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सारे जहां का दर्द हमारे जिगर ‘लिवर’ में है।


प्रसिद्ध यूनानी नायक पृमथ्यु स्वर्ग से आग चुरा लाया था, धरती के लोगों के लिये। स्वर्ग के देवताओं ने उसे सजा दी थी एक शिला पर जंजीर से बांधकर – जहां रोज गरूड़ आदि पक्षी नोंच-नोंच कर उसका लीवर खाते थे – लीवर फिर उग आता था। पीड़ा चलती रहती | इस पुरातन कथा में एक वैज्ञानिक तथ्य है – लिवर में पुनर्वृद्धि की बड़ी क्षमता होती है। तीन चौथाई लीवर नष्ट होने पर बचा हुआ भाग फिर बढ़कर पूर्ण बन सकता है।

तब से आज तक लीवर एक महत्वपूर्ण अंग माना जाता रहा है। वह है भी जीवन के लिये आवश्यक । लोग सही ही कल्पना करते हैं कि यह अंग हमारे पेट में होता है। इस शब्द का उपयोग साहित्य व मुहावरों की भाषा में काफी व्यंजना के साथ होता है। मुरादाबाद के एक शायर ने अपना उपनाम यही रख लिया । दिल या हृदय के समान इसे भी मधुर भावनाओं का केंद्र माना जाता है। कहीं इसका उपयोग साहस के प्रतीक में किया जाता है। परन्तु इन सब धारणाओं का महत्व सिर्फ शाब्दिक है। हमारे व्यक्तित्व, स्वभाव, चरित्र, भावना आदि किसी बात में लिवर का सीधा दखल नहीं होता है।

लीवर और कलेजा शब्द भी कभी-कभी समान अर्थ में प्रयुक्त किये जाते हैं। इसके कार्यों के बारे में बड़ी अस्पष्ट धारणाएं हैं। इसका सम्बन्ध पाचन क्रिया से जोड़ा जाता है। जो आंशिक रूप से सही है। लीवर द्वारा बनाया जाने वाला रस पित्त पाचन में मदद करता है परन्तु ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं। पेट की हर बीमारी या लक्षण का सम्बन्ध लीवर से जोड़ना गलत है। कब्ज, पेट साफ न रहना या तथाकथित “गैस का अधिक बनना जैसे सामान्य लक्षण प्रायः लीवर की खराबी में नहीं होते।

बहुत से लोग कहते पाये जाते हैं ‘इस बच्चे को लीवर है’ या ‘इस बच्चे को लीवर हो गया है’ । यह कहना गलत है। लीवर का होना तो जन्म से जरूरी है | इसके बगैर हम जिन्दा नहीं रह सकते । सही यूं कहना चाहिये “क्या लीवर की कोई खराबी या बीमारी है?’

‘लीवर का होना’ इस घोषणा मात्र से अनेक माता पिता बेकार ही चिन्तित होते हैं। बच्चा दुबला हो, बढ़ता न हो तो भी ‘लिवर होने’ की आशंका की जाती है। बहुत से मौकों पर डाक्टर बच्चे का पेट टटोलकर गम्भीर मुद्रा में कहते हैं ‘इसका लीवर बढ़ गया है’ | इस बात से भी माता पिता भारी दुःख में पड़ जाते हैं| वे नहीं जानते कि 4-5 साल की उम्र तक बच्चों में लीवर का आकार थोड़ा बड़ा होता है। जो बच्चे की बढ़त के साथ अपने आप ठीक हो जाता है। लोगों को इस अज्ञान व व्यग्रता का फायदा बहुत से नीम-हकीम व लिवर विशेषज्ञ कहलाने वाले डाक्टर उठाते हैं | वे इलाज का नाटक करते हैं।

लीवर तो पहले से ही ठीक था। थोड़ा बहुत पोषण सुधर जाने से बच्चे की हालत बदल देते और फिर यों दर्शाते हैं मानो कोई असाध्य रोग ठीक कर दिया।

वे सारी परिस्थितिया जिन्हें जनता ‘लिवर होने’ का कारण मानती है। कुल मिलाकर ????????? होती हैं। बच्चो को पर्याप्त मात्रा में संतुलित आहार न मिल पाना उनकी कमजोरी का प्रमुख कारण है परन्तु दुर्भाग्य से लोग उसे लीवर के मत्थे मढ़ते हैं।

न जाने, किन किन चीजों के खाने की मनाही कर रखी है बड़े बूढ़ों ने और आयुर्वेद ने। परन्तु वैज्ञानिक आधार पर आज तक कोई सबूत नहीं मिले कि गाढ़ा दूध या मलाई या घी देने से बच्चो में लीवर होता हो । उल्टे ये तो उर्जा के श्रेष्ठ साधन हैं । एक वर्ष की उम्र का बच्चा घी, तेल या मलाई की सीमित मात्रा बखूबी पचा सकता है । लोग डरकर बच्चों को कम भोजन देते हैं।

भोजन के साथ लीवर की खराबी का सम्बन्ध सीमित व अज्ञात है । कुपोषण से जरूर लीवर खराब होता है। इसी प्रकार शराब भी कुपोषण के द्वारा लीवर को नुकसान पहुंचाती है। खाद्य तेलों में अल्फा्टॉक्सिन नामक जहरीले पदार्थों की मिलावट के महत्व पर भी शोध चल रही है | लीवर की बीमारियों के पीछे ये गलत धारणाऐं क्यों पनपीं ? 

हमारे देश में बच्चों में सिरोसिस नामक लीवर की बीमारी पाई जाती है। यह दुनिया के किसी अन्य देशों में नहीं होती। इस बीमारी में प्रायः शिशु की मृत्यु हो जाती है । इसका कारण आज तक वैज्ञानिकों को नहीं मालूम | सही उत्तर के अभाव में अटकलबाजियों का बाजार गर्म होता है। हमारे देश में वहीं स्थिति है। कोई भी तथाकथित लीवर-विशेषज्ञ इसका इलाज नहीं कर सकता परन्तु इसके प्रति व्याप्त भय का इलाज वह सामान्य बच्चों के माता-पिताओं में करता है।

‘इंण्डियन चाइल्डहुड सिरोसिस’ याने बच्चों में लीवर की असली खराब बीमारी को रोकने या जल्दी पहचानने का क्या उपाय है ? मुझे दुःख है कि इस प्रश्न का भी कोई निश्चित उत्तर नहीं है। सिर्फ यही कहा जा सकता है कि ईमानदार योग्य शिशु रोग विशेषज्ञ की सलाह लीजिये । कुल मिलाकर यह बीमारी बहुत ही थोड़े बच्चों को होती है। लीवर की बीमारियां अनेक प्रकार की होती हैं व उसंके लक्षण भी भिन्न भिन्न । पीलिया एक प्रमुख लक्षण है 5-20 दिन में प्राय: ठीक हो जाने वाला आम पीलिया वायरस नामक सूक्ष्मतम कीटाणुओं द्वारा लीवर में सूजन से होता है। ये कीटाणू पीने के पानी के माध्यम से पेट में और फिर रक्त द्वारा लीवर तक पहुंचनते हैं । चूंकि आज तक वायरस को मारने वाली कोई खास दवा निकली नहीं, इसलिये आम पीलिया में किसी प्रकार का विशिष्ट इलाज बेमानी है और जो किया जाता है वह महज मरीज के मनोवैज्ञानिक संतोष के लिये। यदि सघे तो मरीज मेरे अनुसार सामान्य भोजन ले सकता है। पीलियो में मरीज की भूख खत्म हो जाती है। और उल्टियां होने लगती हैं, ऐसी स्थिति में ग्लूकोज के इंजेक्शन देना पड़ते हैं। दो तीन सप्ताह में आराम के बाद मरीज ठीक हो जाता है । परन्तु 5-40 प्रतिशत में समस्याऐं आती हैं।

बहुत थोड़े से मरीजों में लीवर पर आने वाली सूजन अचानक बड़ी तेजी से आती है। लगभग समूचे लीवर को नष्ट कर देती है व मरीज बेहोशी की अवस्था में पहुंच जाता है । हिपेटिक कोमा नामक इस अवस्था का इलाज बड़ा कठिन है।

सिरोसिस नामक बीमारी बड़ों में भी होती हैं। अधिकतर लोगों में इसका कारण पता नहीं लगता पर कुछ लोगों में कुपोषण, शराब, पहले का पीलिया आदि इसकी वजह हो सकते हैं । सिरोसिस वह अवस्था है जिसमें लीवर सिकुड़कर सख्त हो जाता है व उसके कार्य मंद पड़ जाते हैं ।इससे मरीज के पेट में पानी भर जाता है, तिल्ली बढ़ जाती है, पैरों पर सूजन आती है, खून की कमी होती है, कमजोरी आती है । दुर्भाग्य से इस अवस्था का भी कोई रामबाण इलाज नहीं है।

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