प्लान कंसीव किया था उसी को कंप्लीट करने में लगे है । किसी भी सोसाइटी से उसकी लैंग्वेज छीन लो, उसकी आइडेंटी को करप्ट कर दो, उसके मन और थॉट पर कब्जा कर लो, उन्हें मेंटली स्लेव बना दो।

प्रभु जोशी और मैं जब-जब इस विषय पर चर्चा करते थे तो बेहद दुख क्षोभ व निराशा में डूब जाते थे । आज हम में अनेक की न तो हिंदी अच्छी है और न अंग्रेजी । ऐसे लोग न घर के हैं न घाट के । हिंदी और अंग्रेजी दोनों में अच्छे बनिए । तीसरी चौथी भाषा सीखिए । लेकिन हिंगलिश से परहेज कीजिए । थोड़ा बहुत मिश्रण चलेगा । मेरे आलेख में भी है । आटे में नमक चाहिए, अच्छा तड़का भी मंजूर है । लेकिन हर दिन, हर समय मिक्स सलाद या खिचड़ी नहीं चलेगी । हम दोनों ने हमारे अखबारों को खूब बोला, खूब लिखा । दुर्भाग्य कि वे नहीं माने । आप सबसे अनुरोध है कि आप लोग भी बोलिए और अखबार के संपादकों को बार-बार लिखिए । मय उदाहरण और कतरनों के।

14.0 भाषाओं के साम्राज्य

भाषाओं के साम्राज्य, अनेक साम्राज्यों के साथ बनते और मिटते रहे हैं । राजनैतिक और सैनिक प्रभुत्व तथा भाषाई प्रभुत्व कभी साथ-साथ चलते हैं और कभी बेमेल हो जाते हैं ।

किस भाषा का साम्राज्य क्यों बड़ा बनता है ? क्यों कम या ज्यादा समय तक टिका रहता है । अनेक कारक है । कोई आसान फार्मूला नहीं है ।

शायद किसी देशकाल, सभ्यता, संस्कृति में वहां के बाशिंदों में कुछ खास बातें होती हों, कोई चित्ती या चरित्र होता हो ? उक्त भाषा का खुद का linguistic स्वरूप असर डाल सकता है । कुछ भाषाएँ और लिपियां सीखने सिखाने में आसान हो सकती है ।

भाषाओं के भौगोलिक विस्तार और संकुचन का इतिहास हमें बताता है कि भाषा सिर्फ एक इंसान के मन को नहीं साधती वरन पूरे समाज के मानस को साधती है।

यदि भाषा है जो हमें मानव बनाती है तो भाषाएं हैं जो हमें अति मानव बनती है । भाषा किसी समाज को सांस्कृतिक निरंतरता प्रदान करती है – भूत-वर्तमान-भविष्य को एक लड़ी में पिरोती है । भाषा किसी समाज का बैनर होती है । उसकी स्मृतियां की संरक्षक होती है ।

एक अरबी कहावत है – इंसान की कुब्बत उसकी अक्ल और जुबान से नापो ।

भाषाओं के फैलाव में सैनिक सफलताओं का योगदान निश्चय ही है लेकिन एक सीमा तक । अपवाद ज्यादा है । सुमेरियन सभ्यता की भाषाएँ शिक्षा, संस्कृति और कूटनीति द्वारा फैली । चीनी भाषा ने अपने आप को विदेशी प्रभावों से बचाकर रखा, लेकिन खोल में बंद रही । बाहर नहीं आई । संस्कृत ने अपने मधुर charms से पूरे एशिया को मंत्रमुग्ध व मोहबद्ध किया ।

यूनानी भाषा या ग्रीक का आत्म सम्मान यूरोप की आधुनिक भाषाओं का आधार बना । यूरोप के रोमन साम्राज्य की लैटिन को उत्तर की जेर्मेनिक जातियों की भाषाओं ने प्रतिस्थापित किया जिनमें प्रमुख रही अंग्रेजी ।

उत्तरी अफ्रीका में मिस्र देश की भाषा 3000 साल तक हावी रही लेकिन इस्लाम के आते ही अरबी भाषा द्वारा हटा दी गई । नीदरलैंड या हॉलैंड ने इंडोनेशिया 200 साल तक उपनिवेश बनाकर रखा, जितना कि इंग्लैंड ने भारत को । लेकिन इंडोनेशिया में डच भाषा नहीं स्थापित हुई जबकि भारत में अंग्रेजी हो गई ।

पूर्वी रोमन साम्राज्य के यूनान, तुर्की, (कन्स्तिनापोल) व सटे हुए भूमध्य सागरीय देश में लैटिन ने कोई प्रभाव नहीं छोड़ा लेकिन फ्रेंच, स्पेनिश और पोर्तुगीज इटालियन जैसी बेटियों दक्षिण-पश्चिमी यूरोप में टिक गई ।

अंग्रेजी का वर्चस्व आज से 100 साल, 500 साल या 1000 साल बाद कितना रहेगा, यह भविष्यवाणी कठिन है । जैसे बिजनेस कंपनियों में Merger and Acquisition होता है वैसे ही भाषाओं के साथ भी होता है । Migration या प्रवजन एक महत्वपूर्ण कारक है । उत्तरी भारत के भोजपुरी-भाषी गिरमिटियां मजदूरों ने मॉरीशस, साउथ अफ्रीका, फिजी, सूरीनाम में हिंदी को जीवित रखा । उत्तरी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में अंग्रेजी माइग्रेशन द्वारा पहुंची । जबकि भारत में उसके असर को Diffusion कहेंगे या जहां मूल निवासियों ने विदेशी भाषा को सीखा, कारण चाहे जो रहे हो । एक वजह धर्मांतरण हो सकता है जैसा कि दक्षिण पूर्वी एशिया में संस्कृत (हिंदू) और पाली (बौद्ध) द्वारा हुआ था । व्यापार या Trade की भी भूमिका होती है । किसी भाषा के साथ कितनी इज्जत जुड़ी हुई है । उसका साहित्य व अन्य कलेवर कैसा है । उसके द्वारा उन्नति की संभावना कितनी है तथा वह भाषा नई टेक्नोलॉजी से कितने करीब से जुड़ी हुई है । ये भी गौर करने योग्य बातें हैं । प्रजनन दर और जनसंख्या का रोल बहुत बड़ा है।

14.1 विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाएँ

भाषाप्राथमिक भाषीकुल भाषीकितने देश
अंग्रेजी37.3 करोड़145 करोड़10
चीनी (मेंडरिन)92.9 करोड़112 करोड़2
हिंदी35 करोड़60.2 करोड़5
स्पेनिश47.5 करोड़55 करोड़21
फ्रेंच8 करोड़27.5 करोड़29
आधुनिक अरबीशुन्य27 करोड़15
बंगाली24 करोड़27 करोड़2
रशियन15.5 करोड़26 करोड़4
पुर्तगाली23 करोड़25 करोड़2
उर्दू7 करोड़23 करोड़2
भाषा इंडोनेशिया4.5 करोड़20 करोड़2
जर्मन7.5 करोड़13.5 करोड़4
जापानी12 करोड़12 करोड़1
नाइजीरियन पिडगिन 50 लाख12 करोड़1
मराठी8 करोड़10 करोड़1
तेलुगु8 करोड़9.5 करोड़1
तुर्किश8 करोड़8.9 करोड़1
तमिल8 करोड़8.6 करोड़2
केंतलिज चीन8 करोड़8.5 करोड़1
वियतनामी8 करोड़8.5 करोड़1

15.0 भाषाओं की विलुप्ति

भाषाओं का वंश चलता है जब तक कि नई संताने उसे बोलती रहे । किसी भाषा को यदि केवल वयस्क बोल रहे हैं और युवा, बच्चे या शिशु नहीं, समझ लो कि उस भाषा के दिन लद गए ।

दुनिया में लगभग 6000 भाषाएं हैं । इनमें लगभग 90% ऐसी है जो विलुप्ति के कगार पर है ।

जैसे स्पीशीज विलुप्त होती है वैसे ही भाषा में भी । केवल 500 भाषाएं ऐसी होंगी जिनके बोलने वालों की संख्या 1 लाख से अधिक हो । इन्ही के बचे रहने की उम्मीद है लेकिन गारंटी नहीं ।

भाषा कैसे मिटती है ? नरसंहार /Genocide द्वारा जैसा कि उत्तरी अमेरिका व ऑस्ट्रेलिया में गोरे यूरोपियन उपनिवेशिकों ने किया था । जबरदस्ती अपनी सभ्यता, संस्कृति और भाषा थोप कर । जैसा कि चीन तिब्बत और सिंक्यांग में कर रहा है । जनसंख्या परिवर्तन द्वारा – पुनः चीन द्वारा हान जाति के लोगों की जनसंख्या तिब्बत व सिंक्यांग में बढ़ाये जाना । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बमबारी एक प्रकार की सांस्कृतिक नर्व गैस है जो भाषा को मारती है । जन्म दर कम होते जाना । प्रजनन द्वारा विलुप्ति को टालने के लिए अनेकों उपाय किए जाते हैं । राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना महत्वपूर्ण है । जैसा कि इसराइल ने हिबू के साथ किया । नई टेक्नोलॉजी यदि घातक है तो बचाने का काम भी कर सकती है । शिक्षण सामग्री, pedagogy, साहित्य, लोक व्यवहार, गीत, कठोपकथन की परंपराएं आदि को डिजिटल रूप में सहेज कर रख सकते हैं, कॉपी करके वितरित कर सकते हैं । 

जैसे प्रत्येक बायोलॉजिकल स्पीशीज को बचा पाना संभव नहीं वैसे ही भाषा को भी ।

जैसे एक स्पीशीज के विलुप्त होने से हमारी दुनिया गरीब होती है, इकोलॉजी बिगड़ती है वैसे ही भाषा के जाने के साथ एक संसार, एक संस्कृति चले जाते हैं । भाषाई विविधता हमें भाषाई अन्त:प्रज्ञा का बोध कराती है । एक भाषा का विलुप्त होना मानो नालंदा के विश्वविद्यालय के पुस्तकालय के एक खंड का जल जाना ।

कोई भी भाषा मानव की समेकित मेधा और सर्वोच्च उपलब्धि होती है । उतनी ही अनंत और दैवीय जितना कि कोई प्राणी । भाषा ही वह माध्यम है जिससे किसी भी सभ्यता का साहित्य, सोच-चिंतन, मान्यताएं, आस्था विश्वास, गीत संगीत अंतरित होते हैं ।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली में भाषा विज्ञान की पूर्व प्राध्यापक मेरी मित्र सुश्री अन्विता अब्बी ने अंडमान निकोबार के वनवासियों की बोली का अध्ययन किया, उसे सहेजा । मैंने उनके Adventorous अनुभवों को सुना और किसी भाषा के अंतिम सोपानो की गाथा के दर्द को महसूस किया।

एक लघु टिप्पणी Endangered भाषाओं की राजनीति पर । इस क्षेत्र में जो लोग काम कर रहे हैं, भले लोग हैं, अच्छा काम कर रहे हैं । लेकिन एक चीज खटकती है । अनेक शोधकर्ता, NGOs, एक्टिविस्ट, हिंदी व अन्य भारतीय प्रांतीय भाषाओं को शोषक /oppressor के रूप में देखते हैं जो खतरे में पड़ी इन बोलियां का दमन कर रही है । मैं इस सोच से सहमत नहीं । इन लोगों को अंग्रेजी से कोई मुश्किल नहीं है, लेकिन हिंदी से है । इनके अनुसार भारत की मुख्य भाषा (जो संविधान की अनुसूची में वर्णित है) के बजाय 500 dialects को माना जाना चाहिए । यह टुकड़े-टुकड़े गैंग वालों की सोच है जब वे भारत की भाषाई विविधता को खूब जोर-शोर से बढ़ा चढ़ा कर पेश करते हैं । नियत साफ झलकती है । एकता के बजाय अनेकता पर ज्यादा जोर दो ।

16.0 भाषा — कम्प्यूटर — A.I. का भविष्य

पिछले 20 सालों में हमने अनेक विकास देखे है । Text to Speech — लिखित लेख को वाणी में बदलना Speech to Text — बोले गये शब्दों को लिखित में बदलना । एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करना । एक लिपि को दूसरी लिपि में बदलना ।

शुरु शुरू में हम मशीन की हंसी उड़ते थे । पिछले दो-वर्षों में A.I. ने हमें चमत्कृत किया है । अब इस सम्भावना (या आशंका, आप जैसा सोचें, उस आधार पर) से इन्कार नहीं किया जा सकता कि शायद मशीन इन्सानी भाषा व सोच की बराबरी कर पाये । अभी भी अनेक उदाहरण मिलते हैं जो मशीन की सीमाएं दर्शाते है । गूगल जेमिनी द्वारा नरेन्द्र मोदी के बारे पूछे गये एक प्रश्न का एकांगी उत्तर इसका सबूत है ।

16.1 Chat GPT

AI चमत्कारिक संभावनाओं पर हम खुश हो सकते हैं। अंततः बुद्धि या मेधा द्वारा ही हम आविष्कार करते हैं और समस्याओं को हल करते हैं। इसके विपरीत अनेक विचारक ए.आई. के खतरों के अंदेशे से दुबले हुए जा रहे हैं। उन्हें लगता है कि “मशीन लर्निंग” हमारे विज्ञान, मारेलिटी और नैतिकता को विकृत कर देगी। ऐसा इसलिए कि “यांत्रिक सीख” मूलभूत रूप से भाषा और ज्ञान की गलत अवधारणा पर आधारित है।

चैट-जी.पी.टी. और उसके भाई बंधु कैसे काम करते हैं?

अरबो खरबो डाटा लीलते रहते हैं। सुपर-सुपर कंप्यूटरो की श्रंखलाओं द्वारा सागर मंथन जारी रहता है। उफन कर ऊपर आने वाले मक्खन में क्या होता है? नितांत मानवीय प्रतीत होने वाले वाक्य, पैराग्राफ, निबंध, उत्तर, समस्याओं के हल, विवादास्पद विषयों पर दो या अधिक मतों का तुलनात्मक प्रतिपादन, किसी कंप्यूटर एप्लीकेशन का नया कोड, कविता, संगीत रचना और भी न जाने क्या क्या?

इसके पीछे “सोच” नहीं है, “चिंतन” नहीं है। केवल गणित है। संभावनाओं का गणित। ऐसे-ऐसे शब्द इस इस क्रम में जुड़ते हैं, व्याकरण के नियमों का पालन करते हुए वाक्य और पैराग्राफ बनाते जाते हैं ।

क्या मानव जाति इस दहलीज पर आ खड़ी हुई है जिसके बारे में कहा जा सकता है कि ए.आई. न केवल संख्यात्मक दृष्टि से बल्कि गुणात्मक दृष्टि से भी इंसान के दिमाग से आगे निकल जाएगा ।

स्मृति का भंडार विशाल होना बड़ी बात नहीं है। उत्तर ढूंढने की गति तेज होना बड़ी बात नहीं है। शतरंज के खेल में बड़े-बड़े ग्रैंडमास्टर्स को हरा देना बड़ी बात नहीं है ।

अनेक बड़ी बाते चैट जी.पी.टी. या ए.आई. द्वारा संभव नहीं है ।

उनके बारे में 90 से अधिक उम्र के विख्यात भाषा वैज्ञानिक नोअम चोम्स्की ने 8 मार्च 2023 को न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित एक लेख में कहा है कि इस तरह के एप्लीकेशंस की उपयोगिताएं सीमित रहेंगी। मानव मस्तिष्क और कृत्रिम बुद्धि की तुलना का समय अभी नहीं आया है ।

चैट जीपीटी एक राक्षस के समान ढेर सारे डेटा को निगलते निगलते उसमें से सांख्यिकी संभावनाओं के पैटर्न ढूंढता रहता है। यह एक यांत्रिक काम है। उसमें “दिमाग” नहीं लगता है। उसके पास “सोच” और “रचनात्मकता” नहीं है। “कहीं की ईट, कही का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा” जैसा हाल है ।

इसके विपरीत 2-3 वर्ष के एक शिशु का दिमाग बड़ी कुशलता के साथ न्यूनतम इनपुट के आधार पर आसपास बोली जाने वाली भाषा के व्याकरण को गढ़ता है जो संभावनाओं के गणित पर नहीं वरन लघु लघु तथा गंभीर सत्य परक ‘व्याख्याओं’ पर आधारित होता है ।

बौद्धिक विकास को यांत्रिक योग्यता से मत आंकिये ।

ए.आई. यह बता सकता है कि क्या है, क्या था, और क्या होगा अर्थात वर्णन और कुछ हद तक भविष्यवाणी। लेकिन यह नहीं बता सकता कि क्या नहीं है, क्या हो सकता है, और क्या नहीं हो सकता है। मशीन नहीं सोच सकती कि क्या होना चाहिए या नहीं होना चाहिए, क्यों होना चाहिए और क्यों नहीं होना चाहिए? असली बुद्धि की पहचान है सही और गलत या नैतिक और अनैतिक की परख और उस परख की व्याख्या ।

कल्पना कीजिए आपके हाथ में एक सेब(फल) है। आप मुट्ठी खोलते हैं और वह जमीन पर गिर जाता है। मशीन के शब्दों में ‘यदि’ आप हाथ खोलोगे तो सेब नीचे गिरेगा। क्या वह कह पाएगी “कोई भी वस्तु गिरेगी”? या  क्यों गिरेगी?  इसे सोचना कहते हैं। ए.आई. नियम या सिद्धांत नहीं परिभाषित कर सकती जिन्हें प्रयोगों की कसौटी पर कसा जा सके। मशीन को स्वयं की आलोचना करना और अपने आप में सुधार करना नहीं आता ।

शर्लाक होल्म्स, डॉक्टर वाटसन से कहते हैं-“जब आप ने समस्त असंभव उत्तरों को खारिज कर दिया हो तो जो शेष रह गया है, वह चाहे कितना ही असम्भाव्य प्रतीत हो, वही सत्य होता है”। चैट जीपीटी द्वारा इस तरह का लॉजिक संभव नहीं क्योंकि उनकी डिजाइन ही कुछ ऐसी है कि भले ही उनकी स्मृति असीमित हो लेकिन वे संभव असंभव या उचित और अनुचित का भेद करने में सक्षम नहीं है। चैट जीपीटी के उत्तर अनेक अवसरों पर सतही और दुविधा पूर्ण प्रतीत होते हैं ।

चूँकि चैट जीपीटी के पास नैतिकता या आदर्श की समझ नहीं है, इसलिए उसका कोड लिखने वाले प्रोग्रामर्स ने उस पर अनेक वर्जनाएं थोप दी है ।

मैंने पूछा फला फला पैगंबर या भगवान के बारे में कुछ व्यंग्यात्मक लिखकर बताइए। बार-बार उत्तर आया – “मेरा प्रोग्रामिंग इस तरह करा गया है कि मैं किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत ना करूं।”  चार्ली हेब्डू के कार्टून कार जरूर इस बात पर कार्टून बनाएंगे। तमाम योग्यताओं के बावजूद चैट जीपीटी की अन-नैतिकता और मोरल के प्रति निस्पृहता और असंगतता उसकी अनबुद्धि का घोतक है। मशीन के द्वारा रचनात्मक स्वतंत्रता और नैतिक संयम का महीन संतुलन साधना असंभव है ।

दैनिक जीवन में दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य संवाद में कौन किसके बाद क्या-क्या बोलेगा इस पर असर डालने कारकों का अध्ययन ।

A.l. के लिये Pragmatics समझ पाना मुश्किल रहेगा । दो उदाहरण देखिये, आप समझ जायेंगे लेकिन शायद A.I. नही —            

पत्नी:  मैं तुम्हें छोड़ रही हूँ

पति: कौन है वह?

“Many had a little lamb.”

“Many had a title lamb with mint sauce.”

17.0 सार सार गहि रहै

[ Take home messages]

* समस्त प्राणी जगत में भाषा केवल मानव की घरोहर है

* भाषा एक Biological Phenomenon हैं जो मस्तिष्क द्वारा संधारित होती है और जिसके डार्विनियन विकास में लाखों वर्ष लगे हैं । न्यूरोलाजिकल रोग Aphasia द्वारा भी भाषाओं की बायोलाजी समझने में मदद मिली है ।

* भाषा एक अन्त:प्रज्ञा है । Language is an instinct.

* इसका Software मस्तिष्क में जन्म से भर कर आता है । लेकिन इसके उपयोग सीखने के लिए समाज में रहना जरूरी है ।

* प्रत्येक भाषा और बोली और लहजा महान और सम्माननीय है ।

* भाषा बहता नीर है । रुक गया तो सड़ जायेगा । जल्दबाजी में बह निकला तो पहचान खो बैठेगा । [परिवर्तन] और [स्थिरता/शुद्धता] का संतुलन साधना है । बहता नीर के नाम पर गंदगी को मिलने से रोकना है ।

* भाषाओं के साम्राज्य बनते और बिगड़ते रहे हैं — उनके कारक अबूझ और जटिल है ।

* बहु‌भाषिता का उत्सव मनाइये, उसे बढ़ावा दीजिये, उसके बहुत लाभ हैं । लेकिन अनावश्यक मिश्रण में बचिये ।

* संस्कृत कूप जल नहीं है । संस्कृत सागर है, सागर से उठने वाले मेघ है । बारिश है । पहाड़ो पर जमने वाला तुषार है । मंथर गति वाला हिमनद या ग्लेशियर है ।

* संस्कृत शोषण की भाषा नहीं है । भारतीय भाषाको का शब्द भण्डार है । नये शब्दों के सृजन का अकूत स्त्रोत है ।

* भाषाओं की विलुप्ति दुःखद है लेकिन टालता मुस्किल है ।

* उर्दू और हिन्दी बहनें है । उर्दू एक महान भाषा है । उसका आनन्द लीजिये ।

* लिखित भाषा मानव की अन्तःप्रज्ञा का अंश नहीं है । उसे सायास सीखना पड़ता है । लिपियों की विशेषताएं, गुण-अवगुण, उपयोगिता और उनके साम्राज्य अपने आप में एक वृहत और रोचक विषय है ।

* भाषा विचार नहीं है । लेकिन बिना भाषा के विस्तृत व जटिल विचार सम्भव नही है । भाषा का चरित्र उसे बोलने वालों की सोच व विचारशैली पर शायद कुछ असर डालता है ।

* भाषा के अनेक अवयव या सीढ़ियां होते है — ध्वनि, शब्द रूप, शब्द कोश, शब्द अर्थ, वाक्य, कथोप-कथन, संभाषण, संवाद — प्रत्येक की न्यूरोलाजी का अध्ययन हमे ज्ञानवान बनाता है ।

* कम्प्यूटर्स और A.I. ने भाषाविज्ञान, भाषा उपयोग में अभूतपूर्व परिवर्तन किये है । परिदृश्य बहुत तेजी से बदल रहा है । भविष्य में न जाने क्या क्या होगा । डर लगता है । उम्मीदें भी है ।

18.0 हिन्दी और भारतीय भाषाओं के लिये पैरवी

* हस्ताक्षर मातृभाषा में कीजिये ।

* हिंग्लिश से परहेज कीजिये । बेहतर हिन्दी बोलिये ।

* हिन्दी में खूब पढ़िये । न केवल समाचार या सोशल मीडिया । वरन साहित्य, विज्ञान, सबकुछ । किताबें खरीदिये । भेंट की जिये ।

* पुस्तकालयों को बढ़ावा देने की मुहिम चलाइ‌ये ।

* Create Readers and listener’s club. पढ़ने और चर्चा करने वालों की नियमित गोष्ठियों की परम्परा बढ़ाइये ।

* हिन्दी में लिखने की आदत डालिये । पत्र, डायरी, यात्रावर्णन, कुछ चिन्तन, कुछ किस्से व अनुभव । आपस में साझा कीजिये ।

* भारत की कोई भाषा एक या अधिक, अतिरिक्त भाषा सीखिये । अधिक न सही, थोड़ी थोड़ी ही सीखिये । कुछ कुछ संस्कृत भी सीखिये ।

* रोमन के बजाय देवनागरी में लिखने की आदत बनाये रखिये ।

* शिक्षा का माध्यम हिन्दी रखने की पैरवी कीजिये । इस हेतु कलेवर बढ़ाने में योगदान दीजिये ।

* भारतीय भाषाओं के मध्य आपसी अनुवाद को बढ़ावा देने के लिये शासन व अन्य संस्थाओं से अनुरोध कीजिये ।

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