हमारे सपने, हमारे सुख-दुःख, हमारी आत्मा और हमारा प्रेम जहाँ बसता है, वह स्थान दिल नहीं, दिमाग है। मनुष्य के शरीर का यही एक ऐसा अंग है, जहाँ विज्ञान अपना सिर झुका कर खड़ा हो जाता है। लेकिन, चिकित्सा के क्षेत्रों में हो रही नई-नई खोजों ने खोपड़ी में दाखिल होने का रास्ता खोल दिया है। यहाँ पढ़िए तंत्रिका-तंत्र की शल्य चिकित्सा पर दिलचस्प लेख।
आइए आपको न्यूरोसर्जन के ऑपरेशन थिएटर में ले चलते हैं। कैसी है उसकी कर्म स्थली? गंजे सिर किए हुए मरीज बाहर प्रतीक्षारत हो सकते हैं। प्रायः उनके शरीर की किसी कार्यप्रणाली में कोई न कोई कमी होगी। ऑपरेशन का कमरा सक्रियता से भरा है। सब कुछ नियत व सहज रुप से चल रहा है जिसके मध्य में मानों सहसा एक शरीर लाकर रख दिया जाता है। निश्चेतना (बेहोशी) पैदा करने का काम प्रारंभ हो जाता है। मरीज गहरी निंद्रा में है, स्वप्नों व स्मृति से परे, दर्द से परे। मुँह में श्वसन-नली लगी है। भुजाओं में नलीयाँ व तार लगे हैं। सीने पर तार लगे हैं। रक्तचाप, हृदयगति आदि पर नजर है। मांसपेशियाँ औषधि के प्रभाव में निश्चल है। जागने पर इस मरीज को सिर्फ इतना दर्द महसूस होगा कि सिर पर किसी ने बल्ले से हल्की चोट मार दी हो। प्रमुख सर्जन के आने के पूर्व रेसीडेण्ट डॉक्टर आरंभिक तैयारियाँ करवाते हैं। पीठ से सरिब्रोस्पाईनल द्रव निकाल कर मस्तिष्क के अंदर का दबाव कम किया जा सकता है। बीसियों औजारों से सजी ट्रे मरीज के ऊपर व पार्श्व में लग जाती है। अच्छे औजार और उन्हें बापरने की सुघढ़ता इस क्षेत्र में सफलता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। कभी तुलना करने लगें, तो अनेक हुनर याद आते हैं, जैसे कि प्लम्बर, सुनार, सुतार, पियानोवादक। जन्मजात गुण और करत-करत अभ्यास दोनों का समान महत्व है।
टेबल के किनारों से लटकी चादरें मरीज ढँक को लेती है। वह गायब हो जाता है। नजर आता है तो उसके घोट-मोट सिर की चमड़ी का एक छोटा तिकोन भर टुकड़ा। कल्पना का विस्तार करने पर भी, इस छोटे से परिदृश्य का एक व्यक्ति से संबंध स्थापित कर पाना उस समय, किसी बाहरी दर्शक के लिए असंभव होगा। सिर के छोटे से हिस्से में खोपड़ी के भीतर प्रवेश किया जाएगा और अगले चार-छः घंटे न्यूरोसर्जन इसी में अपना काम करेगा।
पहले शिरोवल्क (स्कल्प-सिर पर चमड़ी की मोटी परत) को काटते हैं। काटते ही उसके सिरे ऐसे दूर हट जाते हैं मानों खींचे हुए हों। बहते हुए खून को रोकने के लिए छोटी रक्त नलियों को बिजली से दाग देते हैं। कमरे में हल्की गंध भर जाती है, किसी वस्तु के जलने की। विद्युत दहन (इलैक्ट्रिक काटरी) का काम विशेष चिमटी से करते हैं। जिसमें मद्दिम विद्युत प्रवाहित की जा सकती है। नीचे कपाल-अस्थि चमकने लगती है। सर्जन के औजार उस पर रगड़ने से ऐसी आवाज करते हैं, मानों लकड़ी पर धातु का घर्षण हो रहा हो। खोपड़ी की यह हड्डी, मनुष्य की सुरक्षा का प्रमुख कवच है। इसकी सख्ती इतनी है कि प्रति एक वर्ग सेंटीमीटर पर 230 किलोग्राम भार तक सहा जा सकता है। सामान्य जीवन सिर पर पड़ने वाले दबावों की तुलना में यही 400 गुना अधिक है। इसे खोलने के लिए बढ़ई के औजारों की जरुरत पड़ती है। ड्रिलिंग मशीन से घिई-घिई करके छेद बनाए जाते हैं। इन छेदों को छीलकर, तराश कर चवन्नी के आकार तक बड़ा कर देते हैं। एक छेद से दूसरे छेद तक हड्डी को एक आरीनुमा मशीन (क्रेनियोटोम) से काटते हैं। हड्डी का एक चैकोर या अण्डाकार टुकड़ा, दरवाजे के समान खोलकर, ऊपर उठा लिया जाता है व अंदर घुसने को खिड़की तैयार हो जाती है। हड्डी के चैकोर या गोल टुकड़े को लवण घोल में सम्हाल कर रख लेते हैं। ऑपरेशन की समाप्ति पर इसे पुनः अपनी खिड़की पर फिट कर दिया जाता है। एक मोटी झिल्ली (इयूरा मेटर) अब नजर आती है। इस काटते ही मस्तिष्क के चारों ओर भरा पानी बहने लगता है और दर्शन होते हैं, साक्षात् मस्तिष्क के। हल्का भूरा-पीला पदार्थ।
उठाव व उतार वाली सतह जिन पर पतली रक्त नल्निकाएँ चिपकी होती हैं। दिखने में ठीक अखरोट के गूदे-सा पर छूने पर निहायत नरम, अच्छे जमे हुए गाढे दही के समान। चम्मच को थोड़ा जोर से धँसाएँ तो आसानी से भर-भर कर निकाला जा सकता है। लगभग डेढ़ लीटर दूध जितनी जगह घेरे हुए। यह ही है वह जिसके होते हमारा अस्तित्व है। आत्मा, ब्रह्म, आदि-आदि सब इसमें हैं। हमारी सारी इंद्रियों का केंद्र। हमारी इच्छा शक्ति का केंद्र| अलग-अलग चप्पों के भिन्न-भिन्न काम| हर काम का एक केंद्र। बड़ा विस्तृत व जटिल अध्याय है मस्तिष्क के फलाँ-फलाँ बिन्दु से शरीर के किसी-किसी काम के संबंध जोड़ने का। न्यूरोसर्जन को यह अध्याय हृदयंगम होना चाहिए। ऐसा कि, नींद से उठाकर पूछने पर भी सही उत्तर दे सके। इस विज्ञान की शुरुआत भी पिछली शताब्दी में ही हुई थी। इस ज्ञान के बगैर न्यूरोसर्जन का काम वैसे ही होता जैसे बिना नक्शे व दिशा निर्देश के कोई जहाज का कप्तान किसी अनजान द्वीप की तलाश में अँधेरे में निकल पड़ा हो। आज हम जानते हैं कि मस्तिष्क पर कहाँ हाथ धरे और कहाँ नहीं।
मस्तिष्क के किस चप्पे से शरीर के किस भाग की, किस प्रक्रिया का नियंत्रण होता है- इस विचार को “स्थान निर्धारण” कहते हैं। पिछले 100 वर्षों से यह एक गरम बहस का मुद्दा रहा है। अनेक विचारकों व वैज्ञानिकों का मत था कि मस्तिष्क एक समूची इकाई के रुप में ढेर सारे काम एक साथ करता है। वे स्थान निर्धारण की परिकल्पना को ही अस्वीकार करते थै। परंतु अन्य शोधकर्ताओं के अलावा, न्यूरोसर्जन के अनुभवों ने इस बात की पुष्टि की कि स्थान निर्धारण का सिद्धांत सही है। विभिन्न प्रक्रियाओं से भी ऊपरी स्तर पर, मस्तिष्क के इसी गूदे में हमारे व्यक्तित्व का निवास है। जी हाँ, किसी इंसान के समूचे व्यक्तित्व को न्यूरोसर्जन, खोपड़ी खोलकर, ऊँगली धर कर बता सकता है कि वह कहाँ अवस्थित है। सर्जन का चाकू उस चप्पे पर चले तो मनुष्य की पर्सनालिटी बदल सकती है, क्षतिग्रस्त हो सकती है।
न्यूरोसर्जन के ऑपरेशन थिएटर में टी.वी. कैमरे की मदद से आप सारी शल्य क्रिया पर्दे पर विस्तार से देख सकते हैं। सर्जन के कंधे के ऊपर से उचक कर देखने की तकलीफ अब नहीं उठाना पड़ती। मस्तिष्क के गूदे को सर्जन कैसे काट सकता है, चिमटी से थोड़ा-थोड़ा कुरेद सकता है, विद्युत काटरी से बिन्दु-बिन्दु जला सकता है और निर्वात नली (वेक्यूम सक्शन) से सोख सकता है। रह-रहकर पूरे परिदृश्य में रिसता हुआ खून भर आता है। इसे भी सोख-सोख कर हटाया जा सकता है। कभी-कभी लम्बे समय, सिर्फ यही एक लय चल पड़ती है- काटना, काटरी से जलाना, सलाइन से धोना, सोखना- फिर यही क्रम। बड़ी धीमी और बोर सर्जरी है। एक दर्शक न्यूरोफिजिशियन के रुप में मैंने इस उबाऊ एकरसता को खूब भोगा है। मन ही मन तारीफ की है, न्यूरोसर्जन के धैर्य की जो, इतने से गूदे में पता नहीं कितनी देर तक बस कुतर-कुतर करता रहता है। बीच-बीच में मरीज के केट-स्केन व एंजियो ग्राम एक्स-रे की ओर नजर डाल लेता है जो वहीं लगा दिए गए हैं। मशीनवत से लगने वाले इस दृश्य में कभी-कभी उत्तेजना के क्षण,भी आते हैं। यदि सर्जरी, मस्तिष्क के निहायत ही संवेदनशील भाग पर की जा रही हो तो मरीज के रक्तचाप, श्वसन व नाड़ी पर नाटकीय व खतरनाक उतार- चढ़ाव आ सकते हैं। ऑपरेशन स्थल पर रक्तस्त्राव का न रुक पाना एक अन्य प्रमुख चिंताजनक घटना होती है। पिछले अनेक दशकों से न्यूरोसर्जन के पारंपरिक औजार रहे है- चिमटी, चाकू, काटरी व सक््शन। अब नए साधनों ने उसकी कार्य कुशलता में बड़ा इजाफा किया है। शल्य-सूक्ष्मदर्शी (ऑपरेटिंग माइक्रास्कोप) का विकास व उपयोग एक खास परिवर्तन है। यह सही है कुदरत ने इंसान की ऊँगलियों को निहायत बारीक काम करने के काबिल बनाया हैं। परन्तु इसकी भी एक सिमा हैं।इतने सूक्ष्म स्तर पर, आँखों व उँगलियों के मध्य सामंजस्य नहीं बैठ पाता। सूक्ष्मदर्शी यन्त्र का उपयोग, अन्य वैज्ञानिकों के लिए पुराणी व आम बात रही हैं। परन्तु सर्जरी में तथा विशेषकर न्यूरो सर्जरी में इसका चलन सिर्फ 30 वर्ष पुराना हैं। जब पहली बार खून की बारीक नालियों को आपसे में सीकर जोड़ने का ऑपरेशन सूक्ष्मदर्शी की मदद से किया गया तो, विस्तार व आसानी से इतनी साड़ी चीजें दिखी, मानो चन्द्रमा को पहली बार किसी शक्तिशाली दूरबीन से देखा गया हो। ऑपरेशन की सफलता की दर में बढ़ोत्तरी हुई हैं , समस्याओं की दर में कमी हुई हैं। लेसर का प्रयोग एक अन्य क्रांतिकारी परिवर्तन सिद्ध हो रहा है। लेसर किरणों को अत्यंत सटीक व महीन बिन्दु वाले चाकू व काटरी के रुप में प्रयुक्त किया जाता है। यह इसलिए संभव है कि तेज ऊर्जावाली ये किरणें अधिकतम सूक्ष्मता से फोकस की जा सकती हैं व उनके विभिन्न गुणों को नियंत्रित किया जा सकता है। सर्जरी में लेसर, मनुष्य की ऊँगल्रियों व आँखों का साझा विस्तार है।
अल्ट्रासाउण्ड (पराध्वनि) के नए आयाम, न्यूरोसर्जरी में गुल्र खिलाने लगे हैं। विभिन्न ऊँची आवृत्ति (फ्रिक्वेंसी) वाली ये ध्वनि तरंगें जब किसी पदार्थ से टकरा कर लौटती हैं तो उनसे बनने वाले बिम्ब को देखकर उस पदार्थ के बारे में बहुत कुछ जाना जा सकता है। इनसे शरीर को हानि नहीं होती। प्रसूति विज्ञान व अन्य विशेषज्ञताओं में इनका नैदानिक उपयोग आम हो चुका है। शल्यक्रिया के दौरान, किसी पदार्थ को काटने, कुतरने (विच्छेदित करने) के पूर्व, अनेक बार उसे छूकर देखा जाता है कि सतह के नीचे क्या है। ऊँगली की जगह, अल्ट्रासाउण्ड तरंगों की एक पेंसिलनुमा बीम से यह जानकारी और अच्छी प्राप्त होती है। इन तरंगों में निहित ऊर्जा स्वयं, ऊतकों के विच्छेदन व अवशोषण के काम में मदद करती है। सर्जन के साथी एक्स-रे विशेषज्ञ, जो अभी तक अपनी मदद ऑपरेशन थिएटर के बाहर ही दे पाते थे, अब अपने नए शस्त्रागार से सजधज कर, पूरी शल्यक्रिया को और भी सुगम व सफल बना रहे हैं।
स्टीरियोटेक्टिक (त्रिआयामी स्थान निर्धारण) सर्जरी
स्टीरियोटेक्टिक (त्रिआयामी स्थान निर्धारण) सर्जरी अब पचास वर्ष पुरानी हो चुकी है। बीच में कुछ वर्षों तक उसका उपयोग कम हो गया था। इस क्षेत्र में फिर से नया विकास देखने में आया है। स्टीरियोटेक्टिक सर्जरी का सिद्वांत अत्यंत रोचक व मौलिक है। मस्तिष्क की शरीर रचना (एनाटॉमी) के विस्तृत अध्ययन से उसके विभिन्न भागों की अवस्थिति का अनुमान बंद खोपड़ी के सापेक्ष करना संभव हो पाया है। कपालअस्थि के विशिष्ट बिन्दु पर बने छेद में से, निश्चित दिशा में निश्चित गहराई तक सलाई (प्रोब) डालने से वह मस्तिष्क के किस अंग तक पहुँचेगी यह भविष्यवाणी लगंभग 100 प्रतिशत निश्चितता से करना संभव है। उक्त सलाई गहराई में अपने नियत निशाने पर पहुँचकर अनेक कार्य सम्पादित कर सकती है। एक इलेक्ट्रोड के रुप में मस्तिष्क के उस क्षेत्र की विद्युतीय गतिविधि का ग्राफ प्राप्त किया जा सकता है। उस सल्राई में विद्युत प्रवाहित कर उसके सिरे पर स्थित ऊतक को जलाया जा सकता है। रासायनिक पदार्थ (औषधि) अंदर डाले जा सकते हैं, या अंदर से जमा हुआ पस, खून या पानी बाहर निकाला जा सकता है। मस्तिष्क के केंद्रीय भाग में अनेक स्थानों पर पारंपरिक शल्यक्रिया द्वारा पहुँचना संभव नहीं होता है। इस स्टीरियोटेक्टिक सलाई (प्रोब) से बिना बेहोश किए, बिना बड़ा ऑपरेशन किए, अनेक बीमारियों का इलाज किया जाता रहा है। सबसे अच्छे परिणाम देखने को मिलते थे, पार्किन्सोनिज्म नामक रोग में, जिसमें शरीर का एक हिस्सा कम्पन (ट्रेमर) से ग्रस्त हो जाता है। अब एम.आर.आई. स्केन के माध्यम से स्टीरियोटेक्टिक विधि की सटीकता व सुरक्षा पहले से बेहतर हो गए हैं। अन्य क्षेत्रों में तकनालाजी के विकास के कारण उक्त सलाई के रोल और भी बहुरंगी हो गए हैं। अब इलेक्ट्रोइ्स को मस्तिष्क गहरे भागों में लम्बे समय के लिए गाड़कर रखा जा सकता है। पेसमेकर की भाँति उनकी विद्युतीय अवस्था को बाहर बैटरी से नियंत्रित करते हैं। इससे मस्तिष्क की कार्यप्रणाली को इच्छानुसार नियंत्रित कर सकते हैं।
लेसर और स्टीरियोटेक्टिक विधि के संयुक्त उपयोग में बड़ी संभावनाएँ है। मस्तिष्क की गहराई में नियत बिन्दु तक लेसर किरणों को फायबर आप्टिक नलियों द्वारा पहुँचाना संभव होगा। इनसे प्राप्त ताप ऊर्जा से कैंसर आदि खराबियों को उनके ही स्थान पर जलाकर वाष्पीकृत कर दिया जाएगा। तेज असरकारक औषधियाँ मस्तिष्क के इच्छित भागों में ही अपना प्रभाव दिखाए, इस बात का नियंत्रण भी लेसर द्वारा निर्देशित उक्त उर्जा से संभव होगा।
मस्तिष्क प्रतिरोपण छोटे जन्तुओं में प्रयोग किए जाते रहें हैं। हाल में सफलता मित्रने लगी है। मनुष्य में मस्तिष्क या तंत्रिका ऊतक प्रतिरोपण अभी भी वैज्ञानिक गल्पकथा (फिक्शन) का भाग है। परंतु भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है, कहा नहीं जा सकता। पार्किन्सोनिज्म के दो मरीजों में, पेट में स्थित एक ग्रंथि “एड्रीनल मेड्यूला” के कुछ ऊतक को मस्तिष्क में प्रतिस्थापित करने के अच्छे परिणाम देखने में नहीं आए हैं। हाथ-पैर की तंत्रिकाओं (नर्वस) की चोट आदि बीमारियों में प्रतिरोपण (नर्वग्राफ्ट) अब किया जाने लगा है। मस्तिष्क के ऊतक की महत्वपूर्ण मात्रा का प्रतिरोपण जटिल है।
चिकित्सा विज्ञान की सहोदर शाखाओं का विकास, न्यूरोसर्जरी पर प्रभाव डालता है। निश्चेतना विज्ञान व गहन चिकित्सा की सुविधाएँ आज सर्जन को अधिक आश्वस्त करती है। किसी भी शल्यविज्ञान के विकास की एक आदर्श मंजिल होती है, ऑपरेशन के स्थान पर औषधि आदि से अधिक सफल व सुरक्षित इलाज की गारंटी। ऐसा अब कई बीमारियों में हो सकता है। आधारभूत विषयों में जारी शोध के परिणाम धीरे-धीरे नजर आते हैं। जीव रसायन, इम्यूनालाएँजी, सूक्ष्म जीवविज्ञान में प्रगति का लाभ मिल रहा है।
अब हम संक्षेप में उन बीमारियों व अवस्थाओं की चर्चा करेंगे जिनके इलाज में न्यूरोसर्जन की आवश्यकता पड़ सकती है। इसका अर्थ सदैव शल्यक्रिया नहीं होता। सर्जन, आर्उपरेशन करने के अतिरिक्त और भी अनेक तरह से मरीज का उपचार करता है। सजग निष्क्रियता (मास्टरली इनएक्टिीविटी) के दौर में मरीज पर निगरानी रखना व सामान्य स्थिति बनाए रखना ये ही लक्ष्य होते हैं।
सिर पर चोट लगने के मामलों में बहुत बार सजग निष्क्रियता ही मुख्य भूमिका होती है। अपनी खोपड़ी का अंदरुनी कमरा एयरटाइट व वाटरटाइट होने से मस्तिष्क का आयतन थोड़ा-सा बढ़ते ही अंदर का दबाव खूब बढ़ जाता है। इससे मस्तिष्क की विभिन्न कार्यप्रणाल्रियाँ खतरे में पड़ जाती है। अनेक औषधियाँ मस्तिष्क के आयतन, सूजन व दबाव को कम करती है| उनके असफल रहने पर न्यूरोसर्जन कपाल के पाशव की हड्डी हटाकर इस दबाव को कम करने में मदद करता है। मस्तिष्क में धँसे हुए बाहय पदार्थों (कारतूस,हड्डी के टुकड़े) को ऑपरेशन द्वारा बाहर निकाला जाता है। अंदरुनी रकतस्त्राव होने से जमा हुआ खून (हीमेटोमा: रक्तगुल्म) निकालने के लिए शल्यक्रिया इमर्जैन्सी में करना पड़ सकती है।
ब्रेन ट्यूमर (मस्तिष्क की रसौली या गाँठ) में न्यूरोसर्जरी की क्षमताओं को आँकने के लिए दो तुलनात्मक उदाहरण: देना चाहूँगा। एक अति सरत्र तथा एक अति कठिन। धीमी गति से बढ़ने वाला, बिना कैंसर के गुण वाला, आकार में छोटा, मस्तिष्क की सतह पर या बाहर स्थित, मस्तिष्क के कम संवेदनशील व कम उपयोगी क्षेत्र में स्थित और आरंभिक अवस्था वाला ऐसा ट्यूमर हो तो सर्जरी के परिणाम लगभग 400 प्रतिशत सफल होंगे। इसके विपरीत तेज गति से बढ़ने वाला, कैंसर युक्त, आकार में बड़ा, गहराई में तथा संवेदनशील क्षेत्र में स्थित बाद की अवस्था वाला- ऐसे ट्यूमर में परिणाम स्वाभाविक ही अच्छे न होंगे। इन दोनों उदाहरणों के बीच में अनेक उदाहरण होंगें। प्रायः पूरा ट्यूमर नहीं निकल पाता है। मस्तिष्क के सामान्य भाग पर नुकसान से बचना मुश्किल होता है। ऑपरेशन के बाद मरीज में नए दोष प्रकट हो सकते हैं। आयु यदि कुछ वर्ष बढ़ाई जा सके तो भी उसकी गुणवत्ता इस काबिल नहीं रहती कि जीना सार्थक हो। यही वे चुनौतियाँ हैं जिनका न्यूरोसर्जन सामना करता है। ऑपरेशन के लाभ एक से अधिक हैं। सर्जरी के दौरान प्राप्त ऊतक की बायोप्सी से निश्चित डायग्नोसिस प्राप्त होती है। इसी से आगे के इलाज की योजना बनती है- उदाहरण- रेडियोथेरेपी, कीमोथेरेपी, पुनः सर्जरी आदि। सुखद आश्चर्य के रुप में, कभी-कभी ट्यूमर लगने वाली खराबी, या तो पस का फोड़ा (एक्सेस), टी.बी., या रक्तगुल्म (हीमेटोमा) निकल सकती है। इनका बेहतर इलाज संभव है। बीमारी के परिणाम का अनुमान (भविष्यवाणी/प्रोग्नोसिस) बायोप्सी रिपार्ट पर बहुत निर्भर करता है।
शन्ट सर्जरी (बायपास पार्श्वपथ) : मस्तिष्क के चारों ओर तथा अंदर वेन्ट्रीकल (निलय) में भरे द्रव पदार्थ की मात्रा व दबाव बढ़ने के मामलों में एक पतली नली द्वारा इस द्रव को मस्तिष्क से हृदय या पेट तक निकालने का साधन कर दिया जाता है। बच्चों में इस शल्य क्रिया की अधिक आवश्यकता पड़ती है। रीढ़ की हड्डी व स्पाइनल कार्ड की बीमारियों में दोनों पैरों का लकवा होता है। ऑपरेशन द्वारा दबाव के कारण (ट्यूमर, पस हड्डी, डिस्क) को दूर करने के अच्छे परिणाम होते हैं।
व्हास्कुलर सर्जरी : मस्तिष्क को जाने वाली खून की मोटी धमनियों व मस्तिष्क के भीतर बिछे नलियों के घने जाल की सर्जरी अपने आप में एक जटिल उपविशेषज्ञता है। पक्षाघात का कारण होता है मस्तिष्क के किसी भाग की रक्तप्रदाय में रुकावट। खून की कोई नली फटने से मस्तिष्क के भीतर जमा खून निकलने के ऑपरेशन की भूमिका सीमित है। एन्यूरिज्म को फटने से रोकने के लिए उन्हें क्लिप करने का ऑपरेशन किया जाता है। हृदय के समान, मस्तिष्क में खून की नलियों के बायपास ऑपरेशन ने अपनी उपयोगिता नहीं सिद्ध की है।
मिर्गी के बहुत थोडे से मरीजों में ऑपरेशन से फायदा होने की संभावना होती है। अधिकांश का इलाज औषधियों से करते है। शल्यक्रिया के लिए रोगी का चयन अत्यंत कड़ी कसौटियों व जाँच के बाद होता है। सही चयन होने पर अच्छे परिणाम मिलते हैं। मानसिक रोगों में ब्रेन सर्जरी के बाद मनुष्य के व्यक्तित्व में परिवर्तन चिंता का कारण बने। अनेक विचारकों ने इसे ‘मस्तिष्क पर हिंसा’ की संज्ञा दी। सामाजिक, नैतिक, धार्मिक व राजनीतिक क्षेत्रों में उठी बहस ने न्यूरोसर्जरी की इस शाखा को बढ़ने से रोक दिया।
अनेक क्रोनिक व दुसाध्य बीमारियों में सर्जरी के परिणामों को वैज्ञानिक तटस्थता के साथ आँकने पर बल दिया जाता रहा है। सर्जरी की अन्य शाखाओं के समान, न्यूरोसर्जन मंठे भी अपने कार्य की सफलता को बढ़ाचढ़ा कर आँकने की प्रवृत्ति देखी जाती है। अतः शल्यक्रिया के किसी भी नए प्रयोग की सार्थकता व सुरक्षा का आकलन अब प्रायः न्यूरोफिजिशियन द्वारा बेबाक रेफरी के रुप में किया जाता है। गिने-चुने एक-दो किस्सों के आधार पर नहीं, बल्कि मरीजों की लम्बी श्रृंखला में परिणामों तुलना को सांख्यिकीय कसौटी पर कसने के बाद ही धारणाओं को मान्यता मिल्रती है। उदाहरणार्थ, निम्न बीमारियों में न्यूरोसर्जरी की उपयोगिता शून्य या नगण्य है- जन्मजात मंदबुद्धि, सेरीब्रल पाल्सी, पुराना पक्षाघात, पोलियों तथा वे बीमारियाँ जिन्हें डीजनरेटिव (व्यपजनन या अपविकास) कहते हैं। यदि मस्तिष्क व स्पाइनल कार्ड का काफी सारा ऊतक नष्ट हो गया है या ठीक से विकसित नहीं हो पाया है तो सर्जरी से किसी चमत्कार की आशा नहीं की जा सकती।
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