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ई.ई.जी. – इलेक्ट्रोएन्सेफेलोग्राम मस्तिष्क विद्यूत अभिलेख


यह जांच मस्तिष्क में बहने वाली विद्युत गतिविधि का कागज पर या कंप्यूटर पर रिकॉर्ड अभिलेख प्राप्त करने हेतु की जाती है, इसे ही ई.ई.जी. कहा जाता है।

ई.ई.जी. का आविष्कार लगभग उन्नतीस के दशक में हंस बेर्गेर द्वारा किया गया था। उन्होंने सिर के ऊपर इलेक्ट्रोड (विधुतोद) लगाए । विधुतोद का मतलब वे तार है जो इलेक्ट्रिक करंट को कैप्चर कर ले। खोपड़ी की स्किन के ऊपर लगाए और इलेक्ट्रोड से तार जुड़े हुए थे। सारे के सारे तार एक मशीन में गए, जिसे एंपलीफायर कहा जाता है। एंपलीफायर या प्रवर्धक का मतलब होता है, चीज को बढ़ावा देना, जैसे हम माईक में बोलते हैं तो माइक भी एंपलीफायर है। जब भाषण देते हैं तो वक्ता तो अपनी आवाज, अपने हिसाब से बोलता है, लेकिन हजारों लोग अगर सभा में बैठे हैं तो उन तक आवाज बढ़कर आसानी से पहुंच सके, सुनाई दे सके। तो ऐसी मशीन जो आवाज को बढ़ा सके, एंपलीफायर कहलाती है। उसी तरह से हमारे दिमाग से निकलने वाली विद्युत गतिविधि, जो खोपड़ी के सतह पर आती है, वह अत्यंत सूक्ष्म होती है। कितनी सूक्ष्म? आप में से कुछ लोगों ने भौतिक विषय में पढा होगा, जो विद्युत तरंग है, उसे नापने के लिए दो शब्दों का उपयोग किया जाता है एंपियर और वोल्टेज। इलेक्ट्रिक करंट हम एंपियर में नापते हैं और वोल्ट में नापते हैं। दिमाग से निकलने वाली बिजली मिली एंपियर और मिलिवोल्ट और माइक्रोवोल्ट में होती है। बहुत छोटा सा करंट होता है। उसको अगर हमें कैप्चर करना है और दिखाना है तो उसको हमें एमप्लीफाई करना पड़ेगा। एंपलीफायर द्वारा हम उसका एम्पियर और वोल्टेज उस मशीन में बढ़ा देते हैं और फिर हमें तरंगे दिखने लगती है।

चाहे हम सो रहे हो, चाहे हम जाग रहे हो, चाहे हम सोच रहे हो, चाहे हम ना सोच रहे हो, कुछ भी कर रहे हो, यह इलेक्ट्रिक गतिविधियां यह एक्टिविटी, यह विद्युत गतिविधि हमारे दिमाग में चौबीसों घंटे चलती रहती है। अगर कोई भी इलेक्ट्रिकल एक्टिविटी नहीं है तो उसका अर्थ यह है कि व्यक्ति मर गया है। जैसे ह्रदय की धड़कन बंद हो जाती है और वहां आईसीयू के अंदर लकीर फ्लैट आ जाती है कि दिल की धड़कन खत्म हो गई है, उसी तरह से दिमाग का इलेक्ट्रोएन्सेफेलोग्राम चौबीसों घंटे हमारे दिमाग में चलता रहता है। इसको हम कागज पर उतरते हैं, हार्ड डिस्क में सेव कर लेते हैं और बाद में हम रिप्लाई करके पुनः देख सकते हैं। इन तमाम गतिविधियों को ही ईईजी कहते हैं ।


एक जांच लगभग आधे घंटे तक चलती है, 15 मिनट, 20 मिनट, आधा घंटा। मरीज को कहते हैं बाल धो कर आना, बालों में तेल नहीं होना चाहिए, बाल सुख जाना चाहिए, खाना खाकर आओ। ऐसे करीब 20 इलेक्ट्रोड खोपड़ी पर चिपका दिए जाते हैं, मरीज को लिटा देते हैं शांति से, आंखें बंद करके। उसके मस्तिष्क में जो विद्युत करंट बह रहा है, उसकी ढेर सारी लाइने पर्दे के ऊपर दिखने लगती है।

एक लाइन है, यहां से आ रही है, नंबर दो कि लाईन यहां से आ रही है, नंबर 3 की लाइन मस्तिष्क के पिछले भाग से आ रही है, नम्बर 4 की लाइन इधर से आ रही है। उसका नक्शा होता है, जो हमें याद रहता है जिससे हम बता देते हैं कि यह जो चार लाइनें हैं, यहां से आ रही है, 8 लाइनें हैं यह इधर से आ रही है। उसको देख कर हम पता लगा लेते हैं कि खराबी कहां है। विद्युत तरंगों की लाइनों में हम क्या देखते हैं? उसमें हम देखते हैं कि उसमें कितनी तरंगें हैं प्रति सेकंड। एक सेकंड में कितनी तरंगे आ रही है। बहुत धीमी गति से आ रही है कि तेज गति से आ रही है। उसका एंप्लीट्यूड कितना है, उनका वोल्टेज कितना है, उनकी हाइट कितनी है, यह नापते है। उनका आकार कैसा है, उनका रूप कैसा है, उनकी मार्फोलाजी कैसी है। तरंगों का आकार देखते हैं, उनकी आवृत्ति, उनका वोल्टेज, उनका शेप, उनका आकार देखते हैं और न्यूरोलॉजिस्ट पता लगाते हैं कि ब्रेन के विभिन्न भागों से निकलने वाली विद्युत गतिविधि सामान्य है क्या उसमें कोई खराबी है।
ई.ई.जी. जांच में मरीज का कोई पीड़ा नहीं होती मरीज को कोई खतरा यार इश्क नहीं होता। आधे घंटे लेटे रहना पड़ता है। सिर पर जगह-जगह तार चिपका है। उनको निकालने के बाद फिर सिर धो लेना पड़ता है और इस जांच के दौरान मरीज को कुछ देर के लिए आंखें खोलने को कहते हैं, फिर बंद करने को कहते हैं। शांत रहने के लिए कहते हैं। कभी हाथ हिलाने के लिए कहते हैं, कभी बिना हिले डुले पड़े रहने के लिए कहते हैं। कभी जोर जोर से सांस लेने के लिए कहते हैं, दो या 3 मिनट के लिए। यह जोर-जोर से सांस लेना हाइपरवेंटिलेशन कहलाता है। इससे भी ई.ई.जी. में कुछ परिवर्तन आता है, उसको देखते हैं और फिर ई.ई.जी. मशीन के पास में एक चमकीला बल्ब लगा रहता है, जो थिएटर में रहता है। झपक-झपक तेज लाइट मरीज की आंखों में झपकाते हैं एवं उसके कारण मस्तिष्क में क्या रिएक्शन हो रही है, क्या प्रतिक्रिया हो रही है इसको ई.ई.जी. में नापते हैं इसे फोटीक स्टिमुलेशन कहते हैं। कभी-कभी मरीज को सुलाने की कोशिश करते हैं, उसका केवल जागृत अवस्था में बल्कि नींद की विभिन्न अवस्थाओं में कई घंटों तक लेना चाहेंगे।


कुछ केसेस में मरीज को हम परमानेंट इलेक्ट्रोड चिपका देते हैं, परमानेंट मतलब यह कि आधे घंटे के लिए नहीं पर आठ 10 दिन के लिए चिपके रहे, निकल ना जाए। मरीज को बोलते हैं, आप घूमो फिरो, बाथरुम में जाओ और वह जो तार है, वह लंबे केवल के रूप में, पूछ के माफीक उसके शरीर से जुड़े रहते हैं और मशीन तक जाते हैं। जैसे एक गाय होती है ना, उसको लंबी डोरी से बांध दिया है कि तुम इतने हिस्से में घूम सकती हो, ऐसे वह मरीज भी उतने ही इलाके में घूम सकता है तथा उसका ई.ई.जी. लगातार चलता रहता है, कंप्यूटर में सेव होता रहता है। इसको हम ‘कंटिन्यूस ई.ई.जी’ बोलते हैं। इसके साथ में वीडियो भी रिकॉर्ड कर लेते हैं कि मरीज किस समय क्या गतिविधियां कर रहा था और उसकी गतीविधि को हम वीडियो को रिप्लाई करके देखते हैं और उस पार्टिकुलर टाइम पर दिमाग में क्या बिजी चल रही थी। दोनों स्क्रीन पर सामने रखकर उसको हम रिवाइंड करते हैं, pause करते हैं, play करते हैं, और यह देखते हैं कि अच्छा मरीज जब फला फला हरकत कर रहा था तब उसके दिमाग की विद्युत तरंग कैसी थी। जब उसको ऐसा ऐसा अटैक आ रहा था, दौरा आ रहा था, उस टाइम पर ई.ई.जी. में कैसी तरंगें आ रही थी। तो इसको वीडियो ई.ई.जी. बोलते हैं। ये ई.ई.जी. का ही एक्सटेंशन है। इलेक्ट्रोएन्सेफेलोग्राम जांच को हम आगे बढ़ाना चाहते हैं तो उसको हम आधे घंटे के बजाय, 1 दिन, 2 दिन, 3 दिन, 7 दिन, जागते में, सोने में, काम करते समय में करते हैं और वीडियो के साथ करते हैं ता​​कि मरीज की गतिविधियों के साथ उसकी दिमाग की विद्युतीय सक्रियता का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सके।

ई.ई.जी. रिपोर्ट सैंपल

ई.ई.जी. जांच में मिर्गी की बीमारी का पता लगाने में मदद मिलती है। यह उसका सबसे प्रमुख उपयोग है। अनेक मरीजों को मिर्गी के दौरे आते हैं। डॉक्टर ई.ई.जी. की जांच कराते हैं, यदि उन्हें मन में थोड़ा संदेह हो, समझ में नहीं आ रहा, लगता तो है मिर्गी है, हो सकता है नाहो, कोई और हो। चलो ई.ई.जी. कराके देख लेते हैं। ई.ई.जी कराने से पक्क उत्तर नहीं मिलता। सौ प्रतिशत उत्तर नहीं मिलता कि हां मिर्गी है, हां मिर्गी नहीं है। ऐसा उत्तर नहीं मिलता।


अधिकांश जांचो के साथ ऐसा ही होता है, पक्का उत्तर नहीं मिलता। ई.ई.जी. तो क्या चाहे सी.टी. स्कैन हो, चाहे एम आर आई हो, चाहे खून की जांच हो। बहुत क्म जांचे हैं जो 100% हां या ना में उत्तर देती हैं। जांचे किसी बीमारी की संभावना का प्रतिशत या तो बढ़ा देती हैं या कम कर देती हैं। जब वो उस बीमारी की संभावना का प्रतिशन बढ़ा देती हैं तो 100% नहीं करती। जब वह उस बीमारी की संभावना का प्रतिशत कम करती हैं तो 0% नहीं करती, बस कम-ज्यादा करती हैं और डॉक्टर को अपने अनुभव से फैसला करना पड़ता है कि यह जो परिवर्तन हुआ है थोड़े से प्रतिशत का, उसका मै क्या उपयोग करु। उसको अपना क्लीनिकल जजमेंट तो तब भी लगाना पड़ता है चाहे कितनी ही जांच करवा लो। ई.ई.जी. के अंदर अगर हमको डाउट है कि मरीज को मिर्गी है या नहीं है और ई.ई.जी. कराया । और गई खराबी मिर्गी जैसी तो हमारा विश्वास थोड़ा बढ़ जाता है कि हां मेरे को लग रहा था मुर्गी और ई.ई.जी. में भी आ गया, हां है मिर्गी और अगर नहीं आया तो मैं उसमें खराबी तो वह संभावना थोड़ी कम हो जाएगी, जीरो नहीं होगी। तो इस तरह से मिर्गी के निदान में ई.ई.जी. से हमें आंशिक मदद मिलती है। हमें यह भी मदद मिलती है कि मिर्गी का प्रकार कौन सा है? जब हम मिर्गी का क्लासिफिकेशन करते हैं, कितने टाइप की एपिलेप्सी होती है तो उसमें से वह जो टाइप है, वह जो वैरायटी है, वह पता लगाने में भी ई.ई.जी. से हमें मदद मिलती है।
विद्युतीय गतिविधि पर आधारित एक और जांच है ई.एम.जी.।

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