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न्यूरोसर्जरी का इतिहास


इन्सान की खोपड़ी के ऊपर से चमड़ी की मोटी परत को छीलकर उतारने और उसके नीचे स्थित चिकनी कपाल की हड्डी में फोड़ कर छेद करने की कलाएं मनुष्य को अनादि काल से ज्ञात रही हैं। परन्तु यह बात, न्यूरोसर्जरी (तंत्रिका शल्य चिकित्सा) के इतिहास में कोई गौरवमयी अध्याय नहीं कहला सकती। आधुनिक न्यूरो सर्जरी की कहानी सौ साल से भी छोटी है। कपालक्रिया का तमाम पुराना इतिहास इस कहानी को कोई पुरातनता और प्रतिष्ठा प्रदान नहीं करता। आज की न्यूरोसर्जरी, शल्य क्रिया विज्ञान की सबसे नई शाखाओं में से एक है।

विक्टोरियन युग के इंगलैण्ड व पिछली शताब्दी के अन्तिम दो दशकों के उत्तरी अमेरिका व यूरोप में इसकी नींव रखी गई थी। उसके पहले नितान्त अवैज्ञानिक, अन्धविश्वासी रूढ़, धार्मिक कारणों में खोपड़ी में छेद किये जाते थे। मिस्र वासी ममी सुरक्षित रखने में इसका उपयोग करते थे। पागलपन आदि बीमारियों में बुरी हवा सिर से निकाल बाहर करने में इस विधि का प्रयोग होता था। शैतानी ताकतें मस्तिष्क में घर कर सकती हैं यह धारणा प्रचलित थी।

न्यूरोसर्जरी के आरंभिक दौर

1880 के आसपास जब मस्तिष्क व रीढ़ की हड्डी पर प्रथम ऑपरेशन किये गये तो उनका आधार बनी, शरीर रचना व क्रिया विज्ञान की सुधरती हुई जानकारी। सामान्य सर्जरी, उन दिनों आसान होती जा रही थी। बेहोश करने वाले विज्ञान की शुरूआत हो चुकी थी।

आरम्भिक न्यूरोसर्जन कौन थे? ये जनरल सर्जन थे, जिन्हें मस्तिष्क की रचना व बीमारियों में थोड़ी अतिरिक्त रूचि थी। इन्हें न्यूरालाजी नहीं आती थी। वे नहीं जानते थे कि बीमारी का स्त्रोत कैसे पता लगा सकते हैं। उनके समकालीन फिजिशियन्स ने उन्हें विश्वास के साथ प्रेरित किया, किन्हीं-किन्हीं नियत जगहों पर आपरेशन करने को। और उन्होंने तकनीशियनों के माफिक काम को अंजाम दे दिया।

विज्ञान की सहायता से एक्स-रे, एन्जियोग्राफी नामक विधियों का विकसित होना

उस वक्त के न्यूरोसर्जन की, न्यूरोफिजिशियन पर अति निर्भरता से चिढ़कर हार्वेकुशिंग ने कहा था- या तो सर्जन, न्यूरालाजी सीखें, निदान करना सीखें या न्यूरोफिजिशियन चाकू चलाना सीखें। इस नवजात विज्ञान की पौध को सींचने, दोनों पक्षों की अनेक हस्तियाँ इसी तरह आगे आती रहीं। आज न्यूरोसर्जरी अपने आप में एक स्वतंत्र सम्माननीय विद्या है। इसके विकास के प्रथम दौर (1880-1990) में अधिकांश सर्जन असफलताओं का सामना करते रहे दूसरे दौर (1900-1920) में सहमकर, ठहरकर, फिर भी डटे रहने वाले सर्जन उभरे। उसी दौर में एक्स-रे विज्ञान की सहायता से कुछ ऐसी प्रक्रियाएं विकसित की गई जिनसे मस्तिष्क के भीतर के विशेष रंगीन चित्र प्राप्त किये जा सकते थे। मस्तिष्क को खून पहुंचाने वाली मोटी धमनी (केराटिड) में आयोडीन युक्त रसायन के इंजेक्शन से मस्तिष्क का तमाम, रक्त-जाल एक्स-रे चित्र के काबिल हो जाता था।

एन्जियोग्राफी नामक यह विधि अभी 15 वर्ष पूर्व तक निदान का प्रमुख साधन थी।

मस्तिष्क और रीढ़ की बीमारियों के निदान में नई विधियाँ

रीढ़ की हड्डी के भीतरी पोलेपन में अवस्थित बड़ी नाड़ी (स्पाइनल कार्ड) की बीमारियों के निदान में मायलोग्राफी का मूल योगदान रहा। रीढ़ के कमर वाले हिस्से में बीच लाईन में सुई लगाकर एक द्रव्य पदार्थ प्राप्त किया जाता है।

इस स्थान में एक अन्य आयोडीन युक्त रसायन का इंजेक्शन देकर, स्पाईनल कार्ड पर पड़ने वाले दबावों, ट्यूमर आदि का निदान (डायग्नोसिस) किया जाता है। दो अन्य विधियाँ भी न्यूरोसर्जन्स द्वारा विकसित की गई थीं। एक में वायु की थोड़ी सी मात्रा का उपयोग मस्तिष्क के रंगीन चित्र लेने में किया जाता था। मस्तिष्क के भीतर स्थित द्रव स्थानों (निलय (वेन्ट्रीकल) में वायु या रसायन का सीधे प्रवेश करा कर वेन्ट्रीक्युलोग्राम नामक प्रक्रिया सम्पन्न की जाती थी। इन तमाम उपायों की सीमाएं थी। इनके अपने खतरे थे। परन्तु एक आधी शताब्दी तक इन्हीं के सहारे यह तय किया जाता था कि चाकू किस बिन्दू से किस बिन्दू तक चलाना है। इन पचास वर्षों में न्यूरोसर्जरी का सुदृढ़ आधार तैयार हुआ। इस शताब्दी के आठवें दशक तक आते-आते यह विद्या नई छलांगे लगाने को तैयार हो चुकी थी। तकनालाजी के नये उभरते आयामों ने इन छलांगों के लिये खूब प्लेटफार्म प्रदान किये।

न्यूरोसर्जरी में कम्प्यूटर और एक्स-रे विज्ञान की क्रान्तियाँ

यदि एक्स-रे का अविष्कार, एक्सरे विज्ञान की प्रथम क्रान्ति थी तो कम्प्यूटर द्वारा लाखों-करोड़ों एक्स-रे आकड़ों का संश्लेषण-विश्लेषण कर नये प्रतिबिम्ब बनाना दूसरी क्रान्ति। इस दूसरी क्रान्ति (केट ने न्यूरोसर्जरी की दुनिया को बहुत बदला। चिकित्सा विज्ञान की अनेक अन्य शाखाओं में हो रहे समानान्तर विकास के बूते पर आज न्यूरोसर्जरी मानवमात्र की अधिकाधिक आशाओं को पूरा करने को तत्पर है।

भारत में न्यूरोसर्जरी की शुरुआत

भारत में न्यूरोसर्जरी की शुरूआत आजादी के बाद हुई थी। 1949 में डॉ. जेकब चेण्डी वेलोर तमिलनाडु पहुंचे थे। उन्होंने अमेरिका व कनाडा में प्रशिक्षण लिया था।

उन्हें वहीं बाधाएं झेलनी पड़ी जो 1920-30 के दशकों में इंग्लैण्ड-यूरोप के सर्जन्स ने उठाई थीं जब वे अमेरिका मे हार्वेकुशिंग की क्लीनिक से प्रशिक्षण प्राप्त कर अपने देश पहुंचे थे। डॉ. जेकब चेण्डी की हंसी उड़ाई गई। उनके अस्पताल के अधीक्षक व बूढ़े प्राध्यापकों ने कहा न्यूरो सर्जरी अनावश्यक है, हमने अपने लम्बे जीवनकाल में मुश्किल से आधादर्जन ब्रेन ट्यूमर देखे होंगे। उन्हें न वार्ड मिला, न आपरेशन थियेटर में स्वतंत्र समय व सहायक। बस बैठने भर को, अधीक्षक के कार्यालय में एक टेबल कुर्सी थी। सतत् प्रयत्नों से धीरे-धीरे दृश्य बदला। किसी देश व समाज में नये विकास के प्रति कितना विरोध, कितना स्वागत होता है यह वहां के प्रशासनिक, राजनीतिक व टेक्नोक्रेटिक, तीनों वर्गों, में उच्चपदों पर कूपमण्डूकता के संतुलन पर निर्भर करता है।

वैलोर, मद्रास, मुम्बई, कोलकाता, आदि शहरों में न्यूरोसर्जरी को आरम्भ में सामान्य सर्जरी के अंतर्गत रखा गया। किसी भी नई प्रतिभा की भ्रूण हत्या करनी हो तो इतना ही काफी होगा कि उसे स्वतंत्र विकेन्द्रीकृत रूप से काम ही न करने दिया जावे। सौभाग्य से भारतीय न्यूरोसर्जन आसानी से पस्त होने वाले नहीं थे। आज देश में 150-200 न्यूरोसर्जन हैं। 30 मेडिकल कालेजों में इसका विभाग है। 7 स्थानों पर डिग्री कोर्स हैं।

न्यूरोसर्जन: गुण, चुनौतियाँ, और व्यक्तित्व का विकास

न्यूरोसर्जरी व अन्य शल्यक्रियाओं में क्या भेद है? सामान्य सर्जन व न्यूरोसर्जन के गुणों व व्यक्तित्वों में क्या फर्क होता है ? इन दोनों तुलनाओं की चर्चा हम साथ-साथ कर सकते हैं। प्रायः सर्जन्स के बारे में मजाक में कहा जाता है कि उन्हें सफल होने के लिये अधिक पढ़ा लिखा होना जरूरी नहीं है। बस, हाथ सधा हुआ होना चाहिये और दिल में साहस। काम बता दो, क्या करना है, उसे अच्छे मेकेनिक की तरह कर देंगे। इस मजाक में अतिश्योक्ति है। अच्छा सर्जन, अच्छी नैदानिक क्षमता वाला होता है, सटीक डायग्नोसिस करता है, कब आपरेशन नहीं करना है – इस बात को खूब समझता है, अपने विषय का सतत् गहन अध्ययन करता रहता है। लेकिन इन समस्त खूबियों की जरूरत, न्यूरोसर्जन में और भी अधिक होती है। लम्बे समय तक मरीज से पूछ-पूछ कर, उसकी बीमारी की विस्तृत हिस्ट्री ज्ञात करना व पूरे शरीर की ठोक बजाकर जांच करना ये कार्य न केवल फिजिशियन बल्कि न्यूरोसर्जन भी करता है। न्यूरोसर्जन के वार्ड में आपको देखने को मिलेंगे पक्षाघात के रोगी, या वे जिनकी वाणी समाप्त हो चुकी है, जो लिख पढ़ हीं सकते, या बुद्धि समाप्त हो गई है, मिर्गी के रोगी या जिनका टट्टी पेशाब पर नियंत्रण नहीं है।

1880 मे जब एक डाक्टर ने कहा था कि विक्टर होर्सले ने जवाब दिया था – हाँ वह मर जायेगा, शायद बिना आपरेशन करे भी, परन्तु यदि मैं आपरेशन न करूं तो, मेरे बाद आने वाले लोग कभी सीख ही न पायेंगे कि ये आपरेशन कैसे किया जावे। कहीं न कहीं तो शुरूआत करनी होती है। मनुष्य सारी कलाएं जन्म से सीख कर नहीं आता। महान न्यूरोसर्जन हार्वेकुशिंग के अधिकांश मरीज शूरू में मर जाते थे। सन् 1910 तक अमेरिका में सिर्फ चार न्यूरोसर्जन थे और 1920 में जब प्रथम न्यूरोसर्जिकल सोसायटी बनी तो उसके 18 सदस्य थे। अगले दस वर्षों में कुशिंग के 100 में से 90 मरीज बचने लगे थे और 1930 में रिटायर होने तक उसने 2000 ब्रेन ट्यूमर बाहर निकाल दिये थे धीरे-धीरे न्यूरोसर्जरी वार्ड का परिदृश्य बदल रहा है। वह पूरी तरह एकदम नही बदल सकता। मस्तिष्क अंग ही ऐसा है कि उसकी बीमारियों के परिणाम भयावह दिखते हैं। लेकिन सब ऐसे नहीं होते।

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