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चिकित्सा एवं मानविकी


‘मन’ का बायोलाजिकल अध्ययन व शोध न केवल एक वैज्ञानिक बल्कि कलात्मक (ह्यूमेनिटीज) उपादान भी है। मन की बायोलाजी एक पुल है दो विज्ञानों को जोड़ता हुआ। एक यह प्राकृतिक संसार और दूसरा मानविकी – जिसका ताल्लुक मनुष्य की अनुभूतियों में निहित अर्थों से है। दोनों के संश्लेषण से मिलने वाली अन्तंदृष्टि से न केवल मानसिक व न्यूरॉलाजिकल रोगों के बारे में हमारी समझ विकसित होगी बल्कि अपने आप की गहरी पहचान होगी। – एरिक कान्डेल, नोबल पुरस्कार विजेता, न्यूरोवैज्ञानिक

जब एक किशोरवय युवक या युवती कडी प्रतिस्पर्धा में अपनी मेहनत और मेधा के बल पर मेडिकल कालेज में सपनों भरी आंखों से प्रवेश लेता है तब उसके मन में आदर्शवाद, मरीजों की सेवा की भावना और मानवीय संवेदनाओं की कधी उर्वर जमीन तैयार रहती है। फिर पता नहीं कब और कैसे, धीरे-धीरे वे मरीजों को दूसरा और खुद को अपने वरिष्ठ डाक्टर्स व अध्यापकों की श्रेणी में रखकर एक सीमा रेखा बनाने लगते हैं। डाक्टर्स जो स्वस्थ है, अजेय है, अधिकारी है, ज्ञानी है, कुशल है, सफल है, और मरीज ? जो असमान्य है, शिकायत करने वाले हैं, तकलीफों के पुलिन्दे हैं,असंतोषी हैं, अशुद्ध हैं, कर्मफल भोगने वाले हैं। यह निहायत ही महत्वपूर्ण है कि हम हमारी पहचान किस रूप में ढूंढते हैं। अपने गुरूजनों और सफल डाक्टर्स में खुद का बिम्ब या रोलमाडल तराशना एक हद तक ठीक है। परन्तु मुश्किल तब होती है जब एक युवा चिकित्सक यह भूल जाता है कि वह स्वयं या उसका कोई परिजन भी मरीज हो सकता है और यह भी कि चिकित्सक का खुद का ज्ञान और उसके शास्त्र की सीमाएं हैं या यह कि मरीज की देखभाल ठीक से करने के उसके प्राथमिक कर्त्तव्य के लिये न केवल वैज्ञानिक ज्ञान बल्कि इन्सानों के रूप में मरीज, घरवाले और स्वयं डाक्टर का व्यक्तित्व, चरित्र, भावनाएं, संवेदनाएं, मूल्य, इच्छाएं, महत्वाकांक्षाएं, उम्मीदें, भय, शंकाएं आदि के जटिल संसार की समझ होना है चाहिये।

एनातोल ब्रोयार्ड ‘न्यूयार्क टाइम्स’ के पुस्तक समीक्षा विभाग के प्रमुख सम्पादक थे तथा साहित्यिक आलोचक के रूप में प्रतिष्ठित व ख्याति प्राप्त थे। 1930 में प्रोस्टेट कैंसर से उनकी मृत्यु हुई। बीमार होने के बाद उन्होंने रोग और मृत्यु विषय पर निबंधों की एक श्रृंखला लिखी जो मरणोपरांत ‘मेरी बीमारी के नशे से ग्रस्त’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। एक खास निबंध ‘मरीज करे डाक्टर की जांच’ दोनों के आपसी सम्बन्धों पर पैने सवाल उठाता है। ब्रोयार्ड अपनी बीमारी के लक्षणों के बारे में बताते हैं। उन्हें पेशाब करने में रुकावट होती है। यूरोसर्जन से उनकी मुलाकात व बातचीत को मजेदार तरीक से बयान करते हैं। उनके अनुसार डाक्टर कैसा होना चाहिये-

‘जो बीमारी को बारीकि से पढे, चिकित्सा का अच्छा समालोचक हो…. जो कि शरीर और मन (दोनों) का इलाज करे.. मैं चाहुंगा कि मेरा डाक्टर मेरा पूरा मुआयना करे.. मेरी प्रोस्ट्रेट ग्रंथि के साथ-साथ मेरी रूह को भी टटोले। ऐसा डाक्टर जो गम्भीर रूप से बीमार व्यक्ति के एकाकीपन की कल्पना कर सके और महसूस कर सके कि मैं क्या अनुभव कर रहा हूँ। जो जानता हो कि प्रत्येक मरीज को बचाया नहीं जा सकता परन्तु रोग की पीडा और दुःख को कम किया जा सकता है – इस बात से कि डाक्टर का व्यवहार कैसा है – और अन्ततः डाक्टर अपने आप को बचा पाता है। एक अस्पताल, प्रयोगशाला के बजाय थिएटर (कलाक्षेत्र) जैसा अधिक होना चाहिये।’

बेंजामिन फैकलिन ने कहा था पारम्परिक रूप से डाक्टर्स के पास तीन साधन होते हैं जड़ी बूटी, चाकू और समझ-सहानुभूति भरे मीठे बोल। प्राचीन व मध्ययुगीन भारत में वैद्य को कविराज कहते थे। चरक, सुश्रुत व अश्वघोष जैसे विकित्सकों ने अपनी संहिताएं काव्यमय संस्कृत प‌द्मावलियों में लिखी थी। हजारों वर्षों तक चिकित्सा को एक प्रकार की कला समझा और माना जाता रहा। विज्ञान का प्रवेश धीरे धीरे हुआ तथा पिछले सो वर्षों में तेजी से बढ़ा। यह अच्छा हुआ और जरुरी था। वैज्ञानिक आधुनिक चिकित्सा और श्रेष्ठता और सफलता सर्वज्ञात है।

लेकिन फिर भी चिकित्सा जगत और डाक्टर्स के प्रति आम नागरिकों के मन में असंतोष क्यों है? घना आत्मीय सम्बन्ध क्यों सतही व व्यावसायिक हो गया है? मरीज क्यों महसूस करता है कि वह महज एक वस्तु या मशीन का पुर्जा या शरीर या शरीर अंग या किसी रोग का वाहक या किसी ठीक की जाने वाली खराबी का माडल भर रह गया है। लोग क्यों नीम हकीमों या अवैज्ञानिक आल्टरनेटिव मेडिसिन (वैकल्पिक चिकित्सा) की ओर जाते हैं? इसके पीछे कारण है चिकित्सा व्यवहार में कला की कमी तथा विज्ञान व व्यवसाय की तुलनात्मक अधिकता। अर्थशास्त्र या व्यवसायिकता के अच्छे व बुरे पहलुओं पर चर्चा करना फिलहाल इस निबंध का उद्देश्य नहीं है। परन्तु कला या मानविकी (ह्यूमेनिटीज़) के महत्व को प्रतिपादित किया जाना है।

एक छात्र ने थामस सिडेन्हम (कोरिया बीमारी का वर्णन करने वाले) से पूछा कि डाक्टर्स की प्रेक्टिस के लिये तैयारी में मैं कौनसी पुस्तक पढूं ? बिना झिझक के सिडेन्हम ने कहा डॉन क्विक्जोट पढो। बहुत अच्छी किताब है । 17 शताब्दी के बाद अब हालात बहुत बदल चुके हैं लेकिन उपरोक्त जैसी सलाहें और भी ज्यादा जरूरी हो गई हैं। जिन्दगी को अर्थ प्रदान करने वाले सपनें के बारे में और मृत्यु तथा दुःखों के झंझावतों को सहने का ज्ञान भला साहित्य के अलावा और कहाँ से मिलेगा ?

मानविकी और कलाओं में कहानियाँ हैं, विचार हैं, शब्द हैं जो जीवन और दुनिया को अर्थवक्ता और सार्थकता प्रदान करते हैं। साहित्य हमें ऐसे लोगों से मुलाकात करवाता है जिनसे हम कभी नहीं मिले, या जहाँ हम कभी नहीं गये या जो बात कभी हमारे दिमाग में कौंधी ही नहीं। दूसरे लोगों ने जिन्दगी को कैसे जिया और उसके बारे में कैसे सोचा यह जानने से हमें फैसला करने में मदद मिलती है कि हमारी अपनी जिन्दगी में क्या महत्वपूर्ण है तथा हम उसे बेहतर बन सकते हैं।

मानविकी का दायरा बहुत बड़ा है। साहित्य, भाषाएं, भाषाविज्ञान, मनोविज्ञान, इतिहास, अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र, नैतिक शास्त्र, धर्मशास्त्र, के साथ ललित कलाएं (संगीत, नृत्य, रंगमंच, चित्रकला, फिल्म आदि) भी इसमें आते हैं।

यह उम्मीद की जाती है कि चिकित्सा छात्र और डाक्टर्स मानविकी के सम्पर्क में आकर अपनी सोच का दायरा बढ़ायेंगे, उदार चित्त बनेंगे, विचारों का क्षितिज व्यापक होगा, मन में संवेदनशीलता और दूसरों के दुःखों को समझने की क्षमता बढ़ेगी, आदर्शवाद और नैतिकता, सुदृढ होंगे, कथोपकथन और संवाद का हुनर निखरेगा, बेहतर श्रोता और अवलोकक बनेंगे, बेहतर पाठक और लेखक बनेंगे। इन गुणों का महत्व आज से 2500 वर्ष पूर्व चिकित्सा के पितामह हिप्पोक्रेटीज ने भी पहचाना था। उन्होंने कहा था ‘मरीज कथाओं में शरीर और मन की छिपी हुई संचना के ऊपर पड़े पर्देको उठाने की गजब की क्षमता है। 19 वीं शताब्दी के विक्टोरियन युग के वैज्ञानिकों व चिकित्सकों में क्लीनिकल किस्सागोई का हुनर विकसित था। बीसवीं सदी में विज्ञान की, शुष्क वस्तुपरक भाषा ने मरीज कथा का रोचक, भावनात्मक व्यक्तिपरक पहलू मिटा दिया। उसी को पुनजीर्वित करना है। एक चिकित्सक को एक नेचुरलिस्ट (प्रकृति विज्ञानी) के रूप में अपने मरीजों को अध्ययन करना चाहिये। उसे न केवल सिद्धांतवादी बल्कि ड्रामेटिस्ट तथा न केवल वैज्ञानिक बल्कि रोमांटिक भी होना चाहिये ।

चिकित्सा शास्त्र सटीक बनने की कोशिश करता है। धीरे-धीरे और अधिक तकनीकी होता जा रहा है। टेंडन हैमर (हथौड़ी) का स्थान एम.आर.आई. ने ले लिया है। पुराने विश्वास, सबूत पर आधारित चिकित्सा (इविडेन्स बेस्ड मेडिसिन) के दर्पण में चूर हो रहे हैं। न्यूरोलॉजी का प्रशिक्षण सधन और कठिन होता है। सब निष्कर्षों के लिये हम डेटा / तथ्य / सबूत और तर्क मांगते हैं। वैज्ञानिक शोधपत्रों में छपने वाले आलेख में प्रत्येक कथा का आधार होना चाहिये। अवलोकन के रूप में या प्रयोग के रूप में।

इसके विपरीत मानविकी में कल्पना का बोलबाला है। उपमा और अतिश्योक्ति भाषा के अलंकार हैं। बस लिखा, ठीकठाक तरह से होना चाहिये। प्रमाण जरूरी नहीं पर भाषा, शब्दावली, व्याकरण-शैली अच्छी होना चाहिये। विचार उत्तेजक हों, विवादास्पद हों, किसी भावना या रस की निष्पत्ति करते हों या सोचने को मजबूर करते हैं ये बातें मानविकी लेखन में अधिक मायने रखती हैं।

वैज्ञानिक आलेख बताते हैं कि ‘ऐसा है’, साहित्य यह भी बताता है कि ऐसा होना चाहिये, हो सकता था, नहीं हो सकता था, क्यों न हो पाया, न हो पाने का क्या परिणाम रहा। वैज्ञानिक लेखन में भावुकता नहीं चलती। मेडिकल ह्यूमेनिटी (चिकित्सा-मानविकी) हमें रूमाल मुहैया करती है ताकि हम खुल कर रो सकें या हंस सकें।

चिकित्सा मानविकी प्रशिक्षण कार्यक्रमों के कुछ उदाहरण

दुनिया भर के सैकड़ों मेडिकल कालेजों में छात्रों और डाक्टरों के लिये ह्यूमेनिटीज (मानविकी) के लिये जारी कोर्सेस में तरह-तरह के सिलेबस व विधियों को अपनाया गया है।

  • मेडिकल छात्र को एक मरीज के रूप में या मरीज के साथी के रूप में अस्पताल में दाखिल करवाना।
  • मरीजों की मेडिकल विजिट्स / परामर्श पर उनके साथ अटेंडेंट बन कर जाना।
  • संवाद की प्रेक्टिस हेतु कर्मशाला।
  • मरीजों के घर, मोहल्ला या कार्यस्थल पर भेंट हेतु जाना।
  • नुक्कड़ नाटक, मरीज की कहानी को उसकी भाषा में प्रथम पुरुष की शैली में लिखना।
  • मरीज कथाओं वाला साहित्य पढ़कर उस पर चर्चा/बहस करना व समीक्षात्मक टिप्पणियाँ लिखना।
  • संगीत कक्षाएं जिसमें संगीत का कलात्मक आस्वादन करना ताकि सुनने की प्रतिभा का विकास हो।
  • पेंटिंग्स का कलात्मक आस्वादन ताकि चाक्षुष अवलोकन की योग्यता बढ़े।

कुछ लोग पूछते हैं कि ये गुण तो जन्मजात होते हैं। इन्हें किसी कोर्स या ट्रेनिंग प्रोग्राम द्वारा दिलो-दिमाग में ठूंसा नहीं जा सकता। लेकिन इस क्षेत्र में काम करने बालों का अनुभव सदैव अच्छा रहा है। जरूरत इस बात की रहेगी कि चिकित्सा छात्रों के लिये मानविकी सिलेबस बोझ के रूप में न हो। वह शुरू में छोटा हो। रूचिकर, मनोरंजक, उपयोगी हो। एम. सी. आई. को कोई एक केंद्रीय कोर्स बनाने की जरूरत नहीं है। समस्त कालेज विकेन्द्रीकृत रूप से अपना कार्यक्रम बनाएं, चलाएं पर साझा जरूर करें। मानविकी विषयों की फैकल्टी के साथ मिलकर इस कार्यक्रम की रूप रेखा बनेगी।

मानविकी का असर पड़ेगा या नहीं?

आमतौर पर चिकित्सा शिक्षा में किसी भी पाठ्यक्रम या गतिविधि की उपादेयता के लिये ठोस वैज्ञानिक सबूतों की अपेक्षा कतरी जाती है कि छात्रों व डाक्टरों के ज्ञान, कौशल और व्यवहार में गुणात्मक अन्तर आपा या नहीं।

मानविकी तथा ललित कलाओं को चिकित्सा शिक्षा में स्थान देने से कोई लाभ हो रहा है या नहीं इसका आकलन बहुत कठिन है हालांकि अनेक कोशिशें की गई है।

कुछ पैमानों को मापने वाले अध्ययन हुए हैं। छात्रों को यह कोर्स कैसा लगा इसका सर्वेक्षण /अध्यापकों का फीडयेक /युवा डाक्टर्स का अपने कार्य व मरीजों के प्रति रवैया /जो देखा सुना उसे बोलकर व लिख कर अभिव्यक्त करने की क्षमता आदि। गुछ लोग तो कहते हैं कि मानविकी जैसे विषयों के प्रभाव का आकलन वैज्ञानिक विषयों की विधियों से करना ही गलत है।

न्यूरोलाजिकल मोड

जब उन्नीसवीं शताब्दी, बीसवीं में तब्दील हो रही थी तब मनुष्य की पहचान के तमाम सवालों को प्रायः मनोवैज्ञानिक की भाषा में समझाने की कोशिश करी जाती थी। सिम्मण्ड फ्रायड का जमाना था। आज इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में समाज की समझ एक न्यूरोलाजिकल मोड़ पर आ गई है। इन्सान की अस्मिता को मस्तिष्क के कार्यकलापों के रूप में देखा जा रहा है। दिमाग, दिमाग की अरबों कोशिकाएं (न्यूरॉन), उनके मध्य खरबों सम्पर्क के संजाल, उनमें बहती विद्युतीय गतिविधि के अरबों-खरों पल क्षण और उसके गणित में निहित ढेर सारे अर्थ, निर्णय, अनुभूतियाँ, स्मृतियों और संवेदनाएं। सब कुछ न्यूरोलाजिकल है। मानव की वैयक्तिक्ता के तमाम पहलुओं को घटाकर (मैं कहूंगा, समझकर, समझाकर) मांस के लॉदे में निहित अणुओं- परमाणुओं के स्तर पर उतार दिया गया है। (मैं कहूंगा ऊंचे पायदान पर चढ़ा दिया गया है।)

दार्शनिक और वैज्ञानिक बहस या संवाद में न्यूरोलाजिकल शब्दावली का असर अब साहित्य और कलाओं पर पड़ने लगा है। अच्छी बात है। पड़ना भी चाहिये। वरना मानविकी वालों का बस चले तो वे वैज्ञानिक प्रगति से उपजे ज्ञान व समझ की लगातार उपेक्षा करते जाएं जैसा कि उन्होंने डार्विन के साथ लम्बे समय तक किया था।

यहाँ मैं हाउसकाल्स का उल्लेख करूंगा। पहले डाक्टर मरीज के घर उसे देखने जाता था। यह अब कम होता जा रहा है। घर पर हम न केवल मरीज बल्कि उसका वातावरण, परिवेश, परिवार, माहौल – बहुत कुछ देख पाते हैं। वह कला, वह विलुप्त हो रही है। डॉ. ओलिवर सॉक्स ने एक किस्सा सुनाया। उनके डाक्टर पिता जब बहुत वृद्ध हो गये तो परिजनों ने कहा कि अब काम कम करो। ऐसा करें कि हाउस काल्स बंद कर दें। वरिष्ठ डॉ. सॉक्स ने कहा – मैं अपना दवाखाना बंद कर देता हूँ पर हाउस काल्स जारी रखूंगा। डॉ. ओलिवर ने मरीज कथाओं के माध्यम से हमें ढेर सारी हाउसकाल्स करवाई हैं।

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