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पूर्ण सूर्य ग्रहण – नियाग्रा से (डॉ. अपूर्व पौराणिक की एक रिपोर्ट)


Watch YouTube Video: https://youtu.be/gs4W0oyqWNg

[एक आर्टिस्ट की कल्पना] 

अमेरिका और कनाडा के स्थानीय समयों के अनुसार पूर्ण सूर्यग्रहण का अद्‌भुत लोकप्रिय नजारा दिनांक 8 अप्रैल की अपरान्ह  गुजरा, और खूब गुजरा। लाखों लोगों ने प्रत्यक्ष दर्शन किये। करोड़ों ने इसे टी.वी., इन्टरनेट पर सजीव देखा। अरबों लोग आने वाले दिनों में इसके बारे में और इस पर आधारित शोध के नये परिणामों के बारे में पढ़ते, सुनते, देखते, जानते रहेंगे।

ये कुछ ऐसे मिनिट्स होते हैं जो मानव मन, बुद्धि, सोच और भावनाओं पर गहरा असर डालते है और वैज्ञानिकों के लिये शोध का बहु‌प्रतीक्षित अभूतपूर्व अवसर प्रदान करते हैं।

          नियाग्रा प्रपात जो कनाडा के ओन्टेरियो प्रान्त तथा अमेरिका के न्यूयार्क प्रान्त की सीमाओं पर स्थित है, इस ग्रहण के पूर्णत्व के पथ [The Path of Totality] में पड़ने वाला था। स्थानीय प्रशासन का अनुमान था कि लाभग 10 लाख दर्शक आयेंगे। पूरी तैयारियां थी।

          प्रकृति की चाल भी अजीब है। मनुष्य के विज्ञान ने खूब प्रगति करली है। सूरज, चन्द्रमा और पृथ्वी की गतियों की पाई पाई की, दशमलव दशमलव तक की सटीक गणना सम्भव है। इतने अक्षांश, इतने देशांस पर, इतने बजे से इतने मिनिट और इतने सेकण्ड के लिये दिन में रात हो जायेगी। दिन में तारे दिख जायेंगे । सब का सब एकदम सही । लेकिन कब कहां से बादल आकाश में आ जायेंगे, कितने घने, कितने छितरे, कब गहराते, कब बिखरते, कब सूरज को ढँक लेंगे, कब छँट जायेंगे — इसकी गणना सम्भव नहीं, उस पर नियंत्रण की तो सोचो थी मत।

          मालुम तो था कि नियाग्रा के नभ में मेघ रहेंगे। फिर भी हमारे सहित दो लाख लोग उत्तरी अमेरिका के भूगोल में से एक Geological worder,

{ वहां की बड़ी झील Lake ईरी की विशाल जलराशि का एक नदी में गिरनेवाले स्थान के दोनों किनारों} पर जमा थे [कनाडियन और अमेरिकी तट].

  एक वृद्ध दम्पत्ति तीन घंटे ड्राइव करके आए थे, उनके नगर में सूरज 90% तक ढंकने वाला था, फिर भी आए। कह रहे थे कि अपूर्ण ग्रहण [चाहे 99% हो] को देखना और पूर्ण [100%] को देखने में उतना ही फर्क है जितना एक गर्लफ्रेन्ड को चूमने  और उससे शादी करने में हैं।

          आज इस महान प्रपात के नयनाभिराम दृश्य की ओर लोग नहीं देख रहे थे। सबकी नजरें ऊपर की तरफ थी। आशाओं पर आकाश थमा था। होठों पर प्रार्थनाएं थीं। दिलों में शुभकामनाओं  से पोषित उम्मीदें थीं।

          बादल बहुत गहरे नहीं थे। सूरज की तेज रोशनी का पुंज प्रायः चीन्हा जा सकता या, भले ही प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हो पा रहे हों.

          3 बजकर 16 मिनिट से चार मिनिट के लिये चन्द्रमा द्वारा सूर्य को पूरी तरह से ढंका जाना था ।

इतने सारे लोग इस अद्‌भुत घटता के साक्षी बनने के लिये इतनी दूर दूर से आये है। खड़े थे, चल रहे थे, घास पर लेटे थे, फोल्डिंग कुर्सियां लाए थे, दरियाँ बिछी हुई थी, बड़े बड़े टेलिस्कोपिक कैमरे थे, कैमरों के स्टैंड थे, Tripods थे। सनग्लास आंखों पर चढ़े हुए थे।

सूर्य ग्रहण के सौदर्य को सराहने के लिये किसी का खगोल वैज्ञानिक होना जरूरी नही है, ठीक जैसे कि ग्राण्ड केन्यन के भूदृश्य से अभिभूत होने के लिए भूवैज्ञानिक (Geologist) होना जरूरी नहीं है।

मेरी पुत्री ने कहा था, “ पापा फोटो खींचने से अच्छा है सीधे सीधे देखना। आकाश देखो। सूरज को देखो। तारों को, बादलों को चिड़ियाओं को देखों। आसपास देखो। धरती, वृक्ष, पत्तियां, इमारते, नदी, झील, पहाड़ सब देखो। लोगों पर ध्यान दो। उनके चेहरों के भाव, उनका नाचना, कूदना, उछलना आदि को निहारो। आवाजों को सुनो– चीखना, चिल्लाना, हंसना, खिलखिलाना, बोलते जाना।  कैमरें में मत घुसे रहो। वरना यह सब खो दोगे।“

सही कहा था, ये ही तो वे क्षण है जब हम हमारे सौर मण्डल से, हमारे अपने तारे से इतना नजदीक का, इतना गहरा रिश्ता महसूस करते हैं।

भीड़ में कन्धे से कन्धे टकरा रहे हैं। कोई किसी को नहीं जानता। यह जमावड़ा खास है। है। सबके मन में एक ही विचार है। या अलग अलग हों। कोई ऐसे  सोचेगा। कोई वैसे सोचेगा। कारण एक होगा। परिणाम अनेक होंगे। इन्सानों का यह जंगी हुजूम कुछ घण्टों के लिये एक दूसरे का पड़ौसी बनता है, मित्र बनता है, अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएं साझा करता है. कुछ व्यक्तिगत परिचय भी हो जाते है। एक ही गुण — कौतुहल। एक ही ख्वाहिश — उसके दर्शन। एक दूसरे की आंखों से हम पूरी कायनात पर नजरे दौड़ा लेते है।

          सूर्य ग्रहण चक्राकार (Annular) पड़ेगा या पूर्ण (Total) यह इस बात पर निर्भर करता है कि चन्द्र‌मा धरती से कुछ ज्यादा दूर है या थोड़ा सा पास। कुछ लोग सोचेंगे कि पृथ्वी और चांद की दूरी तो फिक्स होनी चाहिये। नहीं, वह बदलती है। क्योंकि चन्द्रमा द्वारा परिक्रमा का मार्ग शुद्ध वृत्ताकार (Circular) नहीं होता बल्कि अण्डाकार (oval) होता है।

सूरज चन्द्रमा से 400 गुना बड़ा है। सुंदर संयोग है कि चन्द्रमा की तुलना में’ 400 गुना अधिक दूरी पर है। क्या Perfect fitness है। तभी तो पिद्दी से चांद की किस्मत में यह मौका आता है कि वह विशाल रुद्र देवता को ढँक लेता है।

          यदि सूरज छिपने जा रहा है, अंधेरा होने जा रहा है तो रोज होने वाले सूर्यास्त के धुंधलके और ग्रहण की छाया में फर्क होता है। एक तो गति का। शाम अहिंस्ता अहिंस्ता ढलती है। संध्या सुन्दरी आकाश से विलम्बित लय में राग गाती हुई अवतरित होती है। सूर्यग्रहण में सब कुछ द्रुत गति से होता है। अभी उजाला, अभी अँधेरा और लो फिर उजाला। शाम का ढलना, रात का गहराना, भोर का खिलना कुछ ऐसे होता है मानों एक मूवी को चार गुना स्पीड से चला दिया हो।

          दूसरा अन्तर है दिशाओं के रंगों का। ऊषा काल की लालिमा  पूरब में प्रथम दर्शन देती है। पश्चिम में अभी भी रात होती है। सांझ की झांकियां पश्चिम में खेल खेलती रहती है, जबकि पूरब का आकाश घुप हो चुका होता है। सूर्य ग्रहण का समय यदि दोपहर के आस पास का हो तो चहुं ओर पूरे 360° क्षितिज पर एक जैसी केशरिया आंभा दृष्टिगोचर होती है।

          समय आते आते उत्साह और बेचैनी दोनों बढ़ रहे थे। 10 मिनिट पूर्व से शोर थमने लगा था। व्योम में थोड़ा अंधेरा छाने लगा था। एक नीरवता पसरने लगी थी। सूरज आधे से अधिक छिप चुका होगा। पूरे परिदश्य में स्याही घुलती जा रही थी।

और फिर सहसा भीड़ में वाह की गूंज उठी, तालिया बजी, सीटिंया मारी गई — कुछ पलों के लिये बदलियों के मध्य एक गेप में प्रभु सूर्य के दर्शन हुए — अर्धचन्द्राकार फांक चमक रही थी। लगभग 90% छुपा हुआ था। फिर बादल ने ढँक लिया।

          घांस, वनस्पति, इमारतें, वाहन, लोगों के कपड़े, सब रंगों की चटख जा चुकी थी। बीच बीच में दो तीन बार और शोर उठा और चुप में खो गया।

झरना अपनी चाल से गिरे जा रहा था। उसे शेष दुनिया से कोई मतलब नहीं था। और ना ही शेष दुनिया को उससे कोई मतलब था। पक्षी लगातार मंडरा रहे थे। कौन जाने उन्हें क्या महसूस हो रहा होगा। उनकी चहचहाट और मण्डराने मे मैं कुछ परिवर्तन ढूंढने की कोशीश कर रहा था।

अन्ततः प्रकृति ने हमारी लाज रखली। भूरे बादलों के बीच में एक गहरी काली डिस्क सहसा अवतरित हो गई। एक पूरी गोल काली तश्तरी बदलियों के बीच दिखने लगी। उस डिस्क की किनारी पर चाँदी का जरी-गोटा लगा हुआ था। बांदलों की झांई फिर भी थी। शायद मथुरा के बाँके बिहारी मंदिर मे होता है कि बड़ी देर से टकटकी लगाए भक्तों के समूह के लिए पुजारी द्वारा पर्दा कुछ पलों के लिए हटाया जाता और तुरंत बंद कर दिया जाता है। दर्शन पा कर लोग निहाल हो जाते हैं। हम सब भी ऐसे ही कुछ निहाल हुए और खूब हुए।

पूर्णत्व के समय बादल छँट सकते है ऐसा बताया जाता है। वातावरण में ठंडक आ  जाती है। वायुमंडल की परतों के बीच तापमान में अंतरों के कारण हवा बहने लगती है, बादलों को हिलाती है.

कोरोना के बारे में बहुत पढ़ा था, फोटो और वीडियो देखे थे। वह सब प्रत्यक्ष में नहीं मिला। कोरोना क्या है? लेटिन में अर्थ है Crown या मुकुट। सफेद चमकीली परिधि जिसकी किनारी पर मोटे पतले ब्रुश चलाये गये हों। लाखों डिग्री सेल्सियस का तापमान वाले आयनों के कणों का पुंज । साधारण दिवसों पर अदृश्य क्योंकि सूर्य की खुद की दमक कई गुना ज्यादा होती है। बीच बीच में गरम प्लाज्मा की लाल लपलपाटी हुई जीभें डोलती हैं।

सूरज तेज गति से दौड़ रहा था। नहीं, बादल सरक रख रहे थे इसलिये सूरज के चलने का मिथ्या आभास हो रहा था।  आंख मिचौली हो रही थी। लाखों कंठों से आल्हाद का चीत्कार था।

          आकाश में घुप्प अंधेरा था। ऐसे में तारों का टिमटिमाना दिखने की बात होती है लेकिन बादलों के रहते सम्भव न था, हालांकि झाड़ियों में जुगनुओं के टिमटिमाने ने उसकी कुछ भरपाई कर दी। इमारते जगमगा रही थे। हाथों में मोबाइल चमक रहे थे। क्षितिज की चारों दिशाओं में लालिमा थी.

ऐसा लग रहा था कि सूरज हमें पीछे छोड़ कर कही चला गया। डर लगता है। हमारी काया और हमारे होने की छुद्रता का अहसास होता है। ना जाने क्यों ऐसा लगता है की हम निस्सीम ब्रहमाण्ड से जुड़ गये हैं, उसका अन्तरंग अंश बन गये हैं। जो कि हम हमेशा होते है लेकिन भूले रहते हैं। आध्यात्मिक अनुभूतियां होती है। मानस के भीतर गहराई तक कुछ कुछ होने लगता है।

          एक तरफ ग्रहण का अनुभव नितान्त स्थानीय है। इतने बड़े भूगोल में से इतना सा हिस्सा, इतनी सी देर के लिये, इतने से लोगों द्वारा अनुभूत किया गया। दूसरी तरफ इस अनुभव को Transcendental [अनुभवातीत] अतीन्द्रिय रूप से महसूस करने वालों के लिये ये सब नितान्त Non-local है, पूरा Global है, ब्रहमाण्डीय है।

          एक और संभावित अवलोकन जिसकी चर्चा मेरे अलावा किसी अन्य रिपोर्ट में नहीं मिलेंगी। हालांकि इसकी पुष्टि होना बाकी है। “Light Bands” “प्रकाश पट्टियां”। इस प्रसंग की तैयारी में खूब पढ़ा, वरना मैं इन्हें चूक जाता।

          आकाश में, बादलों में रोशनियों की लपझप होने लगी। लगातार, क्षणिक रुक रुक कर प्रकाश की एक पट्टी कौंधती, छिपती, दुसरी झपकती, तीसरी चमकती अलग अलग दिशाओं से, कभी ऊपर से, नीचे से, कभी दायें से बायें से, बारिश के दिनों में बिजली तड़कने के समान, लेकिन वैसा नहीं थी। दामिनी इतनी ज्यादा दिशाओं से नही आती, ज्यादा प्रकाशित होती हैं, साथ में गर्जन भी लाती हैं, जो नहीं था।

          सर्कस के तम्बू से या किसी इमारत से फ्लेश लाइट्स भी कुछ ऐसी दिख सकती है. क्या ये Light Bands स्थानीय नगरपालिका द्वारा आयोजित म्यूजिक कॉन्सर्ट की स्टेज से या रहे थे? मैं नहीं जनता। पुष्टि करने की कोशिश कर रहा हूँ.

          क्या ये “प्रकाश पट्टियां” वही थी जिनके बारे में मैंने प्रत्यक्षदर्शियों के वर्णनों में पढ़ा था। हालांकि बहुत कम बार इसका उल्लेख हुआ है। इसी दुर्लभ दृश्य को मेरे यूट्‌यूब चैनल (न्यूरोज्ञान) की रिपार्ट में जरूर देखिये। पढ़ा था कि ये Light Bands जमीन पर झिलमिलाते हैं, विशेषकर जब कि वहां की सतह साफ और सफेद हो । एक लेखक ने इतनी तुलना स्वीमिंग पुल की पेंदी में सूरज की रोशनी की हिलती डुलती परछाइ‌यों से करी थी। सूर्य किरणें जब पानी में गुजर कर पूल की पैदी तक पहुंचती हैं तो फिजिक्स के Optics वाले अध्याय में वर्णित Refraction नामक क्रिया के चलते उनकी दिशाएं वक्र हो जाती है। तरण ताल के पानी की छोटी छोटी लहरों की गतियों के कारण ये बिम्ब भी अठखेलियों करते हैं।

          सच कहूं तो मैं भूल गया था कि मुझे जमीन की तरफ देखना है। मेरे चारों ओर गहरे हरे रंग की घास थी। सफेद सतहें नहीं थी। लेकिन एक White Surface थी। जमीन पर नही। ऊपर बादलों की। मैं नहीं जनता कि मेरे पहले किसी ने इन्हें बादलो में देखा और वर्णन किया हो। मैं ढूंढूगा और सम्बद्ध वैज्ञानिकों  से पूछूँगा । मेरे पाठक, दर्शक मेरी मदद करें। हो सकता है कि मैं गलत होऊ।

 मैंने पढ़ा कि ये प्रकाश पट्टियां पूर्ण सूर्य ग्रहण के समय वायुमण्डल की विभिन्न परतों के मध्य तापमान के यकायक कम हो जाने के कारण बनती है। अलग अलग तापमान की वायु परतों के बीच से गुजरते समय प्रकाश किरणों का वैसा ही Refraction [अपवर्तन ] होता है जैसा कि हवा से पानी में घुसते समय और बाहर निकलते समय होता है। चूंकि हवा और बादल लगातार बहते रहते होते है इसलिये ये Light Bands भी अलग अलग कोणों से दमक रहे है।

          अंधेरा यूं छूंटता गया कि मानों किसी ने प्रकाश की तीव्रता का Regulatory Dial घुमाना शुरू कर दिया था। प्रकृति फिर खिल उठी थी और लोगों के चेहरे भी।

हालांकि मन अभी नहीं भरा था, काश ये पल कुछ देर और बने रहते।

          सूरज के चेहरे पर चांदी का पोंछा लगता जा रहा था। कालिख का इलाका मिटता जा रहा था। ऐसा लग रहा कि सूरज नहा कर अधिक साफ होकर निखर रहा है।

कहावत है “चार दिन की चांदनी, फिर वही अंधेरी रात।“

          आज का अनुभव था-

          “चार मिनिट का अंधेरा, फिर वहीं सतत उजास।“

कुछ ही देर में सब कुछ पहले जैसा हो जाता है। वही देदीप्यमान सूरज। वही धूप। वही प्रकाश। छोटे से डायवर्शन के बाद फिर वही हाई-वे। ऐसे होना जरूरी है। ये पल बहुत कुछ सिखाते हैं। सब लोग अपनी अपनी निजी जिन्दगीयों में लौट आते हैं। क्या बिल्कुल पहले जैसे। नहीं, कुछ तो बदल जाता है। पता नहीं क्या? लेकिन निश्चय ही भले के लिये।

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