गूगल अनुवाद करे (विशेष नोट) :-
Skip to main content
 

दुर्घटना के बहाने चिंतन


प्रिय मित्रों,

दिनांक 3 सितम्बर 2009 को दोपहर 2 बजे मैं एक सड़क दुर्घटना का शिकार हुआ । एम.वाय. अस्पताल के न्यूरालाजी विभाग में काम करते समय मुझे सुयश अस्पताल से फोन आया कि एक मरीज को सिर्फ दो घण्टे पूर्व लकवे (पक्षाघात ) का दौरा शुरू हुआ है । उसे तुरन्त आ कर देखें । तीन घण्टे की समयावधि में एक विशेष, महंगा, इन्जेक्शन देने से उक्त अटैक को रोका जा सकता है तथा ठीक किया जा सकता है । ऐसे अवसर बिरले ही प्राप्त होते हैं। अधिकांश मरीज प्राय: देर से आते हैं । मैं तुरंत रवाना हुआ। मेडिकल कालेज के सामने आगरा-बाम्बे हाई – वे पार करके सुयश अस्पताल है कार से पहुंचने में घुम कर तथा लाल बत्ती पार कर आना होता है । तथा 5-10 मिनिट अतिरिक्त लगते । अत: मैं कार से उतरा और पैदल सड़क पार करने लगा | फिर मुझे कुछ याद नहीं। बाद में पता लगा कि सड़क का दूसरा आधा हिस्सा पार करते समय एक मोटर साईकल सवार से मेरी टक्कर हुई थी। दोनों जमीन पर गिरे थे । लोगों ने घेर रखा था परन्तु कोई कुछ न कर रहा था | वाहन चालक शीघ्र ही उठकर आगे चला गया | मै बेहोश था, आँखे खुली थी तथा शरीर निस्पन्द | एक मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव ने मुझे पहचाना | ट्राली लाने में देर करने पर लोगों को लताड़ लगाई । एक अन्य नागरिक की मदद से मुझे टांगा-टोली कर उठाया । अस्पताल के स्टाफ ने जब मुझे पहचाना तो त्वरित उपचार आरम्भ हुआ।

शायद आधे घण्टे बाद मुझे आंशिक होश आया होगा । मैं भ्रमित था। पूरी तरह पहचान नहीं रहा था। धीरे-धीरे सुधार हुआ । आगामी एक घंटे में जो देखा व बातचीत करी वह अभी याद नहीं है और न आयेगी । दायें कान से खून बह रहा था। दोनों घुटनों पर चोट थी । पत्नी नीरजा का चेहरा पहली स्मृति है। कह रही थी कुछ नहीं हुआ, बच गये आप सड़क पार कर रहे थे। तब मुझे अहसास होना शुरू हुआ कि मैं अस्पताल की आई.सी यू. में हूँ।

अनेक चेहरे पहचाने, नर्स, श्रीकान्त रेगे न्यूरोसर्जन, राजेश मुल्ये न्यूरालाजिस्ट, गोविंद मालपानी , जी एल. जाखेटिया प्लास्टिक सर्जन आदि | मैंने नीरू से कहा – मेरी गलती थी । मुझे सड़क पार नहीं करना चाहिये थी । मस्तिष्क का सी .टी. स्केन तथा घुटनों के एक्स-रे सामान्य थे। अगले दिन सुबह हम घर आ गये।

ये पंक्तियाँ लिखते समय करीब एक महीना बीत चुका है । स्वास्थ्य सुधार पर है। अस्पताल की नौकरी से मैं छुट्टी पर हूँ | बाहर मरीज देखने नहीं जा रहा हूँ। खूब आराम कर रहा हूँ। केवल घर पर शाम को चार घण्टे मरीज देखता हूँ | इस अवधि में सोचने विचारने की जमीन और अवसर मिले । उन्हीं में से कुछ का साझा करना चाहता हूँ ।

हम भारतीय लोग अपने नागरिक कर्तव्य में पीछे क्यों हैं ? सारी भीड़ ताक रही थी परन्तु मदद क्यों नहीं की ? पुलिस केस में बाद में परेशान होने का बहाना और भय कितना वास्तविक है और कितना अतिरंजित ? क्या यह हमारी पुलिस के लिये शर्म की बात नहीं कि उसके भय से देश के नागरिक एक घायल इन्सान को मदद पहुंचाने से डरते हैं ?

दुर्घटना के पल की कल्पना कर के मन दहल जाता है। कैसे गिरा होऊंगा, कितनी जोर से लगी होगी। कितनी गुलाटीयाँ खाई होंगी। हम भारतीय लोग अपने नागरिक कर्तव्य में पीछे क्यों हैं ? सारी भीड़ ताक रही थी परन्तु मदद क्यों नहीं की ? पुलिस केस में बाद में परेशान होने का बहाना और भय कितना वास्तविक है और कितना अतिरंजित ? क्या यह हमारी पुलिस के लिये शर्म की बात नहीं कि उसके भय से देश के नागरिक एक घायल इन्सान को मदद पहुंचाने से डरते हैं ? या फिर शायद पुलिस अधिकारी यह सफाई देंगे कि पुलिस केस का बहाना झूठा है, लोग खुद अपनी जिम्मेदारी से भागने के लिये पिटी-पिटाई बात को दोहरा देते है। शायद दोनों बातों में सच्चाई का अंश हो। हमारे देश में कितने लोगों को सार्वजनिक स्थल पर घायल या बेहोश पड़े व्यक्ति की प्राथमिक चिकित्सा करने और उसे सही विधि से अस्पताल में स्थानान्तरित करने का ज्ञान है ? बहुत कम को । सैद्धान्तिक की तुलना में प्रायोगिक तो और भी कम | इसकी शिक्षा और प्रशिक्षण को हमारे पाठ्यक्रम और नागरिक ड्रिल का हिस्सा कैसे बनाया जा सकता है ? इसके लिये कौन जिम्मेदार है ? अस्पताल के स्टाफ की जिम्मेदारी और भी अधिक हो जाती है। चौकीदार , चपरासी, रिसेप्शनिस्ट, टेलीफोन आपरेटर, सफाई कर्मी, प्रत्येक को इस बात का अहसास और ज्ञान और अध्यास होना चाहिये कि इमर्जेन्सी व प्राथमिक चिकित्सा में क्या करें| यदि निजि/प्रायवेट अस्पताल के कर्मचारियों के रिफ्लेक्स ढीले हैं तो सरकारी अस्पताल की कल्पना की जी सकती है ।

घायल व्यक्ति की मदद का कर्तव्य

यदि मरीज वी. आई. पी. न हो, उसे कोई पहचानता न हो तो उसकी दुर्गति की आशका क्यों अधिक होना चाहिए? क्या प्रत्येक मरीज को त्वरित व श्रेष्ठ उपचार मिलना उसका मूलभूत अधिकार नहीं है ? क्या मोटरबाईक चालक या फिर किसी भी वाहन चालक का कर्तव्य नहीं बनता है कि वह घटना स्थल से न भागे, दुसरे घायल व्यक्ति की मदद करें| मै स्वयं यदि वाहन चालाक या दर्शक या अस्पताल का चौकीदार होता तो इस बात की क्या ग्यारंटी कि मेरा व्यवहार बेहतर होता? किसी समाज की परिपक्वता, शालीनता, मानवीयता, नैतिकता और आदर्श परकता का आकलन इन्ही प्रशों के उत्तरों द्वारा संभव है न कि इस बात से कि वहां की सभ्यता संस्कृति कितनी पुरानी हैं, कितनी महान है या कि वहां के लोग कितने धर्मपरायण हैं |

इस प्रकार थी घटना / दुर्घटना आप को सोचने के लिये मजबूर करती है – जीवन कितना क्षणभंगुर है, कितना अस्थाई, अनिश्चित,नश्वर है। भाग्य के महत्व को पुन: स्वीकारना पड़ता है। ये अनुभव आपको विनम्र बनाते है। अहंकार को कम करते हैं | जीवन के महत्व और उसकी सार्थकता तथा उपादेयता की ओर विचार करने को प्रेरित करते हैं। जब तक अच्छे हो, खैर मना लो, मौज कर लो, भक्ति कर लो, सत्कर्म कर लो – जैसी मानसिकता हो वैसा कर लो | कल क्या होगा किसने जाना ? जो भी है बस यही इक पल है। आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू।

विचारों की श्रंखला में उधल पुथल है। विरोधाभासी मन: स्थिति बनती मिटती रहती है| कभी लगता है जो कुछ है आनन्द है – केवल इस क्षण या वर्तमान का आनन्द | कभी लगता है कि जीवन में कुछ सार्थक, मूल्यवान कर के जाना चाहिये । सार्थकता की परिभाषा व्यक्ति, देश और काल के अनुरूप बदलती है। और सार्थकता किस हद तक तथा किस कीमत पर ? क्या परिवार की कीमत पर ? स्वयं के आनन्द की कीमत पर ? पर उस इन्सान का क्या करें जिस के लिये स्वयं परिभाषित सार्थक – लक्ष्यों को पाना ही आनन्द है? दूधरे सांसारिक आनन्द अच्छे तो लगते हैं परन्तु उनकी तुलनात्मक अधिकता होने से जब लक्ष्यों को पाने के आनन्द की हानि होती है तो सहा नहीं जाता। |

मेरे साथ ही क्यों हुआ?

दुर्घटना के बाद भावनाओं के अनेक दौर से गुजरना होता है। ‘यह नहीं हो सकता’, “यह सच नहीं है’, “यह मेरे साथ नहीं हो सकता’ और “फिर मेरे साथ ही क्यों हुआ?” “नियति ने इस घटना के लिये मुझे क्यों चुना ?’ “मैंने ऐसा क्या किया जो मेरे साथ ऐसा हुआ ? !

लोग तरह-तरह से सांत्वना देते हैं। “अच्छा हुआ जो ज्यादा चोट नहीं लगी।” “बरना और भी बुरा हो सकता था ।’ ‘यह सोचो कि सस्ते में निपट गये।’ “बुरी बला आई थी जो टल गई” , “जरूर इसमें कोई अच्छाई छिपी होगी लोगों की /मरीजों की दुआएं होंगी जो आप बच गये’, ‘ईश्वर महान है’ आदि-आदि |

मैं नहीं जानता कि इसमें ईश्वर की महानता की क्या बात है | मुझे चोट लगी इसमें ईश्वर की क्या कृपा ?

किसी अन्य मित्र या मेरे लिये अपरिचित इन्सान (पर दूसरों के लिये प्रियजन) को अधिक गम्भीर चोट लगती तो उसमें ईश्वर की क्या कृपा ? यह सब महज संयोग है । हम सब के साथ सांख्यिकीय संभावनाएं जुड़ी हैं । पहले से कुछ नियत नहीं है। किसी के भी साथ कहीं भी कुछ भी हो सकता है। ‘होनी को कौन टाल सकता है?” यह व्यर्थ की टेक है। “जो हो गया वह होनी में लिखा था’ यह जताने या जानने में कौन सी बुद्धिमानी है। अच्छे बुरे कर्मों के फल जरूर होते हैं परन्तु उसे इतनी आसानी से नहीं समझा जा सकता । यदि मेरा स्वभाव अच्छा है, मैं दूसरों की मदद करता हूँ, किसी को नुकसान नहीं पहुंचाता तो दूसरे लोग भी मेरे साथ प्राय: (लेकिन हमेशा नहीं) ऐसा ही करेंगे। यहाँ तक तो ठीक है। इसके आगे कर्मफल को खींचना गलत है। एक जनम से दूसरे जनम तक उसके प्रभावों की धारणा से मैं पूर्णतया असहमत हूँ। ईश्वर के पास कोई सुपर कम्प्यूटर नहीं है जिसमें वह हजारों वर्षों तक, अरबों लोगों द्वारा किये गये खरबों अच्छे बुरे कर्मों का लेखा जोखा रखे और फिर कोई अबूझ, अजीब, सनक भरी न्याय प्रक्रिया द्वारा किसी को कुछ सजा देवें तो किसी को कुछ इनाम।

“जो हुआ उसके पीछे कुछ अच्छा छिपा था’ यह तो मैं नहीं मानता परन्तु कोशिश रहनी चाहिये कि जैसी भी परिस्थिति बन पड़ी हो उसका श्रेष्ठटम उपयोग किया जाबे।

जब मैं ईश्वर के महान होने या महज होने के बारे में संदेह व्यक्त करता हूँ तो उसका मतलब मेरी विनम्रता में कमी या अहंकार में अधिकता कतई नहीं है। मैं अपने आपको अत्यंत, विनम्र, दीन-हीन, लघु, छुद्र, गौण और नश्वर मानता हूँ। मुझे कोई मुगालते नहीं हैं। ब्रह्माण्ड की निस्सीमता, सृष्टि की अर्वाचीनता, धरती ग्रह की विलक्षणता, प्राणीमात्र का आविर्भाव, डार्विनियन विकास गाथा की जटिल सरलता और मानव मस्तिष्क की चमत्कारी प्रज्ञा, आदि सभी के प्रति मेरे मन में अनन्त  श्रद्धा, आदर, आश्चर्य , कौतुहल व जिज्ञासा का भाव है।

लोगों की शुभेच्छाओं , आशीर्वादों , दुआओं , प्रार्थनाओं आदि के प्रति मेरे मन में आदर और कृतज्ञता का भाव है। इसलिये नहीं कि उनकी वजह से मेरी नियति या प्रारब्ध में कोई बड़ा फर्क पड़ता है, परन्तु केवल इसलिये कि ये भावनाएं, मानव मात्र के मन में एक दूसरे के प्रति सहानुभूति और मदद करने की इच्छा की द्योतक होती हैं। इनसे मन को अच्छा लगता है। अच्छे के प्रति और स्वयं के प्रति मन में आत्मविश्वास को संबल मिलता है। रवींद्रनाथ टैगोर के शब्दों में “प्रशंसा मुझे लज्जित करती है, परन्तु मैं चुपके –चुपके उसकी भीख मांगता हूँ।’

पिछले दिनों सैकड़ों, मित्रों, मरीजों और छात्रों से ऐसे ही सुखद संदेश मिले | जिनसे मिले, उन्हें मन लम्बे समय तक याद रखेगा , उनके प्रति उपकृत रहेगा । जिनसे न मिले, उनमें से कुछ के बारे में यदा-कदा कुछ विचार कौंधा और तिरोहित हो गया। कोई शिकायत नहीं । मन में तो और भी हजारों लोगों ने मेरे बारे में अच्छा ही सोचा होगा – ऐसी कल्पना करके मैं आश्वस्त और पुलकित रहता हूँ।

<< सम्बंधित लेख >>

Skyscrapers
मीडियावाला पर प्रेषित लेख

जनवरी 2023 से डॉ. अपूर्व पौराणिक ने ऑनलाइन न्यूज़ पोर्टल ‘मीडियावाला’ पर एक साप्ताहिक कॉलम लिखना शुरू किया है – …

विस्तार में पढ़िए
Skyscrapers
Australia – September 1995 – 2

Date 14 September 1995 morning इस यात्रा में अभी तक कोई रोटरी मीटिंग में भाग नहीं ले पाया परन्तु Friendship…

विस्तार में पढ़िए
Skyscrapers
Australia – September 1995 – 1

प्रिय निप्पू और अनी। यह 5 सितम्बर की रात 10:15 बजे लिख रहा हूँ। श्यामा, दिलीप जी, प्रीति के साथ…

विस्तार में पढ़िए
Skyscrapers
Sydney – 1996

Cosmopolital है। अर्थात् अलग-अलग जाति, धर्म या देश के लोगों के चेहरे यहां देखे जाते हैं। चीन, जापान पूर्वी एशिया…

विस्तार में पढ़िए


अतिथि लेखकों का स्वागत हैं Guest authors are welcome

न्यूरो ज्ञान वेबसाइट पर कलेवर की विविधता और सम्रद्धि को बढ़ावा देने के उद्देश्य से अतिथि लेखकों का स्वागत हैं | कृपया इस वेबसाईट की प्रकृति और दायरे के अनुरूप अपने मौलिक एवं अप्रकाशित लेख लिख भेजिए, जो कि इन्टरनेट या अन्य स्त्रोतों से नक़ल न किये गए हो | अधिक जानकारी के लिये यहाँ क्लिक करें

Subscribe
Notify of
guest
0 टिप्पणीयां
Inline Feedbacks
सभी टिप्पणियां देखें
0
आपकी टिपण्णी/विचार जानकर हमें ख़ुशी होगी, कृपया कमेंट जरुर करें !x
()
x
न्यूरो ज्ञान

क्या आप न्यूरो ज्ञान को मोबाइल एप के रूप में इंस्टाल करना चाहते है?

क्या आप न्यूरो ज्ञान को डेस्कटॉप एप्लीकेशन के रूप में इनस्टॉल करना चाहते हैं?