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लकवा रोग (स्ट्रोक) के कुछ मरीजों में एन्टीकोआगुलेन्ट औषधियाँ दी जाती हैं| ये खून का थक्का (थ्रॉम्बस) बनने से रोकती हैं। आम बोलचाल की भाषा में, मरीजों को समझाने के लिए इन्हें खून पतला करने वाली दवाईयाँ भी कहते हैं। |
इमरर्जेन्सी अवस्थाओं में हिपेरिन (थक्कारोधी) इंजेक्शन का उपयोग प्रभाव पाने के लिये हिपेरिन (इन्ट्रावीनस/ अन्त:शिरा) मार्ग से देते…………
नलियों में सुई द्वारा। हिपेरिन इंजेक्शन-क स्वरूप……….
एल.एम.डब्ल्यूएच. चमड़ी की सतह के द्वारा ……..(सबक्यूटेनियस) देते हैं, परन्तु इसक असर धीमा और कम तीव्रता का होता है। इन्ट्रावीनस इन्जेक्शन हिपेरिन प्राय: गम्भीर रूप से बीमार मरीजों को आय.सी.यू. में लगाते हैं जो एक या दो सप्ताह तक जारी रखा जा सकता है | हिपेरिन इन्जेक्शन की कितनी मात्रा, किस चाल से कितने समय तक दी जावे इसका फैसला ए.पी.टी.टी. (एक्टीवेटेड पार्शियल थ्रोम्बोसिस टाइम) जांच से करते हैं|
खून को जमने में कितने सेकण्ड लगते हैं, यह नापा जाता है । मरीज के खून की तुलना किसी ऐसे स्वस्थ व्यक्ति के खून से करते हैं जिसे न तो हिपेरिन जैसी औषधि दी जा रही हो और न ही उसे कोई ऐसा रोग हो जिसमें खून का थक्का बनाने का गुण कमजोर हो गया हो उदाहरण के लिये यदि किसी लेब में किसी दिन एक स्वस्थ व्यक्ति का ए.पी.टी.टी. 18 सेकण्ड रहा हो और उसी लेब में उसी दिन एक मरीज का खून जमने में 36 सेकण्ड लगे तो कहा जायेगा कि दोनों का अनुपात था दो अर्थात् स्वस्थ व्यक्ति की तुलना में मरीज के खून का पतलापन दो गुना था।
लकवा/ स्ट्रोक की कुछ खास इमर्जेन्सी अवस्थाओं में जब दिमाग मे बार-बार थक्का बनने की या बन चुके थक््के का आकार बढ़ने का बहुत खतरा होता है तो हिपेरिन का इन्जेक्शन देते हैं। लक्ष्य होता है कि कन््ट्रोल (स्वस्थ) व्यक्ति की तुलना में मरीज के खून का एपीटीटी दो गुने से लेकर तीन गुना तक अधिक हो जावे | यदि इससे कम रहे तो मरीज में खून जमने का खतरा वैसा ही बना रहेगा। यदि इससे अधिक हो जावे तो खून बहने का खतरा हो जायेगा | यह एक नट के द्वारा तनी हुई रस्सी पर सम्हल कर चलने जैसा काम है। ए.पी.टी.टी. जांच बार-बार करवा के डॉक्टर्स हिपेरिन इन्जेक्शन की मात्रा व गति कम-ज्यादा करते रहते हैं।
कुछ औषधियाँ दोधारी तलवार के समान होती हैं और उनका उपयोग बेहद सावधानी से करते हैं| मरीज व घरवालों का सहयोग जरूरी होता मेडिकल स्टॉफ और परिजनों पर जिम्मेदारी बनती है कि यदि मरीज को कहीं-कहीं से रक्तस्त्राव होने लगे तो तुरन्त इन्जेक्शन हिपेरिन रोक दें तथा खून जमाने वाली औषधियाँ देवें | मुंह से खाने वाली औषधियों को “ओरल एन्टीकोआगुलेन्ट’ कहते हैं।
वे अवस्थाएँ जहाँ ओ.सी. उपयोगी हैं –
लकवा या स्ट्रोक से सम्बन्धित निम्न परिस्थितियों में ओरल एन्टीकोआगुलेंट का लम्बे समय तक (अनेक माह या वर्ष या जीवन पर्यन्त) सेवन करने से बार-बार ब्रेन अटैक आने की आशंका को कम किया जा सकता है या अभी-अभी शुरू हुए ब्रेन अटैक को बढ़ने से रोका जा सकता है तथा शायद कम भी किया जा सकता है |
1. हृदय रोग के कारण वहां से थकका निकल कर दिमाग की खून की नली में जम जाना (एम्बोलिज़्म)
एट्रियल फिब्रिलेशन – हृदय की अनियमित चाल, हृदय के वाल्व या चेम्बर्स में क्लाट का भर जाना
हृदय में कृत्रिम वाल्व का आरोपण
2. सेरीब्रल वीनस थ्रोम्बोसिस – दिमाग से अशुद्ध खून लौटाने वाली शिराओं में थक्का जमना
3. थ्रोम्बोफिलिया – कम पायी जाने वाली आनुवंशिक व दीर्घकालिक रक्त सम्बन्धी अवस्थाऐँ जिन में खून गाढ़ा रहता है तथा बार-बार थक्का जमने की प्रवृत्ति रहती है |
ओ.सी. के प्रभाव का आकलन तथा दैनिक डोज का निर्धारण
ओरल एण्टीकोआगुलेन्ट की कितनी डोज़ प्रतिदिन कितना दिया जावे इसका फैसला प्रोथाम्बिन टाईम (पी.टी. ) तथा आई.एन.आर. जांच द्वारा करते हैं। मरीज के रक्त प्लाज़्मा में फिब्रिन के धागे बनने में लगने वाले समय को सेकण्ड्स में नापते हैं तथा उसका अनुपात किसी ऐसे स्वस्थ व्यक्ति के रक्त प्लाज्मा से करते हैं जिसे न तो खून पतला करने की कोई दवाई दी जा रही हो और न ही वैसा कोई रोग हो ।
ओरल एण्टी कोआग्युलेंट्स का डोज़ इतना रखते हैं कि मरीज का खून किसी स्वस्थ व्यक्ति के खून की तुलना में लगभग दो से तीन या साढ़े तीन गुना पतला रहे | उदाहरण के लिये यदि किसी लेब में किसी दिन एक स्वस्थ व्यक्ति का पीटी (प्रोथोम्बिन टाईम) 12 सेकण्ड था और उसी लेब में उसी दिन एक मरीज का पी.टी. 30 सेकण्ड था तो इसका मतलब है कि स्वस्थ व्यक्ति या कन्ट्रोल की तुलना में मरीज के खून में थक्का बनने की प्रवृत्ति ढाई गुना कम थी । और इतना ही चाहिये भी |
यदि यह अनुपात (रेशो) 2 से कम हो तो ओरल एन्टीकोआगुलेंट औषधि की दैनिक खुराक थोड़ी से बढ़ाते हैं अन्यथा मरीज को पुन: खून का थक्का बनने का डर मौजूद रहेगा | यही रेशो (अनुपात) यदि साढ़े तीन से अधिक हो तो मरीज को रक्त स्त्राव (हेमरेज) होने का खतरा पैदा हो जाता है । एक महीन सी विभाजक रेखा पर साध कर चलना होता है। यह जांच लगभग दो सप्ताह में एक बार करवाना होती है । ग्रामीण क्षेत्रों में इस जांच की सुविधा प्राय: उपलब्ध न होने से मरीज को स्वयं आकर या खून का सेम्पल शहर भेज कर जांच करवाना होती है । रिपोर्ट तुरंत डाक्टर को बताना चाहिये |
कुछ सावधानियां
खून का थक्का बनने का गुण कम करने वाली ये एण्टीकोआगुलेण्ट औषधियाँ लेने वाले मरीजों और देखभालकर्ताओं को सदैव सावधान और सचेत रहना चाहिये कि शरीर के किसी भाग में खून तो नहीं निकल रहा है । जैसे कि दांतों को ब्रश करते समय मसूढ़ों से, नाक से नकलोई, कुल्ला करते समय, थूकते समय लार में, खांसते समय कफ में, उल्टी में, दस्त में, पाइल्स के कारण, माहवारी के समय या अन्यथा योनी से, शौच काले रंग की होना, चमढ़ी पर नीले धब्बे या चकत्ते या मामूली सी खरोंच या चोट के बाद देर तक अधिक मात्रा में खून का बहना । इन परिस्थितियों में डॉक्टर को सूचित करना चाहिये | प्रोथ्राम्बिन टाइम (पी.टी.) दुहरा लेना चाहिये। थक््का विरोधी एण्टीकोआगुलेण्ट औषधि कुछ दिनों के लिये रोक देना पड़ती है । सचमुच में अधिक खून जाने लगे तथा पी टी. बहुत अधिक बढ़ गया हो तो खून को गाढ़ा करने वाली औषधियों के रूप में विटामिन ‘के” का इन्जेक्शन, फ्रेश फ्रोजन प्लाज्मा, प्लेटलेट घोल या सम्पूर्ण रक्त आदि देते हैं ।
ड्रग इन्टरएक्शन्स औषधि अन्त प्रभाव
ओरल एण्टीकोआगुलेन्ट औषधि के साथ यदि मरीज को दूसरी अन्य दवाईयाँ भी देना पड़ सकती हैं। उन दवाईयों के मध्य एक दूसरे का असर कम या अधिक करने की प्रवृत्ति तो नहीं है। अनेक औषधियों और खाद्य पदार्थ ओ.सी. का प्रभाव घटाते या बढ़ाते हैं और उसी के अनुरूप पी.टी. जांच का परिणाम प्रभावित होने से ओ.सी. की डोज़ बदलना पड़ती है। वे औषधियाँ व खाद्य पदार्थ ओसी का प्रभाव कम करती हैं |
नई शोध
खून का थक्का बनने का गुण कम करने वाली अनेक नई औषधियाँ पिछले एक दशक में विकसित हुई हैं, जो पुरानी दवाईयों के समान ही असरदार हैं परन्तु |जिनके साथ ब्लीडिंग या हेमरेज या रक्त स्त्राव का खतरा नहीं जुड़ रहता है और इसीलिये पीटी या एपीटीटी की जांच बार-बार करवाने की जरूरत नहीं पड़ती | ये नई औषधियाँ फिलहाल भारत में महंगी हैं तथा आसानी से उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन जैसा कि सभी नई औषधियों के साथ होता है, उम्मीद करी जा सकती है कि समय के साथ अधिकाधिक चलन आने के बाद उनका मूल्य कम होगा और उपलब्धि बढ़ेगी |