मुर्दा नहीं बेकार, हैं बड़े काम का
पुराने लोग कहते थे कि मरे हुए जानवर के चमड़े से तो जूते बन जाते हैं पर मनुष्य मरने के बाद क्या काम का? सोच बदलिए | सोच कर देखें एक मरा हुआ व्यक्ति कितने जीवित व्यक्तियों का जीवन बेहतर बना सकता हैं |
आज के दिनों में हमारे देश में अंग प्रत्यारोपण की लम्बी-लम्बी प्रतीक्षा सूची है। हजारों लाखों की संख्या में लोग इस बात की प्रतीक्षा करते हैं कि उन्हें कोई उपयुक्त अंगदाता (ऑर्गन डोनर) मिल जाए। यदि हमारे वर्ष में प्रतिवर्ष अनेक लाख लोग जो लगभग ऐसा कहते हैं कि जो तमाम होने वाली मृत्युओं में से लगभग दस प्रतिशत मृत्यु ब्रेन डेथ के कारण हो सकती है।
जो कि बहुत बड़ी संख्या है, अस्पतालों के अंदर। यदि इनमें से कुछ परसेंटेज परिवार आर्गन डोनेशन के लिए सहमति दे दें तो हमारे देश की विभिन्न अंगों को प्राप्त करने प्रतीक्षा सूचियाँ हैं वह कम हो जाएगी और बहुत सारे लोगों को स्वास्थ्य सुधर जाएगा।
जब अंग निकालना होता है, तो उसके लिये समय सीमा होती है।
यदि हृदय निकालना हो प्रत्यारोपण के लिए तो उसे तीन घंटे के अंदर निकालना पड़ता है। यदि किडनी निकालना है तो उसके लिये चौबीस घण्टे तक का समय रहता है। कार्निया के लिए दो सप्ताह तक का समय रहता है। फेफड़ों के लिये दस घण्टे तक का समय रहता है। लिवर और प्रेंक्रियास भी निकाले जा सकते हैं। उसके लिये बारह घण्टे का समय रहता है। इसके अलावा जब हृदय निकाल लिया जाता है तो उसके जो वाल्वस होते हैं वो भी पूरा हृदय भले ही प्रत्यारोपित ना हो लेकिन उसके वाल्वस को यदि निकाल लिया जाय तो वो वाल्व भी किसी व्यक्ति के अदर प्रत्यारोपित किये जा सकते हैं।
मैं अंग प्रत्यारोपण के जो प्रशासनिक पहलू है और जो कानूनी पहलू है और जो लॉजिस्टिक पहलू है उन पर फिलहाल चर्चा नहीं कर रहा हूँ और टेक्नीकल दृष्टि में उम्मीद करता हूँ कि आप लोगों को मस्तिष्क मृत्यु की परिभाषा और उसका क्लीनिकल परीक्षण कैसे किया जाता है यह समझ में आ गया होगा।
मस्तिष्क मृत्यु को प्राप्त किस व्यक्ति के अंग लिये जा सकते हैं और किस व्यक्ति के नहीं लिये जा सकते हैं और कौन-सा अंग लिया जा सकता है और कौन-सा अंग नहीं लिया जा सकता? इसका फैसला उपचार करने वाली डॉक्टरों की टीम और जिस व्यक्ति को अंग दिया जाएगा उसका इलाज करने वाले डॉक्टरों की टीम दोनों मिल कर करते हैं। जिस व्यक्ति से अंग लिया जाना है उसके अंग स्वस्थ होना चाहिए। उसके शरीर में कोई संक्रामक रोग ना हो। जो कि अंगग्राही(अंग लेने वाले) को लग जाए और हो सकता है कोई एक अंग काम में आ जाए कोई दूसरा ना आए। सबसे अच्छी स्थिति तो वह होती है, जब एक व्यक्ति के द्वारा लगभग आठ व्यक्तियों का जीवन लाभान्वित हो सकता है। आप देखिए, हृदय, लिवर, पेन्क्रियास, आँतें, फेफड़ा, किडनी, कार्निया, त्वचा, रक्त-मज्जा, हड्डियाँ, कितने सारे अंग हैं जो निकाले जा सकते हैं एक शरीर से। और इतने सारे लोगों को लाभ हो सकता है। ये सही है कि कुछ लोगों के शायद उस अवस्था में ना हो।
किसी व्यक्ति की किडनी पहले से डेमेज को, किसी व्यक्ति का लिवर पहले से डेमेज हो, लेकिन जो अधिकांश लोग जो मस्तिष्क मृत्यु वाले आते हैं वो हेड इंजुरी के होते हैं। युवा होते हैं, सड़क पर उनकी दुर्घटनाओं में मस्तिष्क काम करना बंद कर देता है। ऐसे मरीजों के बाकि अंग प्रायः बहुत स्वस्थ होते हैं। इसीलिए इन लोगों को ऑर्गन डोनेशन के लिए, अंगदान के लिए बेहतर माना जाता है।
मर कर अमर बने कैसे नर
ये बड़े दुर्भाग्य की बात होती है कि उस परिवार के लिए एक युवक युवती अपने अकाल समय में इस प्रकार की दुर्घटना से ग्रसित होकर अपने जीवन को खो बैठता है। और ये परिवार वालों के लिए अत्यंत ही भावनात्मक क्षण होते हैं. बड़े तनाव के क्षण होते हैं। जब उन्हें ये दिखाई पड़ता है कि उनके प्रिय व्यक्ति का हृदय तो धडक रहा है, उसकी श्वांस तो चल रही है। वह तो जीवित जैसा प्रतीत होता है। देखने जाओ तो ऐसा लगता है कि हाँ इसमें तो जान है. और सचमुच उसके शरीर के तमाम अंगों में तमाम टिश्यूस में जान है, उनमें मेटाबोलिज्म जारी है, लेकिन मस्तिष्क में जान नहीं है। मस्तिष्क में किसी प्रकार का रक्त संचार नहीं है। किसी प्रकार की मेटाबोलिक एक्टीविटी ब्रेन के अंदर नहीं चल रही है। और वह मस्तिष्क कभी भी पुनः काम नहीं करेगा।
विज्ञान के डाटा इस बात के गवाह हैं कि पिछले पचास वर्षों में दुनियाभर के तमाम देशों में जितने भी व्यक्तियों को ब्रेन डेथ की खरी पुख्ता कसौटियों पर कस कर दो डॉक्टरों की टीम के द्वारा एक अंतराल के बाद प्रमाणित किया गया है उनमें से एक भी अपवाद आज तक नहीं हुआ है। ऐसा कभी देखने में नहीं आया कि डॉक्टरों की टीम से गलती हो गई और उन्होंने कह दिया कि ब्रेन डेथ है जबकि ब्रेन डेथ नहीं थी। ऐसा कभी नहीं हुआ है और न कभी होने की आशंका है।
किसे मिलेंगे देहदानी के अंग
मस्तिष्क मृत्यु के बाद जब अंग प्राप्त किये जाते हैं तो उसे कौन ग्रहण करेगा? इसके लिए भी भारतीय कानून में और विभिन्न राज्यों की दिशा निर्देशों में गाईडलाईन्स में बड़ी पारदर्शी प्रणाली को अपनाया गया है। एक कम्प्यूटरीकृत प्रतीक्षा सूची होती है और उस सूची में ब्लड ग्रुप दिया रहता है उस सूची में उस व्यक्ति की बीमारी की तीव्रता कितनी है और उसको अंग पाने की अर्जेन्सी कितनी है इस सबका लेखा जोखा रहता है। जो कि डॉक्टरों के द्वारा भरा रहता है। और उस प्रतीक्षा सूची में कभी फेरबदल नहीं हो सकता। तो जब किसी अंगदाता का नया अंग मिलता है तो सबसे पहला अधिकार उसी अस्पताल जहाँ पर कि वह अंग दिया जा रहा है उस अस्पताल की प्रतीक्षा सूची को मिलता है। उसके बाद उस नगर की प्रतीक्षा सूची को मिलता है और फिर उसके बाद उस राज्य या पूरे देश में जहाँ पर हो सकता है।
प्रत्येक राज्य में, प्रत्येक जिले में ट्रान्सप्लाटेशन के काम को निर्धारित करने के लिए कानून सम्मत समितियाँ बनाई गई हैं। जो इस बात का लेखा-जोखा रखती हैं कि ब्रेन डेथ को प्रमाणित करने वाली टीम है कि नहीं। ब्रेन डेथ को प्रमाणित करने के लिए उस अस्पताल में जो संसाधन है वे हैं कि नहीं। ब्रेन डेथ के बाद जो ऑर्गन निकालने के लिए जो संसाधन होना चाहिए वो उस अस्पताल में हैं कि नहीं। ऑर्गन निकालने के बाद ऑर्गन प्राप्त करने के लिए जो संसाधन उस अस्पताल में होने चाहिए वे हैं कि नहीं। तो तमाम संस्थाओं को प्रमाणित करने की कसौटियाँ भी बडे अच्छे तरीके से अपने देश के कानून के अंदर अपने देश के दिशा निर्देशों के अंदर बनाई गई है।
इस बात की बेहद जरूरत है कि अंगदान के प्रति लोगों के मन में जागरुकता बढ़े। अंगदान के प्रति स्वीकार्यता बढ़े और मस्तिष्क मृत्यु की अवधारणा को लोग समझें। तकनीकी दृष्टि से समझे डॉक्टर्स लोग समझें | तमाम अस्पताल अपनी टीम तैयार करके रखें कि जब भी इस तरह की परिस्थितियाँ आए तो मस्तिष्क मृत्यु की समय रहते डायग्नोसिस (पहचान) कर ली जाय।
चाहे अंगदान ना भी करना हो तो भी मस्तिष्क मृत्यु की परिभाषा महत्वपूर्ण है। क्योंकि एक बार ब्रेन डेथ होने के बाद क्या जरुरत है अनावश्यक रूपसे एक मुर्दा शरीर में वेंटिलेटर के द्वारा ऑक्सीजन को पहुँचाने की। यह बात भी लोगों को समझ में आनी चाहिए। आर्गन डोनेशन के लिए अंग देना है वह अपने आप में अच्छी चीज है। लेकिन यदि नहीं देना है तो भी यदि मस्तिष्क मृत्यु हो गई है तो अनावश्यक उपचार नहीं जारी रखना चाहिए।
कर लिया सो काम: अपने रहते अपना देहदान
अंगदान के प्रति समाज में जागरुकता और स्वीकार्यता बढाने के लिये शासन के द्वारा और अनेक गैर शासकीय संस्थाओं के द्वारा, एन जी ओस. के द्वारा, देशभर में मुहिम चलाई जा रही है। बहुत अच्छा काम किया जा रहा है। उसी में एक गतिविधि होती है कि एक स्वीकृति पत्र को भरवाना या घोषणा पत्र को भरवाना। बहुत सारे हजारों नागरिक अपने देश में इस प्रकार के घोषणा पत्रों को भर रहे हैं, जिसमें वे जीते जी होशो हवास में, इस बात की घोषणा करते हैं लिखित में कि यदि भविष्य में दुर्भाग्यवश वे मस्तिष्क मृत्यु जैसी अवस्था को प्राप्त होते हैं तो वे अभी से अपने शरीर से अंगो को निकालने की अनुमति देते हैं। इसका मतलब ये है कि ये लोग मन से तैयार हैं। वह व्यक्ति जिसने घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किया है, और उसके परिजन उसके परिवार वाले लोग। इन सबको इस बात का अहसास है कि इस तरह की अवस्था आ सकती है और यदि ये अवस्था आ जाये तो हमें अंगदान के लिए मन से तैयार रहना चाहिये। अंगर इस तरह की जागरुकता बढ़े पैमाने पर देश में फैलती चली गई तो उस क्षण जबकि मृत्यु मस्तिष्क की घोषणा की गई है। और एन.जी.ओस. के द्वारा परिजनों की काउंसलिंग की जा रही है। उस समय परिजनों के ऊपर जो मानसिक तनाव आता है, वह तनाव तुलनात्मक रुप से कम रहेगा क्योंकि वह पहले से तैयार रहेंगे। और यह काम अत्यन्त शांतिपूर्वक, अत्यन्त विश्वास के साथ किया जाता है।
इस बात की हमें खुशी है कि हमारे इन्दौर नगर में यह काम बहुत अच्छे से किया जा रहा है।
अंग प्रत्यारोपण को लेकर लोगों के मन में कुछ और भी प्रश्न उठते हैं। जहाँ तक धर्म का सवाल है। तमाम रिलिजन तमाम मजहब, किसी में भी अंग प्रत्यारोपण के लिए कोई मनाही नहीं है। बल्कि हमारे यहाँ तो कहा गया है कि यदि व्यक्ति मरते-मरते भी और यदि मरने के बाद भी किसी का भला कर जाए तो वह एक पुण्य का काम होता है। हमारे यहाँ दधीचि मुनि हुए थे जिन्होंने अपने अंग त्याग दिये थे, भोजन त्याग दिया था और उनकी अस्थियों से वज्र बना था। किसी भी धर्म में अंग प्रत्यारोपण को लेकर किसी प्रकार की कोई मनाही नहीं है। अंग जब निकाला जाता है तो अत्यन्त सफाई के साथ निकाला जाता है। उसको वापस सिल दिया जाता है। और अंतिम संस्कार के लिए जब शव सौंपा जाता है उसमें ऊपर से देखने में किसी प्रकार की विद्रूपता या कुरूपता नजर नहीं आती है।
जो अंग देने वाला व्यक्ति है और उसका जो परिवार है उसके ऊपर किसी प्रकार का आर्थिक बोझ नहीं आता है। एक बार जब मस्तिष्क मृत्यु की घोषणा हो जाती है। और उसके बाद कुछ घण्टों तक जब तक कि अंग नहीं निकाले गये हैं उसके तमाम उपचार का अस्पताल की ओर से उस परिवार के ऊपर कोई बिल, कोई खर्च नहीं लगाया जाता है।
इस तमाम प्रक्रिया में निजता की सुरक्षा की जाती है। “Right to privacy”. जो भी हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने एक मूल अधिकार के रूप में स्वीकार किया है जो परिवार जो व्यक्ति अंग दे रहा है यदि वह चाहे कि मैं नहीं चाहता कि इस बात को प्रचारित किया जाए, जो परिवार जो व्यक्ति अंग को ग्रहण कर रहा है, यदि वह कहे कि हमें नहीं बताना कि हमनें यह अंग ग्रहण किया है। तो उनकी प्रायवेसी का सम्मान किया जाता है। लेकिन कुछ लोग हैं जो इस बात को बताना चाहते हैं ताकि दूसरे लोग प्रेरित हों।
उनकी अनुमति के बाद ही इस बात को प्रचारित किया जाता है। या अगर प्रचारित किया भी जाता है तो नाम बदल कर भी कर सकते हैं। वे कहें कि ठीक है आप हमारी कहानी छापिये, लेकिन हमारी पहचान उसमें ना आए इस तरह से आप उसको कहानी में नाम पता परिवर्तित कर दीजिये। तो व्यक्ति का निजता का भी इसमें पूरा सम्मान किया जाता है