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राष्ट्रवाद – स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के दिन इंडियन मेडिकल असोसिएशन की बैठक में व्यक्तव्य


इन्डियन मेडिकल असोसिएशन की इस असाधारण व अभूतपूर्व बैठक में आप लोगों से मुखातिब होते हुए फक्र महसूस कर रहा हूँ। मेरा क्या वजूद है। इस अहम मौके पर मुझसे भी अधिक तजुर्बेकार वरिष्ठ सदस्य मौजूद हैं जिन्होंने गुलामी से आजादी मिलने के दौर को देखा है, भोगा है, शायद शिरकत भी की हो। उन्होंने ज्यादा दुनिया देखी है। काल के प्रभाह की मीमांसा की है। मैं तो स्वाधीन भारत की पैदाइश हूँ। फिर भी भावनाओं और विचारों का ज्वार तो है ही- उसी के बूते पर चन्द बाते कर लेना चाहता हूँ, चंद ख्यालों का इजहार कर लेना चाहता हूँ।

दुनिया भर के संचार माध्यमों में इस दिवस की चर्चा है। स्पान लिखता है “इण्डियाज गोल्डन जुबली’,

नेशनल जियाग्राफिक पर शीर्षक है – “इण्डिया टर्नस फिफ्टी’, टाइम पर लिखा है “पचासवी सालगिरह”।

मैं सोचने लगता हूँ। क्या इस महान राष्ट्र की अस्मिता सिर्फ 50 साल पुरानी है। नहीं। हमारा देश विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। उसे चाहे हिन्दुत्व या वेदान्त के रुप में परिभाषित करें या चाहे उसके साथ कुछ और विविधताएं जोड़ लें, फिर भी उसमें एकात्मता की अनेक निर्मल धाराएं हैं जो उसे परिमाषित करती हैं, परिसीमित करती हैं, पहचान कराती है। पहचान का संकट (आयडेन्टिटिक्रायसिस) हमारी समस्या नहीं है। पाकिस्तान की हो सकती है। हमें गर्व है कि दुनिया में अनेक संस्कृतियां आई और गई लेकिन, शायर इकबाल के शब्दों में “कुछ है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।” भारत एक सनातर राष्ट्र है जो संस्कृति जीवी है, न कि राज्यसत्ता पर आधारित।

पश्चिमी विचारकों द्वारा प्राय: प्रचारित किया जाता है कि अंग्रजों के आगमन से पूर्व भारत में राष्ट्र या राज्य की कोई एकीकृत परिकल्पना नहीं थी। छुद्र स्थानीय विभिन्‍नताओं को राष्ट्रीयता की पहचान बना कर सतत्‌ युद्ध करने वाले पश्चिमी देशों के विचारक भला इस बात का अहसास कैसे कर पाएं कि विविध धर्मों, पंथो, भाषाओं, उपासना पद्धतियों, रीतिरिवाजों, वेशभूषा, खानपान के बावजूद इस धरती के एक बड़े भूखण्ड पर करोड़ों लोगों का एक ऐसा समूह भी है- जिसे भारत कहते हैं और जो अपने आपके एक साझी दार्शनिक धरोहर के आधार पर एक राष्ट्र, एक सभ्यता, एक संस्कृति के रुप में हजारों वर्षों से स्थापित कर चुका है। मैं अपने पश्चिमी मित्रों से प्रायः कहा करता हूँ।

“भारत वह है, जो यूरोप बनने की कोशिश कर रहा है।“

हमें गर्व होना चाहिये कि हम एक ऐसी उदान्त परम्परा के वाहक हैं जिसने सदैव दूसरों का स्वागत किया। उन्हें अपने में समाहित किया। स्वयं बदले, दूसरों को भी बदला। थोड़ा दुःख इस बात का है कि उदात्तता के चलते हम सुरक्षा व स्वतंत्रता का भाव खो बैठे। हमने किसी को गुलाम नहीं बनाया लेकिन स्वयं अपनी आजादी बचा कर नहीं रख पाये। हमारी गुलामी का इतिहास 200 साल पुराना नहीं बल्कि आठ सौ साल पुराना है। अंग्रेजों को तो नहीं, लेकिन आधुनिक युग की राजनैतिक घटनाओं को इस बात का श्रेय देना होगा कि एक स्वाधीन केन्द्रीयकृत भारत राज्य की चाह हमारे दिलों में बलवती हुई। और फूट पड़ा स्वाधीनता आन्दोलन का लावा।

स्वाधीनता आन्दोलन की एक शताब्दी जो 1857 के समर से शुरु हुई, ऐसी बेमिसाल घटनाओं से भरी पड़ी है जो दुनिया के इतिहास में सानी नहीं रखती। हिन्दू मुसलमान की शुरुआती एकता काबिले गौर थी, जो कि बाद में टूटी। एक से बढ़कर एक सामाजिक विचारक, सुधारक, नेता व क्रांतिकारी हुए। और फिर करिश्मा घटा मोहनदास करमचन्द गांधी का। जिन्हें सम्भव है कि दुनिया शताब्दी पुरुष कह कर नामांकित करें। इस शताब्दी के पूर्वार्ध में जो घटा उसने नयी राजनैतिक शब्दावली गढ़ी – अहिंसा, सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा, आत्मशुद्धि, सत्य के प्रयोग, सर्वोदय, हरिजन । एक ऐसी शब्दावली जिसका आने वाले वर्षों में परवर्ती महान फमेचारियों ने गर्व के साथ उल्लेख किया । फिलीपाइन्स में कोराजीन अकीना ने, म्यांमार में आंग-सांग सू की ने।

हमारी आजादी का मिलना वो घटना थी जिसने उपनिवेशवाद की सदियों पुरानी जंजीरों को तोड़ने का सिलसिला शुरु किया। एक के बाद एक नये मुल्क आजाद हुए। एक नयी विश्व व्यवस्था की शुरुआत हुई। सिर्फ हम हिन्दुस्तानियों को ही  स्वाधीनता नहीं मिली। साम्राज्यवाद के शिकंजे से दुनिया को छुटकारा दिलाने वाली क्रान्तिकारी आग को सबसे पहले हमीं ने हवा दी। लेकिन बहुत सी बातों को लेकर मन उदास भी होता है। सोचता है, किस बात का जश्न मनाएं?  भारतमाता के अंग भंग का? लाखों लोगों की मौत का? शरणार्थियों को? बेघरबारों का?

आजादी मिली, लेकिन कैसी आजादी मिली? कामचोरी की, सीनाजोरी की? सड़क पर थूकने की? कचरा फेंकने की? लालबत्ती पर चौराहा पार करने की? कैसा प्रजातंत्र मिला? भेड़चाल का? भीड़वादी उन्माद का? जात-पात के गणित का? आयाराम गयाराम को? कैसा समाजवाद मिला?

नौकरशाही के अनावश्यक जंजालों का? अक्षम सरकारी सेवाओं का? कैसी धर्मनिरपेक्षता मिली? तुष्टीकरण वाली? दिखावे वाली? झांसा देले वाली। अंधविश्वासों व अवैज्ञानिक अतार्किक परम्पराओं को पोसने वाली?

ऐसे में कवि धूमिल कह उठते हैं–

क्या आजादी का अर्थ यही होता हैं,

जहां तीन रंगों को एक थका हुआ पहिया ढोता है” 
तथा

“यह न जन है, न तंत्र हैं, सिर्फ आदमी के खिलाफ आदमी का षड़यंत्र है।”

हमें अपनी कमियों को स्वीकारना है। उन्हें ढंकना नहीं है। उनक विवेचना करना है। व्यंग्य करते आना चाहिये, शेष प्रकट करते आना चाहिये। माना कि अंधेरा है। परन्तु उजाला आने की पहली शर्त ही अंधेरा है। सबसे घने काले बादलों के किनारे रुपहले चमकीले होते- हैं।

उम्मीद पर दुनिया कायम है। आशा पर आकाश टंगा है। हम इतने गये गुजरे नहीं कि गमगीन होकर मुंह लटका कर बैठ जाएं।

‘मेरा भारत नहीं अकिचन ‘
यही विश्व का स्वर्णिम कंचन
हम सब करनलें विचार मंथन
देश भारत अतीव सम्पन्न
करता है मेरा मन गुंजन
मेरा भारत नहीं अकिंचन’

“अनगिनत आघातों को सहकर जीवित हिन्दुस्थान
जग के मस्तक पर रोली सा हिन्दुस्थान”

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रुप में हमने पचास सालों तक अपना वजूद कायम रखा। कम सही पर प्रगति जरुर की। हम दूसरे एशियाई देशों की फास्ट लेन में शरीक होने जा रहे हैं। बहुत से नये पुराने देश बने बिगड़े, टूटे। जकड़े गये। तानाशाही में। सैनिक शासन में। हमारा गणतंत्र धड़कता रहा, सांस लेता रहा, खुली हवा में। उपलब्धियों के नाम पर सिफर तो नहीं रहें। आज भारत विश्व की छटी सबसे बड़ी अर्थवयवस्था है। चौथी सबसे बड़ी सैन्य शक्ति है। तीसरा सबसे बड़ा समूह है वैज्ञानिक श्रम शक्ति का।

आज का दिन अपने आपको देश प्रेम की भावना से ओत प्रोत कर लेने का हैं । ऋग्वेद का गान करने वाले ऋषियों ने कहा था ‘थेतिमहे स्वराज्ये’। तथा, ‘राष्ट्रे जागृयाम वयम’ । वाल्मीकि ने राम से कहलवाया ‘जननी जन्मभूमि स्वर्गादपि गरीयसी’ । गुप्त जी ने लिखा

जो भरा नहीं हैं भावों से
बहती जिसमे रसधार नहीं
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान हैं
वह नर नहीं पशु हैं निरा,और मृतक समान हैं।”

वाल्टर स्काट ने कहा ‘Breaths there the man with soul so dead Who never to himself hath said This is my own native land’.

कुछ शब्द हम चिकित्सफों फी भूमिका पर। दुख, दीमारी. वृद्धायरथा, मृत्यु जीवम को अनिवार्य सत्य है। और तंदरुस्त रहना पहली नियामत। लोगों को सेहतमन्द रखने और बीमारी से शीघ्र निजात दिलाने के लिये हमारे प्रोफेशन का आविर्भाव हुआ है। हम समाज के शिक्षित, वृद्धिजीवी व उपयोगी अंग जाने जाते है। किसी राष्ट्र के विकास में शिक्षा थ स्थास्थ्य ये दो खास अधोसंरचनाएं होती है। हमें अहसास होना चाहिये कि हम राष्ट्ररुपी इमारत के महत्वपूर्ण स्तम्म है। इस देश की महान परम्पराएं चिकित्सा व्यवसाय मैं भी दिख पड़ती है। धन्वन्तरी, अश्विनी कुमार, चरक, सुश्रुत और अश्यधोष के इस देश में वैदिक युग मेँ वैद्य को दक्षिणा इस हिसाब से नहीं मिलती थी फि उसने कितने मरीज देखे था कितने ऑपरेशन किये बल्कि इस बात पर कि उसने कितने लोगो को कितने समय तक स्वस्थ रखा। ‘उपचार से भली रोकथाम’ की समझ पर अमल होता था।नये युग में अनेक चिकित्सकों ने अपने व्यवसाय की सीमाओं पे परे जाकर सामाजिक जीवन में महती भूमिकाएं निभाई।

डॉ. द्वारकानाथ कोटनीस ने चीन मे सेवा कार्य किया। वहां लोग आज भी उन्हें इज्जत से याद करते है। व्ही. शाम्ताराम ने उन पर फिल्‍म बनाई थी। डौं. विधानचन्द्र राय कांग्रेस के अग्रणी नेताओं में से एक थे। लम्बे समय तक बंगाल के मुख्यमंत्री रहे, FRCS थे। कुशल सर्जन व लोकप्रिय शिक्षक थे। डॉ. जीवराज मेहता गुजरात में हुए।

आजादी के पचास सालो में स्वास्थ्य के क्षैत्र में बहुत सारा संख्यात्मक व गुणात्मक सुधार हुआ। आंकड़े कहानी कहते है – चिकित्सा महाविद्यालयों की संख्या, चिकित्सा स्नातकों की संख्या, विशेषज्ञों की संख्या, औसत आयु, शिशु मृत्यु दर आदि। हमारे डॉक्टर्स ने दुनिया में नाम कमाया। परन्तु नैतिक मूल्यों के पतन और अपाधापी के इस युग में चिकित्सक अछूते नहीं है। चरित्र के संकट का साया उन पर भी पड़ रहा है। जल्दी अमीर बनने की सर्वव्यापी मानसिकता उन्हें भी ग्रस रही है। हमारी चिकित्सा शिक्षा पर स्तर एक जैसा नहीं है। कहीं अच्छा तो कहीं इतना खराब कि न्यूनतम अर्हताए भी पूरी नहीं होती।

विकसित देशों के चिकित्सा शिक्षा संस्थानों की रीढ़ होती है। एक खास जमात जिन्हें चिकित्सक, शिक्षक व शोधकर्ता का मिलाजुला रुप कहते हैं। वैसी जमात, वैसे सिद्धजन अपने यहां कम हुए और नष्ट होते जा रहे है। सफल सम्पन्न नामी प्रक्टिशनर्स व पांच सितारा अस्पताल जरुर बढ़े है पर हमारे शोध प्रपत्रों के उल्लेखित होने की दर (साइटेशन इन्डेक्स) गिरता जा रहा है। इस सन्दर्भ में विकासशील देशों में हमारा स्थान सर्वीच्च हुआ करता था। चीन बहुत नीचे थे, शायद अंग्रेजी न आने की वजह से। अब वे हमसे आगे निकल चुके हैं।

चिकित्सक के रुप में आजादी की दूसरी अर्धशत्ताब्दी मे हमारा क्या योगदान होना चाहिये। मैं कोई उपदेशक नहीं हूँ। स्वयं अपने आप से जो अपेक्षाएं रखता हूँ, उन्हें ही बयान कर रहा हूँ-

1.  प्रथम – हम अपने व्यवसाय में श्रैष्ठतम हों। (We have to Excel), हमारा ज्ञान अधुनिकतम हो। हमारी कला व कौशल सर्वोत्कृष्ट हो। हमें अपने आपको सड़ने नहीं देना है। जंग नहीं लगने देना है। चूंकि काम धक ज़ाता है, इसलिये कया जरुरत है, अप-दू-डेट रहने की, वाली मानसिकता न आने देना है। मरीज की बज जाए, फिर भी कुछ नहीं बिगड़ता, इस बात हंस कर मजे लेने के बजाए हमें शर्म आना चाहिए तथा सुधरने का संकल्प लेना चाहिए।

2. मानवीयता की भावना हमसे दूर न जाने पाए। हमारा देश गरीब है। लोग जैसे-तैसे गुजर बसर करते है। चूंकि दूसरे लोग गलत प्रक्टिस करते हैं, कमीशन लेते हैं, इसलिये मैं भी कर लूं वाला सोच गलत है। और यदि ऐसा धन आता भी है तो क्‍यों न हम उसे परमार्थ के रुप में पुन: समाज को लौटा देवें। अन्त में उद्दत करना चाहूंगा मेरे पिता श्री कृष्णवललभ की कविता जिनकी लेखनी के स्वर पहली बार 65 वर्ष की उम्र के बाद फूटे। उच्च सहित्य नहीं है, पर सीधी सरल दिल को छू लेने वाली भाषा है-

“सरस्वती को साधो वह तो

सदा साथ जीवन भर रहती
लक्ष्मी आती जाती रहती
वीणावादिनी नहीं छोड़ती।

“लक्ष्मीपति तत्काल पुजाता
विद्वान सभी काल के होते
धारा को परिवर्तित करते
नाम धरा पर जिन्दा रखते।

“वैभव मन के पार न जाए
मन का अंकुश साधे उसको
मन विचलित न होने पावे
लगाम विवेक, चलावें उसको।

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