आवश्यकता आविष्कार की जननी है, यह एक अर्धसत्य है। अविष्कार शब्द को उसके बड़े अर्थ में लीजिए। कोई नई मशीन, नया उपकरण, नई तकनीक, यह सब अविष्कार के उदाहरण माने जाते हैं। लेकिन बात इसके भी आगे जाती हैं। प्रत्येक नया ज्ञान अविष्कार है।
बहुत सारा नया ज्ञान होता है – केवल जिज्ञासा के कारण। बिना आवश्यकता के रचित ज्ञान की वृद्धि कभी धीमी, कभी तेज, प्रायः छोटे-छोटे पायदानों के रूप में होती है।
विज्ञान में क्रांतियाँ नहीं होती। अचानक से ढेर सारा सत्य मिले और सब कुछ आमूल चूल बदल जाए, ऐसा नहीं होता।
शोध या अनुसंधान या रिसर्च हजारों मील लंबी यात्रा में एक समय में एक छोटे कदम के समान होते हैं। इसमें छलांगें नहीं होती। हाँ कभी-कभी, पीछे मुड़कर देखने पर आश्चर्य होता है कि “अरे! इतना परिवर्तन हो गया”। वस्तुतः उस परिवर्तन की कहानी लंबी व कठिन होती है।
प्रधानमंत्रियों के द्वारा प्रायः वैज्ञानिकों से आह्वान किया जाता है कि साइंस समाज की जरूरतों के प्रति समर्पित होना चाहिए। सुनने में ठीक लगता है। सच्चाई यह है कि आधारभूत विषयों में शोध (बेसिक साइंस रिसर्च) की
अपनी खुद की गति और नियति होती है । उस विषय में ज्ञान की सीमा रेखा पर खड़े गुणी वैज्ञानिकों के मन में ढेरों छोटे-छोटे शोध प्रश्न उठते हैं। आम नागरिक नहीं समझ पाता इन प्रश्नों का विषय और उनका महत्व। वैज्ञानिक अपने मन में या अन्य हमसफरों के मन में उठने वाले प्रश्नों को तौलते हैं। यह प्रश्न प्रायः उजागर रहते हैं। आप व हमारे लिए नहीं। उक्त क्षेत्र के फ्रंटियर पर काम करने वालों के लिए। शोध प्रश्नों का उत्तर खोजने की विधियाँ होती है। इस बारे में एक लेख पढ़ने के लिये यहाँ click करें।
प्रत्येक प्रश्न के लिए एक योजना बनती है। उसे सटीक रूप से लिखा जाता है। प्रयोग होते हैं। अवलोकनों के डाटा का सांख्यिकीय विश्लेषण किया जाता है। निष्कर्षों पर चर्चा होती है। शुरू में सोची गई थ्योरी (सिद्धांत) की या तो पुष्टि होती है, या नहीं होती। दुनियाभर के रिसर्च जर्नल में छपने वाले शोध पत्रों के शीर्षकों के एक सैम्पल पर एक नजर डालने के लिए यहाँ क्लिक कीजिए। है ना अजीब बात ।कितनी सारी बेकार की बातें हैं जिन पर करदाताओं का इतना पैसा बर्बाद किया जाता है? इतनी छोटी सी बात पर इतना समझ जाया क्यों किया?
विज्ञान ऐसे ही आगे बढ़ता है। कदम दर कदम। सीढ़ी दर सीढ़ी । एक चीनी कहावत है कि लंबी से लंबी यात्रा की शुरुआत एक कदम से होती है।
बेसिक साइंस में रिसर्च की दिशा को आप समाज की प्राथमिकताओं के आधार पर निर्देशित नहीं कर सकते। वह एक नदी है अपना मार्ग स्वयं चुनती है। सत्य उसका सागर है। दार्शनिकों वाला सत्य नहीं। इस भौतिक दुनिया के लघु, लघु सत्य। मूर्तिकार की छैनी की सिर्फ एक टांक । चित्रकार के ब्रश का एक तनिक सा फेरा । मूर्ति और चित्र जब बनेंगे तब बनेंगे। कलाकार एक नहीं अनेक। एक साथ भी और अलग-अलग भी। एक ही समय में भी और पीढ़ी दर पीढ़ी भी।
वैज्ञानिक विकास एक सामूहिक उपक्रम है। नोबेल पुरस्कार आदि किसी किसी को मिलते रहेंगे लेकिन ऐसा बिरले ही होता है कि केवल एक इंसान ने दुनिया की सोच और तस्वीर बदल दी। आप सोचेंगे न्यूटन और आइंस्टाइन थे। ऐसे अपवाद होते हैं।
न्यूटन ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में लिखा था –
“मैंने क्या किया? सागर तट पर बैठकर कुछ कंकड़ पत्थर इकट्ठा किया है”।
“यदि मैं कुछ दूर तक देख पाया हूं तो अपने पूर्व के दिग्गजों के कंधों पर चढ़कर देख पाया हूँ”।
साइंस के छात्रों ने माइकल फैराडे का नाम सुना होगा। 19वीं शताब्दी में रानी विक्टोरिया के जमाने के इंग्लैंड के महान भौतिक शास्त्री। विद्युत और चुंबक के आपसी संबंध के आधार पर इलेक्ट्रिक मोटर चलाने तथा बिजली उत्पादन की समझ जगाने वाले वैज्ञानिक। एक साइंस एग्जीबिशन में अपनी मशीन दिखा रहे थे। रानी विक्टोरिया ने पूछा “आपकी इस मशीन कि आज क्या उपयोगिता है?” (राजनेता प्रायः तात्कालिक से आगे कि नहीं सोच पाते) फैराडे ने रानी के साथ चल रही एक आयाबाई की गोदी में एक शिशु की तरफ इशारा करके कहा इस बच्चे की आज क्या उपयोगिता है?