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घर से पहले – हॉफ – होम – एक विज़िट (1982)


मानसिक रोग कोई हौवा नहीं है। ऐसे व्यक्तियों से डरने या उन पर हंसने की बजाय हमें उनसे सहानुभूति रखनी चाहिये। हममें और मानसिक रोगियों में कोई खास अन्तर नहीं है, क्योंकि हम सब कभी मानसिक रुप से विचलित होते ही हैं। फिर इन लोगों से इतना परहेज क्‍यों? बेंगलौर में कुछ उत्साही स्वयं-सेवियों ने ऐसी ही संस्था बनाई है हॉफ-वे-होम। यहां मानसिक अस्पताल से छुट्टी पाये जाने वाले व्यक्तियों को इस लायक बनाया जाता है कि वे फिर से समाज में घुलमिल सके।

आज भी मानसिक रोगों पर पागलपन की छाप लगी है। ऐसे व्यक्ति को पागल कहना पूरे समाज का अपमान है। क्‍योंकि समाज का कोई भी व्यक्ति अपना आपा खो सकता है। हम सभी कभी न कभी मानसिक रुप से विचलित होते हैं….. तो क्या हम सब पागल है?

दक्षिण भारत के खूबसुरत शहर बेंगलौर में, मानसिक रोगियों के पुनर्वास में लगी एक संस्था पिछले दिनों देखी। वहीं के काम का कुछ अन्दाज एक उदाहरण से लगाया जा सकता है। कमलाम्मा नाम की अठारह वर्ष की लड़की बिल्कुल चुपचाप रहती थी। पिछले तीन दिनों में मैंने उसे किसी सामूहिक काम में भाग लेते नहीं देखा था। उसके मन की न होने पर वह बार-बार हिस्टीरिया की बेहोशीनुमा अवस्था का सहारा लेती थी। दवाईयां और मनोचिकित्सा की सलाह के कोर्स जारी थे।

क्रिसमस के दिन संस्था में एक छोटी सी पार्टी आयोजित की गई। वहां रहने वाले सभी मानसिक रोगियों के साथ आमंत्रित अतिथियों ने छोटे-छोटे खैलों में भाग लिया। इन खेलों का संचालन समाज-सेवा की भावना से प्रेरित महिलाओं का एक समूह कर रहा था। एक पर्ची खुलने पर कमलाम्मा से कहा गया कि वह कोई गाना गाए। वह चुप रही। खूब आग्रह किया। वहाँ के संचालको का ख्याल था वह नहीं मानेगी। पर एकाएक उसका आत्मविश्वास जाग उठा। “जाने कैसा ये बन्धन अन्जाना“-यह गीत उसने मधुर आवाज में लय के साथ गा डाला। सारा हाल तालियों और वाह-वाह से गूंज उठा। लड़की का चेहरा मुस्कुराहट से खिल उठा। शेष कार्यक्रम में उसने खूब हाथ बटाया।

कमलाम्मा जैसे व्यक्तियों को प्रोत्साहन के ऐसे ही क्षणों की जरुरत रहती है। उस संस्था में घटने वाला ऐसा क्षण प्राय: आता रहता है। वहाँ के काम की प्रक्रिया के मूल सिद्धान्तों में से एक है “व्यक्ति को स्नेह जिम्मेदारी और प्रोत्साहन मिले तो वह बहुत कुछ कर सकता है।” उस संस्था में काम करने वाले समर्पित लोग कहते हैं कि मानसिक रोग का प्रमुख कारण ………….समाज के तनावों का किसी ………….. सीधे इन्सान पर पड़ने वाला कुप्रभाव है। यह सही है कि हम दुनिया भर की विसंगतियों और उससे जुड़े तनावों को नहीं मिटा सकते है लेकिन हम इतना तो कर ही सकते है कि हम व्यक्तियों को इन कठिन परिस्थितियों से उबरने के काबिल बना दें तथा जो इन तनावों के कारण अपना संतुलन खो बैठे हैं उन्हें फिर सहारा देकर पटरी पर लाने की मदद करें।

मानसिक रोग कोई हौआ नहीं है। उनसे पीडित व्यक्तियों से न तो हमें डरना चाहिये, न हँसना चाहिये इस सबमें उस मरीज का क्‍या दोष तथा हममें और मानसिक रोगियों में काई खास अन्तर भी नहीं। हम कभी थोडे बहुत ‘विचलित होते है।… और दूरी क्‍यां?

ऐसे ही कुछ विचारों वाले चिकित्सकों व धर्म से जूडे लोगों ने 1967 में बेंगलौर में ‘मेडिको-पेस्टोरल एसोसिएशन’  नामक संस्था का गठन किया। इनका मुख्य उद्देश्य था-समग्र समाज में समग्र मानव का विकास । आरम्भिक वर्षों तक ये लोग सभा, परिसंवाद, फिल्म , लेख आदि से मानसिक बीमारियों के विभिन्‍न पहलुओं पर समाज-शिक्षा का काम करते रहे। परन्तु चार वर्ष पूर्व इस संस्था के एक सपने ने साकार रुप ग्रहण किया। यह था “हाफ-वे-होम(आधे रास्ते का घर)” की स्थापना।

हाफ-वे होम यानि आधे रास्ते का घर। मंजिल पर पहुंचने से पहले बीच रास्ते का पड़ाव| मंजिल क्या है? एक मंजिल क्या है? एक स्वस्थ घर में एक स्वस्थ इन्सान की वापसी। वह इन्सान जो किन्हीं कारणों से अपना मानसिक संतुलन खो बैठा। उसे पागल या बीमार मत कहिये। उसे पागल कहना न केवल उसका बल्कि कहने वाले का भी अपमान है। क्योंकि उसके समान दुनिया का कोई भी व्यक्ति अपना घर खो सकता है। हाफ-वे-होम उन व्यक्तियों को स्वीकार करता है जो इतने ठीक तो हो गये है कि मानसिक चिकित्सालय से उनकी छुट्टी कर दी जाती है, परन्तु इतने नहीं कि घर-परिवार व समाज में लौटकर फिर घुलमिल जाए। घर वाले उस व्यक्ति को स्वीकार करने को अभी भी तैयार नहीं है। ऐसी स्थिति में तीन से नौ महीने तक वह व्यक्ति हाफ-वे-होम में रखा जाता है।

“हाफ-वे-होम” नियंत्रित समाज है। नियंत्रित इसलिये कि टुटे हुए इन्सान को तनावों और्‌ जटिलताओं से बचा सके। परन्तु यह अस्पताल नहीं है। यह अनाथालय भी नहीं। यह ऐसी कोई जगह नहीं जहां आप अपने घर के किसी गन्दे अवांछित सदस्य को पटक कर भुल जाएँ। कतई नहीं! यहां के हर रहवासी (उसे मरीज नहीं कहते) के परिवार के सदस्यों से अपेक्षा की जाती है कि वे नियमित रुप से मिलते रहेंगे, इलाज में मदद करेंगे। हाफ-वे-होम का नियंत्रित समाज स्वयं अपने आप में इलाज का काम करता है। रहवासी को फिर दुनिया में लौटने का प्रशिक्षण और आत्म-विश्वास देता है। अस्पतालों में चलने वाली औषधियां और मनोचिकित्सक का परामर्श साथ-साथ चलते रहते हैं।

चूँकि हाफ-वे-होम एक घर है, इसलिये यहां पिता और माता भी है। हाउस-पेरेण्ट कहे जाने वाले एक दम्पत्ति संस्था के अहाते में ही रहते हैं। ये दिन रात रहवासियों का ख्याल रखते है और अनुशासन, मनोरंजन तथा शिक्षा से भरी उनकी दिनचर्या का संचालन करते हैं। हाउस-पेरेण्ट से मिलना सुखद अनुभूति थी। उत्साह व आत्मविश्वास से भरे दम्पत्ति हर रहवासी से प्रेम-पूर्ण रिश्ते कायम किये हुए। इसके अलावा एक मनोचिकित्सक, एक परामर्शदाता मनोविज्ञानी और एक मानसिक सामाजिक कार्यकर्ता वहां मौजूद 48 रहवासियों की मनोस्थिति पर नजर रखते है, उनका सही रुप से इलाज करते है। एक आबक्यू………………..पिस्ट उन्हें विभन्‍न कामकाज भी सिखाता है। शाम को रोज योग कक्षाएं होती है। प्रार्थना, खेल-कूद, रेडियो, संगीत, टी.वी. आदि भी है। भोजनशाला व्यवस्थित है। तीन रहवासी एक कमरे में रहते हैं। उनके अपने और पूरी संस्था के विभिन्‍न कामी की जिम्मेदारी रहवासियों के मध्य बांट दी जाती है। 45 से 65 वर्ष तक की उम्र के स्त्री-पुरुष, अलग-अलग किस्म की मानसिक बीमारियां, अलग-अलग पारिवारिक होकर, आर्थिक प्रष्ठ भूमि, परन्तु सभी को एक छत के नीचे मिलकर एक साथ रहते देखना, साथ-साथ में काम…………………..ठीक होने की मंजिल की और ………….. तैयारी करते हुए देखना-……..-संतोषजनक  और……….से सुखद लगा।……………….-विकृतियाँ सामाजिक…………… परिस्थितियों का परिणाम होती है, इसलिये समाज और परिवार का यह कर्तव्य हो जाता है कि, इन लोगों को अछूत न मानते हुए, उनके पुनर्वास में मदद करें। ऐसा पुनर्वास जो उन्हें पुन: उपयोगी जीवन जीने का मौका दे। बेंगलौर तथा कुल मिलाकर सारा दक्षिण भारत मानसिक रोगों के बारे में कही गई उपरोक्त कड़वी सच्चाइयों को काफी हद तक समझता है। वहां मानसिक चिकित्सा के अच्छे संस्थान हैं। आज ही भागदौड़ से भरी स्पर्धात्मक जिन्दगी से उपजे तनावों को लोग पहचानते हैं और सलाह के लिये मनोवैज्ञानिक के पास जाने में कोई शर्म नहीं महसूस करते। मेडिको-पेस्टोरल एसोसिएशन व हाफ-वे-होम को अनेक अनुदान प्राप्त हैं। परन्तु इस सबसे महत्वपूर्ण है बेंगलौर की गृहणियों के एक समूह द्वारा रहवासियों के लिये समय का दान। जिसमें उनके लिये अनेक खेल, पार्टी, पिकनिक, फिल्म, कक्षाएं आयोजित की जाती हैं। स्त्री स्वयं-सेविकाओं का यह समूह समय-समय पर रहवासियों को अपने घर पर भी ले जाता है ताकि वे पारिवारिक किस्म के स्नेहपूर्ण वातावरण की गर्मी पा सके।

मानसिक चिकित्सालयों की सुविधाओं के अपर्याप्त व अनाधुनिक होने के बावजूद हमें किसी कमी का अहसास नहीं होता। लोग सोचते हैं कि पागल को भला और क्‍या चाहिये। यह एक जटिल और पिछड़ा हुआ सोच है। क्या हमारे प्रदेश में हाफ-वे-होम जैसी संस्थाएं विकसित हो सकेगी?

दुर्भाग्य से शेष प्रदेशों में आज भी मानसिक रोगों पर पागलपन का लेबल लगा हुआ है और पागल को मिलती है घृणा, छूत, दूरी, उपेक्षा। इस प्रगतिशील कहे जाने वाले समाज में आज भी लोगों में इतनी समझ नहीं पैदा हुई है कि अनेक बीमारियां और लक्षण मानसिक तनावों की वजह से पैदा होते है और उनके इलाज में किसी मनोवैज्ञानिक का परामर्श लेना कोई छिपाने की बात नहीं है। इसलिये तो हम पाते हैं कि अन्य प्रदेशों के मानसिक चिकित्सालयों की सुविधाओं के अपर्याप्त व अनाधुनिक होने के बावजूद हमें किसी कमी का अहसास नहीं होता। लोग सोचते हैं कि पागल को भला और क्‍या चाहिये। यह एक जटिल और पिछड़ा हुआ सोच है। क्या हमारे प्रदेश में हाफ-वे-होम जैसी संस्थाएं विकसित हो सकेगी?

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