
वर्ष 1968-69, रहे होंगे, जब मैं रतलाम के माणकचौक स्थित शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय क्रमांक एक में 10वीं, 11वीं कक्षा में पढ़ता था। मेरे पापा श्री कृष्णवल्लभ पौराणिक वहीं व्याख्याता थे। भौतिक शास्त्र पढ़ाते थे। उनके एक सहकर्मी हिन्दी अध्यापक थे, श्री स्वयंप्रकाश उपाध्याय। सूरजमुखी होकर उनका रंग लाल-गोरा था। विद्वान् थे। महर्षि अरविंद की ज्ञानदर्शन परम्परा के शिष्य थे। पुदुचेरी (पांडिचेरी) स्थित आश्रम प्रायः जाते रहते थे। श्री अरविंद और उनकी शिष्या श्री माँ का साहित्य हमें पढ़ने को देते थे। तत्सम्बन्धी विषयों पर कार्यक्रम आयोजित करते, व्याख्यान देते और लोगों का प्रोत्साहित करते कि वे भी इस संस्था के सदस्य बनें, और तत्सम्बन्धी विचार दर्शन और जीवन शैली को अपनाऐं।
मेरे मन में कौतुहल व जिज्ञासा थी। थोड़ी बहुत प्रशंसा व आदर का भाव भी पनपा, लेकिन बहुत अधिक नहीं। उन्हीं दिनों श्री स्वयंप्रकाशजी ने मुझे एक मासिक हिन्दी पत्रिका ‘पुरोधा’ के अंक पढ़ने को देना शुरू किये, जो अरविंद आश्रम से किशोरों के लिये प्रकाशित होती थीं। अधिकतर सामग्री नैतिक शिक्षा श्रेणी की होती थी जो आमतौर पर सबको बोर लगती है। केवल एक स्तम्भ ने मेरा ध्यान आकर्षित किया ‘फ्रांसीसी भाषा सीखिये’। प्रतिमाह कमिक पाठों की श्रृंखला शुरू हुई थी। मुझे अच्छा लगा था। पत्रिका वापस लौटाने की होती थी। उन दिनों फोटोकॉपी, स्कैनिंग आदि के साधन न थे। जोश जोश में मैंने सभी पाठों को मेरी कापियों में हाथ से नकल उतारना शुरू किया।
भाषाओं और भाषा विज्ञान में मेरी शुरू से रूचि रही है। मेरी मां ने मेरे जन्म के बाद पहले संस्कृत और फिर हिन्दी में एम.ए. किया था। हिन्दी के समय मैंने होश सम्हाल लिया था। उनकी किताबें पढ़ता था। उनके बारे में घर में चर्चा होती थी। भाषा विज्ञान का पर्चा हिन्दी एम.ए. में कठिन माना जाता था। ऐच्छिक था, परन्तु मां ने उसे चुना। उनका विज्ञान-परक और गणित-परक बौद्धिक मन उसे रास आया था। वे ही बीज मेरे मन में भी पड़ रहे थे।
फ्रेंच भाषा की बनावट, शब्द विन्यास, उच्चारण, लिपि-विन्यास, व्याकरण, शैली आदि से परिचय हो रहा था। सीधे हिन्दी से फ्रेंच की मुलाकात हो रही थी। बीच में अंग्रेजी का कोई काम न था। अपनी मातृभाषा के माध्यम से सीखना श्रेष्ठत्म होता है- चाहे ज्ञान विज्ञान की कोई भी शाखा हो। देवनागरी लिपि की वैज्ञानिक व्यवस्था, जिसमें अक्षर व ध्वनि का सम्बन्ध सीधा सादा, भ्रममुक्त व अपवादमुक्त है, मुझे पसन्द आ रही थी। रोमन लिपि से पहले ही परिचय हो चुका था। अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, इटालियन, स्पेनिश, पोलिश आदि अनेक यूरोपीय भाषाऐं रोमन (या लेटिन) लिपि में लिखी जाती है।
अंग्रेजी सीखते सीखते, रोमन अक्षरों और शब्दों में उच्चारण के समय उनकी ध्वनियों के नियम आत्मसात हो चुके थे। अब फ्रेंच भाषा के समानान्तर नियमों की तुलना पर गौर करना मजेदार लग रहा था। नकल करते करते शब्दावली बढने लगी थी। छोटे-छोटे वाक्यांश याद हो गये थे। अंग्रेजी में फ्रेंच से आये उधार शब्दों से जब जब सामना होता तो उनका अर्थ पहले से मालूम होने पर गर्व होता था।
जब हम कोई ‘भाषा’ सीखना शुरू करते हैं तो जैसे-जैसे पहचान बढ़ती है, वह भाषा हमें एक परिचित व्यक्ति के समान लगने लगती है। शब्द ‘भाषा’ चूंकि हिन्दी में स्त्रीलिंग है, इसलिये वह भाषाई व्यक्तित्व भी स्त्रीरूप होता है। कुछ खास गुण हम उसमें कल्पित करते हैं, आरोपित करते हैं। ऐसा ही कुछ मैं फ्रेंच के साथ करने लगा था। इस भूमिका के आरम्भ में प्रसिद्ध लेखक अनातोल फ्रेंच के उद्धरण जितने विस्तार तक मेरी कल्पना नहीं पहुंची थी। मेरी परिचय सतही था। फ्रेंच के ध्वनि संसार से मेरा परिचय न था, जो आज इन्टरनेट के जमाने में सहज ही उपलब्ध है।
वर्ष 1970 में मैं इन्दौर आ गया। एम.जी.एम. मेडिकल कॉलेज में एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई शुरू हो चुकी थी। फ्रेंच पाठों की हस्तलिखित तीन नोटबुक मेरे साथ आई थी। लेकिन सिलसिला टूट गया था। शुरू-शुरू में मैंने शायद कुछ मित्रों से मेरे ‘फ्रेंच किस’ का उल्लेख किया था। बात आई गई हो गई। यदाकदा कालेज लाइब्रेरी से अंग्रेजी से फ्रेंच सीखने की एक दुकान पर हिन्दी से फ्रेंच पर एक किताब भी देखी थी पर खरीदना चूक गया।
मेरी फ्रेंच एक ऐसी मित्र के समान रही जिसकी दोस्ती प्रगाढ़ता में न पनपी। हालांकि आज भी मेरी फ्रेंच शब्दावली अंग्रेजी के अच्छे जानकारों से बेहतर है। फ्रेंच शब्दों के उच्चारण के मेरे प्रयास ठीकठाक हो पाते हैं। लेकिन इन्टरनेट आ जाने के बाद भी मैंने भाषा सीखने की कोशिश नहीं करी।
एक बार स्पेन की राजधानी माद्रिद से पेरिस तक की रेल यात्रा में दो एल्जीरियाई युवक सहयात्री थे, फ्रेंच भाषी थे। उनकी टूटीफूटी अंग्रेजी और मेरी टूटीफूटी फ्रेंच के माध्यम से बहुत देर तक बातें चली और खूब मजा आया था।
इस तरह के कार्यों को स्वांतः सुखाय और ‘प्रेम का परिश्रम’ (travail d’amour) कहते हैं
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