दिल्ली के इतिहास में परत के नीचे अनेक परते हैं। यह शहर बार बार बसा है। लेकिन पूरी तरह से कभी उजड़ा नहीं। प्रत्येक परत कुछ नायाब और बेहतर जोड़ती रही।
शहर से दक्षिण में, क़ुतुबमीनार से 8 कि.मी. पूर्व में, मैहरोली-बदरपुर मार्ग पर एक छोटी सी पहाड़ी पर लगभग छ किलोमीटर परिधि के क्षेत्र में तुगलकाबाद किले के खंडहर फैले हैं। “देहली बाय फुट” नामक कंपनी द्वारा संचालित एक हेरिटेज वाक के माध्यम से इस परिसर में घूमना और यहाँ के इतिहास को जानना एक रोचक व् खुशनुमा अनुभव था। फरवरी के दूसरे सप्ताह में हवा में हल्की ठंडक थी लेकिन धूप तेज थी। पथरीली चढ़ाई और उतराई में हल्का पसीना आ रहा था।
बड़े बड़े मजबूत ग्रेनाईट पत्थरों की संरचनाएं है। दीवालें, महल, दरवाजें, रहवासी कमरे, दालान, गुप्त संग्रहकक्ष, चौगान, पानी के कुण्ड। सख्त पत्थर नक्काशी के लायक नहीं हैं। लेकिन ठोस मजबूती का अहसास कराते है। चौदहवीं शताब्दी (1321-1325) में निर्मित इस शहर को कलात्मक सौन्दर्य में ऊँचे नंबर नहीं मिलेंगे।
गाइड के मुंह से कहानियाँ सुनते सुनते मन उस युग में पहुँच जाता है, कल्पनाएँ तिरने लगती हैं आँखों के आगे टूटी फूटी इमारतों का मूल स्वरूप अपनी साज सज्जा और शानों शौकत के साथ चलायमान होने लगता है। कानों में नगाड़े, नौत, घोड़ों की टापें और हाथियों की चिंघाड़ के साथ साथ जनाना महल की चूड़ियों की खनकार गूंजने लगती है।
किले के सर्वोच्च बिंदु से विहंगम दृश्य के आधे भाग में भग्नाशेष और हरा भरा कंटीला जंगल दिखता है। दूसरी तरफ तुगलकाबाद शहर किले के परिसर में ऐसे घुस आया है कि मानो उसे पूरी तरह लील लेगा। 1970-80 के दशकों में खूब अतिक्रमण हुआ। 1990 के दशक में भारतीय पुरातत्व विभाग की नींद खुली। अनेक दीवारे व् दरवाजे खड़े किये गये। सीमित प्रवेश जारी है। पशुओं की चराई, कभी पिकनिक कभी हुल्लड़ और कुछ असामाजिक संदिग्ध गतिविधियाँ। दिल्ली-मथुरा हाइवे और उस पर बनी इमारतें भी सटी हुई है। नजरे फेरने के एक ही पल में आप मध्ययुग से आधुनिक काल में आ जाते हैं।
फिलहाल हम वापस लौटते हैं।
उस युग में पहाड़ी के चारो और की भूमि जलमग्न थी। पानी स्त्रोत होने से इस स्थल को चुना गया था । वह पानी तो कभी का उतर चुका है – शब्दशः भी और भावार्थ में भी ।
मुख्य किले की पहाड़ी से थोड़ा हटकर, जो सुल्तान ने अपने जीते जी खुद के लिए बनवा लिया था, “गयासुद्दीन तुगलक का मकबरा” है । उस जमाने में पानी के ऊपर से वहां तक जाने के लिए पत्थरों का एक पुल बना हुआ था । बलिहारी हो सिटी और हाइवे के आर्किटेक्ट और इंजिनीयर्स के इतिहास बोध की जिन्होंने मेहरोली बदरपुर रोड़ बनाने के लिए उक्त धरोहर पुल को तोड़ दिया। सड़क के दोनों तरह पुल के घायल सिरे देखकर मन रोता है। होना तो यह चाहिये था कि वहां एक अंडरपास या ओवरब्रिज या बायपास बना दिया जाता।
किले की दीवारों को मजबूती प्रदान करने के लिए अन्दर की तरफ मुरम व् छोटे पत्थरों के मलबे की मोटी परत होती है । बाहर की ओर से मजबूत मोटी Cladding के रूप में भारी विशालकाय पत्थरों को इस तरह जमाया जाता है कि पूरी दीवाल अन्दर की दिशा में ढलवां हो। आक्रमणकारियों के लिए सीधी दिवार पर चढ़ना तुलनात्मक रूप से आसान होता है। लगभग 20-40 मीटर ऊँची दीवारों पर छ: वाच टावर हैं । किले का निर्माण तेज गति से सिर्फ 2 वर्ष में पूरा हो गया था ।
कुछ इमारते अनूठी है। जमीन के नीचे धंस कर अर्ध तहखाने जिनमें ऊपर से हवा प्रकाश आने के लिए छोटी सीढियां और खुले खुले अंतराल है। पता नहीं इनका क्या क्या उपयोग होता होगा – संग्रह या जेलखाना। अनेक सूखे, कम गहरे कुए है जिनमें अनाज व अन्य सामग्री ढंक कर, छिपा कर रखी जाती थी। सुल्तान के महल के पास विदेशी मेहमानों के ठहरने के लिए अतिथि कक्षों की श्रंखला है। एक स्थल को फांसी घर बताया जाता है।
बहुत थोड़ी सी रचनाएं बाद के मुगलकाल की है जो कलात्मकता की दृष्टी से बेहतर है। लेकिन मुगलों ने ईस परिसर का महत्वपूर्ण उपयोग कभी नहीं किया।
कुछ स्थलों पर पत्थरों की जुड़ाई में काम आने वाले चूने के सफ़ेद रंग के बड़े बड़े हौद नजर आते है। इसे प्लास्टर के रूप में भी लागते थे ताकि उसके ऊपर थोड़ी बहुत कलाकारी हो सके।
गयासुद्दीन ने तुगलक वंश की स्थापना करी थी। इसके पूर्व खिलजी वंश था। गयासुद्दीन डरा हुआ और शक्की स्वभाव का था । किले, महल व सटे हुए नगर में बहुत कम लोगों को रहने की इजाजत थी । एक पूर्ववर्ती शासक (खुसरो) ने पैसे बांट कर सरदारों और धार्मिक नेताओं का समर्थन हासिल किया था । एक सूबेदार के रूप में गयासुद्दीन ने खुसरो को मार डाला। जिन लोगों को पैसे बंटे थे उनसे वापस मांगने लगा, किला जो बनवाना था। अनेक धर्मगुरु नाराज हो गए ।
सत्ता और पैसे का खेल अर्वाचीन युग से ऐसा ही चला आ रहा है। सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया जरा ज्यादा ही नाराज हो गए थे । उनके आश्रम में एक बड़ी बावड़ी बन रही थी। मजदूर ख़ुशी ख़ुशी श्रमदान कर रहे थे। सुल्तान के आदेश से सब मजदूरों को किले के निर्माण में जोत दिया गया ।
संत ने श्राप दिया –
“या रहे हिसर, या बसे गुजर”
“ऐ सुल्तान ! तुम्हारे शहर की वीरानी में या तो हिंसक पशु रहेगें या गुजर(खानाबदोश) जाति के लोग बसेंगे।”
किले के अन्दर और बाहर पानी के स्त्रोत ख़राब हो गए । पानी खारा हो गया। सूख गए। नगर पूरी तरह से बस नहीं पाया। पांच छ वर्षों में खाली होने लगा। गयासुद्दीन तुगलक जब बंगाल से जीत कर लौट रहा था तो “दिल्ली दूर अस्त” (बाद का मुहावरा) को चरितार्थ करते हुए एक षड़यंत्र में मारा गया। अगला सुल्तान था मुहम्मद बिन तुगलक – वही जो अपने “तुगलकी फरमानों” के लिए कुख्यात है । उसने नयी राजधानी बनाई।
किले के प्राचीन क्षेत्रों पर अतिक्रमण कर के तुगलकाबाद की वर्तमान नयी कालोनियों में रहने वालों में हरियाणा व राजस्थान के गुर्जर लोगों की तादाद खूब है ।
शायद यह संयोग था कि हजरत निजामुद्दीन औलिया का श्राप फलीभूत होता प्रतीत होता है ।