मुझे खुशी है कि मैं, समाग संस्था से और एम.एस.एस.आई से और अन्य संस्थाओं के साथ खड़ा हुआ हूँ और अपने द्वारा जितना भी सम्भव हो सकता है उसमें योगदान देता रहता हूँ। स्वस्थी और उनके परिवार वालों का साधुवाद की उन्होंने ये बीड़ा उठाये रखा है। पिछले दस वर्षों में मैंनें विभिन्न न्यूरोलॉजिकल बीमारियों को लेकर मरीजों के समूह या मरीजों के संगठन बनाने की कोशिश करी, और उसमें मुझे अधिक सफलता नहीं मिली। न्यूरोलॉजिकल बिमारियों में अफेजिया, पक्षाघात, पार्किन्सोनिज्म, मिर्गी, सेरीबेलम अटेक्सिया, एल्जाइमर्स रोग, ऐसी अनेक बिमारियों को समय-समय पर लेकर मैंने मरीजों की मिटिंग आयोजित करी तो मुझे खुशी है कि ये जो अटेक्सिया ग्रुप है, एम.एस.एस.आई ग्रुप है, या सेरीब्रल पाल्सी ग्रुप है ये अच्छा काम कर रहे हैं, जो मैं एक मिनिट पहले कह रहा था कि मुझे पर्याप्त सफलता नहीं मिली उसके पीछे, मेरे द्वारा प्रयासों की कमी भी एक कारण है, जितना समय और जितना प्रयास मुझे करना चाहिये था मुझे इन विभिन्न बिमारियों पर आधारित संगठनों को और आगे बढ़ाने के लिये मैं उतना मैं नहीं दे पाया।
नेतृत्व की कमी और भारतीय समाज की सोच
मेरा ऐसा सोचना था कि एक डॉक्टर के नाते, एक विशेषज्ञ के नाते, मैं एक बीज रोप सकता हूँ, मैं एक खाद का काम कर सकता हूँ, मैं एक उत्प्रेरक के रुप में कार्य कर सकता हूँ लेकिन अन्ततः उस पौधे को बढ़कर एक वृक्ष बनना है तो वो खुद ही बनना पड़ेगा, उसको अपनी जमीन खुद ही ढुंढना पड़ेगी और उसकी जो लीडरशिप है वो उन्हीं मरीजों में से और उनके देखभालकर्ताओं में से ही आना पड़ेगी। डॉक्टर एक मददगार हो सकता है, मार्गदर्शक हो सकता है, सलाहकार हो सकता है, लेकिन बिमारियों के आधार पर संगठनों का फलना-फूलना, उनकी संख्या बढ़ना, उनकी गतिविधियां बढ़ना, अन्ततः उन संगठना के सदस्यों की जिम्मेदारी है। और यह देख कर मुझे दुः दुःख हुआ, पिछले दस सालों में, पंद्रह सालों में कि इस प्रकार बिमारियों पर आधारित समूहों में से नेतृत्व उभर कर आने का सपना जो मैंने देखा था वो पूरा नहीं हो पाया, लीडरशिप नहीं निकली, शुरुआत करने की कोशिश जरुर करी मगर फिर वो नहीं बढ़ पाये।
ये शायद भारतीय समाज की सोच है कि हम बिमारियों के संगठन के प्रति उतने आकर्षित नहीं होते, उसको हम उतनी प्राथमिकता नहीं देते, उसके द्वारा क्या लाभ हो सकता है उसका हम अनुमान नहीं लगा सकते। हम लोग जाति या समाज पर जो संगठन बनते है जैसे- जैन सोशल ग्रुप, अग्रवाल सोशल ग्रुप, फलां सोशल ग्रुप, खूब ऐनर्जी लगाएंगे, खूब पैसा देंगे, खूब बढ़े-बढ़े सम्मेलन करेंगे, कितना समय देंगे, उसका एक अंश उर्जा अपनी अगर बिमारियों पर आधारित समूहों में दे देंगे, तो कल्याण होगा समाज का ज्यादा बजाय कि आप धर्म और जाति के संगठनों में टाइम लगाते रहें लेकिन जैसा कि होता है जैसा कि हर चीज के अपवाद होता है और सुखद अपवाद भी होतें है, स्वस्थीवाद एक सुखद अपवाद है, उसने इन्दौर में इस संगठन का बीड़ा उठा कर रखा है, और अनेक कार्यक्रम समय-समय पर होते रहे हैं और हर बार कुछ न कुछ नई सोच जो बड़ी सकारात्मक होती है और जो बड़ी व्यवहारात्मक होती है, प्रेक्टीकल होती है, यूजफूल होती है, ऐसी सोच लेकर आती है और जब इस बार उसने प्रस्ताव किया अल्पजात न्यूरोलॉजिकल बिमारियों की जागरुकता और देखभालकर्ताओं के मनोसामाजिक समस्या पर करेंगे तो ये मुझे बहुत ही उपयुक्त, बहुत ही एप्रोप्रियेट, बहुत ही मौजु थीम लगी और यह बहुत खुशी की बात है कि आज हम लोग यहाँ इस चीज पर इकट्ठा हुए हैं।
रेयर बीमारियों की चुनौती, इलाज और समस्याएं
अल्पज्ञात मतलब रेयर, बहुत सारी बिमारियां हैं न केवल न्यूरोलॉजिकल, बहुत सारी बिमारियां हैं जो बहुत रेयर है, बहुत कम पायी जाती है, उनसे पीढ़ित मरीजों की संख्या लाखों में एक होती है। भारत जैसे देश में जहाँ एक अरब बीस करोड़ लोग रहते हैं, कई बिमारियां है जिनके कुल मरीजों की देशभर में संख्या कुछ हंड्रेड या कुछ थाऊजंड में होगी, पूरे भारत जैसे देश में। तो ऐसी बिमारी जिसके द्वारा पीड़ित मरीजों की संख्या फ्यू थाऊजंड, या फ्यू हंड्रेड में है, उनको हम रेयर डिसीज बोलेंगे, अल्पज्ञात बिमारियां बोलेंगे, और ये दुर्भाग्य की बात है, चान्स की बात है कि इन अल्पज्ञात बिमारियों में न्यूरोलॉजिकल बिमारियों का कोटा ज्यादा बड़ा है। और भी सिस्टम की बिमारियां है जिनमें अल्पज्ञात होते हैं, कार्डियोलॉजी में, गेस्ट्रालॉजी में, लीवर में, सर्जरी में, सब जगह अल्पज्ञात बिमारियां है लेकिन न्यूरोलॉजी के पास ज्यादा बड़ा कोटा है अल्पज्ञात बिमारियों का और प्रत्येक बीमारी का स्वरुप अलग-अलग है, प्रत्येक बीमारी का कारण अलग-अलग है, प्रत्येक बीमारी की पैथालॉजी अलग है, रोग विकृति अलग-अलग है, उनमें उपचार होगा या नहीं, उसकी संभावनाएं अलग-अलग है, ज्यादातर का उपचार नहीं है, ज्यादातर अल्पज्ञात बीमारियों का उपचार नहीं है कुछ का हो सकता है तो इसको हम कहते हैं अल्पज्ञात की त्रासदी (जैम ज्तंहमकल व ितंतम) तो आज हम इस मीटिंग में इस ट्रेजडी की चर्चा करने के लिये बैठे हैं, कि जो रेयर है उसकी क्या समस्याएं है, जैसे कहते हैं ना कि जंगल में मोर नाचा किसने देखा।
जागरूकता और शिक्षा की भूमिका
अब ये मोर खुद इतना दुर्लभ हैं कि वो नाचता भी है लेकिन कोई नहीं देखता। बहुत दुर्लभ पक्षी है, जैसे कोई रेयर बर्ड होती है। बड़ा खरमोर, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, और वो बेचारा जंगल में किसी ने नहीं देखा, किसी भी रोग से पीड़ित मरीजों की भलाई के लिये, उनके इलाज के लिये, उनकी देखभाल के लिये, उन्हें जो मनोवैज्ञानिक सहारा चाहिये, सोशियल इकानॉमिक और साइको सोशल उसके लिए दो शर्त होती है एक तो अवेयरनेस और एक एजुकेशन, जागरुकता और शिक्षा तो अगर किसी बीमारी के बारे में जागरुकता ही नहीं है तो आज समस्याओं को हल नहीं कर पायेंगे, लोग जानते ही नहीं है कि क्या बला है, ये क्या चीज है, एक बार कोई चीज जब विसीबल हो जाती है, ऑडिबल हो जाती है, दिखने लग जाती है, लोग जानने लगते हैं तो फिर अगला सवाल उठता है कि अच्छा हाँ ये, इसके लिये क्या करना है? वो क्या करना है वो बाद में उठता है। लोग जानते ही नहीं कि अटेक्सिया क्या है या लोग जानते ही नहीं कि एम.एस. क्या होता है, जानते ही नहीं कि मोटर न्यूरॉन डिसीज क्या होती है, अवेयरनेस। तो ये अवेयरनेस कौन करेगा? हम ही लोगों को करना है, हम लोगों से मेरा मतलब उन बीमारियों से पीड़ित मरीज हैं वो, उनके जो देखभालकर्ता है वो और उन बीमारियों का इलाज करने वाले डॉक्टर्स वो और फिर बॉयचांस कुछ लोग जो इनसे जुड़ जाते हैं, जैसे आप में से कई लोग है जो सामाजिक रुप से जुड़ते हैं इनके साथ में। सोशल कारणों से जुड़े हैं, तो एक बार आप किसी कॉज या किसी उद्देश्य के प्रति समर्पित हो जाते हैं तो फिर बात आगे बढ़ती है तो इन अल्पज्ञात बीमारियों को लेकर अवेयरनेस बढ़ाना है, वो अवेयरनेस कैसे बढ़ायें इसकी चर्चा हम लोग आपस में करना चाहेंगे।
उपायों पर चर्चा
उसके लिये हम क्या स्ट्रेटजीस अपना सकते हैं, क्या उपाय अपना सकते हैं, ऐसे उपाय जो बहुत महंगे भी ना हो, लेकिन सफल भी हो, क्योंकि हर जगह पैसे लगते हैं अवेयरनेस बढ़ाने के लिए। अखबार वाले कोई विज्ञापन आपका मुफ्त में तो नहीं छाप देंगे, मीडिया वाले, टी.वी. चैनल वाले, मुफ्त में तो नहीं दे देंगे। तो अवेयरबेस बढ़ाना ना बहुत कठिन काम हैं, और उसके ऊपर में दो तीन मुद्दों पर आऊंगा। लेकिन सबसे बड़ी चीज है संगठन, यदि इस तरह के संगठन सफल हुए तो हम मिलकर यह काम कर पाएंगे। आज कि इस मीटिंग की रिपार्टिंग अगर मीडिया ढंग से अगर थोड़ी बहुत भी हो जाती है, वो अवेयरनेस के लिये ढंग से हो जाती है वो अवेयरनेस के लिये पहला कदम होगा। और भी कुछ उपायों की हम चर्चा करेंगे इस मिटिंग के अन्दर की इन रेयर बीमारियों के बारे में अवेयरनेस बढ़ाने के लिये हमें क्या करना है। और अवेयरनेस के सबसे पहले टारगेट कौन है?
अवेयरनेस के सबसे पहले टारगेट हैं हम खुद या हमारे रिश्तेदार, या हमारे अपने परिजन, या अपने मित्र उनको ही नहीं पता है कि क्या बीमारी होती है? उसके बाद आता है जनरल पब्लिक, उसके लिये हमको मास्क मीडिया पर जाना पड़ेगा। अवेयरनेस के टारगेट है मेडिकल प्रोफेशन, डॉक्टरों को ही नहीं पता की अटेक्सिया क्या होता है? डॉक्टरों को नहीं पता कि मल्टीपल स्क्लोरोसिस के ईलाज में क्या-क्या नये इंजेक्शन निकल आये हैं, तो अवेयरनेस और एजुकेशन एक दूसरे से आपस में जुड़े हुए हैं, तो जैसे-जैसे हम अवेयरनेस बढ़ाते हैं उसकी हम साथ-साथ एजुकेशन भी बढ़ाते हैं।
जनरल पब्लिक, डॉक्टर्स और पॉलिसी मेकर्स
तो इस एजुकेशन के और अवेयरनेस के टारगेट है जनरल पब्लिक, और डॉक्टर्स और मेडिकल स्टॉफ, मीडिया, पॉलिसी मेकर, पॉलिटिशियन, ब्यूरोक्रेट्स, आई.एस. ऑफीसर्स, ये सब लोब नीतियां बनाते हैं, तो इन नीतियों में हम चाहते हैं कि इन बीमारियों में पीड़ित मरीजों के लिये फलां-फलां सुविधाएं होना चाहिये पब्लिक सेक्टर में, क्योंकि प्रायवेट सेक्टर बहुत महंगा पड़ता है।
अगर पब्लिक सेक्टर में हमको ये सुविधाएं बढ़ाना है तो हमको अवेयरनेस बढ़ाना पड़ेगी, और एजुकेशन बड़ाना पड़ेगा पॉलिटिशियन्स का, एम.एल.एस का, मिनिस्टर्स का, ब्यूरोक्रेट्स का, आई.एस. ऑफीसर्स का, प्रिंसिपल सेक्रेटरी का, ज्यूडिशियरी का, पुलिस का मीडिया का, ये अवेयरनेस सब जगह जाना पड़ेगी तभी तो हमारी बात आगे बड़ेगी, जो सिस्टम हम चाहते हैं कि पब्लिक सेक्टर, हास्पिटल्स में विभिन्न बिमारियों से पीड़ित और खास तौर से रेयर केस बीमारियों से पीड़ित मरीजों के इलाज के लिये कि जिसमें की प्रायः इलाज महंगा होता है, अगर है भी तो, या तो है ही नहीं इलाज। और अगर नहीं है इलाज तो बाकि जो बाकि सपोर्ट मिलना चाहिये भले ही इलाज न हो लेकिन इसका मतलब यह थोड़े कि सपोर्ट नहीं मिलना चाहिये। कई तरह के सपोर्ट है जो पब्लिक सेक्टर से मिलने का हक है लेकिन रेयर बीमारी है, आवाज ही नहीं उठती, संख्या बल नहीं है। राजनीति में तो संख्या बल होता है। पॉलिटिशियन्स जब चुनाव का प्रचार करते हैं तो देखते हैं कि किस जाति के कितने वोट हैं और कौन मेरे लिये कितने वोट ला सकता है। हम लोगों के पास संख्या बल नहीं है बहुत कम मरीज है। हमारी आवाज तो कारखाने में तुती के समान है लेकिन अगर सारे संगठन मिल जाएं तो शायद थोड़ी संख्या हो सकती है और उस संख्या बल के कमी को कैसे पूरा करना उसके रास्ते हमें निकालना पडेंगे, अल्पज्ञात न्यूरोलॉजिकल बीमारियों की जागरुकता, अवेयरनेस और एजुकेशन को बढ़ाने के लिये इन पर हमें विचार करना पड़ेगा।
नेशनल और लोकल असोसिएशन्स
एक असोसिएशन है, दुनिया के कई देशों में हैं। इस तरह की रेयर बीमारियों को लेकर नेशनल असोसिएशन है, रिजनल असोसिएशन है, राज्य स्तर के संघ है, राष्ट्रीय स्तर के संघ है, अब ये समग है इसकी शुरुआत हैदराबाद से हुई और उन्होंने देश के अनेक शहरों में इस तरह के संगठन स्थापित करने की कोशिश की लेकिन स्वस्ती मुझे बता रही थी कि ईवन जो हैदराबाद का ग्रुप है उनकी स्थिति इन दिनों अच्छी नहीं है, इस तरह के संगठनों को सस्टेन करना बड़ा कठिन काम होता है, तो हमें राष्ट्रीय संगठन की जरुरत है, स्थानीय संगठन की जरुरत है, एक संस्था है नोर्ड (छन्द) नार्थ अमेरिकन आर्गनाइजेशन ऑफ रेयर डिसिजेस। तो उन्होंने क्या करा नार्थ अमेरिका में रेयर डिसिजेस के जितने भी नेशनल असोसिएशन थे उन सब का एक फेडरेशन बनाया, नेशनल नेटवर्क बनाया, बोले ठीक है- तुम भी रेयर, तुम तुम भी रेयर, तुम भी रेयर पर हम सब मिलकर थोड़े कम रेयर हो जायेंगे। और वो लोग एडवोकेसी करते हैं, पेरवी करते हैं राष्ट्रीय स्तर पर, फेडरल लेवल पर, सिनेट में जाते हैं, वाशिंगटन जाते है, मेम्बर ऑफ कांग्रेस से मिलते हैं, नेशनल लास चेंज करवाने की कोशिश करते हैं, एक्ट पास करवाने की कोशिश करते हैं, एडवोकेसी करते हैं,
ओर्फेन ड्रग एक्ट
उन्होंने एक एडवोकेसी आज से बीस साल पहले की थी. उसको बोलते हैं ‘ओर्फेन ड्रग एक्ट’ (Orphan Drug Act) ओर्फेन मतलब अनाथ। तो ऐसी बीमारियां जो रेयर होती है वो अनाथ बीमारियां होती है उनका कोई माईबाप नहीं होता। क्योंकि उनके पास संख्या बल नहीं है, और ये जो रेयर बीमारियों में अगर कोई इलाज भी निकलना है तो जो मालीक्यूल रिसर्च होकर निकलेगा ड्रग ट्रॉयल के बाद वो कोई ड्रग कम्पनी उसमें पैसा ही नहीं लगाना चाहती, क्यों कि मार्केट नहीं है अरे कितने मरीज है देशों में हम क्यों डेवलप करें इस ड्रग को उनको ‘ओर्फन ड्रग’ बोलते हैं, तो इस नोर्ड असोसिएशन ने पेरवी करके ओर्फेन ड्रग एक्ट पास कराया जिसके द्वारा उन ड्रग या ऐसी कोई ड्रग जो ऐसी बीमारियों में उपयुक्त होने वाली है जिसके मरीजों की संख्या बहुत कम है, उसके डेवलपमेंट के लिये, गवर्नमेंट की तरफ से प्रावधान किये गये कि टेक्स नहीं लगेगा, इतना इंसेंटिव मिलेगा, ढेर सारी सुविधाएं दी गई, ताकि उस ड्रग के डेवलपमेंट में जो पैसा लगना है वो कम हो जाए, अन्य ड्रग की तुलना में। तो ऐसा ओफॅन ड्रग एडवोकेसी करके उन्होंने बनाया, इस तरह की एडवोकेसी की जरुरत है, अगर वो जागरुकता आयेगी तो ही हम कर पायेंगे नेशनल लेवल पर, और स्थानीय स्तर पर छोटी-छोटी चीजें है जो हम अचीव कर सकते हैं अगर हम जागरुकता बढ़ायें तो, कभी-कभी बायचांस, बायलक कोई चीज ऐसी हिट हो जाती है, वायरल हो जाती है जैसे आइस बकैट चेलेंज, कुछ दिनों पहले आपने सुना होगा। ‘आइस बकैट चेलेंज’ तो इसका अचानक से फेशन चालू हो गया, राष्ट्रपति ओबामा से लेकर दुनियाभर के अनेक लोगों ने अपने ऊपर बर्फ का ठण्डा पानी डाला और उसका फोटो खिंचवाया, और ये एक रेयर न्यूरालॉजिकल बीमारी थी वही जो स्टीफन हॉकिन्स को है, मोटर न्यूरॉन रोग। बहुत रेयर बीमारी है, उसकी अवेयरनेस वाले लोगों को सम्भव ये आइडिया आया और बाय किस्मत वा हिट हो गया।
जागरूकता के लिए इन्नोवेटिव आइडियाज
तो कम से कम मोटर न्यूरॉन डिसीज के बारे में अवेयरनेस तो बड़ी। अब ये जरुरी नहीं कि वो आइस बकैट चेलेंज हो जाये। वो किस्मत की बात है कभी-कभी, वो कोई और दूसरा चेलेंज इजाद करना पड़ेगा इन लोगों को, वो चांस की बात है। तो ऐसी कुछ चीजें है जिनसे अवेयरनेस बढ़ाई जाती है। अब एक बार अवेयरनेस बढ़ती है तो गवर्नमेंट की तरफ से रिसर्च फंड मिलने की उम्मीद बढ़ जाती है और कुछ फिलेन्थ्रोपिस्ट आ जाते हैं लोगों के पास पैसा है देने के लिए पता नहीं कहाँ देना, ऐसे भी लोग है इस दुनिया में उनको कोई कारण दिख जाता है, कोई कॉज दिख जाता है कि अरे हर हाँ ये अच्छा उद्देश्य है चलो इसमें दे देते हैं। पर अवेयरनेस ही नहीं तो कौन देगा पैसा फिलेन्थ्रोपिस्ट री क्यों देने लग जायेंगे। चेरिटेबल लोग भी क्यों देने लग जायेंगे। अगर उनको अच्छा कॉज दिखेगा तो वो देंगे। तो गवर्नमेंट दे सकती है, दानदाता दे सकते हैं, समाज दे सकता है, या तो कोई एक बड़ा दानदाता बड़ा अमाउण्ट दे सकता है या हजारों लोग छोटा-छोटा अमाउण्ट दे दें और उस तरह से भी फंड आ सकता है। कई तरीके हैं। तो अल्पज्ञात बीमारियों की जागरुकता बढ़ाने के लिए संगठन होना जरुरी है, इन्नोवेटिव आइडिया आना जरुरी है, आइस बकैट चेलेंज जैसे, मीडिया के साथ इंटरेक्शन बहुत जरुरी है ऐसी मीटिंग होना बहुत जरुरी है यदि प्रत्येक मीटिंग अगर होती रही, और समहव मीडिया आपके साथ को ऑपरेटिव रहा और एक मीटिंग को उन्होंने अच्छे से कवर कर लिया अगले महीने की, उसके अगले महीने की, उसके अगले महीने की, इस बीमारी की, अगली बीमारी की, तो धीरे-धीरे अवेयरनेस बढ़ेगी जब बार-बार इस तरह की खबरें आएगी अगर आप हर बार कोई गतिविधि करोगे और आपके साथ अगर मीडिया का सहयोग रहेगा तो अवेयरनेस बढ़ती चली जाएगी।
एक और चीज हो सकती है अवेयरनेस बढ़ाने के लिये। और वो है डायरी लिखना। डायरी। इस तरह के जितने भी परिवार है उनमें या तो मरीज स्वयं, या उसके परिवार का कोई देखभालकर्ता अगर डायरी लिखे। अब डायरी लिखने की प्रतिभा हर किसी के पास नहीं होती। पर कुछ के पास तो होगी। और खासतौर पर यदि वो डायरी अच्छी साहित्यिक भाषा में हो। चाहे हिन्दी में हो, चाहे अंग्रेजी में हो, चाहे किसी भाषा में हो। यहि हम एक अच्छी साहित्यिक डायरी लिख पाएं। दिन प्रतिदिन के अनुभवों को लेकर कहानी के रुप में, पटकथा के रुप में, स्क्रिप्ट के रुप में और वो अगर प्रकाशित होने लग जाए तो उससे अवेयरनेस बढ़ेगी। और मीडिया इस में सहयोग जरुर करेगी मैं जानता हूँ। क्योंकि Media is always in each ok good stories or this will good story for them. कि हां यह एक परिवार है जो इससे जूझ रहा है। यह एक देखभाल करता है जिसने अपने अनुभव लिखें हैं, अपने मेमा आर्ट्स लिखें हैं।
फिल्मों का प्रभाव
तो यहां जितने भी परिवार बैठें हैं। उन सबके लिये मेरा अनुरोध है कि आप इस दिशा में सोंचे। और फिर अगर अच्छा लिखते हैं तो उसको छपने के लिये भेजें और उस पर अगर कोई फिल्म बन जाएं तो क्या बात है। और फिल्म ऐसी हजारों स्क्रिप्ट हो तो किसी एक पर बनेगी वो भी किस्मत की बात हैं। जब डिस्लेक्सिया नामक बीमारी पर ‘तारे जमीं पर फिल्म’ तो उस रोग के बारे में जागरुकता बढ़ी उसके बाद लोगों को समझ में आया कि कुछ बच्चे हैं जो इंटेलिजेंट होते है लेकिन उनको लिखने पड़ने में दिक्कत होती है। लेकिन बाकि जगह उनकी प्रतिभा बहुत अच्छी है। अगर ऐसी फिल्म तारे जमीं पर डिस्लेक्सिया के लिये जो काम कर सकती है। ऐसी और भी विषयों पर भी फिल्म बनी है। और अभी जो मैं फिल्म देख कर आया जिसकी चर्चा कर रहे थे ‘द थ्योरी ऑफ एवरीथिंग’ अभी परसों ही मैंने देखी आखिरी शो था इन्दौर में पी.वी.आर. में ट्रेजर आइलैंड के अन्दर। इसके पहले कि वो डिसमेंटल हो रहा है या रिन्यू हो रहा है तो ‘द थ्योरी ऑफ एवरीथिंग’ स्टीफन हॉकिन्स के जीवन पर आधारित फिल्म है और उस फिल्म के बारे में मोटर न्यूरॉन डिसीज के बारे में लोगों को जागरुकता बढ़ती है।
तो फिल्में ऐसी होना चाहिये जो कहानी के रुप में आपका ज्ञान बढ़ाये न कि भाषण के रुप में या ड्रामा या स्टोरी, स्टोरी के रुप में हो लिटरेचर के रुप में हो न कि लेख के रुप में। लेख व भाषण की उपयोगिता अपने जगह अलग है। लेकिन लोग बोर हो जाते हैं लेख और भाषण से। लोगों को स्टोरी चाहिये, फिल्म चाहिये, नाटक चाहिये, ड्रामा चाहिये, उसमें आप गुथ के, उसमें आप अपने संदेश को ऐसे पिरोते जाओ कि बोरीयत न लगे उसको पढ़ने में फिर भी संदेश पहुँच जाए। ऐसी स्टोरी हमें चाहिये। बीमारियों के बारे में।
तो ये जो फिल्म थी थ्योरी ऑफ एवरीथींग इसको देखकर देखभालकर्ताओं की समस्याओं का भी आपको जायजा होता है यह फिल्म जरुर देखना चाहिये। ऐसी बहुत सारी फिल्में बनी हैं। भारत में कम, पर ओर जगह ज्यादा बनी हैं। इसमें यह बताया है कि स्टीफन हॉकिन्स को जब इस बीमारी की शुरुआत हो गई और उसकी डायग्नोसिस हो चुकी थी और डॉक्टर ने यह कह दिया था कि तुम्हें लगभग दो वर्ष की आयु है। उस समय उनकी उम्र 25 से 30 साल की होगी। और उनकी जो गर्लफ्रेण्ड थी नहीं आपकी बीमारी अपनी जगह है पर मैं तो आपसे ही शादी करूंगी। तो उससे शादी होती है, उनको 30 वर्ष का वैवाहिक जीवन बताया है। और इसमें तीन बच्चे उनके पैदा होते हैं। और इन तीन वर्षों में ही स्टीफन हॉकिन्स अपनी तमाम महान खोजें करते हैं। और उनकी पत्नी कितनी शिद्दत के साथ केयरगीवर उनकी देखभालकर्ता का काम करती है। और पत्नी भी बहुत इंटेलीजेंट है बहुत पढ़ी-लिखी है।
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