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प्रयोगशाला जाँचें (Laboratory Investigations)


जब भी कोई मरीज और उसके परिजन डॉक्टर के पास दिखाने हेतु आते हैं, तो डॉक्टर हिस्ट्री लेता है, बीमारी का इतिहास पूछता है, बीमारी का वर्णन सुनता है, फिर शरीर की जांच करता है, फिजिकल एग्जामिनेशन करता है, पुराने पेपर देखता है और फिर कई बार या प्रायः वह कोई ना कोई जांच करवाने के लिए कहता है।

प्रयोगशाला जाँचें या लेबोरेटरी इन्वेस्टिगेशन, कई प्रकार की होती है। मरीज़ और रिश्तेदार कई बार सोचने लगते हैं, ये जाँचें क्यों करवाई जा रही है, इनकी क्या आवश्यकता है, क्या इन जाँचों के बिना काम नहीं चल सकता , यह जांचे कितनी महँगी है, इन जांचों को करवाने में डॉक्टर का कोई स्वार्थ तो नहीं है, पुराने जमाने में जब यह नाना प्रकार की जांच नहीं होती थी, तभी तो डॉक्टर बिना जांच करवाएं मरीज का इलाज करते थे।
आजकल मेडिकल इलाज इतना महंगा इसलिए हो गया है कि डॉक्टर तरह-तरह की महंगी से महंगी जांच करवाना चाहते हैं। इन प्रश्नों के विस्तार में, मै फिलहाल नहीं जाता हूं। अभी यह मानकर चलेंगे कि डॉक्टर ने जिन जांचों को करने की सलाह दी है, वह सोच-समझकर, मरीज की आवश्यकता अनुसार, बड़ी ईमानदारी के साथ, बड़ी पारदर्शिता के साथ, एक अच्छी भावना के साथ मरीज के भले के लिए दी है।
ऐसी स्थिति में, यह जांचे क्या होती है, यह कैसे मदद करती है, आइए जानते हैं। डॉक्टर किसी मरीज की बीमारी का वर्णन सुनकर, उसका इतिहास जानकार, शारीरिक जांच करने के बाद, अपने मन में बीमारी की संभावनाओं के बारे में सूची बनाता है। मरीज को यह बीमारी हो सकती है, या वह बीमारी हो सकती है, कहीं य​​ह तो नहीं, इसको बोलते हैं शॉर्ट लिस्टिंग। इसके लिए एक और शब्द है ‘निदान भेद या डिफरेंशियल डायग्नोसिस’ अर्थात कौन-कौन सी बीमारी मरीज को हो सकती है। कई बार ऐसा होता है कि कहीं किसी प्रकार का कोई शक नहीं होता। डॉक्टर एक ही बीमारी के बारे में सोचता है और वही निकलती है। लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता। एक से अधिक बीमारियों की आशंका होती है। उसके बारे में डॉक्टर बहुत विश्वास के साथ नहीं कह पाता कि हां बस यही बीमारी है और कुछ नहीं। कई बार ऐसा लगता है कि बीमारी तो यह होना चाहिए, लेकिन कहीं ये दूसरी ना हो जो बड़ी खतरनाक है। इस तरह की अवस्थाओं के लिए शब्द, जो काम में लाए जाते हैं, उनको हम कहते हैं ‘रुलिंग इन’। ‘रूलिंग इन’ का मतलब है कंफर्म करना कि हां जो बीमारी सोची थी वही है। यदि डॉक्टर को लग रहा था कि इस मरीज के दिमाग में गांठ/ब्रेन ट्यूमर हो सकता है तो उसको कंफर्म करने का तरीका होता है, ब्रेन का सिटी स्कैन या एम आर आई करवा लेना। एक अन्य सोच भी होती है ‘रोलिंग आउट’ कि कहीं यह बीमारी तो नहीं है? भगवान करें कि ना हो, फिर भी मन में डर है कि शायद, यह ना हो तो अच्छा, इसलिए फला फला जांच कर लेते हैं और देखते हैं कि यह बीमारी तो नहीं है। उस अवस्था को हम कहते हैं ‘रोलिंग आउट’ । इस तरह की जांच के लिए मरीज को या तो डॉक्टर को लग रहा है कि कहीं कैंसर तो नहीं है और कैंसर के लिए बायोप्सी करवाना पड़ती है। एक गांठ का टुकड़ा निकाल कर जांच के लिए भेजना पड़ता है। डॉक्टर उसकी जांच करते हैं। अच्छा हुआ कैंसर वाली गांठ नहीं है, ‘रोल आउट हो गया’, यह होता है संभावना को पुख्ता करना।
यह जो सारे निर्णय होते हैं- कौन सी जांच करना है, निर्भर करता है – प्री टेस्ट प्रोबेबिलिटी अर्थात जांच करने के पहले की संभावना कितनी है? जांच करने के बाद पोस्ट-टेस्ट प्रोबेबिलिटीज कितनी होगी अर्थात परीक्षण के पश्चात वह संभावना कितनी हो जाएगी। जब डॉक्टर को लगता है कि हां, पर्याप्त रूप से प्रीटेस्ट प्रोबेबिलिटी है और इस फला फला जांच को करने के बाद यह प्रोबेबिलिटी, वह संभावना इतने गुना या इतने प्रतिशत बढ़ जाएगी, तब ही उस डॉक्टर को वह जांच करानी चाहिए। न्यूरोलॉजिकल बीमारियों के निदान में सहायक विभिन्न प्रकार की जांचे डॉक्टर द्वारा करवाई जाती है। इसमें वे सभी जांच में शामिल है, जिन्हें हम सामान्य जांच कहते हैं, दो किसी अन्य सिस्टम की बीमारी से पीड़ित मरीज को भी करवाई जा सकती है। न केवल न्यूरोलॉजी बल्कि कार्डियोलॉजी, गैस्ट्रोलॉजी, सर्जरी, गायनेकोलॉजी किसी भी बीमारी से पीड़ित मरीज में कुछ जनरल जांचे हमेशा करवाई जाती है, जैसे हीमोग्लोबिन और WBC काउंट और खून में शक्कर की मात्रा और खून में यूरिया की मात्रा। ये कुछ जनरल कीस्म की जांच होती है, जो मरीज के स्वास्थ्य का आधारभुत ढाँचा क्या है, समझने में मदद करती है। इसी प्रकार, छाती का एक्सरे या हार्ट का ईसीजी या पेशाब की जांच। इनको भी हम जनरल किस्म की जांचो मे, सामान्य जांचो की श्रंखला में रख सकते हैं। इसके अलावा कुछ विशेष प्रकार की जांचे होती है जिनका संबंध अलग-अलग सिस्टम से ही होता है सिस्टम में अपनी विशेष जांच होती है यदि मरीज पीड़ित है तो ह्रदय सम्बंधी कुछ खास जांच तो होगी ।

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