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आधी दुनिया गायब


द्वारका प्रसाद जी को 73 वर्ष की उम्र में दिल का दौरा पड़ा था । एन्जियोप्लास्टी या बायपास की जरुरत नहीं समझी गयी थी। डॉट व डर के कारण कुछ सप्ताहों तक सावधानियां बरती, बीडी बन्द करी, शुगर व ब्लडप्रेशर नियंत्रण में रखें, मुश्किल से ही सही, रोज (सिर्फ) 4 कि.मी. चलने लगे, रुखा-सुखा बेस्वाद भोजन (बिना शक्कर, नमक-मसाला, तेल, घी के और कैसा बनेगा?) खाने लगे।

3-4 महीनों बाद धीरे-धीरे, कब कैसे ढील होते गई और फिर वही बेढंगी चाल, फिर वही ढाक के तीन पान।

एक वर्ष बाद कर्म फल मिला (इस जन्म के कर्म, पिछला जन्म कुछ नहीं होता)

सुबह-सुबह पेशाब करने के लिये उठे तो गिर पड़े। बड़ी मुश्किल से उठे, फिर गिर पड़े। कुहनी पर लगी और दर्द हुआ। पत्नी को पुकारा- शारदा, शारदा | वह चाय बनाना छोड़ दौड़ती आई और देखा कि पतिदेव का मुंह टेड़ा है, आवाज तुतला रही है, बदहवास है, घबराए हुए है, उठने के लिये दायें हाथ व दायें पांव पर जोर लगा रहे हैं पर बायां हाथ व पांव ढीले पड़े है।

“अरे बेटा, प्रकाश, जल्दी डॉक्टर को फोन लगा, बापू को शायद लकवा आया है”| शारदा को पता था लकवे में ऐसा ही कुछ होता है क्योंकि छोटी बहन को तीन माह पहले हुआ था।

अस्पताल में डॉक्टर ने पूछा- नमस्ते जी, आप कैसे हैं?

द्वारका प्रसाद जी ने कहा- मैं ठीक हूँ

– आपको यहाँ क्‍यों लाए?

– मुझे बी.पी. हो गया।

– बी.पी. अर्थात्‌ ब्लडप्रेशर तो सबको होता है, किसी का कम या ज्यादा।

– मेरा मतलब हाई बी.पी.

– हाई बी.पी. के कारण आपको क्या हुआ?

– मुझे हाई बी.पी. हुआ और कुछ नहीं।

अनेक मरीजों की आदत होती है कि वे बी.पी., शुगर जैसे उत्तर देते है, जबकि उन्हें जो हो रहा है वह नहीं बोलते | कायदे से तो द्वारकाप्रसाद जी को कहना चाहिये था कि आज सुबह मुझसे उठते नहीं बना। मैं गिर पड़ा।

– और कुछ नहीं।

– नहीं।

– आप उठ सकते हैं, चल सकते हैं?

 “हाँ मैं कर सकता हूँ।

“सुबह गिर क्‍यों गये थे।

“शायद चक्कर आ गये थे। पिछले सप्ताह तीर्थ से लौटा था। थकान थी।

“दायां हाथ व दायां पैर उठाओ (दोनों उठाए गए)

“बायां हाथ व बायां पैर उठाओ (दोनों टस से मस नहीं हुए)

डॉक्टर- उठाओ न।

मरीज- उठा तो रहा हूँ (फिर से दायां हाथ व पांव उठा दिये)

डॉक्टर – (बायें हाथ से छूकर) इसे उठाइये न

मरीज – उसमें दर्द है, पर उठ तो रहा है

आभास तक नही… ऐसा क्या हुआ ?

डॉक्टर – (मुस्कुराते हुए घरवालों से) इन्हें अहसास नहीं है कि इनके बायें अंग पर लकवा आया है। मस्तिष्क के दायें गोलार्ध में स्ट्रोक (ब्रेन अटैक) के कारण जब शरीर के बायें आधे भाग में पेरेलेसिस आती है तो अनेक मरीजों को इस अवस्था का आभास नहीं रहता है, बार-बार बताने पर भी वे भूल जाते हैं, यहाँ तक कि मना करते हैं, ध्यान दिलाने पर कोई बहाना बनाते हैं

पत्नी: कितने दिन में ठीक हो जायेंगे?

डॉक्टर: लगभग छः माह में 50-70 प्रतिशत अच्छे होंगे, दवाइयों से नहीं, अपने आप और थेरापी द्वारा। अपना काम खुद करेंगे, आत्मनिर्भर होंगे। पर कुछ कमी रह जायेंगी

पुत्र: कैसी कमियाँ?

डॉक्टर: बायां पांव थोड़ा घिसटकर या धीमे चलेगा, बायें हाथ की पूरी ताकत नहीं आयेगी, अनेक बारीक काम, सुघढ़ता से नहीं कर पायेंगे।

पत्नी, बेटा व घरेलू सेवक अत्यन्त तन्‍मयता और नियमितता के साथ फिजियोथेरापी विशेषज्ञ के निर्देशन में अभ्यास कराने लगे। स्वयं द्वारका प्रसाद जी समझ चुके थे। परहेज वे साथ-साथ व्यायाम चिकित्सा में पूरा सहयोग करते, अकेले भी करते रहते।

डॉक्टर की उम्मीद से अधिक तेजी से सुधार हो रहा था। लेकिन कुछ अजीब सी बातों पर घरवालों का ध्यान जा रहा था। बेटे ने अपनी डायरी में लिखा –

“पापा के पास पलंग के बांयी ओर खड़े होकर आवाज लगाओ तो तुरन्त पहचाल लेंगे- ‘हाँ बेटा, बोलो’ – लेकिन गर्दन व आँखें दांयी ओर घूम कर मुझे ढूंढेगी। बायीं तरफ नहीं देखते”

“बायीं तरफ आकर बैठे तो उसकी तरफ ध्यान नहीं।

“दायीं तरफ कोई दबे पांव चुपचाप आये तो झट उससे बात करेंगे।

“ठंड लग रही हो तो चादर ओढ़ने पर, बायां पांव यदि बाहर रह जावे तो भी ध्यान नहीं जावेगा।

“अंगोछे से चेहरा साफ करते समय भोजन के कण, दूध की बूंदें, ललाट पर पसीना, बायें भाग पर बिना पुंछे रह जायेंगे।

“सिर के आधे बायें भाग पर कंघा नहीं करेंगे, आधे बाल बने होंगे, आधे नहीं।

“हमें टी.वी. और दीवाल घड़ी उनकी दायीं साईड की दीवाल पर रखना पड़े हैं, वरना वे ध्यान नहीं देते थे।

“अखबार पढ़ने का खूब शौक रहा है। आजकल प्रत्येक पंक्ति का बायां आधा भाग छोड़कर केवल दायां आधा भाग पढ़ते हैं, भ्रमित होते हैं, शेष वाक्य, का अनुमान कभी सही, कभी गलत होता है।

“दांतों को साफ करते समय केवल दाहिने भाग में ब्रुश चलाते हैं।

“खाने की थाली में सारे आइटम दायें आधे हिस्से में रखना पड़ते हैं या थाली थोड़ी-थोड़ी देर में घुमानी पड़ती है।

“शरीर के बायें भाग पर मक्खी बैठे, मच्छर काटे तो ध्यान नहीं जाता।

“एक दिन तो गजब हो गया। दो तीन बार बिस्तर के बाई ओर गिर पड़े। समझा नहीं पाये कैसे। उठना चाहते थे क्‍या? हमेशा तो दायीं करवट लेकर उठने का प्रयास करते थे। फिर धीरे से बोले “पता नहीं कौन मेरे बिस्तर में बायीं बगल में आकर लेट जाता है- मैं उसे दूर धकेलता हूँ, पर जाता ही नहीं। अपने ही शरीर के बायें आधे भाग को भूलकर, किसी दूसरे का शरीर समझ बैठे थे।

“थेरापिस्ट जब उनका बायां हाथ उठा कर पूछता तो कभी-कभी उस शरीर का अंग मानने से इनकार कर देते हैं।

“कपड़े उल्टे-पुल्टे पहनते हैं। एक बांह बाहर उलट दो तो समझ नहीं पाते| बटन ऊपर निचे हो जाते थे। समय के साथ पिताजी की बायीं ओर की दृष्टि (बायीं आँख नहीं, वह तो अच्छी है, वरन्‌ दोनों आँखों द्वारा देखे जाने वाले परिदृश्य का बायां भाग) अच्छी होने लगी है, फिर भी ऐसा लगता है कि उनके मन में बायीं ओर ध्यान देने की इच्छाशक्ति या इरादा ही नहीं है। ऐसा वे जानवूझ कर नहीं करते, अपने आप हो रहा है।

डॉक्टर की सलाह पर हम पिताजी को “क्लीनिकल सायकोलॉजिस्ट” (नैदानिक मनोवैज्ञानिक) को दिखाने ले गये। उन्होंने कागज पर एक आड़ी लाईन खींची और पिताजी से उसे अधबीच में काटने को कहा- पिताजी ने उसे दायें भाग में 3,/4 व 4,/4 के अनुपात में काटा। फूल और चेहरा बनाने को कहा तो रेखाचित्र में बायां आधा-भाग गायब था।

घड़ी का चित्र बनाते समय 4 से 42 तक की गिनती, दायें भाग में दूँस दी गई थी। और भी अनेक छोटे-छोटे टेस्ट। बुद्धि के अन्य पहलू अच्छे थे जैसे स्मृति भाषा गणित आदि। क्लीनिकल  साय्कोलोजिस्ट व् आक्युपेशन थेरेपिस्ट ने अनेक सलाहे दी – जब दैनिक कामकाज समय के साथ करवाने हो तो मरीज के दांयी ओर खड़े रहें, जब लम्बी अवधि में धीरे-धीरे ठीक होने के लिये रोज अभ्यास करवाने हों तो बायीं तरफ से करवाएं, याद दिलाएं, उपयोग करवाएं। छोटी छोटी सफलताओं व प्रयासों के लिये सांकेतिक इनाम दें।

तीन-चार महीनों बाद पिताजी को अपनी काफी समझ आने लगी थी। उन्हें ध्यान रहता था कि वे बायीं ओर की चीजें चूक जाते हैं, टकरा जाते हैं, इसलिये बार-बार अपनी गर्दन और नजर बायीं ओर घूमा कर परिदृश्य को रिफ्रेश करते रहते थे। लेकिन जैसे ही नजरें सामने कराते, बायीं तरफ की आधी दुनिया फिर गायब, न केवल शरीर की आँखों से, बल्कि मन की आँखों से भी।

“आँख ओट पहाड़ ओट”

क्यों करना पड़ा ? “थाट एक्सपीरिमेन्ट”

एक दिन क्लीनिकल सायकोलॉजिस्ट ने अनोखा “थाट एक्सपीरिमेन्ट” (“विचार प्रयोग”) करवाया, जिसे इन्दौर का भूगोल जानने वाले ज्यादा अच्छे से समझ पायेंगे। उन्होंने द्वारका प्रसाद जी से कहा- आँखें बन्द करें और सोचिये कि आप राजबाड़ा में एम.जी.एम. रोड़ पर खड़े होकर गाँधी हॉल की दिशा में देख रहे हैं।

ठीक है। आप तैयार हैं? अब बताइये सड़क पर एक के बाद आपको कौनसी दुकानें मिलेंगी।

द्वारका प्रसाद जी की दुकान एम.जी. रोड़ पर ही थी जहाँ वे रोज पैदल गुजरते थे। उन्होंने गिनाना शुरु किया- गणेश केप मार्ट, बोझांकेट मार्केट की गली, ननन्‍्दलालपुरा जाने वाली सड़क, कृष्णपुरा की छतरियां, कान्ह नदी का पुल, मृगनयनी एम्पोरियम, श्री कृष्ण सिनेमा टाकिज खातीपुरा… आदि आदि… से रामपूरावाला बिल्डिंग गिनाना भूल गये।

अब उनसे कहा गया कि उनसे कहा कि कल्पना करो आप एम.जी. रोड़, गाँधी हॉल पर राजबाड़ा जाने की दिशा में मुह करके खड़े है और फिर से बताइये इस बार उन्होंने याद किया जिला कोर्ट, गुरुद्वारा, जेल रोड आदि को | दिमाग सोचता ही नहीं, ध्यान ही नहीं देता बायीं तरफ की दुनिया पर।.

पत्नी शारदा ज्यादा पढ़ी लिखी न थी, परन्तु बुद्धिमान और उत्सुक प्रव्रती की थी| डॉक्टर व थेरेपिस्ट से खूब बाते कराती थी, सवाल पूछती, टिप्पणियां करती, बेटे की डायरी में एंट्रिया करवाती, थेरेपी में लगी रहती|

एक दिन डॉक्टर से पूछने लगी- मेरी बहन को भी लकवा हुआ और उनकी बोली-भाषा पर असर पड़ा, लेकिन जा और दुनिया के दोनों भागों का पूरा ध्यान रहा, इनको भी दिमाग के, क्‍या बोलते हैं , आधे गोले में अटैक आया, भगवान ने इनकी जुबान बचा ली, लेकिन आधी दुनिया का ध्यान गायब करवा दिया, ऐसा क्‍यों?

डॉक्टर: मुझे पता है। मैं उनका भी इलाज कर रहा हूँ। उन्हें शरीर के दायें भाग पर पक्षाघात हुआ और साथ में भाषा-बोली चली गई जिसे वाचाघात या अफेजिया कहते हैं। इन मरीजों में मस्तिष्क आघात ब्रेन के बायें गोलार्ध में आता है। उन्हें अपने रोग का पूरा ध्यान रहता है, भले ही बोलने व समझने में दिक्कत हो।

ऐसे इन्टेलिजेन्ट सवाल पूछने वाले मरीज और परिजन मुझे सदैव भाते हैं। रमेश जैसे डायरी लिखने वालों की तलाश में मैं हमेशा रहता हूँ। मैंने उन्हें खुशी से समझाया और हिन्दी में न्यूरोविज्ञान की पुस्तिकाएं पढ़ने को दी।

धरती पर आज से लाखों साल पहले, जब मनुष्य के पूर्वज प्राणियों (चिम्पान्जी, गोरिलला, ओरांग उटांग) आदि का अविर्भाव और विकास हो रहा था तब मस्तिष्क में कार्य विभाजन (डिवीजन ऑफ लेबर) की शुरुआत हुई- जैसे-जैसे प्राणियों और अन्त में इन्सान ने एक के बाद एक जटिल काम करना सीखे वैसे-वैसे, मस्तिष्क में उन कार्यों को सम्पादित करने का जिम्मा दायें या बायें गोलार्ध में से एक को दिया जाने लगा- पूर्णतः: नहीं, आंशिक रुप से। 

आज एक साल बाद द्वारका प्रसाद जी पुराने हुनर से दुकान चलाते हैं, पैदल आते+जाते हैं, धन्धे का हिसाब रखते हैं। उन्होंने खोई हुई आधी दुनिया को आंशिक रुप से पा लिया है। शेष कमी को वे अपनी बुद्धि व तरकीबों से पूरा करना सीखते जा रहे हैं- सदैव अहसास रखना कि जो दिखता है, उसके अलावा भी संसार है- उसे ढूंढते रहो, उसका अंदाज लगाते रहो।

 यूं तो हम सबको भी हमेशा यही तो करते रहना पड़ता है।

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