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दिल्ली के दंगे – एक डॉक्टर की डायरी


यह लेख किसी ख्यातनाम पत्रकार का नहीं है, बल्कि उस डॉक्टर की डायरी के कुछ हिस्से है, जो उसने दिल्‍ली के आयुर्विज्ञान संस्थान में उन दो दिनों के दौरान लिखे, जब पूरा दिल्‍ली जल रहा था…..!

बुधवार 31 अक्टूबर को दिन में ग्यारह बजे सिटी बस में बैठ कर स्टेशन जा रहा था अपना स्कूटर लाने के लिए। तभी रास्ते में भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान की रिंगरोड वाली साइड पर पुलिस दिखी। दो लडके बताने लगे, सुना है इन्दिरा गांधी को गोली मार दी गई है। मैं वहीं उतर पडा। बडी मुश्किल से मुझे पुलिस ने अन्दर जाने दिया। सीधे एक्स-रे विभाग पहुंचा, जहां मेरी ड्यूटी थी। सारा काम ठप्प था, सब लोग सून्‍न थे। अस्पताल पुलिस ने घेर रखा था।

श्रीमती गांधी को अस्पताल लाने में लगभग 20-25 मिनट लगे होंगे। उनके निवास पर प्राथमिक चिकित्सा न की गई, न सम्भव थी और ना ही आवश्यक। साधारण कार में पीछे डाल कर उन्हें लाया गया। संस्थान में सूचना मिलते ही तैयारी हो गई थी। सारे जरुरी डॉक्टरों को ताबडतोड सूचनाएं दी गई। आकस्मिक चिकित्सा के कमरे से सारी भीड हटा दी गई। सभी लिफ्ट ग्राउण्ड पर खडी कर दी गई।

श्रीमती गांधी की अवस्था अस्पताल पहुँचने पर क्या थी? इस बारे में अस्पष्ट बातें सुनने को मिली। कुछ जूनियर डॉक्टर, जिन्होनें श्वांस नली में ट्यूब डालने व किसी ने इण्ट्राविनस इंजेक्शन की प्रक्रिया में भाग लिया था, के अनुसार उस समय इन्दिरा गांधी के प्राण उखड चूके थे। भारी मात्रा से खून बह जाने से शॉक लगा होगा। शरीर एकदम सफेद था, पुतलियां फैल कर चौडी हो चुकी थीं। उनमें टार्च की तेज रोशनी से कोई हरकत नहीं थी, श्वास बन्द थी, हृदय शान्त, नाडी गायब, खून अभी द्रव अवस्था में था जमा नहीं था। श्रीमति गांधी को तुरन्त आठवीं मंजिल के ऑपरेशन थियेटर में ले जाया गया। इस बीच उन्हें कृत्रिम श्वॉस दी जाती रही। ‘दिल की मालिश भी की जाती रही। शरीर पर घाव भीषण थे। दायीं और फेफडा, लिवर, आन्तें खून की बडी धमनियां, पीछे रीढ की हड्डी में स्थित स्पाइनल कार्ड सभी क्षतिग्रस्त हो चुके थे। बडी तेज गति से हार्ट-लंग मशीन (हृदय व फेफडो का कृत्रिम काम करने वाली) से उनके शरीर की मुख्य रक्‍त वाहिनियों को जोड़ दिया गया। इसे कार्डियो पल्‍्मोनरी बायपास कहते हैं। यह हृदय शल्य क्रिया विशेषज्ञ का काम था। अन्य सर्जन गोलियों के घावों की मदद करते रहे। आठ गोलियां निकाली गई। खून खूब बहता रहा। तकरीबन 75 बोतल खून दिया गया इन्दिरा जी का रक्त वर्ग ओ-निगेटिव था, जो कुछ कम ही मिलता है। परन्तु उसकी कोई समस्या नहीं थी। सामान्य दिनों में भी प्रधानमंत्री के वर्ग के खून की बोतलें अस्पताल में हमेशा रखी जाती हैं। उनकी म्याद पूरी होने पर उन्हें नष्ट कर फिर नई बोतलें रख दी जाती हैं। प्रधानमंत्री निवास से आयुर्विज्ञान संस्थान के बीच हमेशा चलने वाला वायरलेस संट लगा रहता है। लेकिन इस सबके बावजूद काम क्या आया ?

एक्स-रे विभाग के हमारे कमरे से नीचे मुख्य द्वार का दृश्य साफ-साफ दिखाई दे रहा था। दिन भर वह स्थान दर्शक गैलरी बना रहा था। एक के बाद एक नेता आते। कुछ बाहर रोक दिये जाते। जो अति-विशिष्ट होते, वे अन्दर चले जाते उस दिन हर वो चेहरा आम हो रहा था, जो अन्य दिनों में खास रहा करता था। बाहर भारी भीड जमा होती जा रही थी। विशिष्ट व्यक्तियों से दरवाजे के सामने का चबूतरा पूरा भर गया था। हम डॉक्टरों के आने जाने पर भी रोक लगी हुई थी लेकिन सख्ती के साथ नहीं। कोई व्यक्ति एप्रेन या स्टेथो के साथ आसानी से ऊपर जा सकता था। मैं आठवी मंजिल तक नहीं जा सका क्योंकि, मेरे पास अपने को डॉक्टर सिद्ध करने का कोई साधन नहीं था। वैसे बहुत से छात्र और डॉक्टर अन्दर घुस गये थे। जो सुबह से ही अपने काम से वहां थे, वे तो थे ही। ऑपरेशन थियेटर की कतार के बाहर जो लम्बा गलियारा है, वह तीन-चार फीट चौडा 400 मीटर लम्बा होगा। इस गलियारे में दोनों ओर ठसाठस नेतागण खडे थे, जिन्हें नीचे रोका नहीं जा सकता था। अनेक राज्यों के मुख्यमंत्री, राज्यपाल, केन्द्रीय मंत्री, विपक्षी नेता, सभी वहां थे। मुझे ख्याल था कि सुरक्षा की द्रष्टि से वह गलियारा निहायत खतरनाक हो रहा था मैं घूम-घूम कर जायजा लेता रहा। इन्दिरा जी की मौत की औपचारिक घोषणा में देर की जाती रही। डॉक्टरों को शायद निर्देश थे कि जैसे भी हो समय निकालना है। राष्ट्रपति और राजीव गांधी बाहर थे। तकनीक द्रष्टि से श्रीमती गांधी के घावों की देखभाल करना थी फिर शरीर को रात में इस तरह तैयार किया गया ताकि अगले तीन दिन वह बिगडे नहीं ।

शाम को बाजार बन्द थे और सन्नाटा था। शाम के समाचार पत्र हाथों-हाथ बिक रहे थे। हिन्दुस्तान ने डेढ बजे ही ऑफिस के बाहर मृत्यु की घोषणा कर दी थी मन को बुरा लग रहा था। अधिक बुरा इस बात का कि अन्त: आतंकवादियों को इतनी बडी सफलता मिल गई। घावों पर समय से जो मलहम लगता वह फिर से हरा हो गया था। खालिस्तानी जानते होंगे कि इस हत्या की प्रतिकिया में सिक्ख लोग जो नुकसान उठाएंगे, उससे हिन्दू और सिक्ख लोगों के बीच खाई और बडेगी। यही तो उनका उद्देश्य है। सिहरन सी उठती है। क्या यही होगा? यह आम राष्ट्रवादी सिक्‍खों को हिन्दू द्वारा पिटवाकर उन्हें खालिस्तान बनने को प्रेरित करने की योजना नहीं थी?

उस भाम भीड में उत्तेजना बडती गई। नारे फूटने लगे “देश के गद्दारों का नाश हो, सरदारों का नाश हो।’ कुछ उत्तेजित लोगों से मैंने बात करने की कोशिश की। लेकिन बेअसर। रात 8 बजे रिंग रोड और साउथ एक्स-टेन्सन का दृश्य देखकर दिल दहल उठा। इतनी होलियां मैंने एक साथ कभी ना देखी होंगी। बडी-बडी दुकाने जल रही थी, कारें स्कूटर जल रहे थे। कुछ लोगों ने हमें आगाह किया कि हेलमेट उतार कर स्कूटर चलाएं, ताकि दूर से किसी को भी भ्रम न हो। सडकों से वाहन कम होते जा रहे थे। आयुर्विज्ञान संस्थान से लौटने के लिए बडी मुश्किल से एक रिक्शावाला तैयार हुआ।

आकस्मिक चिकित्सा का दो दिन तक बुरा हाल रहा। बुधवार शाम से शुक्रवार शाम तक दिल्ली में राज्य नाम की कोई चीज नहीं थी। अस्पताल में घायलों का तांता सा लग बंध गया था। पहले सिक्ख आते रहे, बाद में हिन्दू आने लगे। अनुपात बराबर का ही रहा होगा। लेकिन हिन्दुओं को लगे घाव घातक और गहरे थे। यह इस बात का प्रमाण था कि लडाकू कौम कौन सी है और उसकी तैयारी कैसी है। बेंचो पर खून से सने बालों कों फैलाए और पास ही पडे हिन्दू घायलों को एक साथ कराहते देखकर मन में इस वहशीपन के खिलाफ गुस्सा उमड पडा। क्यों हम अलगाव वादियों की मंशा के अनुरुप काम किए जा रहे हैं? उत्प्रेरक हम क्‍यों बने? बहुत जल्दी हार मानने वाले दिमाग ने कहना शुरु कर दिया। दे दो इन्हें खालिस्तान! परन्तु क्या समस्या का यही अन्त है?

गुरुवार की एक नवम्बर की शाम अस्पताल की सातवीं मंजिल से दिल्ली को देखा। किसी ऊंचाई से नगर का विहंगम दृश्य देखना मुझे अच्छा लगता है। दशहरे पर शाम के धुंधलके में देखा था बहुत से रावणों के जलने की रोशनी को। अभी एक सप्ताह पहले ही इसी ऊंचाई से देखा था दीवाली की जगमगाहट को । इस शाम देखा कि सफदरजंग रोड वाला बडा चौराहा वीरान है और हर कुछ सौ मीटर की दुरी पर उठ रही थी धुएं की काली लकीरें या आग की लपटें। बचाव के कोई लक्षण नहीं। फायर ब्रिगेड की घण्टी एक बार भी मिल जाती तो थोडी तसल्ली कर लेता। लेकिन इस खामोशी को तोडने के लिए वह भी नहीं थी। और अन्धेरा बड जाने पर देखा कि सामने सफदरजंग अस्पताल के गेट के बाहर सेना के ट्रकों की कतार सी लग गई थी। थोडी राहत महसूस की। पैदल गेट तक गया। पहाडी चेहरे वाले नौजवान रंगरुट भौचक्के से मूर्तिवत खडे थे। उन्हें देखकर तरस आया क्‍या राष्ट्र सेना का अब यही उपयोग रह गया है।

तीन दिन से दूध नहीं मिला है। चाय नहीं मिली है। काली चाय पीने की आदत डाल ली है। डॉक्टरो की मेस का बुरा हाल है। राशन खत्म। सिर्फ चावल और पानी वाली दाल मिल रही है। मिल बैठकर दिल का गुबार निकाल लेते हैं तो अच्छा लगता है। फोन पर सम्पर्क के सारे सूत्र टूट गये है। ट्रंक सेवा ठप्प पडी है। कितने अभागे परिवार अपने संदेशो को पहुँचाने में लगे होंगे। अब घृणा से नफरत सी होने लगी है। आज देश को फिर एक बार ‘बापू’ की जरुरत महसूस होने लगी है……………. क्या कहीं कोई संकेत मिल रहा है?

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