
(मिर्गी के मरीजों और परिजनों के साथ डॉक्टर की मीटिंग)
डॉक्टर – मित्रो! आज हमने चर्चा की कि मिर्गी के पीड़ित व्यक्ति की शादी हो सकती है, उनके यौन संबंध सामान्य होते हैं, वे अच्छे माता-पिता बनेंगे, बच्चों की अच्छी परवरिश कर पाएँगे उनके बच्चों का स्वास्थ्य अच्छा होगा, बच्चों में मिर्गी रोग के होने की आशंका बहुत कम होगी ? और कोई प्रश्न हो तो जरूर पूछिए ।
माँ (1) – डॉक्टर साहब, मेरा नाम सुनीता है। मैं स्कूल में प्रिंसिपल हूँ। मेरी बेटी स्वाति 2 वर्ष की है। उसे दस साल से मिर्गी है। इलाज से फायदा है। फिर भी महीने या दो महीने में दौरा आ जाता है। ज्यादातर हल्का-सा। कभी जोर का। बहुत से डाक्टर्स को दिखाया। अनेक बार दवाइयाँ बदली, बाम्बे में दिखाया। कहते हैं कि ऑपरेशन का केस नहीं है। दवाइयाँ ही चलेंगी। स्वाति ने बी.ए. कर लिया है। अभी घर बैठी है। शादी के लिए रिश्ते आ रहे है। हमें समझ में नहीं आता कि सामने वालों को इस बारे में बताएँ कि नहीं ?
डॉक्टर – यह बहुत कॉमन सवाल है । मुझे लगभग प्रति सप्ताह पूछा जाता है। इसका कोई आसान उत्तर नहीं है। नैतिकता, ईमानदारी और सत्य का तकाजा है कि कोई बात छिपाई नजाए। सब कुछ साफ-साफ बताया जाए।
माँ (1) – ऐसे तो मेरी बेटी सदा कुंवारी रह जाएगी । कौन हाँ करेगा ?
समवेत – हाँ, सही है, कोई नहीं करेगा । कोई क्यों अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारेगा ?
डॉक्टर – आप इसे पाँव पर कुल्हाड़ी माना क्यों कह रहे हो ?
माँ (1) – और नहीं तो क्या ? कौन अपने बेटे के लिए ऐसी बहू को जानते बूझते स्वीकार करेंगे ?
डॉक्टर – शायद कर सकते हो हैं एपिलेप्सी के सब मरीज इतने ज्यादा बीमार नहीं होते । ज्यादातर लोग सामान्य होते हैं |
पिता (1) – परन्तु लोग ऐसा कहाँ मानते हैं । उनके दिमाग में मिर्गी की जो छवि है वह बेहद गन्दी और खराब है।
डॉक्टर – वही तो हमें बदलना है।
पिता (2) – लोगों की सोच न जाने कब बदलेगी । पता नहीं बदलेगी भी कि नहीं ? हम अभी क्या करें ?
मरीज (2) – मेरी शादी बिना बताए कर दी गई थी । मैंने मना किया था। मेरे माता-पिता नहीं माने। ससुराल वाले कम पढ़े लिखे और दकियानूसी थे। मेरी दवाइयाँ छूट गईं। एक हफ्ते की भीतर एक दिन में दो दौरे आ गए थे। घर में कोहराम मच गया था। सास ने पता नहीं क्या-क्या गन्दा-गन्दा बोला मेरे माँ-पापा के लिए | खाने-पीने के बर्तन अलग कर दिए थे।
दूसरे दिन पिताजी को बुलवाकर मुझे मायके भेज दिया था। दो साल हो गए | कोई खोज खबर नहीं । सुना है, दूसरी लड़की ढूंढ ली है।
माँ (2) – उन लोगों ने कोर्ट में तलाक का केस लगाया है।
डॉक्टर – इस केस में वे हार जाएँगे। अपने देश के कानून में जो कमी थी, उसे हम डॉक्टरों के संघ ने खूब कोशिश करके दूर करवा लिया है मिर्गी की अवस्था को अब उस सूची में से निकाल दिया गया है जिसके आधार पर तलाक मंजूर किया जा सकता था।
पिता (3)- डॉक्टर साहब और दूसरे साहबान ! आप जिन्होंने भी बातें की सच बोलने की, विश्वास बनाए रखने की, धोखा न देने की, कुछ भी न छिपाने की, आप सब से कुछ प्रेक्टीकल सवाल पूछना चाहता हूँ, क्या हम पूरी जिन्दगी हमेशा 100 प्रतिशत सच बोलते हैं ? कई बार मजबूरी में, अच्छे उद्देश्य के लिए सच के कुछ पहलुओं को छुपाना पड़ता है, चुप रह जाना पड़ जाता है। नियत बुरी नहीं होना चाहिए। किसी का नुकसान नहीं होना चाहिए।
माँ (३) – मिर्गी के अधिकाँश रोगी – लगभग ७० प्रतिशत में दौरे या तो बंद हो जाते हैं या बहुत कम हो जाते हैं तथा वे लोग लगभग सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं । उनमे से अनेक सफलता की ऊँचाइयों तक पहुँचते हैं। ऐसे केसेस में क्यों जबरदस्ती सत्यवादी हरिश्चंद्र बना जाए?
डॉक्टर – लेकिन २०-३० प्रतिशत मरीज़ ऐसे होते हैं जिनमे दौरे नहीं रुकते और बुद्धि स्वाभाव व कार्य क्षमता में कमी हो सकती हैं। ऐसे मरीज़ों के लिए बात छुपाना गलत है। वैसे भी छुपी नहीं रहती।
मरीज़ (२) – मरीज़ केवल बदनामी की मार झेलते हैं। ‘मिर्गी ‘ इस शब्द के साथ एक बेहद गन्दी खौफनाक घृणित छवि जुड़ी हैं। जो गलत हैं। इस गलती का खामियाजा मरीज़ क्यों भुगते। एक गलती की काट करने के लिए एक दूसरी छोटी-सी गलती को उतनी ही घृणा की नजर से मत देखो जितना अज्ञानी लोग मिर्गी को देखते हैं।
मरीज़ (१) – मैं तो कॉलेज में मिर्गी का नाम ही नहीं लेती हूँ। घुमा फिरा देती हूँ। अंग्रेजी में एपिलेप्सी बोल देती हूँ। लोग कहते हैं नाम में क्या धरा है। शेक्सपियर कह गए थे यदि गुलाब को किसी और नाम से पुकारेंगे तो भी उसकी मीठी खुशबू वैसी ही होगी। लेकिन सच्चाई यह है कि नाम में बहुत कुछ धरा हैं। बद अच्छा बदनाम बुरा। एपिलेप्सी रोग अपनी जगह जैसा है ठीकठाक हैं, इलाज़ के काबिल हैं, लेकिन मिर्गी का नाम-तौबा-तौबा।
पिता(२) – मिर्गी के बारे में बताना या छुपाना इस सवाल का सामना केवल एक तिहाई मरीजों को करना पड़ता हैं। बाकी में से एक तिहाई तो वे होते हैं जिनमें बीमारी का जोर ज्यादा होने से वह छिपी नहीं रह सकती। एक अन्य तिहाई में बीमारी की तीव्रता कम होती हैं, यदा कदा दौरे आते हैँ, बंद हो चुके होते हैँ। वे लोग इस बारे में चुप रहें तो भी आसानी से थक जाता हैँ। किसी का बुरा नहीं होता। ज्यादातर की दवाइयाँ छूट जाती हैँ या छूट जाएंगी। गाहे, बगाहे, छटे छमासे एक आध छोटा-मोटा दौरा आ भी जाए तो परिजन ज्यादा चौंकते या चमकते नहीं हैँ। समस्या होती है बीच के तीस प्रतिशत के साथ। बोले तो मुश्किल। न बताएँ तो झूठे बनें। बताएँ तो बात बिगड़े। छुपाएँ तो दांपत्य की नींव में रखे आस्था और विशवास के पत्थर पर चोंट। इनके लिए आपकी क्या सलाह ?
डॉक्टर – ऐसे मरीज़ों और माता-पिताओं को मेरी सलाह रहती है – ‘शादी की जल्दी क्या हैँ ?’ ‘अभी इलाज पर ध्यान दो’।
माँ (२) – हमारे समाज में जल्दी शादी करते हैँ। फिर बाद में लड़के नहीं मिलते।
डॉक्टर – कुछ हिम्मत रखो। अपने आप पर और अपनी बच्ची पर भरोसा रखो। समाज धीरे से और देर से बदलता है, पर बदलता जरूर हैँ। उस परिवर्तन का निमित्त बनने का सौभाग्य कुछ ख़ास लोगों को ही मिलता हैँ। शायद आपका परिवार उनमे से एक हैँ।
माँ (१) – PWE – इलाज़ का क्या भरोसा? क्या गारंटी? इलाज कराया था। उसके बाद भी दौरे आ गए। सुना हैँ कि शादी करने और बच्चे होने से रोग मिट जाता हैँ।
डॉक्टर – यह सही है कि बीमारी का स्थाई इलाज नहीं हैं। रोग जड़ से नहीं जाता। दवाइयाँ अनिश्चितकाल तक लेना पड़ती हैं। पर इस भ्रम में मत रहना कि शादी के बाद या बच्चे आने से रोग मिट जाएगा। सच-सच बताना क्या बच्ची के इलाज़ में कभी-कभी नागा नहीं हुई?
मरीज़ (१) – बीच-बीच में भूल जाती हैं। फिर चिढ आ गई थी कि दौरे आ रहे है तो दवाइयाँ बंद कर दी थी।

डॉक्टर – यह सबसे बड़ी गलती हैं। शादी की बात फिलहाल भूल जाओ। सारा ध्यान केवल दो बातों पर रखों।
एक – पूरा इलाज़। बार बार जाँच। नियमित सावधानियाँ। दौरे न रुकें तो पुनः -पुनः डॉक्टर के पास जाओ खानपान और खेलकूद और आराम पर ध्यान।
दूसरा – पढ़ाई। लिखाई। काम सीखना। हुनर सीखना। जिसमें रुचि में, जिसमे योग्यता हो उसमें आगे बढ़ाना। लक्ष्य है कि बच्ची अपने पैरों पर खड़े होने के काबिल होना चाहिए। अच्छी नौकरी मिलना चाहिए। मरीज़ के मन से इस भावना को कम करना हैं कि
‘मैं बीमार हूँ।
मुझमें कमी हैं
मैं यह नहीं कर सकती।
मैं वह नहीं कर सकती।
डॉक्टर – सच बोलना चाहिए यह एक आदर्श हैं। पर क्या दुनिया आदर्श है ? क्या सब लोग आदर्श हैं ? क्या सारी परिस्थतियाँ आदर्श हैं ? सामने वाले पक्ष को क्या बोलना और कैसे बोलना यह निर्णय अंततः मरीज़ और उसके घर वालों को लेना है। नैतिकता का तकाज़ा हमसब जानते हैं परन्तु मैं आपको आदेश नहीं दूँगा कि बताना जरूरी हैं । आप जो भी फैसला करेंगे उसके लिए मैं आपकी आलोचना नहीं करूँगा। मैं आपकी परिस्थितियाँ और मनः स्थिति को समझूँगा । आगे जो भी परिणाम हों, मैं आपकी मदद के लिए सदैव हाज़िर रहूँगा।
पिता -२ : डॉक्टर साहब यदि शादी के बाद इसे पुनः दौरे आए और ससुराल वाले आपके पास इलाज़ के लिए आए तो आप मत बताना कि इसकी पुरानी बीमारी थी। हम सब ऐसे कहेंगे कि पहले तो कुछ न था। यह सब नया शुरू हुआ हैं।
डॉक्टर – आप मुझे झूठा मत बनाइए।
माँ (२) – आपसे कोई पूछने थोड़ी आ रहा हैं कि इसे पहले दौरे आए थे कि नहीं।
डॉक्टर – यदि ससुराल वालों ने पूछा तो।
नैपथ्य से गूंजता हुआ एकालाप (अलग अलग स्वरों में )
यदि पूछा तो*******
-सत्य क्या है?
-क्या सत्य क्या झूठ के बीच भूरे रंग (Grey ) के अनंत शेड नहीं होते।
-अनेकांतवाद और स्यादवाद के अनुसार सत्य के अनेक चेहरे, अनेक पहलु होते हैं।
-जरूरी नहीं कि सत्य सदैव निरपेक्ष हो, अब्सोल्युट हो, सत्य सापेक्ष हो सकता हैं। रिलेटिव हो सकता हैं।
-याद हैं प्रसिद्द जापानी निर्देशक अकोरा कुरोसोवा की फिल्म रोशोमान एक घटना। सात पात्र। साथ कथाएँ।
-भगवान राम को सुग्रीव की मदद चाहिए थी। इसलिए बाली को मारना था। बाली को आशीर्वाद प्राप्त थे। इसलिए राम ने असत्य का सहारा लिया। सात वृक्षों की ओट से तीर चलाया।
– महाभारत में सत्यवादी धर्मराज युधिष्ठिर से गुरु द्रोणाचार्य ने पूछा था, क्या अश्वत्थामा मारा गया तब उनके असमंजस को ‘नरो वा कुंजरो वा ‘ के शोर ने डुबो दिया था।
-अपने यहाँ सूत्र हैं
सत्यं ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात
सच बोलो (परन्तु) प्रिय बोलो
-हर इंसान की निजी जिंदगी में न जाने कितनी सारी छोटी-मोटी बातें होती हैं – सारी की सारी चादर, मय दाग के उघाड़ के रखना सदैव जरूरी नहीं होता हैं और न ही संभव होता है।
-अंग्रेजी में कहावत हैं
Skeletons in cubboard
– हर किसी की अलमारी में कंकाल मिल सकते हैं। जरूरी नहीं कि सारी दराज़ें उढेल दी जाएँ।
-महात्मा गाँधी ने भी पूर्ण सत्य कहाँ पाया था। वे सत्य के साथ प्रयोग करते रहे थे।

– मिर्गी कि अवस्था किसी इंसान के अनेक पहलुओं में से सिर्फ एक होती हैं। वह भी शायद छोटा-सा पहलु । उसका हौआ क्यों बनाएँ? यदि किसी युगल की जिंदगी एक छोटे से अपवाद के कारण भली निभ रही हैं तो क्यों आदर्शवाद की दुहाई दें।
– मेरी बहन को १७ वर्ष की उम्र में दो दौरे आये थे। पाँच साल गोली चली। फिर छूट गई। कुछ नहीं हुआ। हमने किसी को नहीं बताया था।
डॉक्टर – Sam Harris – Lying आप सब ने जो सोचा, महसूस किया, और बोला, साझा किया मैं उस सब का गवाह हूँ। ये सारे संवाद मेरे जेहन में से बार-बार गूंजते हैं। ३० वर्षो से जारी हैं। भूरे रंग के अनेक शेड्स का हवाला हम जरूर दे सकते हैं, अपनी बुद्धि और अपनी मज़बूरी के अनुरूप कोई ऐसा निर्णय भी ले सकते हैं जो श्रेष्ठतम सत्य से कुछ दूर हो।
फिर भी इंसान का लक्ष्य क्या हैं? अच्छे की कसौटी क्या हैं ? सत्य की दिशा में सतत अग्रसर रहना। हमारी मंज़िल वही है।
छोटे से छोटा झूठ भी कहीं न कहीं नुकसान पहुँचाता हैं। एक झूठ को छिपाने के लिए १० नए झूठ बोलना पड़ते हैं। मन कचोटता हैं। बुरा लगता हैं।
फिल्म 3 इडियट्स का पात्र याद हैं। नौकरी के इंटरव्यू में उसने सच कहने का साहस किया और मंजिल पाई।
नेपथ्य से क्रमिक एकालाप : एक के बाद एक, अलग अलग स्वरों मे