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अंदर कोई है क्या ?


मूल कहानी “अंदर कोई है क्या?” का अंग्रेजी में अनुवाद “Dadi” इसी कहानी के अंत में दिया गया है ।

आज शीला देवी का साठवां जन्मदिन धूमधाम से मनाया जा रहा था। दस वर्ष का अनुपम अपने मॉ-पापा के साथ अमेरिका से आया था, चार साल के लम्बे अन्तराल के बाद। वह दादी को ध्यान से देख रहा था, और सोच रहा था- दादी चुप है, कुछ बोलती नहीं। हाथ पांव गर्दन हिलाती नहीं, आँखें खुली है पर किसी पर नजर टिक रही हो, ऐसा लगता नहीं। इतना शोर, इतनी बाते हो रही है पर शायद कुछ सुन भी नहीं रही हैं।
अनुपम को नहीं पता था कि दादी इसी अवस्था में दस साल से है। ज्यादातर समय लेटी रहती है। कभी, खास अवसरों पर जैसे कि आज, उन्हें कुर्सी में तकियों का सहारा लगा कर बैठाया जाता है। आने वाले दिनों में अनुपम ने जाना कि 10 साल पहले सड़क की एक गम्भीर दुर्घटना में दादी को सिर से भयंकर चोट लगी थी। दो महीने तक आई.सी.यू. में रही थी। उसके बाद दो महीने और प्रायवेट नर्सिंग वार्ड में। घर लाने के बाद उम्मीद थी कि शायद धीरे-धीरे होश आ जायेगा, पर नहीं आया। लेकिन दादी बेहोश जैसी तो लगती नहीं। कुछ घण्टे सोती है, कुछ घण्टे जागती है। लगातार सबको देखती है।

अनुपम ने पापा के मुँह से दादी के जीवन के ढेर सारे किस्से सुने थे, उनकी खासियतों के बारे में जाना था, कितनी विद्वान प्रोफेसर व लेखिका थी, पापा को उनसे कितना प्यार था। दूसरे बच्चे खेलकूद, टी.वी. व मोबाइल गेम्स में व्यस्त रहते पर अनुपम दादी के कमरे में बना रहता। दो नर्स, बारह-बारह घण्टे की ड्यूटी पर आती थी। काका और काकी दिन रात में बहुत बार आते, बैठते, निगरानी करते, हिदायतें देते थे। रोज सुबह मालिश होती, दांत साफ करते, ऊंगली पर गीला रुमाल रखकर मुंह के अन्दर की सफाई के लिये घुमाया’ जाता (कुल्ला नहीं कर पाती थी), पूरे शरीर पर गुनगुने डेटॉल युक्त पानी से भिगोए टॉवेल द्वारा स्पान्जिंग करी जाती, रोज दो बार साफ धुले हुए कपड़े बदले जाते, बाल बनाये जाते, हर दो घण्टें में करवट बदलते, चित्ता, दायां, बायां और औंधा (पेट के बल)।
दादी को मुंह से कुछ नहीं दिया जाता था- न भोजन न पानी। उनके पेट में एक स्थायी नली लगी थी

(पेग,/peg) जिससे प्रति एक दो घण्टे पर कुछ दिया जाता था। डाइटीशियन (आहार विशेषज्ञ) ने दो तीन तरह के चार्ट बना रखे थे, जिनके आधार पर पतला, अर्धठोस, अर्धतरल, सेमीसॉलिड संतुलित खाना व द्रव पदार्थ दिये जाते थे। पेशाब व टट्टी के लिये डायपर बाँधते थे। हर चार घण्टे में डायपर हटा कर यूरीन पॉट लगाते, पेट हौले से दबाते, सी.सी.सी. की आवाज करते, कहते मम्मीजी पेशाब करो, पेशाब करो, कभी कर लेती तो कभी नहीं। लेटरीन में कब्ज थी। तीन दिन तक मोशन न होता, टट्टी कड़क हो जाती। एनीमा लगाना पड़ता। एक बार देर रात अनुपम दादी के पास अकेला बैठा था। दादी कुछ-कुछ मुँह चला रही थी, सूखे होठों पर जीभ फेर रही थी, शायद प्यास लगी थी। अनुपम ने जग में से कटोरी में पानी लिया दादी के मुँह में डाला। थोड़ी देर कुछ नहीं हुआ। थोड़ा सा पानी बाहर आया। बाकी मुँह में भरा रहा। फिर अचानक जोर से खांसी आने लगी, जो रुकी ही नहीं, मुंह से झाग आने लगा। नर्स और काकी दौड़े आये। जब पूरी बात पता चली तो अनुपम को डांट पड़ी ।

“इन्हें मुँह से नहीं देना है, जो कुछ भी जरुरत है, सब पेट की नली से।”


दिन में दादी को कुर्सी पर तकियों के बीच फंसा कर बैठा देते, टी.वी. या संगीत चालू कर देते थे। पता नहीं कुछ उनके दिमाग में जाता भी था या नहीं। सप्ताह में दो दिन जब काका के ऑफिस की छुट्टी होती थी, दादी को कार में बैठाते, फिर शहर में किसी गार्डन, मन्दिर, चौक बाजार में लाकर व्हील चेयर में घुमाते। काका को लगता था कि मां दुनियां व लोगो के बीच रहेगी तो शायद उन्हें होश आ जायेगा।
एक दिन डॉ. शाह दादी को देखने आये। यदि कोई अन्तरिम समस्या न होती थी तो वे छः माह में एक बार आते थे। सामान्य परीक्षण करते, छोटी-मोटी तात्कालिक औषधि बताते व चले जाते।

अनुपम ने डाक्टर साहब से पूछा

“मेरी दादी ऐसी क्‍यों है? उन्हें होश कब आयेगा ? आप उन्हें दवाईयां क्‍यों नहीं देते ? 

काका ने टोका, 

अनुपम दादी बेहोश नहीं हैं, उन्हें ध्यान हैं, वो सुनती हैं, देखती है, महसूस करती है, इशारा करती है, बोलना चाहती है, रोज बेहतर हो रही है।

अनुपम को विश्वास नहीं हुआ। पिछले एक सप्ताह से वह लगातार दादी के पास था।
डॉक्टर बोले-

बेटा, आपकी दादी को हेड इन्जुरी के कारण मस्तिष्क में खूब ज्यादा व गहरी चोंट आई थी, वहां की ढेर सारी कोशिकाएं और तन्‍तु जाल हमेशा के लिये क्षतिग्रस्त हो गये जिनके अब ठीक होने की उम्मीद नहीं है”।

काका व पापा ने फिर टोका-

“नहीं डॉक्टर, ऐसा नहीं है, माँ ठीक हो रही है और पूरी तरह से नॉर्मल हो रही है, देखो वो मुस्कुरा रही है”

डॉक्टर चुप रहे। अनुपम दादी के चेहरे पर मुस्कान ढूंढने की कोशिश करता रहा। डॉक्टर ने फिर अनुपम को बताया कि “शुरु के कुछ महीनों में सुधार था। पहले कोमा या बेहोशी थी, उसके बाद जागृति आने लगी थी। तब उम्मीद थी | फिर गाड़ी रुक गई त्रिशंकु के समान न बेहोशी न होश। इसे जड़ अवस्था कहते हैं, वेजीटेटिव स्टेट। जैसे-जैसे समय गुजरता जाता है वैसे-वैसे चेतना आने की उम्मीद कम होती जाती है। छः महीने के बाद लगभग शून्य”।

पापा बोले –

मैंने पढ़ा है कुछ मरीजों के बारे में जो अनेक वर्षों बाद अच्छे हो गये।

डॉक्टर बोले

आम मीडिया में छपने वाली स्टोरी, सुनी सुनाई बातों पर आधारित होती है, उनकी विश्वसनीयता कम होती है। यदि सचमुच में ऐसा कभी होता है वह मेडिकल शोध पत्रिका (जर्नल) में केस रिपोर्ट के रुप में प्रकाशित होगा, प्रकाशन के पहले उसकी प्रामाणिकता की जांच जर्नल के सम्पादक व अनाम समीक्षक करेंगे, जो स्वयं इस विषय के अनुभवी विद्वान होंगे। ऐसा बिरले ही होता है।

अगले सप्ताह तक दोनों भुआएं और ताऊजी अपने-अपने घर लौट गये थे। अनुपम के पापा-मम्मी और आस्ट्रेलिया वाले छोटे काका रह गये थे। एक रोज, सुबह अनुपम को जोर-जोर से आवाजें सुनाई दी, मानों झगड़ा हो रहा हो। पापा, मम्मी, बड़े काका, काकी और छोटे काका (जिन्होंने शादी नहीं करी थी) बहस कर रहे थे।

छोटे काका

“भैया लोगों, ऐसा कब तक खींचोगे माँ को। दस साल हो गये हैं। कोई उम्मीद नहीं है |

बड़े काका-

माँ सब सुनती है, समझती है। पिछले महीने उन्होंने ग्रीटिंग कार्ड पढ़ा था, एक बार टाटा किया था, एक दिन रो रही थी जब मेरी बेटी छुट्टियों के बाद वापिस मुंबई कालेज जा रही थी |


पापा –

“मैं इतने सालों के बाद आया था तो उन्होंने मेरे से दूर मुह फेर लिया, गुस्सा बता रही थी| मैंने बार बार माफ़ी मांगी, रोया तो मेरा हाथ दबाकर मुझे माफ़ किया और प्यार किया|


छोटे काका-

ये सब विशफुल थिंकिंग है। आप लोग इमोशन में डूबे रहने वाले लिजलिजे इन्सान हो। सच्चाई जानते हुए भी उसे स्वीकारने की हिम्मत नहीं है आप में।


बड़े काका

“तुम्हें क्यों बोझा लग रहा है। अकेले हो। आगे पीछे जिम्मेदारियां नहीं है। सबसे ज्यादा कमाते हो। पैसा भेजने में जोर आने लगा है। हमें नहीं देखते। हम पैसा खर्च नहीं कर पाते पर कितने मन से माँ का ध्यान रखते हैं, सेवा करते हैं।


छोटे काका बिफर पड़े। गुस्से में चिल्लाये –

मुझे पैसे की चिंता नहीं है| और भी दे सकता हूँ। अपने आप को लुटा सकता हूँ—मगर कुछ उम्मीद तो हो माँ के लिए एसी जिन्दगी किस काम की। कुछ तो व्यावहारिक बनो। जरा सोचो – क्या माँ स्वयं खुद के लिए ऐसी जिन्दगी स्वीकार करती। कितनी खुद्दार और जिंदादिल थी| याद है, उनके मामाजी जब कैंसर की अंतिम अवस्था में थे तो वे कहा करती थी कि क्यों उनका बेटा घर और खेत बेचकर इलाज कराए जा रहा है जबकि डॉक्टर्स जवाब दे चुके है | और मामाजी खुद नहीं चाहते थे | बड़ी मुश्किल से काकी और माँ ने भाइयों को शांत कराया|

इसी समय डॉ शाह का फोन आया|

“वैजीटेटिव अवस्था वाले मरीजों की देखभाल करने वालों की एक मीटिंग कल शनिवार 4 बजे टाउन हॉल में रखी है। लगभग 20 परिवार आयेंगे। आप चाहें तो माताजी को भी ला सकते हैं।”


उस मीटिंग का दृश्य मार्मिक था। 20 में से 44 परिवार वाले अपने प्रियजन को भी लाये थे। कोई स्ट्रेचर पर, कोई व्हील चेयर पर, कोई एम्बुलैंस से, कोई कार से, दो परिवार ऑटो में आये थे। किन्हीं-किन्हीं को श्वांसनली में छेद था (ट्रेकियास्टॉमी), कुछ ऑक्सीजन सिलिण्डर साथ लाये थे, कुछ लोगों को नाक में नली (रायल्स ट्यूब) लगी थी कुछ को पेट पर पेगनली, कुछ बिना नली के क्‍योंकि मुँह से निगल पाते थे, अधिकांश डायपर लगवा कर आए थे, कुछ को केथेटर (पेशाब नली) लगी थी। अधिकांश का शरीर कृशकाय, हड्डी-हड्डी था, कुछ को बेडसोर (कमर के पीछे छाला, लगातार एक जैसा पड़े रहने के कारण) था, कुछ का श्वांस शांत था तो कुछ के गले में लार-कफ जमा होने से खड़-खड़ ध्वनि आ रही थी। एक मरीज को सलाइन बोतल लगी थी क्‍योंकि फेफड़ों के इन्फेक्शन को ठीक करने के लिये इन्ट्रावीनस एण्टी बॉयोटिक्स जारी थी।
इन सबमें शीला देवी की स्थिति सबसे अच्छी, साफ, स्वस्थ व सुन्दर थी। अनुपम के पापा मम्मी और छोटे काका को संतोष और गर्व हुआ कि उनके भाई और बहू ने कितने जतन से माँ को सम्भाल रखा है।


सभी परिवारों को आश्चर्य हुआ कि 20 लाख की आबादी वाले शहर में बीस व्यक्ति जड़ अवस्था में सांस ले रहे हैं। डॉ. शाह बोले इससे तीन गुना होंगे जो नहीं आए या जिनके बारे में हमें पता नहीं।
हर कोई सोचता था कि वे ही एकमात्र हतभागे हैं जिन्हें इन दुर्दिनों का सामना करना पड़ रहा है। चाय नाश्ते पर बातें हुई, परिचय हुए, एक दूसरे की कहानियों का आदान प्रदान हुआ, कौन कैसे सम्हालता हे, कैसे अपनी नौकरी धन्धा, अन्य जिम्मेदारियों के साथ एडजस्ट करता है, किसे किससे कितना सपोर्ट मिलता है, कौन-कौन अन्दर से टूट चुके हैं, कौन हिम्मत बनाये रखे हैं। बर्फ पिघलती गई। परिचय की ऊष्मा ने भरोसा बढ़ाया, मन को सुकून दिया।

डॉ. शाह का वक्तव्य गजब का था। जड़ अवस्था के कारणों, पेथालॉजी व उपचार से लेकर देखभालकर्ताओं पर पड़ने वाले आर्थिक, मानसिक, भावनात्मक बोझ, उनसे उबरने और सम्हलने के उपाय, से लेकर इस अवस्था के दार्शनिक पहलुओं पर उन्होंने चर्चा की।

फिर खुला सत्र चला। सबने अपना परिचय व कहानी संक्षेप में सुनाये। किशोरवय अनुपम के लिये ये अत्यन्त गम्भीर अनुभव थे पर उसका बुद्धिमान और भावुक मन बड़ी परिपक्वता के साथ जीवन के गहन पक्षों को आत्मसात कर रहा था| इन सब में प्रमिला की कहानी ने लोगो को झकझोर दिया|
40 वर्षीया प्रमिला बैंक में एक छोटे से पद पर नौकरी करती थी, सिंगल मदर है,  18 वर्ष की बेटी कॉलेज में पढ़ रही है। प्रमिला के पिताजी 4 वर्ष से वेजीटेटिव अवस्था में है। माँ और बेटी अपनी काम वाली बाई के साथ घंटे बाँध कर जैसे तैसे पिताजी की जान खीच रहे है | बीच-बीच में मिर्गी के दौरे व इन्फेक्शन होते है, खर्चा बढ़ जाता है| प्रमिला ने पढ़ा कि अनेक देशो में कानूनी प्रक्रिया के तहत ऐसे मरीजों का खाना बन्द कर देते हैं और उन्हें शान्ति से मरने दिया जाता है|  इस अवस्था में शरीर को पीड़ा, भूख प्यास आदि की अनुभूति नहीं होती। प्रमिला ने कोर्ट,  वकील, सिविल सर्जन, मेडिकल कॉलेज के डीन और डी.एम.ई. के ऑफिसों में खूब चक्‍कर लगाये- परन्तु अपने देश में ऐसा कोई कानून या नियम है ही नहीं। कुछ वर्ष पूर्व मुम्बई के के.ई.एम. अस्पताल की नर्स का केस हाईकोर्ट तक पहुँचा था।

प्रमिला बहते हुए आँसुओं और रुंधे गले से कह रही थी, मैं अपने बापू से बहुत प्यार करती हूँ, नहीं करती थी। क्योंकि अब वे हैं नहीं, ही केवल शरीर है, बिना मन-मस्तिष्क के, बिना चेतना के शरीर का कोई अर्थ नहीं। मैं जानती हूँ कि अन्दर कोई नहीं है। मैंने पिताजी की विशेष जांचें एम्स दिल्‍ली में करवाई जिनसे कुछ मरीजों के बारे में मालूम पड़ा है कि ऊपर से वे जड़ अवस्था में प्रतीत होते हैं पर अन्दर शायद कुछ होश होता है- ये जाँचें है फंक्शनल एम.आर.आई., पेट स्कैन और कम्प्यूटरीकृत ई.ई.जी.। पिताजी के दिमाग में कोई चेतना क्रिया प्रतिक्रिया नहीं पाई गई। एक जिन्दा लाश को ढोते-ढोते में टूट चुकी हूँ।

प्रमिला के वक्तव्य ने मीटिंग का माहौल गमगीन कर दिया। सबने उसे ढाँढस बन्धाया। अनुपम के पिताजी अमेरिका में वरिष्ठ वकील थे। उन्होंने बताया कि कानून के किन प्रावधानों में संथारा जैसी प्रक्रियाओं द्वारा इन्सान का जीवन त्यागा जा सकता है। प्रमिला को रास्ता मिला। वे स्वयं जैन परिवार की थी।

उत्तर कथा

अगले अनेक वर्षों तक अनुपम साल में एक बार दादी से मिलने आता रहा। छोटे काका मान गये थे कि माँ जैसी भी हो, यदि उनके शरीर की सेवा कर दें तथा सुन्दर मुस्कान युक्‍त चेहरे के दर्शन करके भैयाओं को संतोष मिलता है तो वैसा ही सही। बड़े काका कहा करते थे – माता पिता ईश्वर के स्वरूप् होते हैं। अपने पूजाघर में ठाकुरजी की सेवा होती है, उन्हें नहलाते हैं, श्रृंगार करते हैं। अपनी माँ इस घर की सबसे खास मूरत है। रोज उनके दर्शन करने का पुण्य लाभ होता है।
आठ वर्ष बाद एक दिन अनुपम घर पर दादी के साथ अकेला था। काका-काकी दूर एक शहर में शादी में गये थे। अचानक दादी का चेहरा सफेद पीला पड़ गया, शरीर पसीने से नहा गया, हाथ-पांव ठन्डे हो गए | ताबड़तोड़ एम्बुलेंस करके अस्पताल पहुचे| हार्ट अटैक था| ह्रदय व् श्वांस गति रुकने पर नर्स व् डॉक्टर ने दिल की मालिश शुरू करी, ऑक्सीजन लगाईं, गले में श्वास नली डालकर वेंटिलेटर लगाने वाले थे कि अनुपम ने सबको रोक दिया| “यह कुछ मत करो, रिससिटेशन बंद करो| दादी को जाने दो| डॉक्टर्स बोले तुम तो पोते हो, छोटे हो| अनुपम ने कहा मै १८ वर्ष का हू, फॉर्म पर दस्तखत कर सकता हू| अमेरिका में मेडिकल स्टूडेंट हू| सोचता था डॉक्टर बनकर दादी को होश में लाने की विधियों पर शोध करूँगा, परन्तु अब बस|

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