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चिकित्सा विज्ञान में प्रगति (Progress in Medical Science)


किसी व्यक्ति, परिवार,समूह या राष्ट्र की श्री सम्पदा में उतार चढ़ाव प्राय: सभी पहलुओं को एक साथ या समानान्तर रूप से प्रभावित करते हैं। भौतिक, शैक्षणिक, बौद्धिक, स्वास्थ्य सम्बन्धी, खेलकूद, मनोरंजन आदि सभी क्षेत्र अक्सर एक साथ सुधरते या बिगड़ते हैं। हालांकि कुछ अपवाद हो सकते हैं। जैसे कि केरल या क्यूबा या श्रीलंका आर्थिक पायदान में भले ही नीचे हो पर स्वास्थ्य सूचकांकों के मामलों में वे समृद्ध हैं। दुनिया का सबसे धनी और ताकतवर माना जाने वाले देश अमेरिका में करोड़ों लोग प्राथमिक स्वस्थ्य सेवाओं से वंचित हैं।

पिछले कुछ दशकों में चिकित्सा क्षेत्र में भारतीय सम्पदा में श्रीवृद्धि हुई है। औसत आयु बढ़ी है। शिशु मृत्युदर, मातृ-मृत्युदर, पोषण आदि सूचकांकों में सुधार हुआ है। अनेक संक्रामक रोगों की दर कम हुई है। चेचक के बाद अब पोलियो भी उन्मूलन के कगार पर है। अस्पतालों, चिकित्सकों और स्वास्थ्यकर्मियों की न केवल कुल संख्या बल्कि जनसंख्या से उनके अनुपात में भी बढ़ोतरी हुई है। सुदूर ग्रामीण अंचलों तक प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं में संख्यात्मक और गुणात्मक सुधार हुआ है। चिकित्सा महाविद्यालयों और अन्य शैक्षणिक संस्थाओं से प्रशिक्षण और डिग्री प्राप्त करने वालेडाक्टर्स तथा दूसरे स्वास्थ्यकर्मियों की वार्षिक संख्या में इजाफा होने से जनसंख्या की तुलना में उनका अनुपात सुधरने की सम्भावना बढ़ी है। विकसित देशों में उपलब्ध नवीन औषधियाँ और टेक्नालाजी अब भारत में लगभग उसी समय या कम विलम्ब से उपलब्ध हो जाती हैं, जबकि आज से 4 दशक पूर्व यह अन्तराल बहुत लम्बा हुआ करता था। एक चिकित्सा छात्र के रूप में 1970 के दशक में मैं जो बातें मेडिकल टेक्स्ट बुक्स में पढ़ता था, वे अनेक सालों बाद मुझे देखने को मिलती थी। आज के छात्रों के साथ ऐसा अब कम ही होता है। अच्छे स्तर का इलाज कम खर्च पर उपलब्ध होने से मेडिकल टूरिज़्म बढ़ा है।

अन्तरराष्ट्रीय शोध में भारत की भागीदारी बढ़ी है। अनेक उच्च कोटि की नवीन औषधियों के विकास हेतु अध्ययन/परीक्षण/ ट्रायल अब भारत में इतनी गुणवत्ता के साथ होने लगे हैं कि यहाँ से प्राप्त डाटा की विश्वसनीयता के आधार पर यूरोप, अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया आदि राष्ट्रों के औषधि संचालक, नवीन दवाइयों को मान्यता देने लग गये हैं। अन्तरराष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में भारतीय लेखकों के शोध प्रपत्रों की संख्या बढ़ी है, परन्तु चीन जो पहले हमसे पीछे था, अभी आगे निकल गया है। अनेक भारतीय शोध पत्रिकाओं को पब-मेड जैसी मानक  संस्थाओं द्वारा मान्य किया गया है। लेकिन अधिकांश भारतीय शोध दोयम दर्जे का तथा पुनरावृत्ति या पुष्टिकरण की शैली का है, न कि नया, मौलिक या परिवर्तनकारी।

आम लोगों की औसत आयु व क्रय शक्ति बढ़ने से अब लोग स्वास्थ्य पर अधिक खर्च करने लग गये हैं। | जब सी.टी. स्केन, एम.आर.आई. जैसी महंगी जाँचें निजी क्षेत्र में पहली बार शुरू हुई थीं तो शक होता था कि भला कितने लोग इन्हें करा पायेंगे। परन्तु देखते ही देखते हजारों लाखों लोग इन्हें कराने लगे। सैंकड़ों नये केंद्र खुलते गये। दुःख की बात है कि सार्वजनिक क्षेत्र की लीडरशिप स्वास्थ्य सेवाओं में पिछड़ गई। निजी क्षेत्र में इलाज करवाना स्टेटस सिम्बल (प्रतिष्ठा का सूचक) माना जाने लगा।

1978 में महात्मा गाँधी स्मृति चिकित्सा महाविद्यालय, इन्दौर और उसकी पूर्ववर्ती संस्था किंग एडवर्ड मेडिकल स्कूल के शताब्दी समारोह में तत्कालीन राष्ट्रपति श्री नीलम संजीव रेड्डी, मुख्य अतिथि के रूप में आये थे। उन्होंने तब एक मार्के के बात कही थी – ‘स्वास्थ्य सेवाओं से मेरा अच्छा परिचय है। मैं आँध्रप्रदेश का मुख्यमंत्री बना था। मंत्री मंडल के सदस्यों के विभागों का बँटवारा हो रहा था । सब लोगों से उनकी राय और रुचि के अनुसार आवंटन होता गया। अन्त में स्वास्थ्य विभाग बचा रहा । जिसे मैंने अतिरिक्त प्रभार के रूप में सम्हाला।’

उक्त वाक्‍या क्‍या इंगित करता था? राजनीतिज्ञों के लिये स्वास्थ्य विभाग प्रिय नहीं था। क्यों ? क्योंकि उसमें बजट कम रहता था, कमाई कम रहती थी। आज स्थितियाँ बदली हैं। योजनाकारों और नीति निर्माताओं ने अधोसंरचना के विकास के मूलाधारों के रूप में शिक्षा और चिकित्सा के महत्व को, देर से ही सही, पर दुरूस्ती के रूप में समझा है। 11वीं पंचवर्षीय योजना में जिस तरह शिक्षा को प्राथमिकता दी गई, 12 वीं योजना में वैसा ही स्वास्थ्य के साथ किया जा रहा है। आज भी सकल राष्ट्रीय आय का बहुत छोटा प्रतिशत (1-1.5% ) शासन द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाता है। निजी क्षेत्र की भूमिका अलग है पर उसकी सेवाएँ, गरीबों की पहुंच से बाहर हैं या प्रतिवर्ष लाखों निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों को कर्ज में डूबो कर, गरीबी की रेखा के नीचे उतार देती हैं। स्वास्थ्य में समृद्धि की पहली शर्त सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश हैन कि महंगे पांच सितारा अस्पताल। उम्मीद है कि आगामी वर्षों में यह प्रतिशत अन्य प्रगतिशील विकसित व विकासमान देशों के समकक्ष हो जायेगा।

अनेक विचारवान लोगों के मन में. प्रश्न उठता रहता है कि स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में दिखाई पड़ने वाली समृद्धि महज भौतिक है, दिखावे की है। सही समृद्धि वह होगी जो लोगों के दिलों को छुए, आश्वस्त करे, दिलासा दे, भरोसा या विश्वास बनाये रखे। असली समृद्धि ऊंचे चमचमाते भवनों में नहीं बल्कि डाक्टर और मरीज के आस्था भरे सम्बन्धों में परिलक्षित होती है। क्या हम भौतिक प्रगति की कीमत पर, आत्मिक अवगति की दिशा में अग्रसर हैं? मैं नहीं जानता कि सच क्‍या है । मेरी आशावादी सोच कहती है कि षड़यंत्रों तथा बुरे का अंदेशा करना मानव की सहज मनोवृत्ति है जो अनादिकाल से चली आ रही है। पहले सब अच्छा था। अब सब खराब होता जा रहा है, ऐसा प्रत्येक पीढ़ी सोचती रहती है। जबकि इतिहास गवाह है कि समाज कभी गर्त में नहीं जाता। छोटे-मोटे स्थानीय उतार चढ़ाव चलते रहते हैं परन्तु मानव जाति की मूल और सहज प्रवृत्ति और नियति, निरन्तर विकास और बेहतरी में ही रही है और आगे भी रहेगी।
स़च है कि आज भी करोड़ों बीमारों को सही इलाज नहीं मिल पाता है। परन्तु प्रश्न यह है कि गिलास आधा भरा है या आधा खाली ? हम में से अनेक लोग 1950 से 1990 तक के लाईसेंस कोटा परमिट राज व 2.5% की हिन्दु प्रगति दर के जमाने के प्रति न जाने क्यों आज भी.नोस्टाल्जिक महसूस करते हैं जबकि आँकड़े व जमीनी सच्चाई जोर-जोर से कहते हैं कि….

1990 के बाद के दो दशकों में अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ, स्वास्थ्य में समृद्धि आई है। पुराने जमाने में अधिकतर लोग गरीब थे अत: असमानता कम थी। अपवर्ड मोबिलीटी (समृद्धि की दिशा में गतिशीलता) के इस युग में ऐसा प्रतीत होता है कि गैर बराबरी बढ़ रही है। यह अपनी अपनी विचार धारा का चयन है कि समृद्धि और समानता के बीच श्रेष्ठतम संतुलन का स्तर कैसे तथा किन पैमानों द्वारा ढूंढा जाए?

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