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मायोपैथी-मांसपेशी रोग (Myopathy – Muscle Disease)


मायोपैथी एक तंत्रिका-पेशीय (न्यूरोमस्क्यूलर) बीमारी है, जिसमें मांस-पेशियों के रेशे (फाइबर) अपना सामान्य कार्य करना बंद कर देते हैं । इससे मांस-पेशियों में कमजोरी आ जाती है। मायोपैथी शब्द ग्रीक या यूनानी भाषा के शब्द मायो अर्थात् मांसपेशीय (मसल्स) और पैथी अर्थात रोग या पीड़ा (सफरिंग) से मिलकर बना है। अत: इस रोग में प्राथमिक रूप से मांस-पेशीयों में खराबी आती है। इन बीमारियों का सबसे प्रमुख लक्षण है। कमजोरी या शक्ति में कमी होना। पेशीय ऐंठन, कठोरता, संकुचन आदि इसके अन्य लक्षण हैं। इसमें व्यक्ति को सीढ़ियाँ चढ़ने, उठने-बैठने और चलने-फिरने में परेशानी होती है। यह रोग जन्म से भी हो सकता है और बाद में भी जकड़ सकता है।

मस्क्यूलर डिस्ट्राफी

ये बीमारियाँ जिनेटिक-आनुवंशिक होती हैं। हालांकि उनके प्रकट होने की उम्र अलग-अलग हो सकती है। इसमें मांस-पेशीयों का विकास अवरुद्ध हो जाता है और नई कोशिकाएं भी नहीं बन पाती हैं। यह रोग समय के साथ बढ़ते जाता है, क्योंकि पेशीय विकास रुक जाता है। पहले व्यक्ति का चलना-फिरना बंद होता है और रोग बढ़ने पर उसकी मौत भी हो सकती है।

कंजेनिटल मायोपैथीस (जन्मजात)

यह जन्मजात होता है। इसमें मांसपेशियों के विकास में रोक के बजाए बहुत धीमा व सूक्ष्म परिवर्तन होता साथ ही मांसपेशी के संकुचन की क्षमता में कमी आती है।

इन्फ्लेमेटरी मायोपैथीस

शरीर के प्रतिरोधी तंत्र में खराबी होने से मांसपेशी के अवयवों पर आक्रमण होता है, जिसमें पंशियों में इन्फ्लेमेशन / प्रदाह होता है।

डर्मेटो मायोपेसिटीसिस

इसमें त्वचा पर लाल या नीले चकत्ते होने लगते हैं ।

उपापचयी (मेटाबोलिक) मांसपेशी रोग

जैवरसायनिक उपापचय प्रक्रियाओं में समस्या होने से मांसपेशियाँ प्रभावित होती हैं। जैसे थायराईड हार्मोन की अधिकता या कमी, स्टीराइड हार्मोन की अधिकता या कमी तथा रक्त में पोटेशियम आयन की कमी।

उपचार

विभिन्न प्रकार की मायोपैथी के लिये अलग-अलग तरह के उपचार किये जाते हैं। जिनमें औषधि, व्यायाम, शल्य क्रिया के अलावा एक्यूपंचर तक शामिल है। मायोपैथी के सबसे सामान्य रूप मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी का अब तक कोई उपचार नहीं पाया जा सका है। इसमें थोड़ा बहुत लाभ फिजीकल थेरेपी या व्यायाम करने से होता है। इसके अलावा आक्यूपेशनल थेरेपी, आर्थोपेडिक उपकरण जैसे व्हील चेयर, स्टेंडिंग फ्रेम इत्यादि भी उपयोगी है। व्यायाम करने और व्हील चेयर आदि का उपयोग करने से रोगी अपने सामान्य कामकाज कुछ बेहतर रूप से करने में सक्षम होता है, लेकिन इससे रोगी पूर्णतः ठीक नहीं होता। इसके उपचार के लिये देश-विदेश की कई चिकित्सा पद्धतियों में लगातार शोध चल रहे हैं।

इतिहास

मस्क्यूलर डिस्ट्राफी पर सर्वप्रथम वर्ष 1830 में सर चार्ल्स बेल ने अध्ययन किया। उन्होंने अपने लेख में एक बीमारी का वर्णन किया जो लड़कों में होती थी, जिसमें वे निरंतर कमजोर होते जाते थे और कुछ समय में चलने-फिरने में असमर्थ हो जाते थे। छः साल बाद एक अन्य चिकित्सा शास्त्री ने दो भाईयों को हुए एक रोग के बारे में बताया जिसमें उनकी मांस-पेशियाँ लगातार कमजोर होती जा रही थीं। 1850 में इस रोग के बारे में अध्ययन बढ़ा। बाद के वर्षों में फ्रांस के न्यूरोलॉजिस्ट गुलियन डूशेन ने तेरह लड़कों को हुए इस रोग के बारे में विस्तार से लिखा। उन्हीं के नाम पर इसे डूशेन मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी कहा जाने लगा। बाद में पता चला कि इस रोग के कई प्रकार हैं और यह महिलाओं व ज्यादा उम्र के लोगों को भी होता है।

लक्षण

लगातार मांस-पेशियों में कमजोरी, चलने में असमर्थता, अशक्तता, पेशीय संकुचन, सांस लेने में तकलीफ, आंख की पुतलियों में शिथिलता, यौन ग्रंथि का अपक्षय और पीठ में कूबड़ निकलने जैसे लक्षण सामान्यतः देखे जाते हैं ।

निदान

मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी का पता पेशियों की बायोप्सी (कोशिका परीक्षण) से चलता है। कई बार डी.एन.ए. रक्त परीक्षण की भी सहायता ली जाती है। डॉक्टरों द्वारा सामान्य शरीर परीक्षण और रोगी के पूर्व इतिहास से भी इस रोग के बारे में पता लगाया जाता है।

पूर्वानुमान

इस रोग के पूर्वानुमान लगाने के कई तरीके हैं, जो इस रोग के विभिन्न प्रकारों से संबंधित हैं। कुछ मामलों में पेशियों में कमजोरी बहुत धीमे होती है और उसका पता लगाना मुश्किल होता है। कभी-कभी तेजी से कमजोरी आती है और व्यक्ति चलने-फिरने के लायक भी नहीं रहता। जन्म के समय इस रोग के होने से कुछ बच्चों की जल्द ही मौत हो जाती है, लेकिन कई मामलों में ऐसे लोग लंबी उम्र तक जीते है। इस रोग का प्रभाव पेडू, कंधे, मुंह पर सर्वाधिक देखा गया है। यह रोग सबसे गंभीर रूप से बच्चों को होता है लेकिन यह वयस्कों को भी होते देखा गया है।

इंडियन एसिसिएशन ऑफ मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी (आई.एम.डी.). मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी एक ऐसी बीमारी है जिसके बारे में बहुत कम चर्चा होती है, क्योंकि इसके प्रति जागरुकता का अभाव है। इसके रोगी संख्या में कम हैं और संगठित नहीं हैं। यही वजह है कि सरकारी और गैर सरकारी दोनों की तरह की सहायता से यह क्षेत्र महरूम है। इसी कमी को पूरा करने के लिये कुछ संस्थाओं का निर्माण हुआ, जो न केवल रोगियों को एक मंच पर लाती है बल्कि उनकी सहायता के लिये विभिन्न उपक्रम भी करती है। ऐसा ही एक संगठन इंडियन एसिसिएशन ऑफ मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी (आई.एम.डी.) का निर्माण 1995 में किया गया, जो देश में इस रोग से पीड़ितों को सामान्य जीवन जीने के लिये विभिन्न कार्यक्रम चलाती है।

उद्देश्य

1. मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी पीड़ितों को समाज की मुख्यधारा में जोड़ना।

2. निशक्तजनों के लिये पारिवारिक शरणगाह बनाना।

3. निशक्तजनों के पुनर्वास के अधिनियम (1995 में पारित) का पालन सुनिश्चित करना।

4. सामान्यजनों और निशक्तजनों के बीच की दूरी को घटाने के लिये प्रयास करना।

5. सभी राज्यों की राजधानी में मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी चेप्टर का गठन करना।

कार्य

1. अपने उद्देश्य पूरे करने के लिये आई.एम.डी. विभिन्न कार्य सम्पन्न करती है। अपनी हेल्पलाइन के द्वारा यह रोगियों से प्रत्यक्ष सम्पर्क रखती हैं। टेलीफोन, न्यूज़लेटर, सर्कुलर द्वारा उन्हें लगातार नए शोधों और रोगों के बारे में जानकारी देती हैं। इसके द्वारा रोगी फर्जी डाक्टरों और नीम हकीमों के चक्कर में पड़ने से बच जाते हैं।

2. रोगी चलने-फिरने में असमर्थ होता है जिससे वह लोगों से कट जाता है। आई.एम.डी. में कई रोगी साथ मिलते जुलते हैं जिससे उनमें आत्मविश्वास पैदा होता है। यह भाईचारा उनकी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक मामलों में भी मदद करता है।

3. संगठन का स्पेशल नीड ओरिएंटेशन प्रोग्राम (एस.एन.ओ.पी.) रोगियों की विशेष जरूरत को पूरा करता है । उन्हें व्हील चेयर, आर्थिक सहायत और अन्य कई सहयोगी उपकरण उपलब्ध कराता है।

4. मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी का निदान (पता लगाना) जरूरी और दुश्कर कार्य है इसके लिये उचित प्रशिक्षण का इंतजाम भी संस्था करती है । सरकारी अस्पतालों में निदान हेतु सुविधाएं जुटाना और डॉक्टरों को प्रशिक्षित करना इसमें शामिल है। रोगियों की लगातार देखभाल के लिये भी प्रयास किये जाते हैं।

समर कैम्प

दुःख को साझा करने से पीड़ा कम होती है इसी को ध्यान में रखते हुए मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी के रोगियों को एक मंच पर लाकर उनके अनुभवों, समस्याओं और अपने जीवन की कठिनताओं से विजय पाने की कहानियों सभी को बाँटने के उद्देश्य से 1995 से, आई.एम.डी. ग्रीष्मकालीन शिविरों का आयोजन कर रहा है। इनके माध्यम से इन लोगों की छिपी प्रतिभाओं को भी सामने लाया जाता है। यहाँ उनकी पेंटिंग और अन्य हस्तकलाओं को मिलने वाले प्रोत्साहन से उनमें नया उत्साह पैदा होता है साथ कुछ आर्थिक सहायता भी हो जाती है। इस कार्यक्रम में आई.एम.डी. में मरीजों के लिये काम करने वाले स्वैच्छिक कार्यकर्ताओं को भी अच्छा अनुभव मिलता है। शिविर में सांस्कृतिक कार्यक्रम खेलकूद, विभिन्न प्रदर्शनियाँ आयोजित की जाती है जिसमें वे अपनी शारीरिक क्षमता के अनुरूप भाग लेते हैं। इस सालाना जलसे से जीवन से निराश हो चुके रोगियों को जीवन के प्रति सकारात्मक नज़रिया मिलता है।

क्या करें?

1. मल्टी विटामिन की एक गोली प्रतिदिन लें। आयुर्वेदिक औषधि जैसे च्यवनप्राश और अश्वगंधारिष्ट के साथ एक विटामिन ई कैप्सूल का सेवन करें।

2. चलने-फिरने में असमर्थ होने के कारण फेफड़ों का व्यायाम नहीं हो पाता है। अतः रोगियों को गुब्बारे फुलाना, माउथ आर्गन बजाना और ऐसे ही काम करना चाहिये जिससे फेफड़ों की कसरत हो सके।

3. अपना समय उपयोगी कार्यों में व्यतीत करें। बच्चों को पढ़ाना, स्वयं पढ़ना और टीवी पर ज्ञानवर्धक कार्यक्रम देखना आदि श्रेयस्कर है।

4. पत्रों एवं अन्य संचार साधनों के द्वारा अपने दोस्तों व रिश्तेदारों के साथ सम्पर्क बढ़ाएं।

5. अपने दोस्तों व घरवालों से कहें कि वे आपको बाहर घुमाने ले जाएं। केवल घर पर बैठे रहने से निराशा बढ़ती जाती है।

6. त्यौहारों को हंसी-खुशी से मनाएं, अपने को सामान्य समझें और जीवन का आनंद लें ।

7. रोग के बारे में लोगों की चिंताएं और सार्वजनिक जगहों पर लोगों की आपके रोग के प्रति जिज्ञासा से उत्तेजित या परेशान या उदास न हों इसे साधारण घटना मानें और समझें कि लोग आपसे सहानुभूमि रखते हैं। और अपनी तरह से इसे प्रगट कर रहे हैं।

8. जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखें। अपने को सिपाही मानें जो लगातार कठिन परिस्थितियों में रहकर अपने जीवन के उद्देश्य के लिये लड़ता है।

9. अपने भोजन का ध्यान रखें। यह सुपाच्य हो। हरी सब्जियों, दूध, फल आदि का सेवन अपने खाने में करें। शहद का सेवन करने से शरीर को ग्लूकोस मिलता है जो पेशीय कोशिकाओं के लिये उर्जा प्रदान करता है।

मरीजों के साथ यह नहीं करें।

1. रोगियों के समक्ष बीमारी का पूरा विस्तृत वर्णन न करें। कुछ मरीज पूरी सच्चाई जानकर दुखी व निराश होते हैं। परन्तु झूठी आशा या वादे भी गलत हैं ।

2. मरीज को कभी यह नहीं कहें की वो कितने दिन जी सकता है।

3. उनसे कभी जरूरत से अधिक सहानुभूति न दर्शाएं। उन्हें सामान्य व्यक्तियों के होने का आभास कराएं और उनकी कमजोरियों के प्रति उन्हें बारबार न बताएं।

4. उन पर लगातार नज़र न रखें, उन्हें स्वतंत्रता से रहने दें।

5. शारीरिक व्यायाम इस रोग में अच्छा रहता है इसमें उनकी सहायता करें, लेकिन ध्यान रखें इसकी अधिकता उन्हें और ज्यादा बीमार कर सकती है ।

मरीज कथा

मेरी कहानी शुरू होती है, एक सामान्य मनुष्य की तरह.. जो सामान्य घर में रहता है.. सामान्य लोगों से घिरा हुआ है… मेरी पूर्व की स्मृतियाँ मुझे बचपन में मिली, प्यार, दुलार, डांट की याद दिलाती हैं… जो सामान्य बचपन में सभी को मिलती है। सारी गतिविधियाँ सामान्य और संयमित चल रही थी, जैसे कोई नाव ठहरे हुए पानी में बिना हिचकोले खाए तैर रही हो ।

फिर अचानक, मैंने कुछ बुरा महसूस किया। मैं दूसरों की तरह नहीं हूँ… मेरे साथ कुछ अलग हो रहा है… मैं दूसरों की तरह आसानी से सीढ़ियाँ नहीं चढ़ पा रहा था… मैं दूसरों की तरह तेज दौड़ नहीं पा रहा था … कूद नहीं सकता था… अपने हमउम्र दोस्तों के साथ खेल नहीं पा सकता था।

…प्रश्नों ने मुझे घेरना शुरू कर दिया, मेरा आत्मविश्वास गिरने लगा। तब मेरे कानों में फुसफुसाहट सुनाई दी… मैं किसी मस्कुलर डिस्ट्राफी नामक बिमारी से ग्रस्त हो चुका था।

यह बिमारी मेरे लिये एक अनसुने राग की तरह थी, जो मेरे लिये अंजान था। मैंने सोचा यह एक मामुली बिमारी होगी जो कुछ दिनों में दूर हो जाएगी।

फिर अचानक समय ने मुझे एक और झटका दिया… जब मुझे सामान्य जरूरी गतिविधियों हेतु चलने में असमर्थता महसूस होने लगी। और मैंने जीवन में पहली बार पहिये वाली कुर्सी को देखा। मैंने स्वयं से कहा कोई बात नहीं, तुम इस पर बिठाए गये हो, पर तुम्हें इस पर से खड़ा होकर, इसे कोने में रखना है। लेकिन यह कुर्सी मेरे जीवन का हिस्सा बन गई। मेरी जिन्दगी पानी के बुलबुले की तरह हो गई, जो बाहर से परदर्शी थी पर उसने जीवन के सारे रंगों को अपने अंदर कैद कर रखा था। समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा था.. मैंने महाविद्यालय में प्रवेश लिया, एक नई दुनिया ! बहुत सारे शुभेच्छु चेहरे, प्यार करने वाले शिक्षक और दोस्त। और कुछ ऐसे चेहरे भी जो मुझे देखकर अपने चेहरे पर अजीब सी मुस्कुराहट बिखेरते थे। मैंने पहिये वाली कुर्सी को एक बाधक मानने के बजाय, आत्मविश्वास बढ़ाने का साधन माना। मैंने महसूस किया, अरे ! मैं तो बहुत कुछ कर सकता हूँ, मुझे बस उनको खोजना है।

मैंने स्वयं पर विश्वास करना शुरू किया। यह मेरे लिये अपने जीवन का सबसे अहम मोड़ था। जीवन अचानक मेरे लिये रंगीन और मूल्यवान होता गया।

मैंने अपना समय निराशा में पहले ही काफी बर्बाद कर दिया था। अब मुझे अपने अंदर के व्यक्तित्व को पहचानना था। मुझे अपने अंदर की निराशा को दूर करना था जिसके लिये कभी देर नहीं होती। जहाँ चाह. वहाँ राह.., मैंने अपने सारे अच्छे और बुरे अनुभवों से महसूस किया कि विश्व-सेवा के लिये मनुष्य का जीवन बहुत छोटा है और कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं है, फिर मैंने अपनी स्नातक, स्नातकोत्तर और बी. एड. की पढ़ाई पूरी की और आज मैं एक सफल शिक्षक के रूप में अपनी सेवाएं दे रहा हूँ। चिकित्सकों के दिशा निर्देश, उचित व्यायाम एवं खान-पान की सहायता से मैं स्वयं को स्वस्थ रखता हूँ ।

इस स्तंभ के माध्यम से मैं उन सभी लोगों का आभाव व्यक्त करता हूँ। जिन्होंने मेरी योग्यता देखी, अयोग्यता नहीं मुझे खुशियाँ दी, तनाव नहीं, और जीवन के हर कदम पर मेरा साथ दिया। अत: मैं कहना चाहूँगा की ईश्वर यदि एक योग्यता छीनता है तो बदले में हमें दस योग्यताएं देता है, आवश्यकता है उसे पहचान कर आगे बढ़ने की।

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रोग से अधिक रूढ़ियों से परेशान

डूशेन मस्क्यूलर डिस्ट्राफी के रोगियों का जीवन आसान बनाने के लिये पर्याप्त संसाधनों के अभाव के साथ भारतीय समाज की रूढिवादी मानसिकता ने परिस्थितियाँ अधिक कष्टकारक बना दी हैं। निशक्त लोगों के प्रति समाज का नज़रिया इन रोगियों को एक ऐसे संसार में धकेल देता है जहाँ इन्हें रोग के साथ अपने आस-पास के लोगों की उपेक्षा से भी लड़ना होता है। स्वस्थ बच्चे की चाह में कई परिवारों में अनुवंशिक रूप से मौजूद इस रोग से पीड़ित छ: बच्चे तक देखे जा सकते हैं। अशक्त बच्चों को कई धार्मिक कारणों से पूर्ण नहीं माना जाता है और ईश्वर का प्रकोप मानकर इनका इलाज भी ठीक से नहीं होता। इन परेशानियों में अप्रशिक्षित डॉक्टरों और नीम हकीमों ने आग में घी का काम किया है और इस लाइलाज बीमारी के लिये लोग आयुर्वेद, युनानी, होम्योपैथी व अन्य स्थानीय दवाईयों का सहारा लेते दिखाई देते हैं।

देश विदेश में अंतर

भारत में रोगियों की त्रासदी विदेशों से अधिक है। रोगी की दशा और परिवार में तनाव के बारे में किये गये अध्ययन के अनुसार भारत में रोग का पता लगने पर तनाव की मात्रा ज्यादा होती है, लेकिन जब रोगी का चलना फिरना बंद होने पर सर्वाधिक तनाव होता है। विदेशों में सर्वाधिक तनाव रोग का पता लगने के समय होता है, लेकिन इसके बाद वे रोगी की देखभाल कर तनाव को घटाते जाते हैं। मरीज के पूर्णत: अशक्त होने पर भी परिवार साथ नहीं छोड़ता। इसकी सबसे बड़ी वजह पालकों की मानसिकता है। साथ ही शिक्षा का स्तर जहाँ कम है वहाँ रोगियों को लेकर ज्यादा तनाव है। कई प्रकार के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और व्यक्तिगत सोच के चलते धीरे-धीरे रोगियों से ध्यान हटाया जाता है और वे उपेक्षित होने लगते हैं। इस स्थिति में शारीरिक रोग मानसिक रोग में बदल जाता है, जो खतरनाक और नकारात्मक प्रभाव पैदा करता है, जिससे रोगियों के ठीक होने की संभावना खत्म होने लगती है और वह आत्महत्या तक के बारे में सोचने लगता है ।

अंधेरे में उजाले के दीपंक

रोगियों के जीवन में आशा का दीपक जलाए रखने और शारीरिक परेशानियों को कम करने के लिये डूशेन मस्क्यूलर डिस्ट्राफी के मरीजों पर कई अध्ययन किये हैं। इन अध्ययनों से निकले सार को अपना कर कई संस्थानों ने इन रोगियों के लिये पुनर्वास कार्यक्रम चलाए हैं। यह वे संस्थाएं हैं जो अपने परिवार और समाज से उपेक्षित और ग्लानि से भरे मरीजों के अंधेरे जीवन में उजाले का दीपक बनकर आई हैं।

मस्क्यूलर डिस्ट्राफी एसोसिएशन, चैन्नई (भारत)

मस्क्यूलर डिस्ट्राफी से पीड़ित बच्चों के परिवार की सहायता करने के उद्देश्य से 4 फरवरी 2000 को गैर सरकारी संगठन मस्क्यूलर डिस्ट्राफी एसोसिएशन इंडिया समूह (चैन्नई) की स्थापना की गई। समय के साथ इससे जुड़ने वाले परिवारों और इसकी गतिविधियों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है। एसोसिएशन इन परिवारों को इस बिमारी के बारे में समस्त जानकारी उपलब्ध कराता है। जिसमें व्यायाम, खान-पान, सांस की गति की देख-रेख की तकनीक और रोग के संबंध में विश्व में चल रहे नवीनतम शोध की ताजी जानकारी होती है। संस्था के कार्यों के लिये विश्वभर में सहायता प्राप्त होती है।

कार्य

पीड़ित परिवारजनों के साथ नियमित बैठक कर उनकी जरूरतों के संबंध में पता लगाता है। और उन्हें व्हील चेयर, कृत्रिम पैर (एंकल फुट आर्थेस), स्पाइनल ब्रासेस, कफ साफ करने के उपकरण, मोटर चलित व्हीलचेयर, विशेष तरह के कुशन जिससे लंबे समय तक बैठे रहने पर छाले पड़ने से रोका जा सके, व्हील चेयर के साथ अनुकूलन की तकनीकें जिससे लगातार बैठने से कूबड़ न निकलने से रोका जा सके, बच्चों के लिये वाटर बेड जिससे वे करवट ले सकें इत्यादी उपकरण संस्था द्वारा निःशुल्क उपलब्ध कराए जाते हैं ।

चिकित्सकीय सहायता

संस्था कोऑपरेटिव इंटरनेशनल न्यूरोमस्क्यूलर रिसर्च ग्रुप का पिछले पांच वर्षों से हिस्सा है और कई मल्टी सेंटर क्लीनिकल ट्रायल में भाग ले चुकी हैं। इस साझेदारी से एम.डी. की सूक्ष्म जांच (मॉलीक्यूलर डायग्नोस्टिक्स) की सुविधाएं प्राप्त हो सकी हैं। साथ ही रोग के वाहकों का विश्लेषण (कैरिअर एनालिसिस) भी हो पाया।

विशेषज्ञ टीम

चिकित्सक, मनोवैज्ञानिक व समाजसेवी क्षेत्रों में काम करने से संस्था के अंदर एक विशेषज्ञ टीम बन गई है। इसमें बेहतरीन डॉक्टर, डायटीशियन, सायकोलॉजिस्ट, न्यूरोलॉजिस्ट, क्लीनिकल रिसर्च कोऑर्डिनेटर, समाज सुधारक और स्वयंसेवी शामिल हैं। यह सभी अपने-अपने क्षेत्रों का खास ज्ञान रखने वाले हैं। जो विश्व की कुछ बेहतरीन संस्थाओं से संबंधित हैं। इस टीम का यह फायदा है कि एम.डी. रोगियों का कई पहलुओं से बेहतरीन इलाज संभव हो पाता है और पीड़ित परिवार के लोग अपनी तमाम जिज्ञासा को शांत कर पाते हैं जिससे रोगी के प्रति उनके नज़रिए में बदलाव आता है। इससे शारीरिक और मानसिक तकलीफों में कमी आती है।

स्वयंसेवक

मानवता की चिंगारी सभी के हृदय में होती है, लेकिन इसे सेवा की आग में परिवर्तित करने के लिये उचित परिस्थितियों की दरकार रहती है। आई.ए.एम.डी. सेवा करने वालों को स्वयंसेवक के रूप में पंजीकृत कर सेवा करने का अवसर प्रदान करती है। इन स्वयंसेवकों को संस्था उनके क्षेत्र के एम.डी. रोगियों की सूची देता है। स्वयं सेवक स्वयं अपने समय और सामर्थ्य के हिसाब निर्धारित करता है कि वह किस मरीज की किस तरह से सहायता करेगा। उदाहरण के लिये स्वयंसेवक रोजाना या सप्ताह में एक बार कुछ समय इन मरीजों के साथ बिताने, उन्हें कुछ नया सिखाने, उनकी छुपी प्रतिभा को उभारने के अलावा उनके लिये आवश्यक उपकरणों को तोहफों के रूप में दे सकता है। इसके अलावा अपने इलाके के मरीजों को आई.एम.डी. से पंजीकृत करवाने का कार्य भी किया जा सकता है। संस्था से जुड़े स्वयंसेवकों का मानना है कि वे इन अशक्त रोगियों की सहायता कर ईश्वर आराधना जैसी शांति महसूस करते हैं। मनोचिकित्सकों के अनुसार इस तरह के कार्यों से व्यक्ति कुछ समय के लिये अपनी तकलीफें भूल जाता है, उनमें नया विश्वास पैदा होता है। स्वयंसेवक के रूप में पंजीकृत होने के लिये आई.एम.डी. की वेबसाइट से ऑनलाइन फार्म भरना होता है और मात्र सौ रूपये का आई.एम.डी. अध्यक्ष के नाम सोलन (हिमाचल प्रदेश) में देय डिमांड ड्राफ्ट बनवाकर संस्था के पते पर भेजना होता है।

पता – श्रीमती संजना गोयल, अध्यक्ष आई.ए.एम.डी., मेसर्स स्टीच -एन-स्टाइल, अस्पताल रोड़, सोलन, जिला- सोलन, हिमाचल प्रदेश – 173212

पारिभाषिक शब्दावली

मायोपैथी

मांसपेशी का कोई रोग। अनेक प्रकार की मायोपैथी होती है। यह एक वृहत् अर्थ वाला शब्द है।

मांसपेशियाँ

हाथ, पांव, चेहरा, जीभ आदि तमाम गतिशील अंगों को चलाने का काम मसल्स या मांसपेशियों द्वारा होता है। प्रत्येक मांसपेशी के दो या अधिक सिरे होते हैं जो टेन्डन (कन्डरा) द्वारा हड्डियों पर मजबूती से जुड़े रहते हैं। प्रत्येक मांसेपशी हजारों पेशीय तन्तओं या धागों या फाईबर के भीतर और भी महीन तन्तु (फिलामेंट) होते हैं। एक का नाम एक्टिन और दूसरे का मायोसिन। ये सब आपस में गुंथे होते हैं और एक दूसरे के ऊपर सरकते हैं। इसी से माँसपेशी की लम्बाई छोटी बड़ी होती है। छोटे होने या सिकुड़ने की क्रिया को संकुचन (कान्ट्रेक्शन) और लम्बे या ढीले होने की क्रिया को शिथिलीकरण (रिलेक्सेशन) कहते हैं। इस काम में ऊर्जा खर्च होती है जो रक्त में मौजूद ग्लूकोज़ को खून में घुली हुई आक्सीजन द्वारा जलने से पैदा होती है।

मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी

वे मायोपैथी जिनका कारण प्राय: जिनेटिक व आनुवंशिक होता है। मूल या मुख्य खराबी मांसपेशी के तन्तुओं/ धागों/फाइबर में अपने आप, स्वत: भीतर से पैदा होती है । कोई बाहरी कारण नहीं होता। बीमारी बढ़ती ही जाती है। कभी अत्यन्त धीमे अनेक दशकों तक, कभी थोड़ा जल्दी -कुछ माह या वर्षों में।

एट्रॉफी

नष्ट होना, क्षय होना और छोटा हो जाना। किसी भी अंग का आकार, जो पहले सामान्य था, यदि किसी रोग के कारण, अब छोटा हो जावे तो उस अवस्था को एट्रॉफी कहते हैं। मायोपैथी रोग में प्राय: मांसपेशीयाँ अपने मूल आकार, आयतन और मात्रा को खोने लगती है। दुबली पतली हो जाती हैं। मायोपैथी के अलावा अन्य बीमारियों में भी मांसपेशियों की एट्रॉफी हो सकती है। एट्रॉफी नामक प्रक्रिया का असर न केवल मांसपेशियों पर बल्कि अन्य बीमारियों में दूसरे अंगों पर भी पड़ता है। उदाहरणार्थ एल्ज़ीमर्स रोग में, जिसमें वृद्धावस्था में स्मृति व बुद्धि कम होते जाते हैं, मस्तिष्क /ब्रेन की एट्रॉफी होती है।

हायपर ट्रॉफी

एट्रॉफी का उल्टा या विलोम। कोई पहलवान या एथलीट जब घनघोर व्यायाम द्वारा अपनी मांसपेशियों को बलशाली व हृष्टपुष्ट बनाता है तो उनमें हायपरट्रॉफी हो जाती है। आकार, आयतन व मात्रा में बढ़ोतरी।

स्यूडो (मिथ्या) हायपरट्राफी

देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि मांसपेशी, बलशाली है, फूली हुई है, आकार बड़ा है। परन्तु यह मिथ्या है। मांसपेशी अन्दर से रोग ग्रस्त है, कमजोर है। बड़ा आकार मसल फाइबर की अधिकता या पुष्टता के कारण नहीं बल्कि चर्बी व फाइबर्स उत्तक के जमा होने के कारण है। कुछ मस्क्युलर डिस्ट्रॉफी जैसे कि डूशेन या बेकर में स्यूडो (मिथ्या) हायपर ट्रॉफी देखने को मिलती है।

न्यूरोपैथी (स्नायु रोग) नाड़ियों या नर्वस का रोग। कोई सा भी रोग। उनके प्रकार की न्यूरोपैथी होती है। उनके कारण होते हैं। न्यूरोपैथी के निम्न लक्षण मायोपैथी से मिलते जुलते हैं मांस पेशियों की कमजोरी, नि:शक्तता, शिथिलता, दुबलापन, पतलापन (एट्राफी) आदि। न्यूरोपैथी के निम्न लक्षण मायोपैथी में नहीं मिलते – झुनझुनी, सुन्नपना, दर्द आदि।

नर्व, नाड़ी, स्नायु, तंत्रिका

नाड़ियाँ बिजली के तार हैं। इनका एक जाल शरीर में बिछा रहता है। इनमें खून नहीं बहता, विद्युत तरंगें बहती हैं। संवेदी नाड़ियाँ (सेन्सरी नर्वस) विभिन्न इंद्रियों और शरीर के तमाम अंगों और उत्तकों से तरह-तरह की जानकारी मस्तिष्क तक सीधे या स्पाइनल कार्ड (मेरू तंत्रिका) द्वारा पहुंचती है। देखना, सुनना, सूंघना, चखना, छूना आदि समस्त क्रियाओं में प्राप्त सूचना संवेदी नाड़ियों द्वारा भीतर केंद्र तक लाई जाती हैं

प्ररेक नाड़ियाँ (मोटर नर्वस) मस्तिष्क से बाहर की दिशा में संदेश ले जाती हैं, आदेश ले जाती हैं। विभिन्न मांसपेशियों की हरकत द्वारा शरीर के विभिन्न अंकों को इच्छानुसार चलाने या सक्रीय करने का काम इन्हीं प्रेरक नाड़ियों द्वारा होता है। ये खुद कुछ नहीं कर सकती हैं। सिर्फ संदेश वाहक हैं। मूल आदेश मस्तिष्क से आता है।

ई.एम.जी. इलेक्ट्रोमायोग्राफी (मांसपेशीय विद्युत अभिलेख)

ई.एम.जी. में एक महीन सुई को मांसपेशी में गड़ाते हैं और वहां विद्यमान विद्युत सक्रीयता को मीशन के मानीटर पर्देपर देखते हैं, कम्प्यूटर में सहेज कर रख लेते हैं (स्टोर करना) तथा प्रिंटर द्वारा कागज पर छाप लेते हैं। उक्त महीन सुई एक इलेक्ट्रोड (विद्युतोद) के रूप में काम करती है। मांसपेशी के अंदर कुछ मिलीमीटर धंसने के बाद उसका सिरा धनात्मक व ऋणात्मक आवेगों को पहचानता है, पकड़ता है (केप्चर करता) और तार के द्वारा मशीन तक पहुंचता है। ये विद्युतीय आवेग व तरंगें मांसपेशियों में मौजूद हजारों मस्कुलर फाइबर्स (तन्तुओं) की रासायनिक व यांत्रिक सक्रीयता के कारण पैदा होते हैं। स्वस्थ या रोग ग्रस्त मांसपेशी का ई.एम.जी. अलग अलग पहचाना जा सकता है। मायोपैथी /मस्कूलर डिस्ट्रॉफी डायग्नोसिस (निदान) पक्का करने में और अन्य मिलती जुलती अवस्थाओं, जैसे कि न्यूरोपैथी, से उसका भेद करने में ई.एम.जी. से मदद मिलती है। इसी काम में एन.सी.वी. भी उपयोगी है।

एन.सी.वी. (नाड़ी विद्युत संचार गति)

हाथ पैरों में बिछी हुई प्रमुख नाड़ियों की एनाटामिकल स्थिति के ज्ञान के आधार पर उनके ऊपर विद्युनोद (इलेक्ट्रोड) रखकर विद्युत तरंग का झटका लेते हैं। कुछ मिली सेकण्डस (एक सेकण्ड का हजारवां हिस्सा) के बाद यह तरंग एक अन्य स्थान पर दूसरे विद्युनोद द्वारा पुनः माप ली जाती है। कुछ सेंटीमेंटर्स की उक्त दूरी को पाटने में विदद्युत संचार गति की गणना होती है। स्वस्थ व्यक्तियों में इसका दायरा प्रायः चालीस मीटर प्रति सेकण्ड से लेकर साठ मीटर प्रति सेकण्ड तक होता है। मायोपैथी (मांसपेशियों की बीमारी) में एन.सी.वी. अप्रभावित रहता है। उनके न्यूरोपैथी (नाड़ि-रोग) में, लेकिन सब में नहीं, यह संचार गति धीमी या अवरुद्ध हो जाती है। इस जांच द्वारा यह नैदानिक निर्णय लेने में मदद मिलती है। कि किसी मरीज में मौजूद लक्षण जो मायोपैथी से मिलते जुलते लगते थे, कहीं न्यूरोपैथी की वजह से तो नहीं हैं।

सी.पी.के. (क्रिएटिन फास्फोकाईनेज़)

सी.पी. के. एक एन्ज़ाइम का नाम है जो हमारी मांसपेशियों में प्रचुर मात्रा में मौजूद रहता है। अनेक मायोपैथी में, जितने मांसपेशियों के तन्तु (फाइबर्स) टूट-फूट रहे हों, नष्ट हो रहे हों, गल रहे हों, यह एन्ज़ाइम (सी.पी.के.) रक्त में सामान्य से अधिक मात्रा में पाया जाता है। उक्त मात्रा को नाप कर यह डायग्नोसिस (निदान) बनाने में मदद मिलती है कि मांसपेशियों की कमजोरी से ग्रस्त किसी मरीज के लक्षणों का कारण मायोपैथी /मस्कूलर डिस्ट्रॉफी है या कुछ और। एन्ज़ाइम को हिन्दी में उत्प्रेरक (केटेलिस्ट) व प्रकिण्ब के रूप में जाना जाता है। ये खास प्रकार के रसायन हैं इनके हज़ारों रूप शरीर में विभिन्न उत्तकों में नाना प्रकार की रासायनिक क्रियाओं की गति को बढ़ावा देते हैं। सी.पी.के. नामक एन्ज़ाइम मांसपेशियों के संकुचन में लगने वाली ऊर्जा के उत्पादन में मदद करता है।

डिप्लोपिया – आंखों की मांसपेशियों की कमजोरी की वजह से एक वस्तु का दो दिखाई देना।

डिस्फेज़िया – खाद्य पदार्थों को निगलने में कठिनाई।

डिस्ट्रॉफी – यह शब्द दो ग्रीक शब्दों से बना है – डि (गलत ) स्ट्रोफ़ी (पोषण)

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