सेरीब्रल पाल्सी के कितने नाम?
इसे अनेक नाम से पुकारते हैं-
अंग्रेजी नाम का संक्षिप्त रूप है। सी.पी (सेरीबल मस्तिष्क गोलार्ध; पाल्सी = लकवा, फालिज, पक्षाघात, पेरेलिसिस)
हिन्दी में शाब्दिक अर्थ हुआ मस्तिष्क गोलार्ध पक्षाघात यह बहुत कठिन नाम है। सरल भाषा में कहें तो दिमागी लकवा। चूंकि यह रोग प्रायः जन्म के समय से मौजूद रहता है अतः इसे जन्मजात लकवा या शिशु लकवा या बाल लकवा भी कह सकते हैं।
सेरीब्रल पाल्सी से पीड़ित बच्चों के शरीर की मांसपेशीयाँ प्रायः अकड़ी हुई, कड़क होती है। हाथ पैर को हिलाने डुलाने में जकड़न या प्रतिरोध का अनुभव होता है। ऐसी अवस्था को स्पास्टिक नामक विशेषण से व्यक्त करते हैं। अतः सेरीब्रल पाल्सी से ग्रस्त बच्चे कई बार स्पास्टिक बसे भी कहलाते हैं।
सेरीब्रल पाल्सी क्या है? एक दुर्घटना, मस्तिष्क के साथ घटनेवाली एक दुर्घटना ! सेरीब्रल पाल्सी की तुलना, आप एक्सीडेन्ट से कर सकते हैं। मस्तिष्क को नुकसान पहुंचाने के उपरांत शेष बची विकृति का नाम सेरीब्रल पाल्सी है।
कैंसर या अन्य जीवाणुजनित रोग समय के साथ बढ़ते जाते हैं। किन्तु सेरीब्रल पाल्सी इस प्रकार स्वतः ही बढ़ने वाली समस्या नहीं है।
सेरीबल पाल्सी की परीभाषा –
यह रोग विकसित हो रहे मस्तिष्क में अनेक प्रकार की खराबियों था नुकसान की बजह से होता है। मस्तिष्क कब विकसित हो रहा होता है? मां के गर्भ में जन्म के समय और जन्म के बाद के आरम्भिक एक दो वर्षों में। मस्तिष्क में आने वाली खराबी किस प्रकार की हो सकती है ? इन्फेक्शन, रक्तप्रवाह में रोक, चोट, रक्तस्त्राव, आनुवांशिक, अनेक मामलों में खराबी अज्ञात या अप्रकट रहती है।
इस रोग में बच्चे का शारीरिक मोटर (प्रेरक) विकास धीमा या अवरुद्ध या असामान्य हो जाता है। मोटर (प्रेरक) विकास का सम्बन्ध मांसपेशियों की शक्ति, अंग संचालन, सटीकता व संयोजन से है। मोटर (प्रेरक) तंत्र के बूते पर ही शरीर की तमाम गतियां संचालित होती हैं। सेरौब्रल पाल्सी रोग के लक्षण व दुष्प्रभाव या तो स्थायी रहते हैं या उम्र के
साथ कुछ हद तक ठीक हो सकते हैं। सेरीब्रल पाल्सी बढ़ने वाला या बिगड़ने वाला रोग नहीं है, जो नुकसान मस्तिष्क में एक बार होना था वह हो चुका अब और ज्यादा नहीं होगा। मोटर (प्रेरक तंत्र) के कारण मांसपेशियों व अंगों के संचालन के अलावा
अनेक मामलों में मस्तिष्क सम्बन्धी कुछ और खराबियां व दुष्प्रभाव मौजूद रह सकते हैं। जैसे मन्दबुद्धि, मिर्गी, देखने व सुनने की क्षमता में कमी आदि। इन अतिरिक्त दुष्प्रभावों के मौजूद रहने या न रहने से सेरीव्रल पाल्सी की परिभाषा में कोई असर नहीं पड़ता ।
प्रमुख कारण –
बहुत से मामलों में कारण अज्ञात होता है। यह रोग अपने आप ही प्रकट होता है। कुछ कारण तो है, परन्तु जांच के बाद भी प्रकट नहीं होता। यदि कारण ज्ञात हो जाये तो मुख्य उदाहरण है।
अ. समय से पूर्व प्रसव (प्रीमेच्युरिटी) कम वजन या छोटा शिशु 7 वें था 8 वें महिने में पैदा होने वाला बथा। (ऐसे बचों में मस्तिष्क में रक्तस्थाव व रक्त अल्पता की समस्या अधिक होती है।
ब. गर्भावस्था के दौरान शिशु के मस्तिष्क विकास में विकृति या अवरोध, जिनेटिक खराबियों, माता के रोग जैसे इन्फेक्शन, बुखार, रक्तचाप, मधुमेह, नशा करना, कुपोषण, चोट ।
स. प्रसव के दौरान गड़बड़ी यह उतना प्रमुख या महत्वपूर्ण कारण नहीं है जितना कि अभी तक आम तौर पर समझा जाता है। लोग अक्सर आरोप लगाते हैं या शंका करते हैं कि जन्म की प्रक्रिया के दौरान स्त्री रोग विशेषज्ञ या दाई द्वारा ठीक से देखभाल न किये जाने से शिशु को नुकसान पहुंचा । परन्तु बाद के वैज्ञानिक आकलनों से यह ज्ञात हुआ कि सेरीब्रल पाल्सी होने का अंदेशा (90% में) प्रसव के पहले से मौजूद रहता है। प्रसुति की खराबियाँ बहुत कम मामलों में (केवल 10%) सी.पी. का कारण बनती हैं। जन्म के समय ऑक्सीजन की तथा कथित थोड़ी बहुत कमी अनेक शिशुओं को हो सकती है, सबके सब सेरीब्रल पाल्सी के शिकार नहीं होते। जिन बच्चों का ए.पी.जी.ए. आर. स्कोर कम होता है, उनमें सी.पी. होने की आशंका निश्चय ही अनेक गुना बढ़ जाती है। अनेक अच्छे भले बच्चे सामान्य प्रसुति के बावजूद सी. पी. से ग्रस्त हो सकते हैं। विकसित देशों में बेहतर प्रसुति सेवाओं के फलस्वरूप शिशु मृत्युदर में कमी आयी है। परन्तु सेरीब्रल पाल्सी की व्यापकता कम नहीं हुई है।
प्रसव के बाद नवजात शिशु की समस्याओं के कारण सी.पी.
बच्चे का दम घुटना, ऑक्सीजन की कमी, श्वास नली में कोई खाद्य या
अखाद्य वस्तु का अटकना ।
दुर्घटनावश जहर का सेवन ।
पानी में डूबना ।
सिर की गम्भीर चोटें ।
अनेक प्रकार के इन्फेक्शन या संक्रमण रोग जो मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं। जैसे कि मेनिन्जाइटिस, एन्सेफेलाइटिस, (दिमागी बुखार), मस्तिष्क मलेरिया आदि ।
सेरीब्रल पाल्सी से मिलती जुलती अवस्थाएं जो वास्तव में भिन्न हैं-
पोलियो – पोलियो का असर मस्तिष्क पर नहीं वरन् रीढ़ की हड्डी के अन्दर स्थित स्पाइनल कार्ड पर पड़ता है, पोलियो जन्मजात नहीं होता, काफी बाद में होता है। 6 माह की उम्र से 5 वर्ष की उम्र तक हो सकता है। पोलियो में हाथ पैर की मांसपेशियों में जकड़न, अकड़न नहीं होती बल्कि ढीलापन, नरमपन व शिथिलता होती है। न्यूरोलाजिस्ट की हथोड़ी से जांच करने पर सी.पी. में हाथ-पांव उचकते हैं, झटका आता है जबकि पोलयो में मांसपेशियां निदाल पड़ी रहती हैं। सेरीब्रल पाल्सी में यदि मस्तिष्क नुकसान ज्यादा हो तो पक्षाघात के साथ-साथ बुद्धि, स्मृति, सोच-समझ वाणी, दृष्टि आदि पर भी असर रह सकता है जबकि पोलियो में ऐसी कोई बात नहीं होती ।
न्यूरो-क्षयकारी बीमारियाँ
तंत्रिका तंत्र (नर्वस सिस्टम) के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग किस्म की क्षयकारी बीमारियों हो सकती है। मस्तिष्क स्पाईनल कार्ड, नर्वस, मांसपेशियां प्रभावित हो सकते हैं। अनुवांशिक या किन्हीं अज्ञात कारणों से नर्वस सिस्टम के ये अंग स्वतः गलने लगते हैं, क्षय होने लगते हैं, नष्ट होने लगते हैं। समय के साथ रोग बढ़ता जाता है, बचे ने जो कुछ सीखा था, हासिल किया था, उसे खोने लगता है। विकास के पायदानों पर उपर चढ़ने के बजाय नीचे उतरने लगता है। इसके विपरीत सेरीब्रल पाल्सी में विकास धीमा परन्तु विपरीत दिशा में नहीं होता। न्यूरो क्षयकारी या डीजनरेटिव बिमारियाँ तुलनात्मक रूप से कम व्यापक है। इसके प्रमुख उदाहरण है।
मस्तिष्क = न्यूरान संचयकारी रोग
ल्युकोडिस्ट्राफी: विल्सन रोग : सेरीब्रल क्षय रोग, (अटेक्सिया, असंतुलन) डिस्टोनिया गतिज रोग, (मूवमेन्ट डिसआर्डर) केवल मन्दबुद्धिता, (मेंटल रिटार्डेशन)
स्पाईनल कार्ड (मेरुदण्ड तंत्रिका) अनुवांशिक स्पास्टिक पेराप्लीजिया, स्पाईनल मस्क्युलर एट्रोफी
तंत्रिका/नाड़ियां/नर्वस : न्यूरोपेथीः शारको मेरी टुथ रोग
मांस पेशियां: मायोपेथी डूशेन रोग
अन्य परवर्ती रोग – जन्म या शैशव के बाद अनेक प्रकार के रोग नर्वस सिस्टम पर असर डाल कगर सेरीब्रल पाल्सी से मिलती जुलती अवस्थाएं पैदा कर सकती है, उदाहरण
ब्रेन ट्यूमर (मस्तिष्क में गांठ), हाईड्रोसिफेलस (मस्तिष्क में पानी भर जाना), दुर्घटनाओं में सिर की चोट (हेड इन्ज्यूरी, दुर्घटनाओं में स्पाईनल कार्ड या नर्वस (तंत्रिकाओं) की चोट
सेरीब्रल पाल्सी का निदान –
डॉक्टर कैसे फैसला करते हैं कि किसी बच्चे को सेरीब्रल पाल्सी है या नहीं? बच्चे के माता-पिता से हिस्ट्री (इतिवृत्त या इतिहास) सुनकर निष्कर्ष निकाला जाता है। विकास की जानीमानी पायदानों पर बच्चे का सफर कितना पीछे है, या पता लगाना महत्वपूर्ण है। यह जानना भी जरूरी है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि एक उम्र तक बच्चे की बढ़त अच्छी थी और बाद में पिछड़ने लगा है, यदि ऐसा है तो सेरीब्रल पाल्सी की संभावना कम होगी क्योंकि सी.पी. का दुष्प्रभाव जन्म से या शुरु के महिनों से रहता है।
अनेक माता-पिता ठीक से इतिवृत्त या हिस्ट्री नहीं बता पाते, शायद कम पढ़े लिखे होते हैं या सरल और भोले होते हैं, या लापरवाह होते हैं। उन्हें नहीं पता होता है कि आमतौर पर स्वस्थ बच्चा 6 माह में बैठने या 12 माह में चलने और 18 माह में बोलने लगता है। यदि उनसे पूछो कि क्या आपके बच्चे का विकास सारे समय ठीक रहा तो वह बता नहीं पाते, ऐसी स्थिति में डॉक्टर का काम कठिन हो जाता है। क्योंकि सेरीब्रल पाल्सी के निदान का सारा दारोमदार इस हिस्ट्री पर ही टिका रहता है।
बहुत छोटे शिशुओं में बीमारी का सटीक निदान सम्भव नहीं, केवल आशंका व्यक्त कर सकते हैं। प्रतीक्षा करना पड़ती है, बच्चे की 18 माह की उम्र के पहले बताना सम्भव नहीं होता। अनेक माता-पिताओं के लिये यह अनिश्चितता और प्रतीक्षा, चिन्ता और व्यग्रता से भरी होती है।
हिस्ट्री के बाद चिकित्सक बच्चे के शरीर की जांच करते हैं। बदन को, हाथ पैर को हिला डुला कर देखते हैं, ठोंक बजा कर देखते हैं, मांसपेशियों में टोन (तन्यता) का आकलन करते हैं, गतियों की सुघड़ता और संयोजन पर गौर करते हैं, असामान्य मुद्रा (पोश्चर) और प्रतिवर्ती क्रियाओं (रिफ्लेक्स एक्शन) पर ध्यान देते हैं। औपचारिक परीक्षण के साथ-साथ अनौपचारिक अवलोकन भी उपयोगी रहता है। बच्चे को सामान्य सहज अवस्था में खेलते, खाते घूमते देखना चाहिये ।
एक बार का परीक्षण पर्याप्त नहीं होता, समय के अन्तराल पर परीक्षण दोहराना पड़ता है। स्थिति सुधर रही है बिगड़ रही है या स्थिर है इसका फैसला जरूरी है। सी.पी. में हालत प्रायः स्थिर रहती है, मामूली धीमा सुधार होता है, यदि तेजी से सुधार व बिगड़ाव हो रहा है तो सी.पी. के बजाय अन्य रोग होगा ।
सेरीब्रल पाल्सी के निदान में प्रयोगशाला परीक्षण की क्या भूमिका ?
ऐसी कोई प्रयोगशाला परीक्षण (एक्स-रे, सी.टी. स्केन, खून पेशाब की जांच) नहीं है जिसके आधार पर निश्चय से कहा जा सके कि किसी बच्चे को सेरीब्रल पाल्सी है या नहीं। यह फैसला तो शुद्ध क्लीनिकल आधार पर इतिवृत्त (हिस्ट्री) के आधार पर और शारीरिक जांच द्वारा लिया जाता है। फिर भी परीक्षणों की कुछ सीमित उपयोगिता है। सी.पी. से मिलती जुलती अन्य अवस्थाओं से भेद करने में मदद मिलती है।
सी.टी. स्कैन तथा चुम्बकीय एम. आर. आई. स्कैन की मदद की रचना के विस्तृत चित्र प्राप्त होते हैं। सेरीब्रल पाल्सी में ये चित्र सामान्य हो सकते हैं, यदि रोग की तीव्रता कम हो। अनेक प्रकार की खराबियाँ भी दिखायी पड़ सकती हैं, जो बीमारी के कारण, प्रकार व तीव्रता के बारे में जानकारी बढ़ा सकती हैं, फिर भी ऐसा विरले ही होता है कि उक्त जानकारी के आधार पर बच्चे के उपचार में कोई खास फर्क पड़े ।
बहुत से माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे की पूरी, सम्पूर्ण, विस्तृत जांच हो जावे, चाहे पैसे कितने भी लगें। उन्हें हम समझाते हैं कि बीमारी का निदान तो बगैर जांच के ही हो जाता है और इलाज भी प्रायः एक जैसा ही रहता है।
खून की कुछ विशेष जांचों द्वारा रासायनिक व अनुवांशिक बीमारी का निदान करने में मदद मिलती है।
सेरीब्रल पाल्सी के कितने प्रकार- कितने रूप
अ. शरीर का कौन सा और कितना भाग प्रभावित हुआ है? इस आधार पर निम्न प्रकार पहचाने जाते हैं –
हेमीप्लीजिया (अर्धांग लकवा)
डायप्लीजिया- दोनों पैरों का लकवा (अधिरंग लकवा)
क्वाड्रीप्लीजिया चारों हाथ पैरों का लकवा (चतुरंग लकवा)
मोनोप्लीजिया एक हाथ या एक पैर का लकवा
ब. शरीर के अंग की मांस पेशियों में टो (बन्यता) के आधार पर सी.पी. के निम्न रूपों में वर्गीकृत किया जाता है-
स्पास्टिक : अकड़ित /जकड़ित / कड़क । यही रूप सबसे अधिक व्यापक है।
हायपोटानिक : शिथिल, ढीला, कम उम्र के छोटे शिशुओं में सी.पी. की आरम्भिक अवस्थाओं में ऐसा कभी-कभी हो सकता है।
डिस्टोनिक – रिजिड : असामान्य विकृत मुद्राएं (पोश्चर) व असामान्य प्रेरक गतियाँ।
अटेक्सिक – असंयोजन, असंतुलन, अनगढ़ता, बारीक काम सफाई से न कर पाना, नशे जैसी झूमती चाल होना।
स. बीमारी की तीव्रता के आधार पर सेरीब्रल पाल्सी मडिम या मंझली या तीव्र हो सकती है।
सेरीब्रल पल्सी में मोटर सिस्टम (प्रेरक शक्ति व गति) की खराबी के अलावा और कौन सी अतिरिक्त कमियाँ हो सकती है? ये
अतिरिक्त समस्याएं उस मूल मस्तिष्क रोग के कारण हो सकती हैं जो खुद सेरीब्रल पाल्सी का भी कारण है। इसके अलावा अन्य कारणों से अन्य समस्याएं भी हो सकती है। इनका होना सदैव जरूरी नहीं है और इनके होने या न होने से सेरीब्रल पाल्सी की परिभाषा व निदान पर कोई असर नहीं पड़ता है।
मन्दबुद्धिता (मेन्टल रिटार्डेशन) इसकी व्यापकता अधिक है। लेकिन सेरीब्रल पाल्सी ग्रस्त कुछ बच्चे मेधावी हो सकते हैं। कमजोर बच्चे के स्कूल में दाखिला दिलाने से इन मेधावी बच्चों को मुश्किल होती है।
मिर्गी (एपिलेप्सी)
सीखने, समझने की विशिष्ट सीमित दिक्कतें (स्पेशल लर्निंग डिफेक्ट्स) पूरी तरह से मंदबुद्धिता नहीं परन्तु बुद्धि क्षमता का कोई एक खास पहलू प्रभावित हो सकता है। जैसे पढ़ना, लिखना, गणित, संगीत, चित्र बनाना, हाथों का हुनर आदि ।
चित्त चंचलता – अति सक्रियता (अटेंशन डेफिसिट डिसओर्डर) चित्त न हो पाना, सदा कुछ न कुछ करते रहना, कभी यहां कभी मामलों में तोड़ फोड़, मारपीट, काटना आदि ।
वहां, एकाग्र अनेक भोजन निगलने में दिक्कत : चबाने और निगलने में देरी, पेट का भोजन उलट कर भोजन नली या मुंह में आ जाना।
लार टपकते रहना : इसका नियंत्रण कठिन है। मुंह में स्थित लार ग्रंथि की नलिका का विस्थापन आपरेशन का सकते हैं। चमड़ी पर स्कोपोलामीन नामक औषधी का पट्टा चिपकाने से कुछ फायदा होता है।
दृष्टिदोष
श्रवण दोष
कुल्हे का जोड़ व अन्य जोड़ों तथा हड्डियों का खिसकना या विस्थापित होना ।
मूत्र मार्ग में रुकवाट, इन्फेक्शन
नींद की समस्याएं
गति न होने से हड्डियों में केल्शियम की कमी।
सेरीब्रल पाल्सी के उपचार में औषधियों की क्या भूमिका है ? सेरीब्रल पाल्सी के उपचार में औषधियों की भूमिका सीमित है, ऐसी कोई दवाई, टॉनिक या इन्जेक्शन नहीं है जो इस रोग को ठीक कर दे। मस्तिष्क में जो नुकसान हुआ है उसे मिटाना सम्भव नहीं।
दुर्भाग्य से अनेक माता-पिता किसी ताकत की दवाई की तलाश में भटकते रहते हैं। वे सपना देखते हैं किसी रामबाण औषधी का। चमत्कार की कल्पना इन्सान की मनोवैज्ञानिक कमजोरी है। दुःख की बात है कि कुछ डाक्टर भी उपरोक्त कटु सत्य बताने में संकोच करते हैं। मरीज के दबाव में उनके संतोष के लिये कोई दवाई या कोई नुस्खा लिख देते हैं। इससे मरीज को लाभ नहीं होता। अनावश्यक पैसा खर्च होता है। कभी दुष्प्रभाव हो सकते हैं।
फिर भी औषधियों का थोड़ा बहुत उपयोग है, सब बच्चों में नहीं, केवल थोड़ी सी चुनी हुई परिस्थितियों में, पूरे मूल रोग के लिये नहीं वरन् रोग के किन्हीं विशिष्ट पहलूओं के लिये ।
यदि सी.पी. ग्रस्त बालक को मिर्गी के दौरे आते हों तो औषधियाँ लम्बे तक देना होती हैं। दौरे रुक जाते हैं। कम हो जाते हैं और कुछ बच्चों में बौद्धिक विकास थोड़ा सुधर जाता है। कभी ऐसा भी देखा गया है कि मिर्गी के दौरे तो नहीं आये परन्तु ई.ई. जी. नामक जांच में मिर्गी नुमा खराबी पाई गई, इन बच्चों में मिर्गी विरोधी औषधी से बुद्धि एकाग्रता में शायद लाभ हो परन्तु यह विवास्पद है।
सेरीब्रल पाल्सी में मांसपेशियों की अकड़न / जकड़न / कड़कपन को कम करने के लिये एन्टी स्पास्टिसिटी औषधियाँ दी जा सकती है। इसका असर सीमित है, औषधियाँ महंगी है, दुष्प्रभाव होते हैं, सुस्ती व उनींदपन आ जाता है, फायदा तभी तक रहता है जब तक दवाईयाँ देते रहें।
विटामिन, आयरन, कैल्शियम, प्रोटीन आदि पूरक व कुछ बच्चों को दिये जाते हैं, यदि क्लीनिकल आधार पर शक हो कि उन्हें कुपोषण व कमी हो सकती है। कुछ बच्चों में सेरीब्रल पाल्सी की वजह से असामान्य हरकतें, गतियाँ व टेढ़ी-मेढ़ी मुद्राएं (पोश्वर) होती रहती हैं। इसे गतिज दोष (मूवमेंट डिसआर्डर) कहते हैं जो बच्चे को कार्यकलाप में बेहद खलल डाल सकता है। एन्टीकोलिनर्जिक प्रजाति की दवाईयों से कुछ बच्चों में अच्छा लाभ होता है।
अनेक औषधी निर्माता तथा वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के प्रेक्टिशनर्स सफल उपचार का दावा और प्रचार करते हैं। वैज्ञानिक आधार पर उनके दायों की पुष्टि नहीं हुई है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान (एलोपेथी) में किसी भी उपचार को उस समय तक तर्कसंगत व अनुशंसनीय नहीं माना जाता जब तक कि उसे मरीजों के बड़े समूह में व्यवस्थित और तुलनात्मक रूप से परखा न गया हो। इक्का दुक्का व्यक्तिगत अनुभवों और सुनी बातों के आधार पर निष्कर्ष नहीं निकालते ।
सेरीब्रल पाल्सी में क्या न करें
डब्ल्यू के आकर में नहीं बैठें।
मेंढक / खरगोश की तरह नहीं कूदें ।
आगे झुककर नहीं बैठे ।
ऐसे जोड़ों पर भार न डालें, जिन पर काम करने वाली पेशियों में ताकत कम
कसरत के समय बचे को डाँटें या डराएं नहीं।
कसरत के समय पेशियों को दर्दनय ढंग से न खींचे।
असामान्य प्रतिरूप से कोई भी क्रिया न करें।
सेरीब्रल पाल्सी में क्या करें।
सक्रिय व निष्क्रीय दोनों व्यायाम करें।
पालथी लगाकर सीधा बैठें।
पांवों को सीधा फैलाकर उन्हें एक दूसरे से जितना दूर रख सकें, स्खें ।
बच्चे के शरीर के कुद हिस्से गुदगुदाने पर वहां कि मांसपेशियों के सिकुडने
से उनमें ताकत लाना संभव है।
काम और आराम के समय जांघों और घुटनों को तकिये आदि की मदद से दूर रखें।
टीवी, रेडियो, वीडियो गेम्स की मदद से व्यायाम को मनोरंजक कार्य बनाएं 1
बच्चे का व्यायाम 24 घंटे चलता है। इसलिये सभी परिजन उसके हर काम । को निर्देशित करें ।
सेरीब्रल पाल्सी में सुधार की संभावनाओं का पूर्वानुमान (प्रोग्नोसिस) कैसे करें?
मेरा बच्चा कब ठीक होगा? कितना ठीक होगा? होगा कि भी नहीं? क्या वह चल पायेगा ? बोल पायेगा? पढ़ लिख पायेगा? अपनी स्वयं की देखभाल कर पायेगा ? माता-पिता के मन में बहुत से प्रश्न उठते रहते हैं। काश कि डाक्टर्स के पास भविष्य जानने की विद्या होती। 6 माह से 12 माह की उम्र के पहले किसी भी प्रकार का पूर्वानुमान लगाने का प्रयत्न करना व्यर्थ है। यदि जन्म के समय या आरम्भिक महीनों में यह ज्ञात हो जाये कि मस्तिष्क में नुकसान पहुंचा है तो माता-पिता को किसी बुरे परिणाम की आशंका से आगाह करना या नहीं? यह कठिन फैसला है। पूर्वानुमान गलत हो सकते हैं। अर्धान्ग लकवा (हेमीप्लीजिया) में सुधार की सम्भावना अधिक होती है। केवल एक आधा भाग (दायां या बायां) प्रभावित रहता है। दूसरा अच्छा होता है। अधिरंग लकवा (दोनों पैर) ग्रस्त बधे देर से चलते हैं या मुश्किल से चल पाते हैं परन्तु दोनों हाथ तथा वाणी बुद्धि कम प्रभावित रहने से आगे चल कर कुछ हद तक आत्मनिर्भर हो पाते है। चतुरंग घात (क्वाड्रीप्लीजिया, चारों हाथ पैर) निश्चय ही सबसे खराब अवस्था है। ये बचे शायद सदैव पराश्रित रहेंगे। सी.पी. के साथ साथ कभी-कभी मौजूद रहनेवाली अन्य समस्याओं (एपिलेप्सी आदि) पर भी पूर्वानुमान निर्भर करता है।
यदि बच्चे ने सिर उठाना व गर्दन संभापना नहीं सीखा है तो उसके बैठ पाने की सम्भावना दूर है। जो उसने अर्जित कर लिया है उतना तो बना रहेगा, उसे खोना नहीं चाहिये, यदि खोता है तो बीमारी सेरीब्रल पाल्सी नहीं वरन् कुछ और हो सकती है।
यदि बच्चे ने चार वर्ष की उम्र तक अपने आप बिना सहारे बैठना नहीं सीखा और आठ वर्ष की उम्र तक चलना नहीं सीखा तो आगे सुधार की उम्मीद कम है।
बोलने की क्षमता और बौद्धिक क्षमता का आकलन और पूर्वानुमान लगाना भी कठिन है। दो वर्ष की उम्र के बाद ही थोड़ा बहुत अंदाजा लगाया जा सकता है। हाथ, पैरों व चेहरे की मांसपेशियों की प्रेरक क्रियाओं (मोटर एक्शन) में बाधा रहने से बुद्धि, स्मृति, भाषा, ज्ञान, समझ आदि गुणों की माप करना कठिन होता है। अनुभवी और निष्णात क्लीनिकल सायकोपाजिस्ट (मनोवैज्ञानिक) की सेवाओं की जरूरत पड़ती है। वे विशिष्ट परीक्षण व जांच द्वारा विकास सूचकांक (डेवलपमेंटल क्वोशन्ट डी. क्यू.) तथा बुद्धि सूचकांक (इन्टेलिजेन्स कोशन्ट, आई. क्यू.) निकालते हैं।
आगे चलकर बौद्धिक विकास पर ही निर्भर होगा कि बच्चा किस हद तक बेहतर जीवन जी पायेगा। शारीरिक विकास की तुलना में बौद्धिक विकास का पूर्वानुमान से अधिक गहरा संबंध है। पहियेवाली कुर्सी (व्हील चेयर) में बैठा किशोर यदि बुद्धि से सामान्य हो तो जिन्दगी में बहुत कुछ कर सकता है।
जिन बच्चों में मस्तिष्क रोग की भीषण तीव्रता के बारे में शुरु से ज्ञात रहता है। उनमें यदि आगे चलकर कोई भला परिणाम न मिले (जिसकी आशंका पहले से थी) तो यह सोचने में आता है कि क्यों व्यर्थ ही इतना उपचार किया। इतना समय, धन, ऊर्जा खर्च करी, क्यों पहले से इलाज का मना न कर दिया। चिकित्सक के लिये और परिजनों के लिये भी यह पशोपेश और असमंजस की स्थिति होती है। चूंकि पूर्वानुमान लगने का विज्ञान सटीक नहीं है इसलिये चिकित्सक और जनक प्रायः आशावादिता की क्षीण सी किरण के सहारे प्रयत्न करते जाते हैं। शारीरिक परीक्षण, प्रयोगशाला जांच तथा अनेक महीनों के अवलोकन और अनुगमन (फॉलोअप) से यदि यह पक्का समझ में आ जावे कि अब और कुछ लाभ नहीं है तो निश्चय ही वह स्थिति आ जाती है जब अनावश्यक सक्रिय इलाज बन्द कर दिया जाना चाहिये।
इन तमाम परिस्थितियों में आशावाद और यथार्थवाद का एक सही सन्तुलन सदैव बनाए रखना चाहिये। बच्चे के मातापिता के साथ तफसीस से बातचीत के दौरान वर्तमान व भविष्य की सामर्थ्य के बारे में चर्चा करना चाहिये ।
सेरीब्रल पाल्सी के उपचार में फिजियोथेरापी की भूमिका क्या है?
फिजियोथेरापी का व्यायाम चिकित्सा में अनेक गतिविधियाँ शामिल हैं।
जहां मरीज में शक्ति न हो वहां परिजनों व थेरापिस्ट द्वारा गति कराना । जहां अंगों में कुछ शक्ति हो वहां मरीज को प्रोत्साहित करना, सिखाना कि वह उन मांसपेशियों को अभ्यास द्वारा सशक्त बनाएं। गति या मुवमेंट के गलत ढंग को सुधारना, मांस पेशियों में अकड़न आने से रोकना और यदि आ गई हो तो उसे कम करने के उपाय करना, जोड़ों की अकड़न के प्रति भी इसी उद्देश्य से काम करना। बाद की उम्र में जितनी भी दक्षता, शक्ति, सुगढ़ता विकसित हो पाई हो, उसी के बूते पर दैनिक कार्यों को निष्पादित करने की कला, तरकीबें, उपाय और ट्रिक्स सिखाना, इन कामों में आर्थोटिक उपकरणों की मदद का विज्ञान सम्मत निर्णय लेना और उनके बेहतर उपयोग का प्रशिक्षण देना ।
इन तमाम उपायों से लाभ होता होगा, हालांकि वैज्ञानिक शोध की कसौटियों पर सबूत जुटाना, मुश्किल रहा है। फिर भी सकारात्मक सोच बना रहता है। कुछ करते रहने के अहसास से सार्थकता का बोध रहता है फिजियोथेरापी जल्दी से जल्दी आरम्भ कर देना चाहिये। बच्चे के बड़े होने की प्रतीक्षा न करें। उम्र के साथ और सुधार के आधार पर व्यायाम चिकित्सा का स्वरूप बदलता है। फिजियोथेरापिस्ट ही वह विशेषज्ञ है जो बच्चे व माता-पिता के साथ सबसे अधिक समय बिताता है। उसकी कही बातों का बहुत महत्व रहता है। दैनिक जीवन हेतु छोटी-छोटी सामान्य सहज बुद्धि वाली सलाहें कभी कभी परिजनों के लिये बहुत काम की सिद्ध होती हैं। उदाहरण के लिये बच्चे को जमीन या बिस्तर पर लुढ़के पड़े रहने देने के बजाय विशेष कुर्सी पर सहारा देकर बैठाये रहने की सलाह ताकि सिर व गर्दन सम्हले रहे तथा हाथों की मुद्रा (पोश्चर) सही रहे या फिर माता-पिता को यह सिखाना कि बच्चे को कैसे उठायें, नहलायें, धुलायें, भोजन करायें, कपड़े पहनायें। व्यायाम चिकित्सा का हुनर इस बात में है कि वह परिजनों में आशा जाग्रत रखे। उन्हें प्रोत्साहित करे और साथ ही उपचार के यथार्थवादी लक्ष्यों से न भटके ।
वे बच्चे जिनमें सी.पी. की तीव्रता भीषणतम है और जिनमें बुद्धि का विकास अवरुद्ध है, उनमें शायद फिजियोथेरापी से कोई लाभ नहीं। दूसरी ओर वे बच्चे जिनमें सी.पी. की तीव्रता न्यूनतम है शायद अपने आप बढ़ती उम्र के साथ ठीक होते जायेंगे और व्यायाम चिकित्सा की आवश्यकता न पड़े । फिजियोथेरापी में बोरीयत नहीं आने देना चाहिये। बच्चा थक न जाए, बीच में आराम देवें, बहुत ज्यादा दर्द न होने दें, मनोरंजक तरीके से रूचि बनाए रखें, डर का वातावरण न निर्मित करें, बच्चे के मन में चाह और प्रतीक्षा होनी चाहिये कि वह कब अगली बार व्यायाम कराने वाले अंकल के पास जायेगा, न कि भय, चिढ़ या वितृष्णा। खेल-खेल में और शौक के माध्यम से फिजियोथेरापी जारी रखी जानी चाहिये ।
शल्य चिकित्सा की भूमिका
– बहुत थोड़े से सी.पी. मरीजों में (लगभग 15%) आपरेशन से कुछ फायदा हो सकता है। किसमें होगा और किसमें नहीं इसकी सटीक कसौटियां है। यदि उसके आधार पर सही चयन किया जावे तो ही परिणाम अच्छे मिलते हैं। हड्डी रोग विशेषज्ञ द्वारा किये जाने वाले कुछ उपयोगी आपरेशन हैं –
एड़ी के समीप एकिलस टेण्डन को लम्बा करना ।
जांघों का आपस में चिपकना ठीक करने के लिये कुल्हे पर एडक्टर्स मांसपेशियों की सक्रियता को काट कर कम करना ।
घुटनों के पीछे मुड़ कर जकड़ने (फ्लेक्शन) की प्रवृत्ति व विकृत्ति को ठीक करना ।
कलाई के जोड़ को जाम कर देना ।
मांसपेशियों के टेन्डन (कण्डरा) को विस्थापित करना ताकि कमजोर मांसपेशियों की जगह सशक्त मांसपेशियों की क्रिया का लाभ लिया जा सके
शल्य उपचार प्रायः पांच वर्ष की उम्र के आसपास उचित होता है। आपरेशन की भूमिका सीमित है उपचार से बाकी पहलू खास कर फिजियोथेरापी अधिक महत्वपूर्ण है।
न्यूरोसर्जन द्वारा किये जाने वाले राईजोटामी ऑपरेशन कुछ बच्चों में बहुत लाभकारी हैं। वे मरीज जिनके हाथ, मुंह, वाणी, बुद्धि अच्छे हैं, पैरों में थोड़ी शक्ति मौजूद है, परन्तु जकड़न स्पास्टिसिटी की वजह से चल नहीं पाते उनमें राईजोटामी उपयोगी है। जकड़न या
कुछ नये उपचार भी निकले हैं जो फिलहाल महंगे हैं। स्पास्टिसिटी कम करने के लिये रीढ़ की हड्डी के अंदर स्पाईनल कार्ड (मेरुतंत्रिका) के समीप बेक्लोफेन नामक औषधी की सतत बूंद दर बूंद प्रदाय बनाये रखने के लिये एक थैली व पम्प स्थापित कर दिया जाता है। बॉट्यूलिनियम नामक दवा के इन्जेक्शन मांसपेशियों में अनेक बिन्दुओं पर लगाने से जकड़न 3-4 माह के लिये ठीक हो जाती है, बाद में पुनः इन्जेक्शन लगाये जा सकते हैं।
सेरीब्रल पाल्सी किसका दोष? वास्तव में किसी का नहीं
यह मत कहिये –
सेरीब्रल पाल्सी से ग्रस्त बच्चा अभिशाप है
हम अभागे माता-पिता हैं
ईश्वर ने हमारे साथ अन्याय किया
अगर लोगों को मालूम पड़ा तो क्या होगा ?
याद रखिये
ऐसे बच्चे का जन्म, महज एक दुर्घटना है
इसके लिये कोई भी जिम्मेदार नहीं है
विकसित देखों में भी ऐसे विशेष बच्चे जन्म लेते हैं।
दरअसल यह बच्चा ईश्वर का ही उपहार है और आप ही वे विशिष्ट माता- पिता हैं, जिन्हें ईश्वर ने इस खास बच्चे की देखरेश के लिये चुना है
समस्या का आकार
भारत में करीब पच्चीस लाख सेरीब्रल पाल्सी बच्चे हैं
अमेरिका में यह संख्या केवल सात लाख के करीब हैं
भारत में प्रति हजार बच्चों में से तीन बच्चे सेरीब्रल पाल्सी से ग्रस्त हैं।
बहुत से काम करने को हैं।
कठिनाईयाँ
आवश्यकता है 10 हजार पुनर्वास केंद्रों की, लेकिन फिलहाल बहुत थोड़े से केंद्र हैं।
फिजियोथेरापी, आक्यूपेशन थेरेपी और स्पीच थेरेपी के प्रशिक्षित विशेषज्ञ कम है।
इस समस्या के बारे में लोगों की जानकारी कम हैं।
जरुरत है कि सेरीब्रल पाल्सी के मुकाबले के लिये सभी मजबूती से संगठित हों
क्या सेरीब्रल पाल्सी खानदानी बीमारी है ?
नहीं। 90% से अधिक मामलों में परिवार के किसी भी अन्य सदस्य में सी.पी. का मामला देखने में नहीं आता। यदि एक बच्चे को सी.पी. है तो अगले को होने की आशंका न के बराबर है, फिर भी इस सम्बन्ध में आपने चिकित्सक से सलाह लेना चाहिये ।
शिक्षा, रोजगार और पुनर्वास के क्षेत्र में किया जा सकता है ?
बहुत कुछ किया जा सकता है। जरूरत है लगन, सकारात्मक सोच, जिजीविषा, मेहनत, आत्मविश्वास, मार्गदर्शन की, विशेष अध्यापकों की, जो इन बच्चों की जरूरतों को समझते हों और पाठ्यक्रम व अध्यापन को तद्नुरूप ढाल सकें। आश्रित कर्मशाला (शेल्टर्ड वर्कशाप) में रोजगार मूलक प्रशिक्षण व बाद में रोजगार दिया जाता है। सामाजिक संगठनों की क्या भूमिका है ?
इण्डियन फेमिली ऑफ सेरीब्रल पाल्सी एक सार्थक पहल है। इस अभियान को प्रत्येक जिले तक ले जाने की जरूरत है। लोगों को अपनी बीमारी के आधार पर संगठन बनाना चाहिये। नेतृत्व भी उन्हीं में से उभर कर आना चाहिये । संगठन में शक्ति है, सहारा है, संघर्ष है। बांटने से दर्द घटता है। सम्भावनाओं के नये क्षितिज खुलते हैं।
कारण – सेरेब्रल पाल्सी के कारणों को तीन भागों में रखा जाता है-
अ. जन्म के पहले के कारण
ब. जन्म के समय के कारण
स. जन्म के बाद के कारण
जन्म से पहले के कारणों में मुख्य कारण हैं –
– गर्भावस्था में लगी चोट
– गर्भावस्था में हुआ संक्रमण (मुख्यतः वायरल) जैसे पीलिया
– कम या अधिक रक्तचाप (ब्लड प्रेशर)
– दवाओं का दुष्प्रभाव
– कोई आनुवंशिक कारण
जन्म के समय के कारणों में मुख्य कारण हैं –
– नाभि रज्जू में गांठ बनने से हुआ श्वासावरोध
– नाभि रज्जू का गर्दन में बंध जाना
फोरसेप्स प्रसव
समय पूर्व प्रसव
जन्म के बाद के कारणों में मुख्य हैं –
• जन्म के बाद बच्चे का देर से रोना, जिससे मस्तिष्क में आक्सीजन की कमी का होना
किसी कारण से श्वासावरोध
गंभीर संक्रमण
बच्चे के रक्त में ग्लूकोज या शूगर की कमी के कारण हुआ मस्तिष्क दोष
सिर में चोट का लगना
प्रकार – बीमारी एक, रूप अनेक
सेरीब्रल पाल्सी को पांच वर्गों में बांटा जाता है –
स्पास्टिक सेरीब्रल पाल्सी (जकड़ित) – बीमारी का यह प्रकार बहुतायात से पाया जाता है इस वर्ग के बच्चों की मांसपेशियों की लगातार संकुचन के कारण मांसपेशियाँ कड़ी हो जाती हैं और जोड़ों में जकड़न आने लगती है।
इस वर्ग के भी निम्न उपवर्ग हैं-
– स्पास्टिक क्वाड्रीपेरेसिस – दोनों हाथ एवं पांव की मांसपेशियों में कड़कपन एवं जोड़ों में जकड़न
– स्पास्टिक हाइप्लेज़िया – दोनों पांव के जोड़ों की पेशियों एवं जोड़ों का जकड़न। ऐसे बच्चों को चलने में देरी एवं कठिनाई आती है।
स्पास्टिक हेमीप्लिजिया (आधा शरीर) – दाएं या बाएं भाग में लकवे के कारण उस भाग से दैनिक कार्यों में प्रयोग में दिक्कतें आती हैं।
स्पास्टिक मोनोप्लेजिया (एक हाथ या एक पांव का लकवा)
डिस्टानिक सेरीब्रल पाल्सी – ऐसे बच्चों में हाथ, पांव, एवं गरदन की गति के समय विभिन्न विकृतीयां देखी जाती हैं।
एटेक्सिक सेरीब्रल पाल्सी – इन बच्चों में संतुलन संबंधी समस्याएं पाई जाती हैं।
फ्लेसिड सेरीब्रल पाल्सी – इस प्रकार के बच्चों की मांसपेशियों में शिथिलता होती है।
मिक्सड सेरीब्रल पाल्सी – ऐसे बच्चों में जकड़न, संतुलन की कमी एवं विकृतियाँ सभी होती है।
बच्चों में सेरीब्रल पाल्सी की पहचान कैसे करें।
सेरिब्रल पाल्सी की पहचान जितनी जल्दी हो, उनके इलाज एवं सुधार की संभावना उतनी अधिक होती हैं।
सेरिब्रल पाल्सी की पहचान के लिये ध्यान दें कि –
क्या बच्चा अत्यधिक सुस्त दिखता है?
क्या बच्चा अत्यधिक रोता है ?
क्या बच्चे के हाथ एवं पांव या किसी एक भाग में गति में कमी लगती है?
क्या हाथ पांव की गति में कोई असमानता हैं ?
क्या बच्चे के हाथ या पांव अत्यधिक शिथिल अथवा कड़क हैं?
क्या बच्चा हाथ या पांव की गति के समय अपनी गरदन को एक तरफ घुमा लेता है।
क्या बच्चा अपने अंगूठे को हथेली के अंदर की तरफ रखता है एवं दो महीने की उम्र के बाद भी मुट्ठी बंद रखता है?
`क्या बच्चों के विकास की गति सामान्य बच्चों से धीमी है, जैसे गर्दन रोकना, बैठना, बिस्तर पर करवट बदलना, मुस्कुराना आदि।
क्या बच्चे की आवाज अस्पष्ट है एवं मुंह से लार ज्यादा टपकती है?
सामान्य बच्चों का विकास
बचों के विकास के तीन स्तंभ हैं –
– गर्दन, हाथ-पांव एवं कमर की गति का विकास
दिमाग का विकास
आवाज एवं भाषा का विकास
दिमाग का विकास
बच्चे का मुस्कुराना – 2 महीने
चेहरा देखना – 3 महीने
बच्चे का हंसना – 3 महीने
शीशे में अपना चेहरा देखकर हंसना – 6 महीने
टाटा इशारा करना – 9 महीने
माँ व अपने परिवार को पहचानना – 7 से 12 महीने
सहायता से कप/प्याले से पानी / दूध पीना – 12 महीने
बच्चे का नाम पुकारने पर उस दिशा में देखना एवं हंसना – 12 महीने
गर्दन, हाथ पांव एवं कमर की गति का विकास
1 महीने – पेट के बल लेटे रहने पर कभी-कभी गर्दन उठाने की कोशिश
2 महीने – सीधा उठाने पर गर्दन को शरीर की सीध में रखना
3 महीने – पेट के बल लेटे रहने पर हाथों पर बजन लेकर गरदन एवं छाती को उठाना, सीधा लेटे रहने पर चीजों को पकड़ने की कोशिश
4 महीने – सीधा लेटे रहने पर उलटा पलटना, सीधा लेट कर हाथ पकड़ कर खींचने पर बैठ जाना।
5 महीने – उल्टा लेटे रहने पर सीधा हो जाना, गोद में बैठना, कोई वस्तु देने पर पकड़ना
6 महीने – उल्टा लेटे रहने पर दोनों हाथ, गरदन एवं छाती को उठाना, सीधा लेटे रहने पर गरदन को उठाना।
7-9 महीने – बिना सहाने के 10 मिनट या ज्यादा बैठना, सहारे को पकड़कर खड़े हो जाना। सहारे से पकड़कर खड़े रहना।
10 महीने – रेंगना या घुटने के बल चलना।
11-12 महीने – सहारे से चलना
13-14 महीने – स्वयं से खड़े होना, घुटने घुटने सीढ़ियों पर चढ़ना
15-16 महीने – स्वयं से चलना
17-20 महीने – दोनों पांव उठाकर कूदना,
24 महीने – दौड़ना, बिना असंतुलित हुए पांव से गेंद को मारना।
सेरीब्रल पाल्सी एवं व्यायामा चिकित्सा
जिस तरह मंजिल पर चढ़ने के लिये छोटी-छोटी सीढ़ियों के ऊपर कदम रखने होते हैं उसी तरह सेरीब्रल पाल्सी ग्रस्त बच्चे को शारीरिक एवं बौद्धिक विकास के लिये व्यायाम चिकित्सा की छोटी-छोटी इकाई का सहारा लेना पड़ता है। ध्यान रखें –
– अगर बच्चा सिर उठाना व गर्दन संभालनानहीं सीखा हो तो उसके बैठे की संभावना कम होती है। अतः जो बच्चा सिर उठाना व गर्दन संभाल नहीं पा रहा हो तो पहले उसे गर्दन संभालने व सिर उठाने की ट्रेनिंग कराएं बैठाने में जल्दबाजी न करें।
– इसी तरह जो बच्चा बैठना नहीं सीखा उसे खड़े होने की संभावना दर है। ऐसे बच्चों के धड़ (शरीर) की मांसपेशियों की मजबूती जरूरी है न कि खड़ा करना।
– अगर बच्चा बिना सहारे के खड़ा नहीं हो पाता हो तो उसे अधिक चलाने के बदले दोनों पांव पर वजन देकर व कमर को सीधा रख खड़े करने वाली अभ्यासों पर अधिक ध्यान देवें।
– सेरीब्रल पाल्सी ग्रस्त बच्चों की मांसपेशियों में कड़कपन का आना मुख्य समस्या है। इसका एक मुख्य कारण अभिभावकों द्वारा बच्चों को दैनिक जीवन में रख रखाव में बरती गई लापरवाही है। दैनिक जीवन में छोटी- छोटी बातों पर ध्यान देकर बच्चे के शरीर के आसन एवं संतुलन को कुछ हद तक ठीक किया जा सकता है। उदाहरण के लिये बच्चे को बिस्तर पर हमेशा लेटे रखने के बजाय उसे विशेष सहारे वाली कुर्सी में गर्दन एवं धड़ को सपोर्ट कर बैठाएं, बच्चे को गोद में लेते समय पांव को दूर फैला कर रखें। बिठाकर रखते समय धड़ को आगे ना झुकने दें, दोनों कुल्हों पर वजन दिलवाकर बैठाएं, सोते समय पांव को क्रास न होने दें आदि।
व्यायाम चिकित्सा के उद्देश्य को ध्यान में रखें।
– मांसपेशियों के तनाव को जरूरत के अनुसार कम या अधिक करना –
सेरीब्रल पाल्सी ग्रस्त बच्चों में अधिकांशतः तनाव की अधिकता पाई जाती है। ऐसे बच्चों में विशेष पी.एम.एफ. तकनीक द्वारा व्यायाम कराने से तनाव कम किया जा सकता है। बर्फ की सिकाई से भी सहयोग मिलता है। अल्प तनाव वाले बच्चों में व्यायाम के समय जोड़ों के निकलने का डर रहता है (अतः ऐसे बच्चो में जोड़ों को सहारा (सपोर्ट) देकर व्यायाम करवाएं।
बच्चे के वर्तमान विकास को सामान्य विकास के पास पहुंचाना
सामान्य बच्चों में शारीरिक विकास इस प्रकार होता है –
गर्दन उठाना व गर्दन संभालना, बिस्तर पर दाएं बाएं व उल्टे चक्कर खाना, बैठने का संतुलन, घुटनों के बल खड़े होना, चारों हाथ-पांव पर चलना, टेबल या कुर्सी के सहारे खड़ा होना, सहारे को पकड़ पकड़ कर चलना, स्वतंत्र चलना अतः सेरीब्रल पाल्सी ग्रस्त बच्चे को भी इसी आधार पर ट्रेनिंग दें। जिस समय जिस मांसपेशियों की मजबूती की अधिक जरूरत है उस पर ध्यान दें।
हाथ की पकड़ बनाने वाली अभ्यास – इसके लिये कलाई एवं अंगुलियों की मांसपेशियों को मजबूत बनाने वाले व्यायाम करने लाभप्रद होते हैं, चीनी मिट्टी एवं प्लास्टर के बने सामान का उपयोग किया जाता है। अगर हाथ की पेशियों में तनाव अधिक हो तो मुट्ठी खोलने एवं बंद करने में परेशानी आती है। इसके लिये बच्चों से गेंद को पकड़ कर ऊपर फेंकने व कैच करने वाला अभ्यास करवाएं। गेंद को पकड़ कर विभिन्न दिशाओं में फेंकने का अभ्यास भी काफी लाभप्रद होता है।
मांसपेशियों की उचित लंबाई बनाए रखना – बच्चों की शरीर की हड्डियाँ जिस अनुपात में बढ़ती हैं उसी अनुपात में मांसपेशियों की लंबाई का बढ़ना भी जरूरी होता है। शरीर के विभिन्न जोड़ों का गलत अवस्था (पोजिशन) में रखने पर वहां की पेशियाँ छोटी एवं कड़क होने लगती हैं। पेशियों की लंबाई बनाए रखने के लिये निष्क्रीय व्यायाम एवं खींचाव कराए जाते हैं संतुलन बनाए रखने वाली अभ्यास संतुलन बनाए रखने वाली व्यायाम का विशेष महत्व है। बैठने का संतुलन, दोनों घुटनों पर वजन देकर खड़े होने का संतुलन, चारों हाथ-पांव पर चलने का व्यायाम, खड़े होने का संतुलन एवं चलने का संतुलन वाली अभ्यासें ।
बच्चों में सी.पी. का अनुमान
हालांकि बच्चों में सी.पी. रोग की पहचान करना काफी मुश्किल होता है, लेकिन सही समय पर पहचान हो जाने पर रोग निदान की सही दिशा में बढ़ने में काफी सहायता मिलती है। विभिन्न आयु वर्गों के बच्चों में सी.पी.
पहचानने का अनुमान
5 6 माह से कम आयु के बच्चों में – इस उम्र में बच्चों में सेरीब्रल पाल्सी के लक्षण का अनुमान काफी कठिन होता है। कई बार अनुमान गलत भी हो जाते हैं। लेकिन अगर 6 माह के बच्चे में लेट कर गर्दन उठाने की प्रक्रिया नहीं पाई जाती है तो उस बच्चे में सेरीब्रल पाल्सी रोग का संदेह किया जाता है।
6 माह से 12 माह की आयु के बच्चों में – इस उम्र के बच्चों में सेरीब्रल पाल्सी के लक्षण बहुतायत से देखे जाते हैं। अगर इस उम्र में बच्चे स्वयं गर्दन सम्भाल नहीं पाते, बिस्तर पर करवट बदल नहीं पाते, दी गई वस्तुओं को पकड़ नहीं पाते, छोटी वस्तुओं को पकड़ कर मुंह तक नहीं ला पाते है तो इन बच्चों में सी.पी. रोग की संभावना रहती है। इन लक्षणों के पाए जाने पर अभिभावकों को उचित चिकित्सकीय सलाह लेनी चाहिये। सेरीब्रल पाल्सी के लक्षण पाए जाने के बाद भी इस उम्र मे बीमारी के सही प्रकार का अनुमान लगाना थोड़ा मुश्किल रहता है।
एक साल से दो साल के उम्र के बच्चों में – इस आयु वर्ग के बच्चों में सेरीब्रल पाल्सी के लक्षण साफ दिखाई देने लगते हैं। बच्चे की गरदन नहीं संभालना या कम संभलना; बिना सपोर्ट के बच्चे का न बैठ पाना, बच्चे का चारों हाथ पांवों से न चल पाना; एक हाथ पांव या दोनों हाथ पांव की गतियों में अंतर, बोलने एवं देखने में दिक्कतें आना, हाथ- पांव की पेशियों में कड़क पन या शिथिलता/ढीलापन आदि लक्षण पाए जाने पर सेरीब्रल पाल्सी रोग का अनुमान एवं उसके प्रकार का सही अंदाज लगाया जा सकता है। इस आयु वर्ग को स्वर्ण युग कहते हैं क्योंकि इस उम्र में सही दिशा में चिकित्सकीय इलाज से सेरीब्रल पाल्सी रोग को कुछ हद तक रोका जा सकता है एवं बच्चों में भविष्य में आने वाली हानिकारक संभावनाओं एवं मुद्राओं को कम किया जा सकता है।
औसतन अगर बच्चा 4-5 साल की आयु तक गर्दन संभाल कर स्वतंत्र नहीं बैठ पाता है तो भविष्य में उसके खड़े होने की संभावना काफी कम हो जाती है।
इसी प्रकार अगर बच्चा 6-8 साल में बैठना सीखता है पर खड़े होना या चलना नहीं सीख पाता तो भविष्य में उस बच्चे का चल पाना काफी मुश्किल होता है।
सेरीब्रल पाल्सी बच्चों में पाई जाने वाली जोड़ों एवं पेशियों में हानिकारक संस्तम्भता एवं उसके रोकथाम के उपाय –
अधिकांश सेरीब्रल पाल्सी बच्चों में हाथ, पांव की कमजोरी व गलत (शारीरिक मुद्रा) अवस्था के कारण पेशियों में हानिकारक कड़कपन (संस्तम्भता) बढ़ने लगती है जिससे उन्हें अपने दैनिक कार्यकलापों को करने में परेशानी आने लगती है। लेटने में बैठने में व खड़े होते समय शरीर की सही मुद्रा, पेशियों का सही खिंचाव व व्यायाम एवं जरूरत के हिसाब से बनी बाहरी सपोर्ट (स्पलिन्ट, अर्थोसिस) के सहारे इन संस्तम्भताओं को कम किया जा सकता है।
सेरीब्रल पाल्सी में पाई जाने वाली मुख्य हानिकारक मुद्राएं 5
1. मुट्ठी का भिंचा होना (बंद होना) – इसमें बच्चे की अंगुलियाँ अंदर की ओर मुड़ तो जाती है लेकिन बाहर की ओर खोलने में काफी कठिनाई एवं दर्द होता है। ऐसे बच्चों को अपने दैनिक कार्यों में पकड़ने का काम करना काफी मुश्किल होता है। महीन कार्य करना तो लगभग असंभव रहता है। ऐसे बच्चों में अंगुलियों का ऊपर की ओर खिंचाव गेंद को पकड़ कर फेंकने व कैच करने का अभ्यास व फिंगर स्पलिन्ट काफी उपयोगी साबित होता है।
2. कलाई आकुंचन – ऐसे बच्चों में कलाई अंदर की ओर मुड़ी रहती है। इसका कारण कलाई कघो अंदर की ओर खींचने वाली मांसपेशियों में कड़कपन होता है। ऐसे बच्चों में ऊंगलियों के चलने के बावजूद भी उन्हें दैनिक कार्य जैसे पानी पीना, कंघी करना, कपड़े पहनना आदि में काफी दिक्कतें आती हैं। इन बच्चों में कलाई को ऊपर की ओर खींचाव कर रोकना काफी जरूरी होता है। स्प्लींटिंग कर लंबे समय तक खिंचाव बनाए रखना जरूरी होता है। आइस पैक व ब्रशिंग भी काफी सहायक सिंद्ध होती है अग्र भुजा अवतानन सामान्य बच्चों के हाथ पेंचकस की तरह दाएं-बाएं घूमते हैं पर सेरीब्रल पाल्सी ग्रस्त बच्चों में अग्रभुजा अंदर की ओर मुड़े होते हैं। ऐसे बच्चों में हाथों को पेचकर घुमाने वाली अभ्यास को कराना चाहिये। विभिन्न कार्य जैसे ताले चाबी खोलना, दरवाजे के कुंडी को घुमाने वाली अभ्यास ज्यादा करवानी चाहिये।
कोहनी आकुंचन – हाथ की मांसपेशियों की कमजोरी की वजह से हाथ कोहनी से अंदर की ओर मुड़ने लगते हैं एवं कड़क हो जाते हैं। इन बच्चों में कोहनी सीधी रखने वाली अभ्यासें, बाईसेप्स मांसपेशी का खिंचाव व ट्राइसेप्स की मजबूती का अभ्यास व स्पलिंट का प्रयोग लाभप्रद होता है। बैठते समय इन्हें कोहनी को सीधा रख एवं कलाई पर जोर देकर बैठने का अभ्यास करना चाहिये ।
कंधा अभिवर्तन एवं आकुंचन – बांहों का शरीर से सटे रहना व थोड़ा आगे की तरफ रहना। इस संस्तम्भता के कारण कंधे की सहायता वाले कार्य करने में कठिनाई आने लगती है, जैसे कंघी करना, बाल बनाना आदि। इनमें हाथ को (कंधे से) बगल से उठाने वाली अभ्यास व हाथ को (कंधे से) पूरा सीधा ऊपर उठाना व पुनः पीछे ले जाने वाले अभ्यास लाभप्रद होते हैं। लेटते एवं बैठते समय हाथ को शरीर से थोड़ा दूर रखना चाहिये। एदी का ऊपर रहना एवं ऊंगली का मुड़ा रहना चलते समय इनकी एढ़ी ऊपर उठी रहती है एवं ऊंगली मुड़े रहते हैं जिससे चलते समय गिरने का डर रहता है (गहराई एवं ऊंचाई को पार करते समय ज्यादा)। इन बच्चों में पंजे का ऊपर की ओर खिंचाव करने वाली अभ्यास करानी चाहिये। चलते समय एंकल फुट अर्थोसिस जूते पहनना लाभप्रद रहता है। स्पलिंट लम्बे समय तक पहन कर रखना चाहिये।
एढी᳝ का अंदर की ओर मुड़े रहना – चलते समय इस पोज़िशन के कारण गिरने की काफी सम्भावना रहती है। पंजे का बाहर की ओर खिंचाव व अर्थोसिस के साथ चलने की ट्रेनिंग से सहायता मिलती है।
घुटने का आकुंचन – घुटने के पीछे की मांसपेशियाँ (हेमस्ट्रिंग) के कड़कपन के कारण घुटने मुड़े रहते हैं। खड़े होते समय एवं चलते समय आगे मुड़ कर एवं घुटने मोड़ कर चलते हैं। हेमस्ट्रिंग के खिंचाव एवं घुटने को सीधा रखने के लिये स्पलिंट का प्रयोग लाभकारी है।
जांघों का अभिवर्तन – कूल्हे को अंदर लाने वाली पेशियों के कड़कपन व संस्तम्भता के कारण खड़े होते समय एवं चलते समय दोनों पांव आपस में सटने लगते हैं या क्रास होने लगते हैं। इसी कारण इस तरह की चाल को कैंचीनुमा चाल कहा जाता है। इसके लिये सोते एवं बैठते समय पांव को क्रास न होने दें। दोनों पांव को दूर-दूर रखें। जांघ के अंदर वाली मांसपेशियों का खिंचाव करें डब्ल्यू आकार में न बैठने दें
सेरीब्रल पाल्सी से संबंधित अन्य विकार
बोलने में दिक्कत – अस्पष्ट आवाज, बोलने में अटकना, बोलते समय लार का बहना आदि समस्याएं रहती हैं।
आंखों का तिरछापन – मुख्यतः आंख की पेशियों की खराबी के कारण तिरछापन रहता है। इसके अलावा रेटिना / लेंस / एवं दृष्टि संबंधी नाड़ी की खराबी के कारण भी दृष्टिदोष रहता है।
मिर्गी के दौरे – कुछ सेकण्ड या मिनट के लिये शरीर का अचानक कड़क हो जाना, मुंह से लार का गिरना एवं विभिन्न अस्पष्ट आवाजें निकलना इसके मुख्य लक्षण हैं।
कम सुनाई देना – मुंह से लार का टपकना मुंह एवं चेहरे की पेशियों की कमजोरी एवं लार निगलने की क्षमता में कमी के कारण मुंह से लार गिरती रहती है।
मंद बुद्धिता – दुर्भाग्य से आधे आधे सेरीब्रल पाल्सी ग्रस्त बच्चे मंदबुद्धि होते हैं। उनमें लिखने व सीखने की क्षमता काफी कम रहती हैं। लेकिन कुछ बच्चों की बौद्धिक क्षमता सामान्य या सामान्य से अधिक भी होती है। लेकिन कम दिखना, कम सुनाई देना या ठीक से न बोल पाने के कारण उन्हें मंद बुद्धि बच्चों की श्रेणी में रख दिया जाता है। अतः आई. क्यू जांच करते समय इन सभी पहलुओं का ध्यान रखा जाना चाहिये एवं कुशल चिकित्सक से विभिन्न अंतराल पर जांच को दोहराना चाहिये ।
भ्रांतियाँ एवं सच्चाई।
प्रायः यह देखा जाता है कि माता-पिता के द्वारा बच्चों में सेरीब्रल पाल्सी रोग से संबंधित प्रारंभिक लक्षण पाए जाने के बाद भी उसे तुरंत चिकित्सक के पास नहीं ले जाया जाता। उसका मुख्य कारण घर के वृद्ध जनों का हस्तक्षेप करना है। बच्चे के कमजोर रहने पर प्रायः दादी माँ द्वारा सुना जाता है कि ये कमजोरी खाने पीने से अपने आप दूर हो जाएगी, फलां-फलां के बच्चे भी ऐसे ही अपने आप ठीक हुए थे। या बच्चे के हाथ में काला/लाल/ पीला धागा बांध दो, बुरी नजर अपने आप उतर जाएगी और बच्चा ठीक हो जाएगा, या फलाने बाबा के भभूत से या व्रत से या वृक्ष को जल चढ़ाने से बच्चा अपने आप ठीक हो जाएगा।
याद रखें सेरीब्रल पाल्सी के उपचार में जितनी देर होती है, बच्चे के विकास की संभावनाएं उतनी ही कम होने लगती हैं। अतः लक्षण के नजर आते ही भ्रांतियों की तरफ ध्यान देने के बजाय तुरंत चिकित्सक को दिखाना चाहिये। किसी ताबीज, भभूत, जल, फूल, व्रत से बच्चा ठीक नहीं होता इस तरह उसके ठीक होने के इंतजार में हम उसके भविष्य का गला घोंट रहे होते हैं।