सात रंग के सपने
एक ग्रीक कहावत है – नींद मृत्यु की जुड़वाँ बहन है और सपने आत्मा की जिन्दा रहने की इच्छा की अभिव्यक्ति है । जबसे इन्सान ने अपनी सोच समझ को सभ्यता का हिस्सा बनाया तबसे सपनों पर विचार होता आया है। और हो भी क्यों न । हम अपनी जिन्दगी का एक तिहाई समय नींद में और 70% समय सपने देखने में गुजारते हैं । सारी दुनिया सपने देखती है। जिन्दगी भर देखती है। सपने जो मजेदार होते हैं, अजीबो गरीब होते हैं, गुदगुदाते हैं, डराते हैं, शर्म से गड़ा देते हैं ।
कहने की गर्ज यह कि स्वप्न हमेशा से जाग्रत मस्तिष्कों को झकझोरते रहे हैं । सुबह उठकर अपने परिजनों को रात का सपना सुनाना, हम सब प्राय: करते आये हैं। कुछ कबीलों व जातियों में परम्परा है कि रोज सुबह चाय नाश्ते के समय सारे सदस्य अपने- अपने सपने बखान करते हैं ।
क्या कहता हैं बंद आँखों में पलता खुला संसार
अनेक पुरानी सभ्यताओं में सपने को धार्मिक, आध्यात्मिक, दैवीय, आकाशीय शक्तियों के संदेशों के रूप में देखा जाता था। उस विचार धारा के अवशेष आज भी बाकी हैं | बहुत से लोग मानते रहे हैं कि सपने भविष्यवाणी का स्त्रोत है, या टेलीपेथी का परिणाम है या वास्तविकता (यथार्थ) के दर्शन है | पुराने राजाओं के दरबार में सपनों के जानकार पंडित हुआ करते थे जो राजा के सपनों का गूढ़ (छिपा) अर्थ ढूँढा करते थे। राजकाज के फैसले इन विश्लेषणों से प्रभावित होते थे । हमारी पौराणिक कथाओं और जातक कथाओं में सपनों का उल्लेख आने वाली घटना के संकेतों के रूप में हुआ है। कुल मिलाकर सपनों के बारे में हमारा सारा पारम्परिक सोच, अज्ञान और अंधविश्वास से पगा हुआ है। उस सोच में कौतूहल है, पर रहस्यमयता, अबूझपन, चमत्कारिकता आदि गुणों ने इसे दबा रखा है | चटखारे वाली कही सुनी बातों में सपनों का खास स्थान है। यहाँ तक कि विज्ञान की किताबों में भी यह प्रवृत्ति प्रवेश कर जाती है। कहते हैं – एक रसायन शास्त्री को बेन्ज़ीन नामक यौगिक की संरचना का पता करना मुश्किल जान पड़ रहा था। एक रात उसने स्वप्न देखा कि कुछ सांप अपनी पूँछ मुँह में रखकर नृत्य कर रहे हैं। इससे उसकी समझ जागी । रिंग या वृत्त संरचना की कल्पना उसने बेन्ज़ीन के लिये की जो अन्तत: सही सिद्ध हुई | सिंगर महाशय सिलाई मशीन के इजाद को लेकर परेशान थे। उनकी समस्या हल हुई एक सपने से, जिसमें उन्होंने देखा कि एक भाले की नोक में छेद है। विज्ञान में इस प्रकार की व्यक्तिगत किवदंतियों का अधिक महत्व नहीं होना चाहिये ।
सपने विज्ञान की कसौटी पर
बीसवीं सदी के आरम्भ से पहले सपनों का कभी वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया गया | शायद उन्हें विज्ञान के क्षेत्र से परे समझा जाता था। विज्ञान के विषय होते हैं वे पदार्थ व घटनाएँ जो से एक अधिक व्यक्तियों द्वारा सत्यापित की जा सके और उसके अवलोकनों की पुनरावृत्ति की जा सके । इसके विपरीत सपने, देखने वालों की निजी सम्पत्ति है और कौन-सा सपना पुन: आएगा या नहीं यह कोई नहीं जानता । सपनों का संसार कितना अजीब है ? वैज्ञानिक जगत के यथार्थ और तार्किकता से परे ।
ये हालात बदले एक महान न्यूरोलॉजिस्ट व मनोवैज्ञानी – फ्रायड के प्रयत्नों से । सपनों की व्याख्या करते समय फ्रायड का मनोवैज्ञानिक रूप अधिक मुखर था । न्यूरालाजी उन दिनों विकसित भी नहीं हुई थी। विकास तो मनोविज्ञान का भी अधिक नहीं हुआ था। परन्तु एक फर्क था। न्यूरॉलाजी एक शुद्ध विज्ञान है और मस्तिष्क की कार्यप्रणाली की जितनी जानकारी आज है, उसकी तुलना में फ्रायड के समय नगण्य थी | मनोविज्ञान में कला (आर्ट्स) और विज्ञान का समन्वय है | बगैर ठोस सबूतों के भी चिन्तक, अपने दार्शनिक किस्म के सिद्धान्त और परिकल्पनाएँ गढ़ सकते हैं | जैसा कि प्लेटों, सुकरात व अरस्तू भी करते थे, फ्रायड ने भी यही किया | फ्रायड के बाद मनोविज्ञान के क्षेत्र में सपनों पर सोच समझ में काफी फर्क आया है। इसकी सबसे बड़ी वजह है न्यूरालॉजी (तंत्रिका विज्ञान) के क्षेत्र में प्रगति। मस्तिष्क की कार्यप्रणाली की बेहतर समझ के आधार पर आज सपनों की शुद्ध वैज्ञानिक व्याख्या करने की हिम्मत कुछ लोग करने लगे हैं। एक न्यूरालाजिस्ट के रूप में मैं उन ठोस जानकारियों को इस लेख में देना चाहता हूँ। परन्तु मनोविज्ञान-में सपनों की विभिन्न व्याख्याओं की चर्चा पहले करना चाहूँगा।
पागल आदमी चलता फिर स्वप्नदर्शी हैं
फ्रायड के पूर्व सपनों को अनुभूतियाँ (एक्सपीरियंस) माना जाता था। फ्रायड ने उन्हें फिनोमिना (घटित सच्चाई) माना। सपनों के अध्ययन को विज्ञान की दिशा में ले जाने वाला यह एक महत्वपूर्ण कदम था। परन्तु दुर्भाग्य से फ्रायड सपनों को स्वस्थ दृष्टि से परख नहीं पाया । उसके अनुसार सपने एक विकृत मनोवैज्ञानिक फिनामिना है। उसने उसकी तुलना मानसिक रोगियों में पाये जाने वाले न्यूरोसिस के लक्षणों या मतिविभ्रम से करी बाह्य उद्दीपन के बगैर ही जब इन्द्रियों को संवेदना प्राप्त होने लगे तो उसे मतिविभ्रम (हेल्यूसिनेशन) कहते हैं । नशे के प्रभाव में बुखार के सन्निपात में, कुछ प्रकार की मिर्गी में, मतिविभ्रम हो सकता है। इसकी पृष्ठ भूमि समझी जा सकती है। रहस्यमयता की वजह से सपनों को कभी सामान्य फिजियोलाजीकल सच्चाई नहीं माना गया था। जर्मन दार्शनिक काण्ट ने कहा था कि पागल आदमी चलता फिरता स्वप्नदर्शी है । इसे उलट कर कहे तो सपने देखने वाला व्यक्ति सोया हुआ पागल है | जागते हुए की हमारी दुनिया एक है । नींद में हम सब अपनी अलग-अलग दुनिया में जीते हैं । इन कारणों से फ्रायड और जुंग और उनके बाद भी तीन-चार दशकों तक सपनों का अध्ययन बीमारियों के लक्षण (सिम्टम्स) के रूप में हुआ। उनका सहज स्वस्थ फिजियोलाजीकल महत्व अनजान रहा ।
फ्रायड के अनुसार सपने अतृप्त इच्छाओं की अभिव्यक्ति हैं, जिन्हें जाग्रत अवस्था में नैतिक सामाजिक कारणों से कहा नहीं जा सकता। इन इच्छाओं की काल्पनिक पूर्ति सपनों द्वारा होती है। तनाव मुक्ति मिलती है। नींद खुलने से बच जाती है। सपने नींद के रक्षक है । हम सपने इसलिये देखते हैं ताकि सोते रह सके । मगर फिर भी वे हैं, हमारी असामान्य मनोवृत्तियों के प्रतीक, न्यूरोसिस के लक्षणों की भाँती। फ्रायड के अनुसार सपनों में प्रयुक्त सांकेतिकी (बिम्बवाद या सिम्बोलिज़्म) अतृप्त और दमित इच्छाओं को परोक्ष रूप से कहने या छिपाने के लिये होती है।
सीधे-सीधे कहते डर लगता है या शर्म आती है । यहाँ यह गौर करने योग्य है कि शब्द ड्रीम का उद्गम म जर्मन भाषा के जिस शब्द से हुआ है उसका अर्थ है धोखा, धोखा देना । क्या सपने वास्तव में इतने कपटी होते हैं? शायद नहीं।
सपनों की भोली कल्पना
सपनों को निहायत भोला व निष्कपट माना जाता हैं। मनोविज्ञान की वर्तमान चिंतनधाराओं में फ्रायड का तर्क यदि सही हो तथा सपने वास्तव में मतिविभ्रम हो या न्यूरोसिस के लक्षण हो तो उनके वंचन से दिन में पागलपन के लक्षण पैदा होना चाहिये। प्रायोगिक तौर से स्वप्न वाली नींद से वंचित करने के बाद भी व्यक्ति का मानसिक सन्तुलन बना रहता है। ज्यादा से ज्यादा कुछ चिड़चिड़ापन हो सकता है ।
सपनों की तुलना कल्पना (इमेजिनेशन) से की जाती है ।
कल्पना एक स्वस्थ लक्षण है | सपना रात की कल्पना है । जिस तरह जाग्रत अवस्था में कल्पना विविध बिम्बों, प्रतीकों और मुहावरों का सहारा लेती है वैसे ही सपने भी समझे जा सकते हैं | इस कल्पना का कर्ता कौन है? कोई निश्चित रूप से नहीं जानता ।
फिर चाहे उसे फ्रायड का इद, जुंग की साझी अचेतना या ग्रेदिक का इट कहें या वेदान्त की आत्मा या ब्रह्म | आधुनिक तंत्रिका विज्ञान (न्यूरोलॉजी) के अनुसार इस सब का अंग मस्तिष्क है। इससे अधिक कुछ नहीं | कल्पना मनुष्य की उच्चतम उपलब्धियों में से एक है | इसी के चलते वह पुरानी यादों, बिम्बों व विचारों को मिलता है, इच्छा से स्वतंत्र । दिन की कल्पना को हम ‘दिवा स्वप्न’ कह सकते हैं। दोनों में थोड़ा फर्क भी है, थोड़ी समानता भी | सपने ऐसे अनुभूत किये जाते हैं मानों असली संवेदनाएँ हों (जाग्रत बोध के बिना)। जबकि दिवा स्वप्न या कल्पना, संवेदना नहीं हैं| कर्ता जानता है कि ये उसके दिमाग की उपज है । लेखक की कल्पना और स्वप्न की कल्पना का स्त्रोत भी शायद एक ही है । लेखक जब प्रवाह में लिखता है तो प्राय: इच्छा से परे लिखता है | वह स्वयं नहीं जानता कि कथा में आगे क्या घटेगा। वह नहीं जानता कि कौन है जो उसके एक पात्र से किसी खास क्षण पर हाँ कहलवाएगा या ना। तभी तो डार्विन ने एक उद्धरण देते हुए कहा था स्वप्न अचेतन मन की कविता है। इस तरह मनुष्य की रचनात्मक सक्रियता जो उसके मस्तिष्क के विकास की सबसे ऊँची सीढ़ी है, हमेशा जाग्रत व क्रियाशील रहती है- जागते में, सपने में और शायद बिना सपने वाली नींद में भी ।
नींद का वैज्ञानिक अध्ययन
बीसवीं शताब्दी के चौथे पाँचवे दशक में वैज्ञानिकों ने पहली बार इंसान के शयनकक्ष में सीरियस किस्म की तांक-झांक शुरु की । नींद का गहरा अध्ययन प्रारम्भ हुआ | शायद नींद से भी गहरा । नींद के ही समान बाद में तरोताजगी से भर देने वाला | नींद के वैज्ञानिक अध्ययन से क्या पता चला? सबसे बड़ी बात तो यही कि नींद कोई एक अकेली इकाई नहीं है । उसे टुकड़े-टुकड़े में समझा जा सकता है। नींद के अनेक रूप हैं । नींद की कई अवस्थाएँ हैं ।
उन अवस्थाओं के आने और जाने का निश्चित क्रम है । हर अवस्था के खास-खास गुण हैं। जागने और सोने के बीच की संध्यावाली वाली भी बहुत-सी अवस्थाएँ हैं। जिनके बीच कोई एक लक्ष्मण रेखा नहीं खींची जा सकती | पर इन सब अवस्थाओं के बारे में जानने से फायदा? है और बहुत है । सपने नींद की एक खास अवस्था में आते हैं । मोटे तौर पर नींद की दो अवस्थाओं के बारे में जानना उचित होगा | शायद हमारे अनेक पाठकों ने जिनकी नज़र और परख तेज है, गौर किया होगा कि सोते हुए व्यक्ति का चेहरा हिल पड़ता है और उसके हाथ-पाँव ढीले पड़े रहते हैं। कभी -कभी श्वांस तेज हो जाती है । यही वह अवस्था है जब मनुष्य सपने देखता है। इसे हम रेपिड आई मूवमेंट (आर.ई.एम.) नींद या चल पुतली नींद कह सकते हैं | इसके विपरीत अचल पुतली नींद (नान-आर.ई.एम.) में आँखे स्थिर रहती है हाथ-पाँव कुछ प्रतिरोध लिये हुए, श्वांस व नब्ज़ धीमी | सपने इस अवस्था से बिरले ही आते हैं । रात में नींद लगते ही शुरु के घण्टों में अचल-पुतली अवस्था अधिक रहती है । बाद में हर नब्बे मिनिट के अन्तर में दोनों अवस्थाएँ बारी-बारी से आती जाती रहती हैं। सुबह,नींद खुलने से पूर्व, व्यक्ति हमेशा चल-पुतली (आर.ई.एम.) नींद में होता है ।
क्या होता हैं नींद में ?
नींद की विभिन्न अवस्थाओं को वैज्ञानिक दृष्टि से परिभाषित करने में इलेक्ट्रो एन्सेफोलोग्राम (ई.ई.जी.) नामक यंत्र ने बहुत योगदान दिया है । परन्तु इस लेख में उन तथ्यों का उल्लेख करना सम्भव नहीं होगा । इतना जान लेना पर्याप्त होगा कि लगन के धनी वैज्ञानिकों ने हजारों व्यक्तियों की कई-कई रातों तक लगातार ई.ई.जी. व अन्य क्षेत्रों में जाँच की, आँकड़ों को इकट्ठा किया, विश्लेषित किया, मनुष्यों में भी, पशुओं में भी ।विकास की दृष्टि से निम्न प्राणियों में नींद की अलग-अलग हिस्सों में सूक्ष्म घाव पैदा करके नींद पर उसके प्रभावों का अध्ययन किया । उसने पता लगाया किस तरह मस्तिष्क में अलग-अलग केन्द्र नींद के भिन्न रूपों का नियंत्रण करते हैं ।
क्या शिशु भी स्वप्न देखते हैं ?
नन्हे शिशुओं में चल पुतली (आर.ई.एम.) नींद का प्रतिशत वयस्कों से अधिक होता है । परन्तु यह जानना मुश्किल है कि वे क्या सपने देखते हैं। आर.इ.एम. नींद के लिये प्रयुक्त यह शब्द है | सक्रिय नींद (एक्टिव स्लीप) या विरोधाभासी नींद (पेराडाक्सीकल) । विरोधाभास यह कि बाह्य रूप से व्यक्ति शांत व शिथिल दिखाई पड़ता है, परन्तु भीतर मस्तिष्क में घनी सक्रियता है । जब-जब नींद की अवस्था में परिवर्तन होता है उस समय व्यक्ति करवट बदलता है हाथ-पाँव हिलाता है। आर.इ.एम. नींद के (मस्तिष्क की विद्युत सक्रियता ठीक वैसे ही जैसे ह्रदय ई.सी.जी.) का आलेख जाग्रत अवस्था के आलेख से मिलता है बजाय कि नान.आर.ई.एम.(अचल पुतली) नींद के आलेख से।
मस्तिष्क की आक्सीजन खपत आर.ई.एम. नींद के दौरान अधिक होती है । डिमेन्ट और कमीटमेन ने 50 के दशक में आर.इ.एम. नींद व सपनों का सम्बन्ध पुख्ता रूप से साबित किया | अनेक व्यक्ति जो दावा करते थे कि उन्हें कभी सपने नहीं आते (हमारे पाठकों में से कुछ हो सकते हैं ।) जब, उन्हें आर.इ.एम. नींद से जगा कर पूछा गया तो उन्होंने हमेशा स्वीकार किया कि हाँ, वे सपना देख रहे थे | जबकि नान.आर.इ.एम. नींद के दौरान जगाने से किसी ने सपने का उल्लेख नहीं किया। ठीक ऐसे ही परिणाम उन व्यक्तियों में मिले जो कबूल करते थे कि उन्हें सपने आते हैं । फर्क सिर्फ इतना है कि कुछ लोग उन्हें जागते ही याद रख पाते हैं, कुछ भूल जाते हैं।
हमारे बहुत से पाठक सोचते होंगे कि जन्म से अन्धे व्यक्ति सपने नहीं देख सकते । लेकिन ऐसा नहीं है । उन्हें भी चल पुतली नींद की अवस्था आती है | उनके सपनों में सुनाई पड़ने वाली बातें, आवाजें, शरीर के अनुभव जैसे स्पर्श, गति और मन की भावनाएँ आदि सब होते हैं, सिर्फ दृश्य नहीं होते ।
आर.इ.एम. नींद में जगाकर पूछने से प्राप्त सपने के विवरण से उसकी अवधि का अनुमान लगाया जा सकता है । यह लगभग उतनी ही मिलती है, जितनी नींद के उस दौर की थी । उदाहरण के लिये यदि किसी व्यक्ति को आर.इ.एम. नींद आरम्भ होने के पाँच मिनिट बाद ही उठा दिया जाए तो उसके द्वारा देखे गये सपने की कहानी भी लगभग पाँच मिनिट की होगी | यह सही नहीं कि लम्बा सपना महज कुछ क्षणों में देखा जा सकता है । वैसे तो स्वप्न वाली नींद के दौरान शरीर बाह्य जगत से काफी हद तक असम्बद्ध रहता है, फिर भी कभी-कभी बाहरी उद्दीपनों का समावेश जारी सपने में हो जाता है। पानी की बूंदें गिरने से बरसात का सपना आ सकता है। सोते हुए व्यक्ति के पास बोले गये शब्द कभी-कभी बिगड़े हुए रूप व अर्थ में सपने में समाविष्ट हो जाते हैं ।
स्वप्न वाली नींद के दौरान शरीर में होने वाले कार्यिक परिवर्तनों का सपने की विषय वस्तु से सम्बन्ध जोड़ने की कोशिश कुछ वैज्ञानिकों ने की थी । ऐसा माना जाता था कि आँख की पुतलियों की गति व स्वप्न को देखने के दौरान आँखों की गति एक ही चीज है।
मानों सोया हुआ व्यक्ति पुतलियाँ फिरा-फिरा कर सपने की गुजरती हुई रील को देखे जा रहा है। परन्तु यह सही नहीं पाया गया। इसी प्रकार दिल और सांस की चाल में उतार-चढ़ाव का सम्बन्ध सपने की स्टोरी या तद्जनित उत्तेजना से जोड़ना गलत है। आर.इ.एम.नींद केदौरान होने वाले ये सारे फिजियालाजिकल परिवर्तन सपनों की वजह से नहीं बल्कि अनुमस्तिष्क (दिमाग का निचला हिस्सा, जो विकास के मान से सबसे पुराना हिस्सा है |) में स्थित एक केन्द्र के प्रभाव से होते हैं । पुतलियों की गति और हाथ-पाँव का शिथिल बनाया जाना भी इस केन्द्र के प्रभाव में है।
हम बता चुके हैं कि स्वप्न हमारे मस्तिष्क द्वारा नींद में जारी कल्पना की परछाइयाँ हैं। कल्पना का यह भाग काम मस्तिष्क के सर्वोच्च भाग, दो सेरीब्रल गोलार्धों द्वारा किया जाता है । ये दोनों गोलार्ध हमारी स्मृति, बुद्धि, व्यक्तित्व, इच्छाशक्ति, संवेदना को ग्रहण करने की शक्ति आदि उच्चतम गुणों के आसन हैं । इस हिस्से को नींद में सपना दिखाने के लिये जगाता कौन है? वह है अनुमस्तिष्क (निम्न मस्तिष्क) वाला केन्द्र । या तो वह केन्द्र स्वत: यह कामकरता है या उच्च मस्तिष्क के आदेश से । नवजात शिशु में निम्न मस्तिष्क वाला केन्द्र भली-भाँती विकसित होता है। उसकी विद्युतीय कार्य प्रणाली जिनेटिक कारकों द्वारा पहले से नियत होती है। नन्हे शिशु या पशुओं में पाये जाने वाले इस प्रकार के केन्द्रों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। उम्र के साथ-साथ मस्तिष्क के कम्प्यूटर (उच्च गोलार्ध) में ढेर सारी नयी जानकारी (डेटा) जमा वयस्कों के उच्च मस्तिष्क द्वारा सीखा गया अनुभवगत ज्ञान, निम्न मस्तिष्क पर हावी हो जाता है। फिर भी दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं, बल्कि पूरक हैं। सपना क्या है? दोनों केन्द्रों का आपसी संवाद है। जुगल बन्दी हैं। नींद की खास अवस्था में अनुमस्तिष्क वाला केन्द्र उच्च मस्तिष्क के भण्डार को छेड़ देता है, सुलका देता है – सपना शुरु हो जाता है । साथ ही साथ शरीर के अंगों को शिथिल बना देता है। वरना हम सब अपने सपनों को अभिनीत करने लग जाते। इस दौरान इन्द्रियों से प्राप्त संवेदनाओं को भी उच्च मस्तिष्क तक पहुँचने नहीं दिया जाता ।
नींद की विभिन्न अवस्थाओं और जागृति के सिलसिलेवार अध्ययन से हमें समझ आया कि उच्च मस्तिष्क की सोचने और कल्पना करने की गतिविधियाँ कभी बन्द नहीं होती । यह भी सम्भव है कि नींद के लिये जिम्मेदार मस्तिष्क के अनेक केन्द्रों में से एक जाग्रत हो तो दूसरा सोया हुआ | सपनों वाली नींद में शरीर सोया होता है, पर उच्च गोलार्धों की कल्पनाशीलताजाग्रत रहती है ।
नींद में बोलने या चलने वाले व्यक्ति का उच्च मन सोया होता है, पर शरीर के कुछ हिस्से जग पड़ते हैं। नींद लगने से पहले, सुस्ती के दौरान कुछ लोगों को अत्यन्त चित्रित दृश्य दिखाई देते हैं, जो सपनों से भी असली लगते हैं और व्यक्ति जानता है कि पह अभी सोया नहीं है । कुछ डरावने सपनों के बाद, मन जाग जाता है पर शरीर नहीं उठ नहीं पाता – तब चीख पड़ने या भाग जाने का दिल करता है परन्तु शरीर का तिनका तक नहीं हिलता । ये सारे उदाहरण अच्छे भले स्वस्थ लोगों में देखे जाते हैं व इन्हें बींमारी का प्रतीक नहीं मानना चाहिये ।
डरावने सपने – डरावने सपने दो प्रकार के होते हैं । आर.ई.एम. नींद के दौरान नाइट मेअर डरावने दृश्य याद रहते हैं, जागने पर छाती पर बोझ, दम घुटता सा, हाथ पाँव में जान नहीं पर छटपटाहट | दूसरे नान. आर.ई .एम. नींद के दौरान – नाईट टेरर व्यक्ति चीख कर उठता है, पूरी तरह जागता नहीं, भ्रमित रहता है, पूछने पर कुछ बताता नहीं, फिर सो जाता है, बाद में कुछ दृश्य याद नहीं रहता ।
सपनों के दौरान मस्तिष्क की कार्यप्रणाली – सपनों के दौरान हमारा उच्च मस्तिष्क जाग जरूर जाता है परन्तु उसकी कार्यप्रणाली जाग्रत अवस्था की प्रणाली से कुछ मायनों में भिन्न होती है। थोड़ी- थोड़ी वह कवि, लेखक, दिवास्वप्नी, नशेबाज आदि से मिलती है , फिर भी फर्क काबिले गौर है| स्वप्नों की भाषा में शब्द कम होते हैं और चित्र अधिक | तुलना करें रेडियो और टी.वी. पर की जाने वाली खेल कमेंटरी की । जाग्रत अवस्था में हमें भाषा का नियमित प्रयोग करना पड़ता है । जबकि स्वप्न की चित्र भाषा (इकोनोग्राफी) कायदे कानून हर आदमी खुद गढ़ लेता है । इसीलिये तो सपनों का मतलब ढूँढना बड़ा कठिन काम है ।
सपनों में दिमाग की कार्यप्रणाली के दो रूप, हमारे कुछ गुणी पाठकों ने महसूस किये होंगे – उदाहरण एक – जागने पर यह तो सपनों के लिये जिम्मेदार उच्च मस्तिष्क की स्मरण प्रणाली के बारे में एक और गौर करने योग्य तथ्य यह पाया गया है कि दैनिक जीवन की घटनाओं का सपने में समावेश या तो उसी रात्रि को होता है या फिर छ:-सात दिन के अन्तराल से । वह स्मरण प्रणाली जो सपनों की इस दूसरी आवृत्ति के लिये जिम्मेदार होती है उसमें वातावरणीय जानकारी को प्राथमिकता मिलती है। याद रहा कि बोलने वाला व्यक्ति कौन था, परन्तु उसने कहा क्या यह समझ न आया। उदाहरण दो – पता नहीं कौन वक्ता था? परन्तु उसका कथन/संदेश याद रहा। इन विसंगतियों की वजह है स्वप्नदर्शी मस्तिष्क का दो अलग-अलग सक्रिय रहता है (भाषा याद रहती है, दृश्य नहीं) तो कभी दायां गोलार्ध अधिक सक्रिय हो जाता है (दृश्य याद रहता है, कथन नहीं) इसी प्रकार सपनों में कुछ याद किया गया, पकड़ में नहीं आता । किसी चिन्ता के बारे में सपना देखना सम्भव है परन्तु चिन्तित होते हुए सपना नहीं देखा जाता ।
सपनों के बिम्बवाद में सेक्स का बहुत महत्व है। फ्रायड के मनोविज्ञान की शिश्न केन्द्रिकता के पीछे जुड़े तथ्य रहे होंगे । परन्तु इसे बढ़ा-चढ़ा कर नहीं आँकना चाहिये । सपनों में सेक्स सम्बन्धी फेन्टेसी व वीर्यपात युवावस्था में आम बात है। दुर्भाग्य से मिथ्या धारणाओं की वजह से, इस सहज सामान्य फिजियोलाजीकल घटना को अपराध भावना से देखा जाता है ।
हिन्दी भाषा के चलन से व शब्दकोश से स्वप्न दोष शब्द को बाहर निकालने की मुहिम चलना चाहिये। क्योंकि इसमें दोष जैसी कोई बात ही नहीं है। मस्तिष्क के लिम्बिक खण्ड का सेक्स सम्बन्धी व्यवहार व आर.ई.एम. नींद दोनों पर काफी नियंत्रण रहता है। नींद में शिश्न (पेनिस) का तन जाना आम बात है । यह सदैव आर.ई.एम. नींद के दौरान होता है ।
सपनों का कार्य – सपनों का रोल समझने के लिये हमें आर.ई.एम. नींद का महत्व जानना होगा | हो सकता है कि सपनों का अपना कोई महत्व न हो | आर.ई.एम. नींद के एक लक्षण मात्र हो सकते हैं | क्या यह जरूरी है कि हम सपनों के लिये कोई उद्देश्य ढूँढे । सपने इन्सान की मूलभूत आवश्यकता नहीं है। सपनों के बगैर भी इन्सान की सेहत भली रह सकती है । न्यूरालॉजी की शोध पत्रिकाओं में अनेक बार ऐसे मरीजों का हवाला मिलता है जो कभी सपने नहीं देखते । कही सुनी बातों के आधार पर नहीं बल्कि ई.ई.जी. के आधार पर उन्हें आर.ई.एम. (चल पुतली) नींद नहीं आती । फिर भी उनका दिमागी काम काज चंगा रहता है। परन्तु ये उदाहरण अपवाद हैं। आमतौर पर माना जाता है कि आर.ई.एम. नींद के दौरान मस्तिष्क में बड़े उपयोगी काम होते हैं।
प्रायोगिक तौर से स्वप्नवाली नींद से वंचित करने पर व्यक्ति की दिमागी क्षमता में कमी आती है। नयी बातें सीखने में रुकावट पैदा होती है । स्वप्नवाली नींद मानसिक ऊर्जा की भरपाई का काम करती है। मस्तिष्क की भण्डार क्षमता सीमित है। नये ज्ञान को कहाँ रखें यह समस्या सदैव रहती है । आर.ई.एम. नींद के दौरान दिमाग में जमा जानकारी का सतत् वर्गीकरण किया जाता है, क्रमबद्ध किया जाता है, संक्षिप्त किया जाता है। सपनों के बारे में सबसे आधुनिक व्याख्या यही है कि चलपुतली नींद के दौरान अवांछित जानकारी को टेप से मिटा दिया जाता है । इस नींद के बाद मानसिक शांति मिलती है । हम सोते रहने के लिये स्वप्न नहीं देखते हैं (जैसा फ्रायड ने कहा था, बल्कि स्वप्न देखने या आर.ई.एम. नींद पाने के लिये सोते हैं ।
सपनों के आधुनिक व्याख्याकारों की सलाह है कि जागने पर सपनों को याद रखने की कोशिश मत कीजिये । उन्हें भूल जाने दीजिये । वे इसी के लिये बने हैं | सपने टूट जाने का गम मत कीजिये । जो बातें हमारा मन भूल जाना चाहता है, धो डालना चाहता है । उन्हें सपनों के रूप में प्ले कर रहा था। लेकिन कुछ सपने बार-बार आते हैं । वे क्यों नहीं भूले जाते ? शायद इसीलिये कि वे चिंता से जुड़े होते हैं । चिंता से नींद खुलती है। हम सोचते हैं यही सपना बार-बार क्यों आता है? शायद वह सपना अन्य सपनों जितनी बार ही आता होगा, परन्तु किसी तरह की चिंता से सम्बद्ध होने से हमें जगा देते हैं और हम सोचते हैं कि लो, यह सपना फिर आ गया। अन्य सपने अचेतन में डूबे रह जाते हैं क्योंकि वे हमारी नींद नहीं तोड़ते ।
सपनों का भूला जाना (विस्मृति) एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक फिनोमिना है। उससे यह सिद्ध होता है कि विस्मृति सदैव रोगपूर्ण नहीं होती । विस्मृति, स्वस्थ अवस्था की घटनाओं में से भी एक है। बचपन के प्रथम चार सालों में बच्चा कितनी सारी बातें सीखता है। किन्तु बाद में उसमें से कुछ याद नहीं रहता। लेकिन यह विस्मृति बेकार नहीं जाती । हम जो कुछ भी हैं, उसमें जीवन की प्रथम चार वर्ष का अटूट हिस्सा है। जिन्दगी भर सीखना, सीख कर भूलना और भूलकर भी कुछ न कुछ अचेतन मन में बचा रह जाना यह सारी प्रक्रिया चलती ही रहती है । सपने इसी प्रक्रिया के अंग हैं ।
सपने तीन कारणों से भूले जा सकते हैं –
1. उनमें निहित विचार किसी निश्चित संदेश का रूप ग्रहण न कर पाये। गणित के सवाल में मध्यवर्ती पदों को हम भूल जाते हैं और अन्तिम उत्तर याद रहता है।
2. सपनों का वर्तमान परिस्थितियों से सीधा सम्बन्ध न हो। हम जिस सभ्यता के अंग हैं उसमें सपनों का धार्मिक-तांत्रिक महत्व कम हो गया है।
3. सपनों का संदेश अगर निहायत परेशान करने वाला हो ।
इसके विपरीत सपनों के याद रह जाने के कारण हैं –
1. कोई अत्यंत महत्वपूर्ण बात ।
2. जीवन में सपनों का सांस्कृतिक महत्व – उदाहरण – कुछ जन जातियाँ।
3. सपनों में प्रायोगिक वैज्ञानिक रुचि।
4. कोई अन्य व्यक्ति उन्हें बाद में याद दिलाये ।
फ्रायड को पता नहीं था कि नींद की दो अवस्थाएँ होती हैं और अपने अधिकांश सपने नींद में छोड़ आते हैं । सपने तभी याद रहते हैं जब हम उन्हें देखते-देखते जाग पड़ते हैं, या जगा दिये जाते हैं। जागने पर जो सपना याद रहता है। उसे भी यदि तुरन्त दोहराया न जाए या सुना न दिया जाये तो वह भी जल्दी ही स्मृति से गायब हो जाता है। जब इतने कम सपने चेतन अवस्था तक पहुँच पाते हैं तो क्यों सिर्फ उन्हीं के आधार पर सारी परिकल्पनाएँ और सिद्धांत गढ़े जाए वे तो महज संयोगवश जागृति की सतह पर उभरी हुई अवस्था में पकड़ लिये गये हैं । दुर्भाग्य से मनुष्य यही सब मनुष्य करता आया है | सही उत्तर पाने के लिये सारे सपनों को समझना होगा । यह सम्भव नहीं । यह जरूरी भी नहीं । आर.ई .एम. नींद का काम यदि मालूम पड़ जावे तो वही काम सपनों का भी होना चाहिये । हालाँकि खोज की एप्रोच में छिपे खतरे में कुछ वैज्ञानिकों ने हमें आगाह भी किया है।
स्वप्नवाली नींद और आर.ई.एम. नींद का पर्यायवाची उपयोग गलत निष्कर्षों पर पहुँचा सकता है । खोयी वस्तु को वहाँ नहीं ढूँढ रहे हैं जहाँ हो सकती है । बस वहीं ढूँढे जा रहे हैं जहाँ दीपक का प्रकाश उपलब्ध है।
निष्कर्ष रूप में, आजकल सपनों को न तो महज अनुभूति माना जाता है न फिनोमिना न न्यूरोसिस के लक्षण । स्वप्न इंसानी कल्पना के ताने-बाने की झलकें हैं । उनका काम क्या है ? तनाव मुक्ति? नहीं शायद आत्मसंवाद । सपना स्वयं से संवाद का एक तरीका हो सकता है। जागते में भी तो हम अपने आप से बातें करते हैं । कितने-कितने रूपों में – डांटते, पुचकारते, याद दिलाते, समझाते, डराते, उत्तेजित करते। कर्ता स्वप्नदर्शी है। संदेश (स्वप्न) का प्राप्तिकर्ता भी स्वप्नदर्शी हैं | एक व्यक्ति के दो पक्षों का आपसी संवाद । गौर किया आपने, आधुनिक मनोविज्ञान में जाग्रत व नींद की अवस्था का अन्तर कितना धुंधलाता जा रहा है, हम दिन की कल्पना और रात की कल्पना में समानताढूँढरहे हैं। हम दिन के आत्मसंवाद और रात के आत्मसंवाद में भी समानता ढूँढ रहे हैं । यह कैसे सम्भव हुआ? आधुनिक न्यूरालॉजी की वजह से । सोने और जागने में कितना फर्क है और कितना नहीं यह अब हम समझने लगे हैं । वैसे आत्मसंवाद वाली इस थ्योरी के साथ कुछ अड़चने हैं। यदि सपनों में कोई संदेश है तो फिर क्यों अधिकांश संदेश व्यक्ति तक पहुँचते नहीं, या जो पहुँचते हैं उनमें से अधिकांश अर्थ नहीं समझ आता और यदि समझ में आता है तो उसे हमारा अचेतन मन अस्वीकार कर देता है। शायद इसीलिये कि उसे -स्व- की पहचान नहीं होती। फिलहाल तो बस इतना ही सामान्यीकरण कर सकते हैं कि सपनों में निहित कल्पनापूर्ण संदेश का सम्बन्ध हमारी समस्त बायोलाजीकल नियति से है – हमारी विरासत, हमारी अनुवंशिकता, हमारी संस्कृति, हमारी अस्मिता और हमारी निरंतरता से है डॉ. आलिवर सॉक्स अपनी न्यूरालाजिकल रुचियों के बारे में लेख और पुस्तकें लिखते हैं । यह लेखन केवल न्यूरालाजिस्ट के बजाय एक बृहत्तर पाठक समुदाय को लक्षित है । डॉ. सॉक्स का लेखन मरीजों से प्राप्त अनुभवों और उन पर की गई शोध में से उभर कर आया है । वे एक घनघोर पाठक भी हैं । पार्किन्सोनिज़्म के किसी मरीज पर लिखते-लिखते वे न जाने किन किन लेखकों का सन्दर्भ ले आएँगे – जेम्स जॉयस, डी.एच. लारेन्स, हर्मन हेस, एच.जी. वेल्स या टी.एस. इलियट ।
जिज्ञासा – क्या स्वप्न नियंत्रित करके दिखाए जा सकते हैं ? यह संभव हैं कि आज का वैज्ञानिक अभी इस रहस्य को या सामर्थ्य को प्राप्त न हो पर भारतीय संस्कृति में ‘स्वप्नादेश’ का उल्लेख मात्र कल्पना नहीं माने तो इस दिशा में वैज्ञानिक दृष्टी से मंथन संभव हैं ।