कहने को तो “चमड़ी” महज “एक सतही चीज” है, लेकिन है गहन गम्भीर। उसका महत्व केवल Skin Deep नहीं है। किसी को देखते समय हमारी पहली नजर पर त्वचा पर पड़ती है। कहते हैं न “First impression – last impression. मेडिकल कालेज के प्रथम वर्ष में एनाटॉमी डिसेक्शन हाल में डेड-बाडीज का प्रथम दर्शन होते समय एक धक्का सा लगता है – विकर्षण होता है। एक बार अन्दर खोदना शुरू कर दो, चमड़ी हट जावे तो मन के निषेध कम हो जाते है। बिना चमड़ी के लाश में मनुष्यपन नहीं रह जाता। त्वचा हमें ढंकती है, परिभाषित करती है, परिमार्जित करती है, हमारी ढाल बनती है, तापमान नियंत्रण करती है, भावनाओं की अभिव्यक्ति का अंग है।
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त्वचा की रचना
बाहय परत एपिडर्मिस में अनेक उपपरते होती है। सबसे आधार में Basal layer होती है, जहां पर Keratinocyte कोशिकांए विभाजित होकर बाहरी की दिशा में जुड़ती जाती है। उनके नाभिक मिटते जाते है। आकार चपटा होता जाता है। ये एपिडर्मिस का सबसे बाहरी आवरण या कवच बनाती है। प्रतिरक्षा की प्रथम पंक्ति। अल्ट्रावायलेट किरणों को सोखती है। नाभिक है नहीं, अत: DNA की टूटफुट का प्रश्न नहीं उठता।
आधारीय परत (Basal layer) में मिलेनोसाइट भी रहते हैं जो Tyrosine नामक अमीनो एसिड को एक एन्जाइम या उत्प्रेरक Tyrosinase की मदद से मिलेनिन में परिवर्तित करते है। यह काला पदार्थ कोशिका के द्रव्य या Cytoplasm में घुला मिला नहीं रहता वरन लघु गोल गोल गुब्बारों में भरा रहता है [Melanosomes] त्वचा को रंग प्रदान करने के लिये जरूरी है कि मिलनोसोम की खेपें Keratonicyles की तमाम परतों तक पहुंचती रहें। Melanocytes के पास एक साधन है – Pseudopodia. यह शब्द बायोलाजी क्लास में अमीबा की रचना के सन्दर्भ में हम पहली बार सुनते थे। मिलेनोसाइट के स्यूडोपोडिया का यह तन्तुजाल एपिडर्मिस की बाह्य परतों में फैला रहता है। इन्हीं के माध्यम से काले पिगमेन्ट से भरे हुए मिलेनोसोम अपना ब्रश फेरते हैं। किरेटिनोसाइट में प्रवेश करने के बाद Melanosome उक्त कोशिका के नाभिक को ऊपर से ढंककर एक रक्षात्मक टोपी बनाते है ताकि UV Rays उसे क्षति न पहुंचा पायें।
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चमड़ी के रंग को Objective [वस्तुपरक] ढंग से मापने वाला यंत्र Reflectometer होता है। इसके द्वारा अलग अलग लम्बाई की प्रकाश तरंगे चमड़ी पर चमकाते है तथा पलट कर (परावर्तित होकर) आने वाली किरणों को मापते है।
तालिका 1: त्वचा रंग के छ: प्रकार
टाइप + नाम | समस्याएं | आंख की iris का रंग | बाल का रंग | MC1R जीन की सक्रियता |
टाइप 1 बहुत गोरी चमड़ी | लालपन, फ्रेकिंग सन बर्न+++ टेनिंग x | नीला, भूरा, हरा | सुनहरा लाल | निष्क्रिय |
टाइप 2 गोरी चमड़ी | ++ सन बर्न टेनिंग + | नीला, भूरा, हरा | भूरे सुनहरे | सक्रिय |
टाइप 3 मध्यम हल्का बीज रंग Light Biege | सन बर्न + टेनिंग ++ | भूरी Hazle | गहरे सुनहरे,+ काली | सक्रिय |
टाइप 4 जैतूनी, हल्का सांवला, गेहुंआ | सन बर्न + ? टेनिंग +++ हायपर पिगमेंटेशन (अति रंजकता) + | गहरा भूरा, कचई | गहरा भूरा, काला | सक्रिय |
टाइप 5 ब्राउन स्किन गहरा सांवला | सन बर्न (-) ? टेनिंग +++ अति रंजकता++ | गहरा भूरा कत्थई काला | गहरा भूरा काला | सक्रिय |
टाइप 6 अश्वेत त्वचा | सन बर्न x टेनिंग (-) अति रंजकता ++ | कत्थई काला | काला | सक्रिय |
गोरे लोगों की त्वचा में मिलेनिन की अनुपस्थिति में रंग के स्त्रोत होते है
(i) चमड़ी की अन्दरूनी परत Dermis का नीला-सफ़ेद Connective tissue जो मिलेनिन विहीन बाहरी पारदर्शी परत Epidermis में से अपनी झांई देता रहता है
(ii) डर्मिस परत की महीन Capillaries में प्रवाहमान रक्त में मौजूद हीमोग्लोबिन की गुलाबी आभा भी मिलेनिन विहीन पारदर्शी एपिडर्मिस में से अपनी झलक दिखाती रहती है।
प्यार में सुर्ख होने वाले गाल या गुस्से में तमतमाने वाला ललाट कुछ क्षणों के लियें रंगत दिखा पाते हैं क्योंकि उस अवधि में चेहरे की तुलनात्मक रूप से पतली चमड़ी में से रक्त प्रवाह में होने वाले ये क्षणिक परिवर्तन आसानी से दिख जाते हैं।
मनुष्य की चमड़ी के रंग पर असर डालने वाले कारक है
(A) जिनेटिक्स—माता-पिता से प्राप्त होने वाली कुछ ज़ीन्स या उनमें होने वाले म्युटेशन्स।
ऐसा घर घर में देखा जाता है कि माता पिता के रंग सभी बच्चों को एक समान नहीं मिलते। इसकी वजह है चमड़ी का रंग किसी एक या दो जीन द्वारा निर्धारित नहीं होता जो या तो इस पार उतार दे या उस पार। लगभग 100 जीन्स का खेला है। कुछ प्लेयर्स धाकड़ है, कुछ कच्चे। कभी कभी चिल्लर मिलकर नोट से बड़ी हो सकती है। इसलिये सारी जनसंख्या को महज दो रंगों में बांटना सम्भव नहीं। बीच में ढेर सरे शेड्स रहते है।
मजेदार बात है कि ध्रुवीय प्रदेशों में बसने वाली एस्कियो प्रजातियों में काली चमड़ी मिलती है क्योंकि उनके भोजन में विटामिन D प्रचुर मात्रा में रहता है।
तालिका 2: त्वचा के रंग में जीन्स की भूमिका
(YA अर्थात् इतने इतने YEARS AGO)
(A) | MC1R जीन 200000 YA जो Eu-Melanin बनवाती है, अफ्रीका में दस लाख वर्षों से बिना परिवर्तन हुए सक्रिय है। जब मानव कबीले अफ्रीका से निकलकर ऐसे भूखण्डों में बसे तो जीनोम में अनेक परिवर्तन हुए। |
(B) | KILT 70,000 YA (K+) उत्तरी टोली यह म्यूटेशन अफ्रीका के अन्दर नहीं पाया जाता। केवल अफ्रीका के बाहर मिलता है। Eu-Melanin के निर्माण को बढ़ावा देता है। |
(C) | (K–) 70,000 YA, दक्षिणी टोली – इराक-इरान, भारत होते हुए आस्ट्रेलिया तक। |
(D) | SLC24A5 SLC45A2 (40,000-15,000 YA) यूरोप और स्कैण्डेनानिया कम मिलेनिन उत्पादन। |
(E) | MFSD12 (40,000 YA) साइबेरिया, अलास्का, कनाडा, अमेरिका, चीन, जापान। ये जीन एक दुसरे प्रकार का मिलेनिन PHEO-MELANIN बनवाती है जो पीला और गुलाबी होता है। इसीलिये चीनी व मंगोल लोग पीले दिखते है। अमेरिका के मूल निवासी ‘रेड इन्डियन’ कहलाए। |
(B) वातावरण—आप धरती के किस भाग में अधिक समय तक रहते रहे और धूप में प्रतिदिन औसत रूप से कितने घण्टे गुजारते हो।
जो समूह भूमध्य रेखा के आस पास गरम प्रदेशों में बसते है [Tropics] उन्हें धूप अधिक मिलती है। उस धूप में पराबैंगनी (Ultraviolet) किरणें अधिक मिलती हैं। उन जातियों की चमड़ी में मिलेनोसाइट कोशिकाओं, द्वारा मिलेनिन पिगमेंट अधिक बनाया जाता है। भूमध्य रेखा से दूर तथा ध्रुवीय प्रदेशों के समीप ठण्डे भूभागों की धूप कम तीखी और कम Ultraviolet विकिरण वाली होती है। वहां के बाशिन्दे साफ रंग वाले होते हैं। यह परिवर्तन पीढ़ी दर पीढ़ी आनुवंशिक रूप से फैलता है।
Tanning: एक ही जीवन काल में, लघु अवधि की धूप सेवन से भी त्वचा का रंग थोड़ा गाढ़ा हो जाता है जिसे Tanning करते है। यह परिवर्तन अगली पीढ़ी की संतानों तो में नहीं उतरता। धूप से दूर रहो तो रंग फिर हल्का हो जाता है। टेंनिग शब्द की व्युत्पत्ति जर्मन भाषा के Tan नामक रंग से हुई। उन्नीसवीं शताब्दी तक यूरोप के अभिजात्य वर्ग में गहरा रंग हेय दृष्टि से देखा जाता था। मजदूर श्रेणी के लोग ऐसे रंग वाले होते थे। धूप में काम करते थे। अमीर महिलाओं के फैशन में लम्बे गाउन, पूरी बांह की पोशाक और बड़े हेट (टोप) का चलन था। बीसवीं सदी के मध्य तक फैशन बदल गया। गोरे-गट के स्थान पर थोड़ा सा सांवलापन (विशेषकर महिलाओं के लिये) सौन्दर्य का प्रतीक माना जाने लगा।
समुद्र किनारे Sun-Bathing में लोग इसीलिये घण्टों पड़े रहते हैं। कृत्रिम Tanning कक्ष उपलब्ध है जहां अल्ट्रावायोलेट लैम्प लगे रहते है। 1987 में मेरी अमेरिका की प्रथम यात्रा में वहां की युवतियां कहती थी “काश हमारा रंग तुम्हारे जैसा होता।” मैं फैंटसी में गुनगुनाने लगता था “मोरा गोरा रंग लई ले”
(C) उम्र, लिंग और कुछ रोग अवस्थाएं
लिंग का रंग पर असर
अश्वेत लोगों में स्त्रियों का रंग, पुरुषों की तुलना में थोड़ा सा गोरा होता हैं। शायद Evolution की दृष्टि से। चूँकि स्त्रियों को गर्भावस्था तथा स्तनपान के चलते विटामिन ‘डी’ की अधिक आवश्यकता पड़ती है। इसके विपरीत यूरोपियन गोरी महिलाएं अपने पुरुष साथियों की तुलना में कुछ गाढ़ें रंग की होती है। स्त्रियों में इस्ट्रोजन हार्मोन, त्वचा के रंग को गहरा बनाता है।
इसका असर स्तन के अग्रभाग (Areola और Nipple) पर अधिक देखा जाता है। गर्भवती महिलाओं के चेहरे पर काली झांई (Chloasma) इसी वजह से आती है। स्त्रियों की योनि और पुरुषों के अंडकोष (Scrotum) का रंग भी हार्मोन्स के कारण गहरा होता है।
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उम्र का रंग पर असर
नवजात शिशु प्रायः गोरे दिखते हैं। धीरे धीरे रंग गाढ़ा होता है। मिलेनिन का उत्पादन Puberty (तरुणाई) के आसपास अधिकतम होता है। टीन-एज आते आते किशोर-किशोरियां थोड़े सांवले लगने लगते हैं। वृद्धावस्था आते आते चमड़ी का रंग पुनः फीका पड़ते लगता है। मिलेनोसाइट कोशिकाओं की संख्या लगभग 20% कम हो जाती है। चेहरे और हाथों पर थोड़ा सा चितकबरापन आने लगता है क्योंकि जगह जगह मिलेनिन का मात्रा, एक जैसी नहीं रह जाती। कहीं कम, कहीं ज्यादा। बालों का कालापन भी मिलेनिन के कारण होता है। उम्र के साथ बालों में मिलेनिन की कमी मुख्यतः जिनेटिक कारकों द्वारा निर्धारित होती है। हालांकि कुछ भूमिका सूर्य प्रकाश की अल्ट्रावायोलेट किरणों की भी होती है। इसीलिये लोग कहते है “हमने बाल, धूप में सफेद थोड़े ही किये हैं”।
खान पान का रंग पर असर
बच्चों को कहा जाता है “चाय मत पियो, काले हो जाओगे”। ऐसा कुछ भी नहीं है। अनेक भोज्य और पेय पदार्थो के बारे में दावा किया जाता है कि उनमें मोजूद एन्टी-आक्सीडेंट, एन्टी-एजिंग अवयवों द्वारा त्वचा को युवा, स्वस्थ तथा साफ़ रंग का रखा जा सकता है, वैज्ञानिक अध्ययनों में पर्याप्त पुख्ता प्रमाण नहीं मिले है। इन तथाकथित हेल्थी-फ़ूड तथा Nutraceuticals का मार्केट बहुत लुभावना है लेकिन दम नहीं है।
Albinism एलबीनिज्म (सूरजमुखी) [रंगहीनता /घवलता]
यह एक जिनेटिक अवस्था हैं, लेकिन शिशु के माता पिता में नहीं दिखती। यदि मां और पिता दोनों उक्त Recessive gene (अल्पप्रभावी) धारण करते हों तो उनके योग से 25% संतानों में उक्त अवस्था पैदा हो जाती है। कुछ जीन हैं। OCA1A, OCA2, OCA3, OCA4 आदि। Oculo-Cutaneus Albinism । इनमें म्यूटेशन होने से एक एन्जाइम की कमी हो जाती है: Tyrosinase, जो मिलेनिन के उत्पादन में जरूरी है। लेटिन भाषा में Albus शब्द का अर्थ “सफेद” होता है।
एल्बिनो लोगों में चमड़ी के कैंसर का खतरा अधिक होता है। आंख में Iris और Retina में Pigment की कमी से दृष्टिदोष होते हैं। तेज प्रकाश सहन नहीं होता। आंखे हिलती रहती है। (Nystagmus)।
ऐसे लोगों को हमारे यहां ‘सूरजमुखी’ या ‘भूरिया’ कहते है। अनेक सभ्यताओं-संस्कृतियों-समाजों में इनके साथ अलग अलग व्यवहार होता है। अमेरिकी मूल निवासी (Red-Indians) में एल्बिनो को “दैवीय” सम्मान मिलता है। अनेक अफ्रीकन कबीलों में Albino के साथ भेदभाव और बुरा व्यवहार होता है, झाड़ फूंक करते है। समय के साथ समझ बढ़ी है। देखभाल बेहतर हुई है। कुछ Albino Celebrities के कारण स्वीकार्यता बेहतर हुई है।
मेरे एक मित्र के नवजात Albino शिशु के नामकरण हेतु सुझाव मांगे गये तो मेरी माँ द्वारा प्रद्दत “दीपित” रखा गया था।
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Vitiligo विटिलिगो /सफेद दाग /Leukoderma
इस रोग में सफेद सफेद चकत्ते बनते जाते हैं, बढ़ते जाते हैं। चमड़ी के इतने इतने इलाकों में मिलेनिन बनाने वाली कोशिकाएं (Melanocytes) या तो मरती हैं या क्षतिग्रस्त होती हैं। यह आटो-इम्यूनिटी के कारण होता है। स्व-प्रतिरोध। विभिन्न बेक्टीरिया-वायरस-बाह्य पदार्थों से शरीर की रक्षा करने वाली Anti-body (प्रति पदार्थ) गलती से शरीर की सामान्य स्वस्थ कोशिकाओं और ऊतको को foreigner समझ कर उन्हें नष्ट करने लग जाती है। ऐसा क्यों होता है? किसी किसी में ही क्यों होता है? किस किस उम्र में ही क्यों होता है? शरीर के किसी किसी खास अंग में ही क्यों होता है? इन प्रश्नों का उत्तर ज्ञात नही है।
ल्यूकोडर्मा के लक्षण विटिलिगो से मिलते है लेकिन यह Auto immunity के कारण नहीं बल्कि बाह्य कारणों से होता है — जैसे कि दबाव, सतत सम्पर्क, चोट आदि। दोनों अवस्थाओं में शेष स्वास्थ अच्छा होता है। अनेक लोग इसे Leprosy (कुष्ठ रोग) जैसा मानकर छुआछूत और भेदभाव करते हैं जो बिलकुल गलत है। व्यक्ति का आत्मसम्मान बने रहना चाहिये। विटिलिगो आनुवंशिक रोग नहीं है। जिनिटिक्स की भूमिका गौण है। ऐसे परिवारों में विवाह सम्बन्ध से कतराना नहीं चाहिये।
शाक, भय या सदमा, गहरी चोट, एनीमिया, खून बह जाना, ब्लडप्रेशर का सामान्य से कम जाना, जैसी परिस्तिथियों में हम देखते है कि “चेहरे की रंगत फ़ीकी पड़ गई” “हाथ पांव सफ़ेद हो गये”। ह्रदय व फेफड़ो के कुछ रोंगों में रक्त में कार्बन डायऑक्साइड और आक्सीजन विहीन हीमोग्लोबिन [De-Oxy-hemoglobin] की मात्रा बढ़ने से Cyanosis (सायनोसिस) अवस्था पैदा होती है। उस व्यक्ति का रंग “स्याह” (गहरा नीला) पड़ जाता है।
लिवर की बिमारियों में रक्त में बिलिरुबीन की मात्रा बढ़ने से Jaundice (पीलिया) होता है। त्वचा तथा शारीरिक चमड़ी में होने वाले रंग परिवर्तनों के विस्तार में यहां जाना सम्भव नहीं है। एक उदाहरण है फंगस या फंफूद का इन्फेक्शन Tinea Versicolor जिसका उपचार सम्भव है।
कृपया निम्न सन्दर्भ देखें:
मिदानी एल, रिजवे जी, फिलिप्स सी.एम., स्मिड्ट ए.सी. समावेशी त्वचाविज्ञान – त्वचा की स्थितियों का एक विविध दृश्य एटलस बनाना। न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन। 2024 Jun 8
अश्वेत लोगों में हथेली और पगथली का रंग कम गहरा होता है।
सन-स्क्रीन (Sun Screens)
धूप से चमड़ी के बचाव के लिये अनेक उत्पाद क्रीम, लोशन, जेल, स्प्रे, फोम (झाग), स्टिक, पाउडर आदि स्वरूपों में मिलते हैं। इनके तीन प्रकार होते हैं-
1. अकार्बनिक (Inorganic) धातुओं पर आधारित यौगिक: जैसे कि जिंक आक्साइड, टाइटेनियम डायआक्साइड जो UV Rays को सोखते हैं। और परावर्तित करते है। ये तुलनात्मक रूप से अधिक सुरक्षित माने जाते हैं।
2. कार्बनिक (Organic) यौगिक। प्रमुख स्रोत: पेट्रोकेमिकल्स, प्राणियों और वातावरण पर इनका बुरा प्रभाव पड़ता है।
3. मिश्रित (अकार्बनिक + कार्बनिक)
अनेक राष्ट्रीय केन्सर संगठनों द्वारा सनस्क्रीन की अनुशंसा करी जाती हैं क्योंकि ये सन बर्न, स्क्वेमस सेल कार्सिनोमा और मिलेनोमा (घातक प्रकार के केन्सर) को रोकते हैं। टाइप 1 से 4 तक की त्वचा वाले लोगों को इनका उपयोग करना चाहिये। इस बात के पर्याप्त सबूत नहीं है कि सनस्क्रीन द्वारा झुर्रिया तथा चमड़ी के बुढ़ापे को टाला जा सकता है।
सनस्क्रीन की प्रभावशीलता को नापने का पैमाना SPF कहलाता है Sun Protection factor. । वालंटियर्स के चेहरे पर क्रीम लगा कर उन्हें क्रत्रिम UV प्रकाश में बैठाते है और Spectrophotometer द्वारा त्वचा पर होने वाली प्रतिक्रिया को नापते है।
फेयर एण्ड लवली का अनफेयर बिजनेस
दुःख और शर्म की बात है कि वैवाहिक विज्ञापनों में हमेशा गौर वर्ण युवती की मांग रहती है। गोरा रंग Aspirational माना जाता है, सफलता की संभावना बढ़ाता है। त्वचा को साफ रंग का बनाने वाले कास्मेटिक उत्पाद दुनिया भर में अरबों डॉलर का धन्धा करते है। अफ्रीका, भारत तथा पूर्वी एशिया में अधिक। प्रगतिशील सामाजिक सोच, जो आदर्श रूप से Color Blind होनी चाहिये, के दबाब के चलते कम्पनी ने अपने उत्पाद का नाम Glow and Lovely करा है।
‘ग्लो एण्ड लवली’ के रासायनिक अवयव (तालिका 3)
पानी | पाइरिडॉक्सिन एचसीएल |
स्टीयरिक एसिड | टोकोफेरिल एसीटेट |
नियासिनामाइड | ग्लूटामिक एसिड |
आइसोप्रोपाइल मिरिस्टेट | ब्यूटिल मेथॉक्सीडिबेंजोइलमेथेन |
ग्लिसेरिल स्टीयरेट | टाइटेनियम डाइऑक्साइड |
खनिज तेल | सोडियम पीसीए |
एथिल हेक्सिल मेथॉक्सिसिनामेट | डाइमिथिकोन |
ग्लिसरीन | एलांटोइन |
ट्राइएथेनोलमाइन | कार्बोमर |
सोडियम एस्कॉर्बिल फॉस्फेट |
इस तरह के पदार्थो का उपयोग अनेक अवसरों पर नुकसान पंहुचा सकता है। पक्के रंग से जुड़ी हीन भावना से उबरकर Lovely बना जा सकता है।
पराबैगनी (Ultra-violet Rays) किरणें
प्रकाश की भौतिकी के विस्तार में हम यहां नहीं जायेगे। सिर्फ इतना बतायेंगे कि प्रकाश तरंगों के रूप में रहता है। तरंग या Wave के दो मानक होते है —
तरंग लम्बाई (Wave length) और तरंग-आवृति (Wave Frequency)
तरंग (A) की Wavelength अधिक है और प्रति सेकण्ड आवृत्ति कम है।
Wave (B) की तरंग लम्बाई कम है और प्रति सेकण्ड Frequency ज्यादा है।
हमारी आँखो द्वारा देखा जा सकने वाला प्रकाश Electromagnetic Radiation (विद्युतचुम्बकीय विकिरण) के स्पैक्ट्रम का एक छोटा सा हिस्सा है। इन्द्रधनुष के सभी रंगों की Wavelength और Frequency एक पैमाने पर जमी रहती है। लाल रंग से कम आवृत्ति वाली प्रकाश तरंगे (Infra-Red) और बैगनी से अधिक आवृति वाली Ultra-Violet Rays हमें दिखती नहीं लेकिन होती जरुर है।
विश्व के दो नक्शों के सन्दर्भ में गौर करने की बात है कि अक्षांश (Altitude) के अतिरिक्त कुछ अन्य कारक है जो UV Rays की मात्रा पर प्रभाव डालते है —
(i) समुद्र सतह से ऊंचाई — ध्यान दीजिये तिब्बत पठार (UVR बढ़ती है)
(ii) साल भर बादलों को छाया —अफ्रीका में कांगो बेसिन [UVR घटती है]
पहला नक्शा NASA से प्राप्त डाटा पर आधारित है जो 1970-80 के दशक में वायुमंडल की ओजोन परत के ह्रास के कारण धरती के विभिन्न भागों में UV किरणों की मात्रा नापने के लिये प्राप्त किये गये थे। दूसरा नक्शा रिफ्लेक्टोमीटर यंत्र द्वारा धरती के चप्पे पर रहने वाली बाशिन्दों की चमड़ी के रंग को मापकर प्राप्त किया गया। दोनों का साम्य अत्यन्त स्पष्ट है।
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मनुष्यों में गोरे से काले और काले से गोरे रंग परिवर्तन की कहानी आज से 10 लाख वर्ष पूर्व शुरु होती है। तब हम (Homo Sapiens) नहीं बने थे लेकिन अन्य होमो स्पीशीज का आविर्भाव हो चुका था। कुछ म्यूटेशंन संयोग वश ऐसे हुए कि हमारे पूर्वज, शरीर के घने बाल खोने लगे। नीचे की चमड़ी गोरी होती थी। जैसा कि आज भी चिम्पांजी और गोरिल्ला में देखा जा सकता है। बाल विहीन नंगी त्वचा का बड़ा फायदा हुआ — अधिक पसीना बहा पाना और शरीर को ठण्डा रख पाना। अन्य पशुओं के शिकार में, ‘होमो’ प्रजातियों में [Endurance /Stamina /दमखम] बढ़ता गया। वे खुद नहीं थकते लेकिन दूसरे जानवरों को थका डालते।
एक मुश्किल आ खड़ी हुई। चमड़ी पर से बालों का आवरण हट जाने से सूरज की धूप में मौजूद अल्ट्रावायोलेट किरणें नुकसान पहुंचाने लगी। इन Ultraviolet Rays [UVR] में तीखी ऊर्जा रहती है, जो चमड़ी की कोशिकाओं को बेधकर उनके नाभिक में मौजूद DNA में तोड़ फोड़ करती है। धूप में जलना (Sun Burn) इसी कारण होता है। स्किन कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।
प्रकृति में इसका तोड़ निकला, (किसी ने निकाला नहीं) कि चमड़ी की उपरी परत में मौजूद मेलेनासाइट कोशिकाओं की संख्या और उनके द्वारा मिलेनिन पदार्थ के उत्पादन को बढ़ाया जाने लगा। ऐसा निर्णय लेने वाला कोई कर्ता नहीं होता। यह सब धीरे धीरे अपने आप, सैकड़ो पीढ़ियों में, हजारों वर्षों में सम्पन्न होता है।
प्राणियों के समूह में सब के सब एक जैसे नहीं होते। व्युत्क्रम हर पीढ़ी में होते रहते हैं। अधिकांश Mutations तटस्थ व निष्क्रिय होते हैं। कुछ के चलते कोई कोई गुण इस या उस दिशा में बदल जाते हैं। बिना बाल वाले वे Homo जिनकी चमड़ी में किसी Mutations की वजह से, By Chance मिलेनिन की मात्रा अधिक थी उनके जिन्दा रहने और अपने जैसी संताने पैदा करने की क्षमता बढ़ती गई। इसी को कहते हैं Natural Variation & Survival of fittest. यह सारा खेल अफ्रीका में भूमध्य रेखीय ट्रोपिकल (उष्ण कटिबन्ध) भू भागों मैं खेला जा रहा था। देखते ही देखते अफ्रीका में बसने वाले बाल विहीन ‘होमो’ लोगों की गोरी चमड़ी गहरी काली हो गई। आज से दो लाख वर्ष पूर्व जब हम होमो-सेपिन्यस [आदम और हव्वा (Adam & Eve) या मनु, श्रध्दा और इड़ा] ने जन्म लिया होगा वे श्यामवर्ण रहे होगें।
आज से 70-80 हजार वर्ष पहले कुछ टुकड़ियों ने अरब भूमि से गुजरकर उत्तर में मध्य एशिया, यूरोप और साइबेरिया की दिशा में बढ़ना शुरू किया। एक अन्य कबीला इराक-ईरान-अफगानिस्तान-सिंध होता हुआ भारत के समुद्र तट के किनारे किनारे चल कर दक्षिण पूर्व–एशिया होता हुआ आस्ट्रेलिया तक पंहुचा। इस समूह का रंग काला रहा। पहले वाला दल (यूरोप की दिशा में) धीरे धीरे गोरा होता गया। महाकाल की घड़ी से नापें तो कुछ ही पलों ऐसा हुआ— महज 100 पीढियां, सिर्फ 2500 वर्ष।
अफ्रीका के गरम भूखण्डों में Naked Ape (नग्न कपि) की काली चमड़ी में मौजूद मिलेनिन ने केन्सर से सुरक्षा जरूर प्रदान करी लेकिन होमो जाति की प्रजजन सफलता में बचाव का योगदान गौण था। क्योंकि ये केन्सर (Melanoma, Basal cell carcinoma आदि) प्रायः प्रौढ़ उम्र के बाद होते हैं जब तक कि संताने जन्म ले चुकी होती है। अधिक महत्वपूर्ण रहा मिलेनिन कवच के चलते, सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों द्वारा चमड़ी की Capillaries में बहने वाले रक्त में मौजूद फोलिक एसिड नामक विटामिन को टूटने से बचाना। हरी सब्जियों, खट्टे फलों और पूर्ण-साबुत अन्नकणों से प्राप्त होने वाला फोलिक एसिड नयी कोशिकाओं में निर्माण में लगने वाले DNA के लिये जरूरी होता है।
रंगभेद और नस्लभेद Colorism & Racism
यह एक ऐतिहासिक विडम्बना रही कि चमड़ी के रंग और नस्ल /Race के आधार पर घनघोर भेदभाव हुए, अत्याचार हुए, लांछन लगे, नीची नजर से देखा गया। यहां तक कि अनेकों महान विचारक और नेता (उदाहरणार्थ — दर्शन शास्त्री एमान्यूल कांट, राष्ट्रपति थामस जेफरसन) अपने जमाने में मानते थे कि अश्वेत लोग जन्मजात निम्न कोटि के होते हैं। और गोरे लोग श्रेष्ठ प्रजाति के।
गोरे लोगों में काले रंग या किसी भी अन्य रंग के प्रति वितृष्णा खूब रही है। अपार्थीड (रंग भेद) वाले साउथ अफ्रीका में गोरों के अलावा शेष सभी को Colored कहा जाता था। पश्चिम को न जाने क्यों रंग से डर लगता है। यहां तक कि उनके वस्त्रों, परिधानों, आन्तरिक सज्जा आदि सभी में सफेद या मिलते जुलते हल्के रंगों [Cream, Pastel] का बाहुल्य रहता है। वहां के टूरिस्ट भारत आकर कहते है — आपका देश कितना Colorful है। पता नहीं इसमें तारीफ का भाव अधिक रहता है या आलोचना का।
एक पुराना चुटकुला था। एक गोरे अंग्रेज साहब ने, ब्रिटिश राज के दिनों में एक काले हिन्दुस्तानी को चिढ़ाते हुए कहा कि ‘देखो हम सब कितने सुन्दर, एक जैसे रंग हैं और तुम लोग अलग अलग कलर के’। उस देसी ने तपाक से जबाब दिया “देखो देखों — यहां आपके अस्तबल मैं कितने सारे घोड़े है — सब भिन्न रंगों के और देखो वह धोबी आया है आपके कपड़े गधे पर लाद कर। सारे गधे एक ही रंग के होते हैं”।
1964 में इर्विंग वालेस का एक उपन्यास ‘The Man’ आया था, जिसमें कल्पना की गई थी कि कैसे संयोगवश कुछ दुर्घटनाओं के कारण एक अश्वेत सिनेटर को अमेरिकी राष्ट्रपति का पद मिल जाता है। समाज उस समय तैयार नहीं था। वह नायक अनेक उतार-चढ़ाव के साथ संघर्ष करता है। उसकी एक पुत्री जो भाग्यवश थोड़ी गोरी है [Mulatto] अपनी पारिवारिक पहचान छिपा कर गोरे समाज में घुली मिली रहने की कोशिश करती है।
आधुनिक समय में अधिकांश वैज्ञानिक और समाजशास्त्री Race या नस्ल की बायोलाजिकल अवधारणा को नकारते है। “नस्ल” एक कृत्रिम सोच है। नकली लेबल। उसका वैज्ञानिक आधार नहीं है। नस्ल और रंग का सम्बन्ध जोड़ना और भी गलत है। नस्ल और रंग के आधार पर Stereotype गढ़ना एक पिटीपिटाई और अत्यन्त घातक सोच प्रक्रिया है। किन्ही दो या अधिक तथाकथित नस्लों के बीच थोड़ी बहुत विभिन्नताओं को लोग बढ़ा चढ़ा कर महसूस करते हैं — जैसे कि “सिन्धी ऐसे ऐसे होते हैं” “सरदार वैसे वैसे होते है” “बनिये लोग कंजूस और काइयां होते है। आदि आदि। सचाई तो यह है कि किसी एक समूह के अन्दर ही अन्दर पाई जाने वाली भिन्नताएं कहीं अधिक होती है। गोरों और कालों के गुण-अवगुण ढूंढना मानव इतिहास में बाद में आया —उपनिवेशवाद के कारण। While man supremacy (गोरों की श्रेष्ठता) और While man Burden (गोरों पर जिम्मेदारी का बोझ कि वे निम्न किस्म की काली नस्लों का उद्दार करें) पिछली दो-तीन शताब्दी की मान्यताएं रहीं।
यूरोपियन उपनिशवाद ने अश्वेत अफ्रीकन गुलामों को जबरदस्ती अमेरिका ले जाकर अनेक पीढ़ियों तक बंधुआ मजदूर बना कर रखा। इसी घृणित सोच व व्यवहार के चलते Eugenics (श्रेष्ठ जाति) की विचारधारा पनपी और हिटलर-मुसोलिनी के नाजीवाद तथा फासीवाद में परिणित हुई।
प्राचीन काल में रंग भेद तथा नस्लभेद।
पुराने जमाने में मिश्र, यूनान और रोमन साम्राज्य में रंग के आधार पर सामाजिक हैसियत नहीं देखी जाती थी। फिर भी हल्के रंग के प्रति आकर्षण मध्ययुगीन यूरोप में पाया जाने लगा था। ब्राजील और अन्य दक्षिण अमेरिकी देशों में गोरे के प्रति आग्रह कोलोनियल काल से मौजूद है।
भारत में देवी देवता गोरे और काले दोनों रंगों में पूजित है। राम, कृष्ण और शिव काले है। लक्ष्मण गोरे। पार्वती का दूसरा रूप ‘काली’ है। स्त्रियों के लिये ‘श्यामा’ और ‘कृष्णा’ नाम लोकप्रिय है। द्रौपदी स्वयं कृष्णा थी। कृष्ण शब्द का अर्थ ही काला होता है। गोरे के प्रति सम्मोहन का नियम नहीं था। एक कहावत रही है “गोरा, गूं खोरा”। कालिदास की शकुन्तला (अप्सरा मेनका की पुत्री) श्यामल वर्ण की थी।
“श्यामल श्यामल वरण, कोमल कोमल चरण
बड़े मन से विधाता ने तुझको गढ़ा”
जैसा गीत भरत व्यास ने फिल्म नवरंग के लिखा था।
मेरे एक गौर वर्ण भतीजे के लिये जब वैवाहिक सम्बंध की बात चल रही था तो होने वाली बहु सांवली थी। तब दादी ने कहा था “गौरे रंग को क्या चाटना, छोरे से ज्यादा पानी तो छोरी के चेहरे पर है”
अंग्रेजों की गुलामी के चलते हम काले रंग को लेकर हीन भावना से ग्रस्त हो गये। हालांकि यह प्रक्रिया गोरे इस्लामी शासकों के आकमण से शुरू हो चुकी थी। या फिर शायद इससे भी पहले तथाकथित आर्य आव्रजन से (हालांकि यह सिद्धान्त विवादास्पद है) भारत में उत्तर से दक्षिण की दिशा में रंग गहराता जाता है। कुछ तो धूप + UV Rays के कारण और कुछ जिनेटिक।
चीन और जापान पर औपनिवेशक प्रभाव कम रहा, फिर भी वहां पर गोरे के प्रति पर्याप्त आग्रह है। कौन जाने बायोलाजिकली श्वेत लोगों में कुछ गुण अधिक होते हों जिन्हें इवोल्यूशनरी सायकोलाजी ने आत्मसात कर लिया है। हालाँकि इस तरह से हल्के से संकेत से भी प्रगतिशील वोक लोग मुझ पर पिल पड़ेगे। यदि कहूं कि इस तरह का प्रश्न, शोध का एक विषय हो सकता है तो तत्काल दुत्कारा जाऊंगा कि “जिस ढाणी जाना ही नहीं वहां का रास्ता क्यों पूछना?”
1961 में महान गांधीवादी अश्वेत नेता मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था। — “मेरा सपना है कि एक दिन मेरी चार संताने एक ऐसे देश में रहेंगी जहां उन्हें उनकी चमड़ी के रंग के आधार पर नहीं, वरन उनके चरित्र के आधार पर आंका जावेगा”
इस यात्रा में अब मानवता ने काफी प्रगति करी है। बहुत सारी करना बाकी है। बराक ओबामा का राष्ट्रपति बनना एक उपलब्धि थी। Black Lives Matter जैसे आन्दोलन Systemic Racism [व्यवस्थागत नस्लवाद] के विरुद्ध माहोल बना रहे है। हांलाकि मेरी राय में वे लोग भी अति कर रहे है। इस बारे में और कहीं, और कभी लिखूंगा।
कोई भी सपना यकायक पूरा नहीं होता।
परिवर्तन धीमा होता है। दिशा महत्वपूर्ण है। गति बढ़ाने के प्रयास होते रहने चाहिये। कौन जाने भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है। जिनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा मनुष्य अपनी या संतानों की चमड़ी को Made to order बना पायेंगे। क्या ऐसा करना उचित होगा? मुझे तो गलत लगता है। लेकिन काल प्रवाह कभी रुका है क्या?
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स्त्रोत (References)
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