सुप्रसिद्ध मेक्सिकन समाजशास्त्री और विचाराक श्री इवान इलिच की अनेक पुस्तकें 1970 के दशक में विवाद व चर्चा का विषय रही थी। तथाकथित विकास की अंधी दौड़ तथा विकास की अनिवार्यता तथा अच्छाई के अन्ध समर्थन के खिलाफ इवान इलिच ने आवाज उठाई थी। शिक्षा के नाम पर सर्वव्यापी स्कूलीकरण, गतिमन्यता के पीछे भागते आवागमन, सुरक्षा के खातिर डराने वाले संसाधन और स्वास्थ्य की बलिवेदी पर चिकित्साजगत की रोगकारी प्रवृत्तियों पर इलिच की पैनी ज्ञानपरक नजर पड़ी थी।
लिमिट्स टू मेडिसिन नामक पुस्तक ने डॉ. अपूर्व पौराणिक को उन दिनों बहुत प्रभावित तथा उद्वेलित किया था। उस समय लिखी गई समीक्षा यहाँ दी जा रही है। समय बदल चुका है। समीक्षक स्वयं लेखक के अनेक मुद्दों पर असहमत था।
बीसवीं सदी बड़े गर्व से वैज्ञानिक विकास की सदी कहलाती है। परन्तु अनेक विचारकों ने आज की व्यवस्था के नुकसानों की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है। तकनीकी व वैज्ञानिक आविष्कारों पर आधारित तेजी से हो रहे परिवर्तनों का विरोध अब दकियानूसी व कठमुल्ले लोगों का काम नहीं रह गया है। अनेक चिन्तकों ने औद्योगिक सभ्यता की अन्धी दौड़ में दुष्परिणामों का अत्यन्त वैज्ञानिक विवेचन कर चेतावनी दी है।
अब यह महसूस किया जाने लगा है कि मनुष्य अपनी प्यार धरती सन्तुलन को नष्ट कर रहा है। जिस वातावरण की सृष्टि प्रकृति ने जीवन विकास के लिये की थी, वह आज इन्सान की नासमझी से दूषित होता रहा है। सभ्यता के यांत्रिकीकरण ने मानवीय मूल्यों को विकृत कर दिया है। इस क्षेत्र में मेक्सिको के सामाजिक चिन्तक इवान इलिच का नाम बड़े आदर व महत्व का है। गहन अध्ययन व पैनी विश्लेषण क्षमता से आपने अनेक प्रतिष्ठानों में निहित बुराईयों को अपनी आलोचना का विषय बनाया है।
आज हर कोई वैज्ञानिक प्रगति से अभिभूत है। हम गर्व से कहते नहीं अघाते कि आज आवागमन कितना तेज हो गया है, संचार साधनों ने दुनिया को छोटा बना दिया है। हजारों मील की दूरी पर पलक झपकते बात हो जाती है। शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तियाँ हो रही हैं। मशीनों की बदौलत उत्पादन बढ़ता जा रहा है।
परन्तु इलिच संशक हैं। वे कहते हैं कि हर क्षेत्र में विकास की एक सीमा होती है। जब यह सीमा तोड़ दी जाती है, जैसा कि आज हो रहा है, तो समाज को नुकसान ज्यादा होता है। इन नुकसानों की चर्चा अन्य कई विचारक पहले से करते रहे हैं। परन्तु इलिच के मौलिक सोच ने एक अनजाने पहलू को उधाड़ कर रख दिया है। वे बताते हैं कि अब अनेक संस्थाएं उस मूल उद्देश्य को ही नष्ट करने लग गई हैं जिसकी पूर्ति के लिये उनका जन्म हुआ था। इसे वे विशिष्ट प्रतिउत्पादकता का नाम देते हैं। यह हर प्रतिष्ठान की एक अन्तर्निहित बुराई है।
अपनी कुछ पूर्व-पुस्तकों में इलिच ने दर्शाया है कि यातायात की सघनता और जटिलता, आवागमन को धीमा और महंगा बनाती हैं। इलिच जब भारत आये थे तो बनारस शहर के केन्द्रीय भाग में लोगों की गतिमन्यता (मोबिलिटी) देखकर चकित रह गये। उन्होंने गणना कर अनुमान लगाया कि इस शहर में प्रति व्यक्ति प्रति इकाई समय में होने वाली गति न्यूयार्क के मैनहट्टन इलाके की अपेक्षा कहीं अधिक है। न उर्जा का अपव्यय, न वातावरण का गन्दी गैसों से दूषित होना और न ध्वनि प्रदूषण। परन्तु इलिच और भी बुरी बात मानते हैं कि इन्सान वाहनों का गुलाम बन गया है। एक बार स्कूटर की आदत पड़ जाने के बाद सायकल पर चलना बड़ा कष्टदायक लगता है। इन साधनों ने, मनुष्य की आत्मनिर्भरता कम कर दी है और उसके पैरों का अवमूल्यन कर दिया है।
मनुष्य की आत्मनिर्भरता में इलिच की आस्था शिक्षा के सन्दर्भ में उन्हें यह कहने पर मजबूर करती है कि स्कूलों ने स्वयं सीखने की क्षमता को नष्ट कर दिया है।
उद्योग, संचार, यातायात, शिक्षा, सुरक्षा सभी क्षेत्र प्रति उत्पादकता से ग्रस्त हैं। पुलिस व सेनाओं पर बढ़ते खर्च के साथ मनुष्य ज्यादा असुरक्षित होता जा रहा है। बड़े व आधुनिक शहर घरं बसाने के लिये ज्यादा से ज्यादा अनुपयोगी होते जा रहे हैं। संचार के साधनों की बहुलता ने शोर व भ्रम पैदा करा हैं।
बिजनेस माइन्डेड संसार में यातायात के साधन आवागमन को बेच खा रहे हैं और स्कूल शिक्षा को। लोगों की मूल क्षमताएं इतनी कम हो गई हैं कि वे एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाना चाहते हैं, स्वयं रास्ता तय करना नहीं, वे पढ़ाया जाना चाहते हैं, स्वयं सीखना नहीं। इसी विचार पद्धति को स्वास्थ्य पर लागू करते हुए इलिच कहते हैं कि लोग स्वयं स्वस्थ रहने व ठीक होने की अपनी प्राकृतिक व स्वाभाविक क्षमता खोते जा रहे हैं; इसे उन्होंने डाक्टर के गिरवे रख दिया है।
अपनी नई किताब लिमिट्स टू मेडिसिन में इवान इलिच ने प्रतिपादित किया है कि आज का चिकित्साविज्ञान प्रतिउत्पादक बन गया है। जिस मूल उद्देश्य के लिये उसका अस्तित्व है, उसे ही नष्ट कर रहा है। चिकित्सा सेवाएं आज स्वास्थ्य के लिये खतरा बन गई हैं। वे लोगों को बीमार बना रही है। स्वस्थ रहने की आत्मनिर्भर क्षमता को नष्ट किया जा रहा है।
चौकिये नहीं, यह तो सिर्फ शुरुआत है। पूरी पुस्तक में इलिच ने चिकित्सा व्यवसाय पर इस कदर प्रहार किये हैं कि पढ़ने वाला तिलमिला कर रह जाये। सबसे पहला बिन्दु जहां इलिच से असहमत हुआ जा सकता है बह यह है कि स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र में जहां जीवन मृत्यु का सवाल सदा हाजिर रहता है। लोगों को तथाकथित आत्मनिर्भरता पर अन्धा विश्वास नहीं किया जा सकता। परन्तु लेखक के पास भी तर्कों की कमी नहीं है। उन्होंने चिकित्सा विज्ञान की प्रतिउत्पादकता को इयाट्रोजनेसिस का नाम दिया है। इसका अर्थ हम जानते हैं। हिन्दी में कह लो चिकित्सा जन्यता। इलिच के अनुसार आज का समाज चिकित्साजन्य बीमारियों से ग्रस्त होता जा रहा है। बड़े वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में चिन्तन करते हुए लेखक ने चिकित्सा जन्यता के तीन स्तर बताएं हैं- क्लिनिकल चिकित्सा जन्यता:
विज्ञान बीसवीं सदी का भगवान है। उसे वही दर्जा मिल गया है जो हजारों वर्षों से धर्म को मिला हुआ था। विज्ञान की चमत्कारिक शक्ति पर सन्देह करने वाले मानों नास्तिक है। चिकित्सा शास्त्र विज्ञान की सफलतम शाखाओं में से एक है। हर कोई सोचता है कि आज लोग यदि स्वस्थ और जिन्दा हैं तो डाक्टरों की बदौलत। उनके बगैर समाज का न जाने क्या हो? बेचारे गरीबों को डाक्टरी सहायता नहीं मिल पाती इसलिये बड़े बीमार रहते हैं, बेमौत मर जाते हैं। हरेक के पास दो-चार किस्से होते हैं कि कैसे फलां मित्र या रिश्तेदार बड़े गम्भीर रूप से बीमार हो गया था और डाक्टरों ने बचा लिया, या, फलां मौके पर काश डाक्टर पहुंच जाता तो मरीज बच जाता। एक अन्धी आस्था है। भक्तों को भगवान में होती है, उससे भी ज्यादा।
ऐसी हालत में यदि कोई डाक्टरों की उपयोगिता के भ्रम (मिथ) को तोड़ने की कोशिश करे तो उसका क्या होगा? परन्तु इलिच ने यही काम बड़े मजबूत ढंग से किया है।
पिछली कुछ शताब्दियों में बीमारियों के इतिहास का अध्ययन करने के बाद इलिच इस नतीजे पर पहुंचे कि डाक्टरों ने महामारियों पर उतना ही असर डाला जितना पंडितों के पूजा-पाठ ने।
छूत की खतरनाक बीमारियों जो पहले अधिकांश लोगों की मौत का कारण बनती थीं (गरीब देशों में जो आज भी), अब कम हो गई हैं। परन्तु इसमें डाक्टरों का कोई खास दखल नहीं। जिन एन्टीबायोटिक्स पर हम फूले नहीं समाते, उनकी इजाद के बहुत-बहुत पहले ये बीमारियों अन्य कारणों से अपना महत्व खो चुकी थीं। बेहतर आवास व्यवस्था, बेहतर पोषण, बेहतर आर्थिक स्थिति, साक्षरता आदि की बजह से बीमारियों के स्वरूप में यह अन्तर आया।
जरा आप भी खोलिये सेसिल लोब की मेडिसिन पाठ्यपुस्तक का पृष्ठ 41। दो ग्राफ में टी.बी. का स्कार्लेट बुखार से होने वाली मृत्यु दर में समय के साथ कभी प्रदर्शित की गई है। गौर से देखिये आयसोनेक्स, स्ट्रेप्टोमाईसिन व बी. सी. जी. टीके के आविष्कार 1948 से 1952 तक हुए तब तक मृत्यु दर का ग्राफ आधार रेखा के नजदीक आ चुका था। ऐसी कोई गुंजाइश ही नहीं बची थी कि मृत्यु दर की घटने की गति और तेज हो जावे।
मानना पड़ेगा कि चिकित्सकीय साधनों की अपेक्षा, सामाजिक सुधार ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। औसत उम्र 30 से बढ़कर 60 वर्ष हो गई है जिसका प्रमुख कारण है शिशु मृत्यु दर में कमी। इसके लिये सामाजिक कारक ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।
सारी महान प्रगति के बावजूद हृदय रोग व कैंसर का प्रकोप बढ़ता जा रहा है क्योंकि इन बीमारियों को पैदा करने वाला वातावरण इस शताब्दी की देन है जिस पर आज कोई नियंत्रण नहीं।
इलिच ने प्रमाणिक सन्दर्भों के हवाले से यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि जन स्वास्थ्य, निम्नलिखित बातों पर निर्भर नहीं करता है डाक्टर: जनसंख्या अनुपात, मरीज: बिस्तर अनुपात, नर्स: जनसंख्या अनुपात, उपकरणों या नई तकनीकों के विकास पर रखा गया बजट।
यदि कभी-कभी यह भ्रम पैदा होता है कि जिन देशों में डाक्टर काफी हैं वहां का स्वास्थ्य स्तर ऊंचा है तो इसकी असली वजह यह है कि डाक्टर वहीं रहना पसन्द करते हैं जहां रहनसहन अच्छा हो, गरीबी कम हो। गरीब देशों में लोग अस्वस्थ इसलिये नहीं हैं कि वहां डाक्टर और अस्पताल कम है, बल्कि इसलिये कि वहां गन्दगी, अशिक्षा और कुपोषण का साम्राज्य है। ये सामाजिक बुराईयों है। डाक्टर इन्हें दूर नहीं कर सकता। वह मूल सामाजिक बीमारी (असमानता, गरीबी) के लक्षणों पर मरहम पट्टी रखकर लोगों को निष्क्रिय रखने की मशीन का एक पुर्जा मात्र है।
कुछ ऐसे उपयोगी परिवर्तन व तकनीकें जरूर है जिन्हें चिकित्सा विज्ञान की मदद से विकसित किया गया है। जैसे गर्भ निरोधक, टीके लगवाना, पानी का शुद्धिकरण, दाईयों द्वारा साबुन व सफाई का महत्व समझना और थोड़ी बहुत एन्टीबायोटिक्स। परन्तु यह उन्हीं स्थितियों में सम्भव हो सका है जबकि ये तकनीकें संस्कृति का एक अंग बन गई हों और समाज इनका उपयोग बगैर चिकित्सा व्यवसाय के हस्तक्षेप के कर सकता हो। इन वस्तुओं को इलिच मेडिकल यंत्रों की कोटि में नहीं रखते। जिस सभ्यता और संस्कृति के लिये इलिच के पास पूर्ण आलोचना के सिवा कुछ भी नहीं है उसे इतनी सी रियायत, वे बड़ी झिझक से देते हैं और कहना नहीं चूकते कि इन साधनों की देन के लिये आधुनिक तकनीकी चिकित्सा के महंगे महल को कोना ज्यादती है। परन्तु इलिच को याद दिलाया जाना चाहिये कि सागर मंथन के बाद अमृत निकलता है, और साथ में विष भी। कुछ करे बगैर विकास की उम्मीद नहीं की जा सकती। ऊपर गिनाई गई सस्ती व उपयोगी तकनीके, महंगे व श्रमसाध्य अनुसंधान के बाद मिल पाई है।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि छूत की कुछ बीमारियों को छोड़कर अधिकांश मामलों में चिकित्सा विज्ञान की उपयोगिता सन्देह से परे नहीं है। पिछले कई वर्षों से पश्चिमी देशों की औसत उम्र स्थिर है। या कम होने लग गई है। केन्सर के ब कुछ अन्य रोगी, विशेषज्ञ के हाथों पड़ने के बाद जरा जल्दी ही मरते हैं और जितने समय जिन्दा रहते हैं, हालत बद से बदतर बना दी जाती है।
परन्तु चिकित्सा विज्ञान की अनुपयोगिता से भी बढ़ कर चिन्ता की बात है – इयाट्रोजनिक (चिकित्साजन्य) बीमारियों। अभी तीन वर्ष पूर्व इन्दौर विश्वविद्यालय की एम.डी. मेडिसिन थ्योरी परीक्षा में एक पूरा प्रश्न पूछा गया था नैदानिक (डायग्नोस्टिक) प्रक्रियाओं के दुष्परिणाम। इन दुष्परिणामों को इलिच आधुनिक युग की सबसे बड़ी महामारी मानते हैं।
लोग तरह-तरह की गलत-सलत रासायनिक औषधियाँ निगलते रहने के आदी बना दिये गये हैं। अनावश्यक और गलत शल्य क्रियाओं का प्रतिशत यदि इमानदारी के साथ आंका जावे तो भयावह आंकड़े सामने आते हैं।
बीमारी हो या न हो, मालूम नहीं क्या है, फिर भी निदान बनाना है इसलिये बना दिया। लोगों पर जिन्दगी भर के लिये झूठा लेबल लग जाता है। कई मानसिक रोगी बन जाते हैं। गलतियों हर इन्सान से होती हैं परन्तु डाक्टर की गलतियों तकनीकी गड़बड़ी या रेण्डम ह्यूमन एरर रह गई हैं। व्यक्ति तो रहा नहीं रोग रह गया, इसलिये समस्याएं नैतिक नहीं तकनीकी हो गई हैं।
मरीज अरक्षित है। वैसे हाल में, पश्चिमी देशों की जनता की तथाकथित जागरूकता से डाक्टर्स को बचाव की मुद्रा में आना पड़ा है। काफी मुकदमे दायर हो रहे हैं। परन्तु इस वजह से चिकित्सा और महंगी तथा ज्यादा नुकसानदायक हो गई है। इलिच दुःखी हैं कि जनता इस बात में जागरूकता समझती है कि चिकित्सा की ऊंची तकनीक उन्हें सही रूप से प्राप्त होवे परन्तु यह जागरूकता नहीं आती है कि इस जटिल, कठिन, महंगी, अनुपयोगी, नुकसानदायक व्यवस्था पर निर्भरता कम की जावे। ऊंचे व महंगे इलाज की चाह ने चिकित्सा को और महंगा व इयाट्रोजनिक बना दिया है। इस विशियस सर्कल (दुष्चक्र) बन चुका है। कौन तोड़ेगा इसे ?
सामाजिक चिकित्सा अन्यता
आज के चिकित्सा संस्थानों ने एक रोगी समाज की रचना की है। इस उपभोगवादी समाज (कन्ज्यूमर सोसायटी) में लोगों को इस बात के लिये प्रोत्साहित किया जाता है कि वे आज की चिकित्सा पद्धति के आदर्श उपभोक्ता बनें। स्वास्थ्य एक वस्तु या कमोडिटी बन चुकी है जिसका व्यापार एकाधिकारवादी डाक्टरों के हाथ में है। स्वास्थ्य सेवा एक प्रमाणीकृत आइटम बन चुकी है। समस्त पीड़ा का अस्पतालीकरण हो चुका है। जन्म, बीमारी और मृत्यु जैसी प्राकृतिक घटनाओं के लिये घर उपयुक्त स्थान नहीं रहने दिया गया है। शरीर के अनुभवों को व्यक्त करने की भाषा दुर्बोध तकनीकी शब्दजाल में बदल गई है।
चिकित्सा का सामाजिक जिन्दगी में हस्तक्षेप हद से आगे गुजर गया है। इयाट्रोजनेसिस अब भूल, गलती या दुर्घटना नहीं रह गई है। यह असाध्य विकृति बन चुकी है। इवान इलिच चिकित्सा संस्थानों की तुलना धर्म से करते हैं धर्म समाज की अफीम है क्योंकि इसके प्रभाव में रहकर गरीब शोषित तबके असमानता के अहसास को भाग्यवाद में डूबो देते हैं। लेखक की मान्यता है कि अस्वास्थ्य तब पैदा होता है जब किसी सामाजिक अपर्याप्तता की वजह से मनुष्य अपना अनुकूलन नहीं कर पाता। एक आदर्श समाज में बीमारियों का नगण्य स्थान रहेगा। चिकित्सा, बीमारी का इलाज करने का स्वांग तो भरती है परन्तु उसके मूल कारणों को दूर नहीं करती। डाक्टर द्वारा थोपी गई डायग्नोसिस के भुलावे में आकर लोग बिकास के तनावों से उपजे राजनैतिक शिकवों को भूल जाते हैं। उन्हें सिर्फ ऊपरी इलाज की मांग करना याद रह पाता है।
लेखक की यह मान्यता आसानी से गले नहीं उतरती। अधिकांश बीमारियों के कारण के रूप में सामाजिक गैर बराबरी को मानना तथा यह कल्पना करना कि चिकित्सा के न होने पर लोग भूले बिसरे वर्ग संघर्ष में भिड़ जायेंगे और फिर आदर्श समाज में बीमारियों होंगी ही नहीं यह सब युटोपिया के समान लगता है। ऐसे यूटोपिया (आदर्श राज्य) की कल्पना तो कम्युनिस्ट भी नहीं करते।
परन्तु इलिच भी अपने तकों में कमजोर नहीं हैं। वे कहते हैं कि चिकित्सा जो कि उच्च वर्ग के सदस्य हैं अपनी तकनीकी शब्दावली से जनता को दिग्भ्रमित करते हैं। आज की शोषक व्यवस्था, चिकित्सा विज्ञान के माध्यम से लोगों की दुर्व्यवस्था को कोई अबूझ नाम दे देती है और उसके इलाज की अनिवार्यता बताकर पुनः शोषण करती है। कुपोषण, एनीमिया, अन्धत्व, छूत की बीमारियाँ ये सब शोषणकारी समाज व्यवस्था के परिणाम हैं। परन्तु चिकित्सा विज्ञान के प्रभाव में आकर आज गरीब आदमी यह मांग तो कभी-कभी कर लेता है कि डायरिया से पीड़ित उसके बच्चे का अस्पताल में सही इलाज हो परन्तु इस बात के लिये सामुहिक संघर्ष करना नहीं जानता कि उसके व उसके बच्चे को पीने का शुद्ध पानी मिले, भर पेट संतुलित भोजन साफ बर्तनों में खा सके इतनी क्षमता मिले, रहने को साफ-सुथरी बस्ती मिले और मां बच्चे को खुद का दूध पिला सके, मां को इतनी खुराक और अवकाश मिले। सामाजिक चिकित्सा जन्यता के और भी कई भयावह रूप इलिच न गिनाये हैं।
आज बजट का चिकित्सीकरण हो चुका है। पिछले बीस वर्षों में मूल्य सूचकांक 75 प्रतिशत बढ़ा तो चिकित्सा सेवा की कीमत 330 प्रतिशत बढ़ी। स्वास्थ्य बजट, कुल राष्ट्रीय बजट का 4.5 प्रतिशत से बढ़कर 10 प्रतिशत तक पहुंच गया। गरीब देश अपनी जनता की मूल जरूरतें पूरी करने के बजाय महंगी चिकित्सा के पीछे अंधे होकर भाग रहे हैं। इस सारे बजट का उपभोग समाज का छोटा सा उच्च वर्ग करता है। महंगे उपकरण की शान इस बात में है कि कितनी जल्दी वे घूरे के ढेर पर फेंकने के काबिल बन जाते हैं। भारी भरकम मुनाफा कमाने वाली अन्तर्राष्ट्रीय औषधि कम्पनियाँ सभ्यता के सामाजिक चिकित्सीकरण में खास खलनायक का रोल अदा कर रही हैं। नागरिक अर्थशास्त्र के इतिहास में किसी व्यवसाय की ताकत में इतनी तेज और भारी बढ़ोतरी का दूसरा उदाहरण देखने को नहीं मिलता।
चीन ही एक मात्र ऐसा देश है जहां मामला कुछ ठीक है। चीन ने यह सिद्ध कर दिया है कि चिकित्सा विज्ञान की ये तकनीकें जो विवाद से परे उपयोगी हैं, सब की सब सस्ती हैं और बगैर डाक्टरों की मदद से आम जनता थोड़े ही समय में उन्हें सीख सकती हैं। हालांकि दुर्भाग्य से पिछले दिनों चीन में उल्टी गंगा बहाने के आसार नजर आ रहे हैं। इस दृष्टि से भारत में पिछले छः वर्ष शुरू की गई जन स्वास्थ्य रक्षक योजना सिद्धान्त रूप से तो सही मानी जा सकती है।
सामाजिक चिकित्सीकरण का एक अन्य पहलू है- डाक्टरों के हाथों अधिकारों व शक्तियों का केन्द्रीयकरण। लोगों की दैनिक जिन्दगी के अनेक मूल अधिकार अब चिकित्सकों के नियंत्रण में हैं। वे ही तय करते हैं कि बीमारी क्या है, कौन बीमार है और कौन नहीं कौन फंक्शनल है और कौन नकलची बदमाश (मेलिंगरर)। आज के मेडिकल नौकरशाह लोगों पर डायक्रोसिस के लेबल लगाकर उन्हें अलग-अलग वगों में विभाजित कर देते हैं। डाक्टर का प्रमाण-पत्र व्यक्ति को समाज में खास दर्जा प्रदान करता है। यह दर्जा अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी, मनचाहा (खरीदा हुआ) भी हो सकता है और अनचाहा भी (थोपा हुआ)। कार चलाना, जेल भेजना, छोड़ देना, विदेश जाना, खाना पकाना, वेश्यावृत्ति करना, विवाह करना, बच्चे पैदा करना, कौन सा क्षेत्र है, कौन सा क्षण जहां डाक्टरों को विशेष अधिकार प्राप्त न हों। अजन्मा (जिनेटिक काउन्सलिंग); गर्भस्था, नवजात, वृद्ध, मृत कोई सी भी उम्र अब बगैर नियंत्रण के जीने के काबिल नहीं रहीं। हर उम्र किसी न किसी बीमारी की रिस्क एज है।
परन्तु इन सब चीजों के हम इतने आदी हो चुके हैं कि इलिच जब इन्हें गिनाते हैं तो हमें अजीब सा लगता है और हम पूछते हैं कि ये अधिकार समाज ने ही डाक्टरों को दिये हैं; डाक्टरों ने इन्हें पाने के लिये कोई संघर्ष नहीं किया। इन अधिकारों का दुरूपयोग होने की बात अस्वीकार नहीं की जा सकती। परन्तु इन्हें पूरी तरह नकार कर आखिर इलिच चाहते क्या है? शायद यह अगले कुछ पृष्ठों में स्पष्ट हो।
रोकथाम इलाज से बेहतर है इस कहावत का बहुत उपयोग किया जाता है परन्तु इलिच के अनुसार रोकथाम का नाटक भी सामाजिक चिकित्सीकरण का एक और साम्राज्य है। हर व्यक्ति अनावश्यक रूप से इस अहसास से घिरता जा रहा है कि वह कभी भी बीमार हो सकता है और उसे चेकअप करवाते रहना चाहिये। बीमार हुए बगैर लोगों को रोग के भय से आक्रान्त रखा जाता है। अनेक बीमारियों के संभाव्य रोगियों के सामूहिक हांके (मास स्क्रीनिंग प्रोग्राम) सबसे पहले अमेरिका में शुरू हुए और अब वहीं लोग इनकी उपयोगिता पर सन्देह कर रहे हैं। इलिच ने अनेक प्रमाणिक सन्दर्भों का हवाला देकर बताया है कि ये कार्यक्रम खर्चीले, अनुपयोगी व नुकसानदेह हैं और जनता में रोगबोध को बढ़ावा देते हैं। यह अवस्था किसी अन्य बीमारी से ज्यादा बुरी है।
अन्तिम सांसे गिनते हुए मरीज के चारों ओर आधुनिक चिकित्सा अपना चरम नाटकीय रूप प्रदर्शित करती है। कोई उम्मीद न होते हुए भी यह नाटक खेला जाता है। संकट का यह कर्मकाण्डीकरण खूब महंगा व खोखला है। पर मरीज के रिश्तेदारों को इसके बगैर संतोष न होने की आदत डाल दी गई है। चिकित्सा विज्ञान अपने जादूगरी वाले रोल को खूब पहचानता है परन्तु शब्द इसके लिये गढ़ा गया है प्लेसीबो प्रभाव। अनेक चमत्कारों का चिकित्सीकरण हो चुका है। निदान (डायग्नोसिस) निश्चित नहीं है, अन्तिम फल (प्रोनोसिस) बुरा है, और इलाज प्रायोगिक है, परन्तु फिर भी चमत्कार की तैयारी की जाती है, क्योंकि उसका सपना देखा जा सकता है, भले ही उम्मीद बिल्कुल न हो।
सांस्कृतिक चिकित्सा जन्यता
स्वास्थ्य को नकारने का यह तीसरा खतरनाक रूप है। वास्तविकता (यथार्थ) को स्वीकारने व सहने की इच्छा नष्ट कर दी गई है। सभी परम्परागत संस्कृतियों में स्वास्थ्य सम्बन्धी धारणाएं व्यक्ति को आन्तरिक क्षमता को विकसित करती थीं ताकि वह दर्द और पीड़ा को सह सके, मृत्यु का वरण कर सके। परन्तु आज की संस्कृति इन चीजों को (दर्द, बीमारी, मृत्यु) सिर्फ विकार मानती है और आग्रह करती है कि इन बुराईयों से निपटने का सारा जिम्मा चिकित्सा विज्ञान पर छोड़ दिया जावे। इलिच पूछते हैं कि क्या वाकई में ये चीजें विकार है?
दर्द, बीमारी व मृत्यु इन तीनों अवस्थाओं के प्रति मनुष्य जाति के दृष्टिकोण का इतिहास अत्यन्त रोचक व शिक्षाप्रद है। लेखक ने इस इतिहास का गहराई से अध्ययन किया है।
दर्द-दर्द की अनुभूति व अर्थ बदल गये हैं। यह व्यक्ति के चरित्र, मूड व मानसिकता के अतिरिक्त उस व्यक्ति की संस्कृति पर भी निर्भर करता है। दर्द एक ही है परन्तु हर व्यक्ति को पीड़ा अलग-अलग होती है। पीड़ा का हर संस्कृति में विशिष्ट अर्थ रहा है। कहते थे जीना है तो पीड़ा सहनी पड़ेगी। यह एक साहसिक कार्य माना जाता था परन्तु चिकित्सीय सभ्यता ने दर्द अब को एक तकनीकी मामला बना डाला है, जिसे पुष्ट करना है, मापना है, नाम आज देना है और बाहरी साधनों से नष्ट करना है। मूल संस्कृतियाँ दर्द की समय अनिवार्यता महसूस करा कर उसे सहने योग्य बनाती थी परन्तु आज दर्द बनाने असहनीय है क्योंकि उसका (इलाज!) किये जाने का भ्रम बना दिया गया है। लोग इस दुष्वक्र का शिकार हैं। वे नहीं जानते कि ये सारी तकनीकें क्षणिक असर दिखाती हैं, इनका प्रभाव बनावटी है, इनके दुष्प्रभाव होते हैं और ये दर्द सहने की आन्तरिक क्षमता का हास करते हैं। निश्चेतना की पूजा करने वाले समाज में डाक्टर और मरीज दोनों दर्द के मूल अर्थ को खो बैठे हैं।
इलिच पर आरोप लगाये गये कि वे मानव सभ्यता को पुनः दो शताब्दी बुढ़ापा पीछे ले जाना चाहते हैं।
आज कोई मंजूर नहीं करना चाहता कि दर्द सहन किया जावे। कुछ लोगों ने इलिच पर मासोकवादी होने का आरोप लगाया। इलिच ने इसका करारा उत्तर दिया है। वे कहते हैं कि दर्द के प्रति बढ़ती हुई कृत्रिम असंवेदनशीलता ने जीवन के सामान्य आनन्दों की अनुभूति को भोथरा बना दिया है। आज के बेहोश समाज में लोगों को जिन्दा होने का अहसास कराने के लिये ज्यादा तीव्र उद्दीपन (स्टीमुलेशन) की जरूरत पड़ने लगी है। नशा, हिंसा, भय, अन्धी दौड, ऊंचा शोर इनकी मांग बढ़ती जा रही है। गरिमामय पीड़ा का स्थान नकली दर्दहीनता की खोखली अवस्था ने ले लिया है। लोग ऐसा व्यवहार करते हैं मानों फ्राण्टल लोवोटामी हो चुकी हो।
इसी प्रकार बीमारी के प्रति सांस्कृतिक दृष्टिकोण का विश्लेषण करते हुए इलिच ने बताया है कि चिकित्सा व्यवसाय नयी-नयी बीमारियों के नाम गढ़ने और उन्हें विशिष्ट विकार धोषित कर उनका उन्मूलन करने के नाटक में लगा हुआ है।
मृत्यु के इतिहास का अध्ययन हमें बताता है कि 14वीं शताब्दी तक मृत्यु किसी बाहरी शक्ति देवी या असुरी, का परिणाम मानी जाती थी। फिर मध्य युग में मृत्यु को जीवन का सहज अन्त माना जाने लगा। औद्योगिक क्रांति के बाद पहली बार ऐसे बुर्जुआ वर्ग का जन्म हुआ जिसने डाक्टरों से यह उम्मीद करना शुरू कर दी की वे मृत्यु को टाल दें। अन्यथा इसके पहले मृत्यु के सन्दर्भ में डाक्टर की कोई खास सक्रिय भूमिका नहीं थी। अब तो स्वाभाविक मृत्यु की परिभाषा ही बदलकर यह हो गई है कि डाक्टरों के सारे प्रयत्नों के बाद अगर कोई मरे तो वह नार्मल डेथ। बिना डाक्टर, बिना निदान, बिना इलाज के आज कोई मृत्यु की कल्पना भी नहीं कर सकता।
कितने प्रयत्नों, कितनी इन्सल्ट, कितने नाटक, कितने खर्च, कितने तनाव, कितने म्यूटिलेशन के बाद नार्मल मृत्यु की घोषणा की जावेगी, इसकी कोई सीमा ही नहीं रही।
मरीज नहीं, डाक्टर मृत्यु से संघर्ष करता है क्योंकि हर घोषित मरीज की औद्योगिक सभ्यता का एक उपभोक्ता है। इसलिये उसे लम्बे तक खींचना है ताकि वह महंगी, नुकसानदायक, अनुपयोगी, गुलाम वाली चिकित्सा सेवाओं को मुहमांगे दामों पर प्राप्त करने के लिये ललचाता रहे। चिकित्सा संस्कृति की प्राकृतिक मौत अब उस बिन्दु पर आती है जब इन्टेन्सिव केयर में रखने के बाद इन्सान कि तथाकथित जिन्दा लाश किसी तकनीकी प्रयोग को स्वीकार करने से इन्कार कर देती है मर जाती है। मर जाना प्रतिरोध का अन्तिम रूप है। मृत्यु को सहज रूप में स्वीकारने, उसे अर्थ प्रदान करने की सारी मानव क्षमता आज जाती रही है। लोग पागलों की तरह मौत से दूर भागने की हताश कोशिश कर रहे हैं, बुढ़ापा टालने के सपने देख रहे हैं। सांस्कृतिक चिकित्सीकरण के इस चरम रूप ने इन्सानों को पंगु बना दिया है। इस से बड़ी इयाट्रोजेनिक बीमारी और क्या हो सकती है।
इलिच के विचारों से हम अनेक स्थानों पर हम असहमत हो सकते हैं। कहा जा सकता है कि चिकित्सा विज्ञान के विकास में अति की आलोचना करते-करते वे स्वयं अतिवाद के शिकार हो गये। स्वास्थ्य सम्बन्धी मध्य युगीन दृष्टिकोणों की तारीफ करने के एक तरफा उद्देश्य में उन्होंने भुला दिया कि उस युग की अनेक रूढ़ियां स्वास्थ्य के लिये घोर हानिकारक थीं। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने उन रूढ़ियों का सफाया किया है यह स्वीकार करना शायद इलिच को बहुत कड़वा लगता इसलिये उसे भूल गये। जिस अन्तिम आदर्श की स्थिति की कल्पना वे अपने लक्ष्य के रूप में करते हैं वह एक युटोपिया के समान लगती है। इस तरह के नकारवादी रवैये से सिर्फ यथा स्थितिवाद को बढ़ावा मिलता है।
इसके अतिरिक्त इस पुस्तक की भाषा कुछ दूरूह है। परन्तु यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इलिच ने जो कुछ कहा है वह विचारोत्तेजक है, आत्मचिन्तन के लिये मजबूर करता है और उसमें सत्य का काफी अंश है। लेकिन यह सत्य बहुत कड़वा है इसी कड़वाहट से शायद आहत होकर एक डाक्टर ने पिछले साल दिल्ली में इलिच से पूछ लिया था आप तो यह बताओ कि यदि आपको या आपकी पत्नी को कैंसर हो जाये तो आप क्या करोगे? क्या डाक्टर के पास नहीं जाओगे? शायद इस प्रश्न का इलिच ने कोई उत्तर नहीं दिया था।
इलिच ने यह किताब डाक्टरों के लिये लिखी भी नहीं है। वे प्रारम्भ में ही कहते हैं कि प्रति उत्पादकता की बुराई को दूर करने के लिये डाक्टरों की ओर से किसी कदम की उम्मीद नहीं की जा सकती और न ही वह सफल होगी। प्रश्न तो यह है कि क्या जनता, चिकित्सा व्यवसाय पर अपनी समझने निर्भरता कम करेगी? क्या जनता अपनी मूल क्षमताओं को पहचानेगी कि दर्द, बीमारी व मृत्यु जैसी अवस्थाओं का बगैर बाहरी हस्तक्षेप स्वयं सामना किया जाना चाहिये। इलिच खुद स्वीकार करते हैं कि यह बहुत कठिन कार्य है। इसके लिये संगठित राजनैतिक प्रयासों की आवश्यकता है। सुधार आन्दोलनों का उद्देश्य महज यह नहीं होना चाहिये। वर्तमान चिकित्सा प्रणाली को और सक्षम बनाने के फेर में उसके शिकंजे को और जकड़ दिया जाये। पुस्तक के अन्तिम अध्याय में उन्होंने विस्तारपूर्वक विभिन्न विकल्पों के गुण दोषों पर विचार किया है जनता को स्वयं जागृत होना पड़ेगा और यह अहसास कराना पड़ेगा कि किस तरह इयाट्रोजनेसिस और प्रतिउत्पादकता उन्हें नुकसान पहुंचा रहे हैं।
यह गौर करने योग्य बात है कि आधुनिक युग के जिन विचारकों को क्रान्तिदृष्टा माना जाता है उनमें अनेक के विचार इसी पक्ष के हैं।
जार्ज बर्नाड शॉ ने अनेक स्थलों पर चिकित्सा विज्ञान की अक्षमता और एकाधिकार पर प्रहार किये हैं। महात्मा गांधी के बारे में सब जानते हैं कि स्वास्थ्य के सम्बन्ध में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान पर उनकी निर्भरता नगण्य थी। महान रूसी लेखक लेव ताल्स्ताय की एक कहानी इवान इलिच की मृत्यु से कुछ पंक्तियाँ उद्दत है डाक्टर ने शरीर की परीक्षा की और साथ वाले कमरे में गुद्दों, अन्द्यान्त्रों के बारे में बड़ी विद्वतापूर्ण बातें हुई। बात केवल संभावनाओं पर विचार करने की थी… इवान इलिच की जिन्दगी का तो सवाल ही नहीं उठता है… डाक्टर ने रोब से उसकी ओर देखा, जिसका अर्थ था सब ठीक हो जावेगा। जरुरत केवल इस बात की है कि तुम बिल्कुल मेरे को अपने हाथों में सौंप दो। इलाज केवल मुझी को मालूम है। हर रोगी के प्रति डाक्टरों का एक ही सा रवैया होता है.. इवान इलिच के सामने डाक्टर ने समस्या का जो हल बताया था वह अन्द्यान्त्र के पक्ष में था विद्वतापूर्ण था। वह इस परिणाम पर पहुंचा कि उसकी हालत चिन्ताजनक है पर इसकी चिन्ता न डाक्टर को है, न किसी और को। वह की कोशिश करता रहा कि उन अस्पष्ट व असमंजस में डाल देने वाले वैज्ञानिक नामों का साधारण भाषा में क्या अर्थ होगा ? डाक्टर के दुर्बोध शब्दों के बारे में सोचते हुए.. उसका दर्द… और तेज हो गया..।
मेक्सिकन विचारक इवान इलिच ने हमें सोचने के लिये मजबूर किया है। परन्तु आशंका उठती है कि दुर्बोध शब्दों के शोर से भरी इस दुनिया में कहीं इलिच के विचार गुमनामी की मौत न मर जावें। सुरसा के बढ़ते हुए मुंह की बराबरी हनुमान कब तक करते; उन्होंने स्वयं को पुनः छोटा बना कर समस्या का हल पा लिया। स्वास्थ्य सम्बन्धी अपनी निर्भरताओं को यदि जनता ने छोटा नहीं बनाया तो सुरसा रूपी चिकित्सा जन्यता से बचने का कोई रास्ता नहीं।
***