अपने नाटकीय स्वरूप के कारण मिर्गी, मानव सभ्यता की ज्ञात सबसे पुरानी बीमारियों में से एक रही है । अनिश्चितता के कारण इसके चारों ओर सदैव रहस्य का आवरण चढा रहता है । स्वयं पर नियंत्रण खो देना एक भयावह तथा न समझ आने वाली कल्पना है । अनेक अवसरों पर आत्मनियंत्रण का ह्रास आंशिक होता है, थोडी चेतनता व अहसास बना रहता है ।
ऐसे में घटित होने वाली हरकतें व अनुभूतियाँ किसी अलौकिक सत्ता के होने का इशारा करती हैं । मिर्गी की वैज्ञानिक समझ विकसित हुए मुश्किल से एक शताब्दी हुई है । उसके पहले इन्सान की भोली बुद्धि न जाने क्या-क्या व्याख्याएं गढ ली थीं ।
लिखित भाषा में मिर्गी शब्द का उल्लेख शायद सबसे पहले प्राचीन मिस्त्र देश के भोज पत्रों में मिलता है । इन्हें पेपीरस कहते हैं । चित्रलिपि के इस रूप का रोमन लिपि में रूपान्तरण है दाहिनी ओर की मानवकृत्ति सम्भवतः इंगित करती है कि एक प्रेतात्मा मिर्गी से पीडत व्यकित के शरीर में प्रवेश कर जाती है ।
विषय सूचि
अलौकिक रहस्यवाद से विज्ञानपरक तर्कवाद
आधुनिक साहित्य तथा फिल्मों में मिर्गी
ऊपरी शक्तियों के अनेक नाम होते हैं –
ऊपरी शक्तियों के अनेक नाम होते हैं – हवा, दैवीय प्रकोप, प्रेतात्मा, चुडैल, शैतान । ये शकित भली भी हो सकती हैं, बुरी भी । उसी आधार पर मिर्गी के मरीज को पूजा जा सकता है । उसे देवता का प्रतिनिधि माना जा सकता है । या उससे घृणा की जा सकती है, दुत्कारा जा सकता है । भारत में आज भी अनेक स्त्रियों या पुरुषों में देवी आती है । उस दौरान व्यक्ति की कुछ हरकतें मिर्गी से मेल खाती हैं । परन्तु वास्तव में उसका मिर्गी से कोई सम्बन्ध नहीं । गहन धार्मिक आस्थाओं के कारण संवेदनशील मन विशिष्ट व्यवहार करने लगता है । शायद यह जानबूझकर नहीं किया जाता।
अवचेतन मन (सबकान्शियस) में अनजाने में होता है । लोग श्रद्धा से सिर झुकाते हैं, पूजा करते हैं । व्यक्ति के मन की अतृप्त भावनाएंपोषित होती हैं । समाज में प्रतिष्ठा व मान्यता मिलती है । तनाव से पलायन का अस्थायी मार्ग सूझता है । अनेक व्यक्तियों को सामूहिक होता है । झुण्ड का झुण्ड झूमता है, डोलता है, झटके लेता है । इन सबका मिर्गी से केवल ऊपरी साम्य है । परन्तु उसी साम्य की पृष्ठभूमि में हम समझ सकते हैं कि क्यों दकियानूसी दिमागों में यह धारणा इतने गहरी बैठ गई कि मिर्गी भी दैवीय शक्ति का प्रभाव है ।
ऐसा सिर्फ एशिया या अफ्रीका में नहीं देखा जाता। यूरोप, अमेरिका सभी महाद्वीपों में, समस्त कालों में यही सोच हावी रहा है कि मिर्गी जैसी अवस्था शरीर के भीतर से अपने आप पैदा नहीं हो सकती । कोई है जो बाहर से कठपुतली के धागों को संचालित करता है।
तर्कसंगत बुद्धि का इतिहास भी पुराना है ।
ईसा से अनेक शताब्दियों पूर्व महान भारतीय चिकित्सक चरक ने अपनी संहिता में अपस्मार (मिर्गी) का वस्तुपरक ढंग से वर्णन किया । उसे शारीरिक बीमारियों के समान माना । अनेक कारणों की सूची बताई । औषधियों द्वारा उपचार सुझाया ।
हालांकि साथ-साथ ही दैवीयशक्ति वाली धारणा का भी उल्लेख कर दिया ।
ईसा से कुछ शताब्दी पूर्व, यूनान के महान चिकित्सक हिप्पोक्रेटीज ने कहा कि मिर्गी दैवीय बीमारी नहीं है ।
अन्य रोगों के समान उसके भी शारीरिक करण हैं।
चूंकि तर्कसंगत बुद्धि या विज्ञान किसी घटना की ठीक-ठीक व्याख्या नहीं कर पा रहे हैं, महज इसलिये यह स्वीकार कर लेना कि जरूर कोई शक्ति है जो सब करवाती है एक प्रकार का बौद्धिक पलायन है ।
हम चरक और हिप्पोक्रेटीज को नमन करते हैं कि उन्होंने उस युग में वह साहस व वैचारिक दृढता दिखाई जिस पर आज भी अनेक तथाकथित बुद्धिजीवी डिग जाते हैं ।
देवता, मसीहा और पैगम्बर अलौकिक रहस्यवाद से विज्ञानपरक तर्कवाद की संघर्ष स्थली मानव का मस्तिष्क है।
विचारों की इस विकास यात्रा ने अनेक रोचक मोड व उतार-चढाव देखे हैं । मिर्गी के बहाने इस इतिहास का अध्ययन मजेदार व उपयोगी है । यूनानी पुराण कथाओं में डेल्फी का मंदिर प्रसिद्ध था। वहां पुजारिने आसन पर बैठकर तंद्रा में चली जाती थीं फिर कुछ-कुछ बकती थीं । जिसके आधार पर भविष्यवाणी कल्पित करते थे । राजा दक्ष के यक्ष को नष्ट अनेक बीमारियों ने मनुष्यों को प्रभावित किया था । अपस्मार (मिर्गी) उनमें से एक थी । मध्य एशिया तीन प्रमुख धर्मों की जन्म स्थली रहा । ओल्ड व न्यू टेस्टामेण्ट में अनेक अवसरों पर मिर्गी का उल्लेख आता है । उसे पवित्र बीमारी कहा गया क्योंकि वह ईश्वर प्रदत्त है । बाईबिल में उद्धरण आते हैं कि ईसामसीह ने मिर्गी-रोगियों का उद्धार किया ।प्रभु मेरे बालक पर कृपा करो। उसे मिर्गी है। वह बहुत पीडा भोगता है । कभी वह आग में गिर जाता है तो कभी पानी में (मेथ्यू १७ः१५) विज्ञान व धर्मशास्त्र के अनेक इतिहासकारों ने स्वीकार किया है कि पैगम्बरों को प्राप्त होने वाला ज्ञान, दिव्य दृष्टि, अलौकिक अनुभूति आदि मिर्गी के कारण होना सम्भावित है । ऐसे मरीज हर काल में यदा कदा देखे सुने जाते हैं जिन्हें मिलती-जुलती अनुभूति होती है । प्रसिद्धि मिलना सबकी किस्मत में नहीं होता मगर जिनकी किस्मत में होता है वे इतिहास की धारा बदल डालते हैं ।
एक मसीहा ने लिखा मैंने ईश्वर के रहने की तमाम जगहों को इतनी सी देर में देख लिया । जितनी देर में एक घडा पानी भी खाली नहीं किया जा सकता । धर्मान्तरण के अनेक उदाहरणों के मूल में मिर्गी जनित अनुभूतियाँ रही हैं । सेन्टपाल का नाम प्रमुख है । उनका जन्म ईसा बाद की पहली शताब्दी में हुआ था । वे यहूदी थे व ईसाईयों के कट्टर विरोधी । बाईबिल में प्राप्त अनेक उद्धरणों के आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि उन्हें यदा-कदा मिर्गी के दौरे आते थे ।
एक पत्र में उन्होंने लिखा कि उन्हें एक अजीब असामान्य से दौरे में आध्यात्मिक अनुभूतियाँ हुई थीं – मैं नहीं जानता कि मैं शरीर के अन्दर था या बाहर । मुझे ईश्वर ने कुछ पवित्र रहस्य बताये कि जिन्हें होंठ दुहरा नहीं सकते। सेन्टपाल के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी उनका धर्मान्तरण । लगभग ३० वर्ष की उम्र में वे येरूशलम से दमिश्क पैदल जा रहे थे । उद्देश्य था दमिश्क के ईसाईयों को सजा देना । मार्ग में अजीब घटा । एक तीव्र प्रकाश हुआ । वे जमीन पर गिर पडे ।
उन्हें कुछ आवाजें सुनाई दीं जो ईसा मसीह के समान थी । वे उठे परन्तु अन्धे हो चुके थे । दमिश्क पहुंचने के तीन दिन बाद उनकी रोशनी फिर लौटी । उनका मन बदल चुका था ।ईसाई धर्म अंगीकार कर लिया । अनेक न्यूरालाजिस्ट ने सेन्टपाल के जीवन पर उपलब्ध ईसाई धर्म साहित्य का गहराई से अध्ययन किया है तथा वे मत के हैं कि सेन्टपाल को एपिलेप्सी का दौरा आया होगा । उनके धर्मान्तरण में मिर्गी का कुछ प्रभाव जरूर था ।
मध्ययुगीन इतिहास
मध्ययुगीन फ्रान्स के इतिहास मे ंजोन आफ आर्क को महान नायिका का दर्जा प्राप्त है । उसे बार-बार कुछ आवाजें सुनाई पडती थीं व दृश्य दिखाई पडते थे । वैज्ञानिक भाषा में इन्हें हैल्यूसीनेशन (विभ्रम) कहते हैं । ये मस्तिष्क की बीमारियों के कारण पैदा होते हैं । जोन आफ आर्क में एक बार लिखा मुझे दायीं होर से, गिरजाघर की तरफ से आवाज आयी । ईश्वर का आदेश था । आवाज के साथ सदैव प्रकाश भी आता है । प्रकाश की दिशा भी वहीं होती है जो ध्वनि की । अनुमान लगा सकते हैं कि उसके मस्तिष्क के बायें गोलार्ध व टेम्पोरल व आस्सीपिटल खण्ड में विकृति रही होगी ।
साहित्य में मिर्गी
प्राचीन संस्कृत साहित्य में महाकवि माघ ने मिर्गी का वर्णन करते हुए उसकी तुलना समुद्र से की है – दोनों भूमि पर पडे हैं, गरजते हैं, भुजाएं हिलाते हैं व फेन पैदा करते हैं । (शिशुपाल वध – ७वीं सदी ईसा पश्चात्) ।
शेक्सपीयर साहित्य में अनेक स्थलों पर मिर्गी का उल्लेख आता है । आथेलो नामक रचना में नायक को मिर्गी का दौरा पडता है तथा दो अन्य पात्र कैसियो व इयागो उसकी हंसी उडाते हैं ।
जूलियस सीजर का एक अंश उद्धृत है –
कैसियस: धीरे बोलो, फिर से कहो, क्या सच ही सीजर मुर्छित हो गये थे ?
कास्का: हां ! रोम के सम्राट ऐन ताजपोशी के समय चक्करघिन्नी के समान घूमे और गिर पडे । मुंह से झाग निकल रहा था । बोल बन्द था ।
व्रूटस: यह ठीक उसी बीमारी के समान लगता है जिसे मिर्गी कहते हैं । होश में आने के बाद जूलियस ने क्या कहा ?
कास्का: बोले यदि मैंने कोई ऐसी वैसी बात कही हो तो … उसे मेरी कमजोरी व बीमारी माना जाए । और इसी बेहोशी के दौरे के कारण वह बाद में बडी देर तक उदास बना रहा ।
फेदोर मिखाईलोविच दास्तोएवस्की उन्नीसवीं शताब्दी के महानतम् लेखकों में से एक थे । २७ वर्ष की उम्र में साईबेरिया में कारावास की सजा भुगतते समय उनके दौरे बढ गये । डायरी में उन्हें अजीब, भयावह, रोचक पूर्वाभास होता है, हर्षातिरेक का । देखो हवा में कैसा शोर भर गया है । स्वर्ग मानों धरती पर गिरा आ रहा है और उसने मुझे समाहित कर लिया है । मैंने ईश्वर को छू लिया है । पैगम्बर साहब को होने वाले रुहानी इलहाम की भी ऐसी ही अवस्था थी ।
महान कलाकारों या लेखकों की कमियाँ व बीमारियाँ भी महत्वपूर्ण हो उठती हैं । दास्तोएवस्ककी ने उपन्यास द ईडियट में अपनी बीमारी को नायक प्रिस मिखिन पर आरोपित कर दिया है । वह मास्को की सडकों पर बेमतलब घूमता रहता है और बताता है कभी-कभी सिर्फ पांच-छः सेकण्ड के लिये मुझे शाश्वत संगीत की अनुभूति होती है । सब कुछ निरपेक्ष और निर्विवाद लगता है भयावह रूप से पारदर्शी लगता है । कभी दिमाग में अचानक आग लग उठती है । बादलों की सी तेजी से जीवन की चैतन्यता का प्रभाव दस गुना बढ जाता है । फिर पता नहीं क्या होता है ।
मिर्गी की इस बीमारी ने दास्तोएवस्की के जीवन दर्शन, सोच, चितन आदि पर गहरा असर डाला । अपने तीनों महान उपन्यास दि ईडियट, द डेमान्स और करामाजोव बन्धु में लेखक का यह मत बार-बार प्रकट हुआ कि जानने के लिये आस्था व अनुभूति जरूरी है । मिर्गी रोग के कारण प्राप्त अनुभवों ने लेखक को एक विशिष्ट दृष्टि प्रदान की जो तर्क संगत भी थी तथा रहस्यवादी भी ।
मिर्गी के दौरों में तथा अनेक स्वस्थ व्यत्ति*यों को भी कभी-कभी एक खास प्रकार की क्षणिक अनुभूति होती है कि वत्त*, इस जगह जो जिया जा रहा है वैसा ही शायद पहले भी जिया जा चुका है । वैसे ही हालात, वे ही लोग, वही संवाद । लगता है कि अब जो होगा या कहा जाएगा वह भी पहले से ज्ञात था । कुछ सेकंड्स के बाद यह अहसास गुजर जाता है । फिर पहले जैसा सामान्य । ऐसा बार-बार हो सकता है । टेम्पोरल खण्ड से उठने वाले आंशिक जटिल (सायकोमोटर) दौरों में यह अधिकता से होता है । इसे फ्रेंच भाषा में देजा-वू कहते हैं । प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि लार्ड टेनीसन व गद्यकार चार्ल्स लिखित निम्न अंश देजा वू की भावना को अभिव्यक्त करते हैं –
“कुछ-कुछ है या कि लगता है,
रहस्यमयी रोशनी सा मुझे छूता है ।
जैसे कि भूले हूए सपनों की झलकें हों,
कुछ यहाँ की हों, कुछ वहां की हों,
कुछ किया था, न जाने कहाँ की हों,
सीमा उनकी भाषा से परे की हो । “
– लार्ड टेनीसन
हम सब लोगों के दिल दिमाग पर कभी-कभी एक अजीब सी अनुभूति हावी होती है कि जो कुछ कहा जा रहा है या किया जा रहा है वह सब किसी अनजाने सुदूर अतीत में पहले भी कहा जा चुका है या किया जा चुका है तथा यह भी कि चारों ओर जो वस्तुएें परिस्थितियाँ चेहरे विद्यमान हैं वे किसी धुंधले भूतकाल में पहले भी घटित हो चुकी हैं तथा यह भी यकायक याद हो आता है कि अब आगे क्या कहा जाएगा ।
– चार्ल्स डिकन्स
हालैण्ड के विश्वविख्यात चित्रकार विन्सेन्ट वान गाग को भी मिर्गी रोग था उसके बावजूद वे श्रेष्ठ कोटि के कलाकार थे । जरूरी नहीं कि रोग से सदैव प्रतिभा का क्षय हो । प्रतिभा की दिशा बदल सकती है, उसमें वैशिष्ट्य आ सकता है । मिर्गी की आटोमेटिज्म (स्वचलन) अवस्था में वान गाग बार-बार एक जैसे चित्र, अनजाने में बनाते चले जाते थे ।
आधुनिक साहित्य तथा फिल्मों में मिर्गी
अनेक उदाहरण हैं पात्रों को मिर्गी रोग होने के तथा उस कारण कथानक में खास मोड आने के । कुछ नाम हैं हेनरी जेम्स रचित टर्म ऑफ द स्क्रू, भारतीय लेखिका रूथ प्रावर झाबवाला की हीट एण्ड डस्ट, विलियम पीटर प्लाटी लिखित द एक्जार्सिस्ट, जिस पर प्रसिद्ध डारवनी फिल्म बनी थी ।कुछ पाठकों को द एक्जार्सिस्ट फिल्म का दृश्य याद होगा जिसमें बालिका डिनर पार्टी में कालीन पर पेशाब कर देती है व कांपने लगती है न्यूरालाजी विशेषज्ञ द्वारा टेम्पोरल खण्ड मिर्गी का निदान बनाया जाता है ।
यह अलग बात है कि रहस्यवाद के प्रति लोगों की मानसिक कमजोरी का लाभ उठाते हुए बाक्स आफिस पर सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से लेखक व निर्देशक दोनों ने जानबूझ कर पहेली का निश्चित हल प्रस्तुत नहीं किया । महान भारतीय डॉ. कोटनीस ने चीन में अनेक वर्षों तक सेवा कार्यों द्वारा नाम कमाया था । उन्हें भी मिर्गी रोग था ।
उनके जीवन पर आधारित व्ही.शान्ताराम की फिल्म डॉ. कोटनिस की अमर कहानी के कुछ दृश्यों में पैरों में झटके आते हुए दिखाये गये हैं । कुछ वर्षों पूर्व दूरदर्शन पर एक हास्य धारावाहिक (सीरियल) लोकप्रिय हुआ था – मुंगेरीलाल के हसीन सपने । रघुवीर यादव ने सटीक अभिनय द्वारा चेहरे के एक ओर फडकन या झटके दर्शाये थे जो आंशिक जटिल मिर्गी में आते हैं तथा जिसमें दिवास्वप्न की स्थिति बनती है । चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से उक्त दिवास्वप्न या कल्पना कुछ ही सेकण्ड रहता है । हर बार विषय बदलता नहीं तथा उसमें कोई निश्चित विषय या तारतम्य नहीं रहता परन्तु फिल्म वालों को थोडी बहुत छूट दी जा सकती है ।
बीमारी का दार्शिनक महत्व
कला, इतिहास और धर्म के आईने में मिर्गी के अनेक उदाहरण प्रस्तुत करने का उद्देश्य इस रोग को गौरवान्वित या महिमामण्डित करना नहीं है । रोग बुरा है । परन्तु कितना बुरा ? उतना नहीं जितना कि लोग सोचते हैं । इस बुराई में भी कुछ अंश ऐसे होते हैं जो तुलनात्मक रूप से अच्छे होते हैं । दुःख जीवन का अनिवार्य अंग है । हजारों तरह के दुःख हैं । अधिकांश लोग दुःख से उबरना सीखते हैं । दुःख का सामना करना उनकी आत्मिक शक्ति को पूर्णता प्रदान करता है ।
मिर्गी के दुःख का सामना लोग बेहतर तरीके से कर पायें, इसलिये सोचा गया कि उसके बारे में कुछ रोचक तथ्यों की चर्चा छेडी जाए । मिर्गी रोग आनन्द की अवस्था नहीं है । परन्तु स्वयं के दुःख पर हंस पाना उसकी पीडा को निश्चय ही कम करता है ।
ब्लेज पास्कल ने कभी कहा था बीमारी के भले उपयोग की प्रार्थना के बारे में । हम सोच सकते हैं कि कितनी ही हस्तियों ने अपनी मिर्गी का कुछ भला ही उपयोग पा लिया था । बीमारी का एक और भला उपयोग है । मिर्गी रोग का अध्ययन करते-करते अनेक न्यूरो-वैज्ञानिकों को यह बूझने का अवसर मिलता है कि मस्तिष्क के विभिन्न हिस्से क्या-क्या काम करते हैं, विद्युतीय व रासायनिक गतिविधियाँ कैसे संचालित होती हैं । जीव विज्ञान के अध्ययन में प्राणियों पर प्रयोगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । मनुष्यों पर प्रयोग करना अनैतिक है । हिटलर के नाजी राज में अपवाद हुआ था । परन्तु विभिन्न बीमारियों के अध्ययन से शरीर के कार्यकलाप के बारे में जानकारी मिलती है उसे क्या कहा जाए ? ये प्रकृति के क्रूर प्रयोग हैं । उस पीडा को भोगने से बच नहीं सकते । तो क्यों न उसका भला उपयोग ढूंढा जाए ।