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पत्राचार (Letter by Dr. Apoorva Pauranik)


“वह भी क्या ज़माना था जब हम पत्र लिखा करते थे”

पत्र लिख-भेजना और पात्र-पाना व पढ़ना मुझे सदैव प्रिय रहा हैं | टेलीफोन, इन्टरनेट, वीडियों-फ़ोन के आने के बाद से चलन कम हो गया हैं | ऐसा लगता हैं कि कुछ खो गया हैं | संवाद भले ही किसी न किसी रूप में चलता रहता हैंलेकिन पारंपरिक खतो किताबत की बात ही निराली हैं |

इन्टरनेट, ई-मेल, मेसेंजर, चैट रूप, वाट्सएप, फेसबुक आदि पर त्वरित टिपण्णी होती हैं या कभी विलम्ब से भी हो सकती हैं | लघु टिप्पणियां अधिक होती हैं, हालांकि अनेक लोग, अनेक अवसरों तथा प्लेटफॉर्म्स पर लम्बी व गंभीर चर्चा भी करते हैं | लेकिन कुछ अधुरापन लगता हैं, पुराने ज़माने में चिट्ठी लिखते समय हम अपना दिल उढ़ेल देते थे, या फिर गंभीर विचार विमर्श करते थे | सोच समझ कर लिखते थे | हमारी लिखावट एक पहचान होती थी | लिफ़ाफ़े की अपनी खासियतें होती थी कि लोग मज़मून भाप लेते थे | कागज़ व स्याहीका उपयोग विशिष्ट होता था | पत्रों को सहेजना, फाइल करना, बार बार पढ़ना, हाथ फेरना, निहारना, सूंघना – कितनी क्रियाएं, कितना आनंद देती थी |

“फुल नहीं दिल” भेजा करते थे | भाई बहन के राखी व भुजरिया का आदान प्रदान होता था |

इस खंड में योजना हैं कि डॉ. अपूर्व पौराणिक के चुनिन्दा पत्रों के संपादित अंश रखे जायेंगे

1. माँ और पापा, बहने, पुत्र, पुत्री

2. पत्नी नीरजा

3. मित्र

4. अन्य

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