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विज्ञान एवं मानविकी


जब एक किशोरवय युवक या युवती कडी प्रतिस्पर्धा में अपनी मेहनत और मेधा के बल पर मेडिकल कालेज में सपनों भरी आंखों से प्रवेश लेता है तब उसके मन में आदर्शवाद, मरीजों की सेवा की भावना और मानवीय संवेदनाओं की कधी उर्वर जमीन तैयार रहती है। फिर पता नहीं कब और कैसे, धीरे-धीरे वे मरीजों को दूसरा और खुद को अपने वरिष्ठ डाक्टर्स व अध्यापकों की श्रेणी में रखकर एक सीमा रेखा बनाने लगते हैं। डाक्टर्स जो स्वस्थ है, अजेय है, अधिकारी है, ज्ञानी है, कुशल है, सफल है, और मरीज ? जो असमान्य है, शिकायत करने वाले हैं, तकलीफों के पुलिन्दे हैं,असंतोषी हैं, अशुद्ध हैं, कर्मफल भोगने वाले हैं। यह निहायत ही महत्वपूर्ण है कि हम हमारी पहचान किस रूप में ढूंढते हैं। अपने गुरूजनों और सफल डाक्टर्स में खुद का बिम्ब या रोलमाडल तराशना एक हद तक ठीक है। परन्तु मुश्किल तब होती है जब एक युवा चिकित्सक यह भूल जाता है कि वह स्वयं या उसका कोई परिजन भी मरीज हो सकता है और यह भी कि चिकित्सक का खुद का ज्ञान और उसके शास्त्र की सीमाएं हैं या यह कि मरीज की देखभाल ठीक से करने के उसके प्राथमिक कर्त्तव्य के लिये न केवल वैज्ञानिक ज्ञान बल्कि इन्सानों के रूप में मरीज, घरवाले और स्वयं डाक्टर का व्यक्तित्व, चरित्र, भावनाएं, संवेदनाएं, मूल्य, इच्छाएं, महत्वाकांक्षाएं, उम्मीदें, भय, शंकाएं आदि के जटिल संसार की समझ होना है चाहिये।


एनातोल ब्रोयार्ड न्यूयार्क टाइम्स के पुस्तक समीक्षा विभाग के प्रमुख सम्पादक थे तथा साहित्यिक आलोचक के रूप में प्रतिष्ठित व ख्याति प्राप्त थे। १९९० में प्रोस्टेट केंसर से उनकी मृत्यु हुई। बीमार होने के बाद उन्होंने रोग और मृत्यु विषय पर निबंधों की एक श्रंखला लिखी जो मरणोपरांत मेरी बीमारी के नशे से ग्रस्तङ्ख शीर्षक से प्रकाशित हुई। एक खास निबंध मरीज करे डाक्टर की जांचङ्ख दोनों के आपसी सम्बन्धों पर पैने सवाल उठाता है। ब्रोयार्ड अपनी बीमारी के लक्षणों के बारे में बताते हैं । उन्हें पेशाब करने में रुकावट होती है। यूरोसर्जन से उनकी मुलाकात व बातचीत को मजेदार तरीके से बयान करते हैं। उनके अनुसार डाक्टर कैसा होना चाहिये-जो बीमारी को बारीकि से पढे, चिकित्सा का अच्छा समालोचक हो…. जो कि शरीर और मन (दोनों) का इलाज करे.. मैं चाहुंगा कि मेरा डाक्टर मेरा पूरा मुआयना करे.. मेरी प्रोस्ट्रेट ग्रंथि के साथ-साथ मेरी रूह को भी टटोले। ऐसा डाक्टर जो गम्भीर रूप से बीमार व्यक्ति के एकाकीपन की कल्पना कर सके और महसूस कर सके कि मैं क्या अनुभव कर रहा हूँ। जो जानता हो कि प्रत्येक मरीज को बचाया नहीं जा सकता परन्तु रोग की पीडा और दुःख को कम किया जा सकता है – इस बात से कि डाक्टर का व्यवहार कैसा है – और अन्ततः डाक्टर अपने आप को बचा पाता है। एक अस्पताल, प्रयोगशाला के बजाय थिएटर (कलाक्षेत्र) जैसा अधिक होना चाहिये।

एक छात्र ने थामस सिडेन्हम (कोरिया बीमारी का वर्णन करने वाले) से पूछा कि डाक्टर्स की प्रेक्टिस के लिये तैयारी में मैं कौनसी पुस्तक पढूं ? बिना झिझक के सिडेन्हम ने कहा डॉन क्विक्जोट पढो। बहुत अच्छी किताब है । १७ शताब्दी के बाद अब हालात बहुत बदल चुके हैं लेकिन उपरोक्त जैसी सलाहें और भी ज्यादा जरूरी हो गई हैं। जिन्दगी को अर्थ प्रदान करने वाले सपनें के बारे में और मृत्यु तथा दुःखों के झंझावतों को सहने का ज्ञान भला साहित्य के अलावा और कहाँ से मिलेगा ?
मानविकी और कलाओं में कहानियाँ हैं, विचार हैं, शब्द हैं जो जीवन और दुनिया को अर्थवक्ता और सार्थकता प्रदान करते हैं। साहित्य हमें ऐसे लोगों से मुलाकात करवाता है जिनसे हम कभी नहीं मिले, या जहाँ हम कभी नहीं गये या जो बात कभी हमारे दिमाग में कौंधी ही नहीं। दूसरे लोगों ने जिन्दगी को कैसे जिया और उसके बारे में कैसे सोचा यह जानने से हमें फैसला करने में मदद मिलती है कि हमारी अपनी जिन्दगी में क्या महत्वपूर्ण है तथा हम उसे बेहतर बन सकते हैं।
यहाँ मैं हाउसकाल्स का उल्लेख करूंगा। पहले डाक्टर मरीज के घर उसे देखने जाता था। यह अब कम होता जा रहा है। घर पर हम न केवल मरीज बल्कि उसका वातावरण, परिवेश, परिवार, माहौल – बहुत कुछ देख पाते हैं। वह कला, वह विा लुप्त हो रही है। डॉ. ओलिवर सॉक्स ने एक किस्सा सुनाया। उनके डाक्टर पिता जब बहुत वृद्ध हो गये तो परिजनों ने कहा कि अब काम कम करो। ऐसा करें कि हाउस काल्स बंद कर दें। वरिष्ठ डॉ. सॉक्स ने कहा – मैं अपना दवाखाना बंद कर देता हूँ पर हाउस काल्स जारी रखूंगा। डॉ. ओलिवर ने मरीज कथाओं के माध्यम से हमें ढेर सारी हाउसकाल्स करवाई हैं।

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