ब्रेन डेथ का अर्थ होता है मस्तिष्क मृत्यु। मस्तिष्क मृत्यु की अवधारणा लगभग 30, 40 साल पुरानी है। और यह अवधारणा 1970, 1980, 1990 के दशक में आई, जब विभिन्न देशों में बड़े अस्पतालों में गहन चिकित्सा इकाईयां (इंटेंसिव केयर यूनिट, मेडिकल केयर यूनिट) का विकास हुआ। उनकी स्थापना हुई तो बहुत से ऐसे मरीज देखने में आए जो मस्तिष्क मृत्यु की परिभाषा को पूरा करते थे।
दरअसल में यह परिभाषा उस समय में पहली बार विकसित हुई। पहले मृत्यु की परिभाषा क्या थी? हृदय की मृत्यु। हृदय की गति या धड़कन बंद हो जाना और श्वांस का रुक जाना, जिसे कार्डियक डेथ बोलते थे या रेस्पीरेटरी अरेस्ट बोलते थे। अधिकांश लोग हृदय की और फेफड़ों की गति रुकने को ही मृत्यु का पर्यायवाची मानते हैं। मस्तिष्क की गतिविधि रुक जाए. और हम उसे मस्तिष्क की मृत्यु कहे. (ब्रेन डेथ) कहें। इस बात की अवधारणा, इस बात की परिकल्पना से बहुत लोग परिचित नहीं है। भारतीय कानून में इसको मान्यता प्रदान की गई है। इसकी थोडी यो पृष्ठभूमि बताना पडेगी कि यह परिकल्पना कैसे विकसित हुई। और इसका अंग प्रत्यारोपण से, (ऑर्गन डोनेशन) से, अंगदान से क्या संबंध है? आज की तारीख में मस्तिष्क मृत्यु को भी हृदय की मृत्यु के समान ही कानूनी मान्यता प्राप्त है। मस्तिष्क मृत्यु जब होती है जब कोई मरीज का मस्तिष्क बिल्कुल काम करना बंद करना बंद कर देता है। मस्तिष्क के द्वारा संचालित होने वाले अनेक रिफ्लेक्सेस अनुपस्थित हो जाते हैं। यह सुनिश्चित हो जाता है (डॉक्टरी परीक्षण के द्वारा) कि इस व्यक्ति में पुनः जीवन आने की कोई संभावना नहीं है। उस अवस्था को मस्तिष्क मृत्यु बोलते हैं।
मस्तिष्क मृत्यु या ब्रेन डेथ किन परिस्थितियों में होती है?
अनेक मरीज जब हेड इंजुरी या सिर की चोट के शिकार होते हैं, या कोई ऐसी एक्युट बीमारी, अचानक से होने वाले मस्तिष्क का रोग से पीडित होते हैं। जैसे कि – ब्रेन में किसी इन्फेक्शन को होना, ब्रेन के रक्तप्रवाह में रुकावट हो जाना। लो अन्य प्रकार की बीमारियों में मस्तिष्क मृत्यु हो सकती है जिसमें ब्रेन सीधे-सीधे डेमेज होता है। इन मरीजों को गहन चिकित्सा इकाई में वेंटिलेटर पर रखा जाता है। कृत्रिम श्वांस दी जाती है। यदि इनका रक्तचाप डूब रहा हो, ब्लडप्रेशर डूब रहा हो उसको सहारा देने के लिए अनेक औषधियां दी जाती है। इन कृत्रिम उपायों से मरीज को तथाकथित रुप से जिंदा रखा जाता है।
एक स्थिति ऐसी आती है जब उस व्यक्ति का हृदय तो धडक रहा है, उस व्यक्ति को मशीन के द्वारा श्वांस भी मिल रही है, श्वास के साथ उसको ऑक्सीजन मिल रही है और उसके शरीर की कार्बन-डाइ-ऑक्साइड बाहर निकल रही है। हार्ट की पंपिग के कारण शरीर के विभिन्न अगों में ऑक्सीजनयुक्त रक्त का संचार भलीभांति हो रहा है, रक्त संचार किडनी में हो रहा है, लिवर मे हो रहा है, खुद हृदय में हो रहा है। तमाम अगों में हो रहा है, केवल एक अंग मस्तिष्क को छोड़कर।
मस्तिष्क के अदर खून नहीं पहुँचता, क्योंकि मस्तिष्क के अंदर तमाम मेटाबोलिज्म, तमाम चयापचयी क्रियाएं रुक चुकी हैं, समाप्त हो चुकी है। यह एक प्रकार की कृत्रिम अवस्था है जो आज से चालीस साल पहले जब गहन चिकित्सा इकाईयां नहीं थी उसकी पहले नहीं देखने में आती थी। धीरे-धीरे अनुभव से विशेषज्ञों ने इस बात को जाना कि इन मस्तिष्क मृत्यु प्राप्त व्यक्तियों को यदि अनिश्चित काल तक कृत्रिम उपाय दिये जाते रहें, वेंटिलेटर पर रखे रहें. तमाम औषधियां देते रहेंकतो वो अनेक दिनों तक और कभी- भी अनेक सप्ताहों तक उस त्रिशंकु जैसी अवस्थाओं में रह सकते हैं। लेकिन अन्ततः उनका हृदय धडकना बंद हो जायेगा। इतने दिनों की सारी जटिल प्रक्रियाएं व्यर्थ है। यह उस परिवार के ऊपर आर्थिक बोझ है। उस परिवार के ऊपर भावनात्मक और मानसिक बोझ है।
यह उस अस्पताल के गहन चिकित्सा इकाई के संसाधनो का दूरुपयोग है। वो साधन जो किसी अन्य मरीज के लिये काम आ सकते थे, उस मरीज से आप उन अधिकारों को छिन रहे हैं। इसलिये अनेक देशों में एक के बाद एक पिछले तीस साल में पिछले बीस साल में कानून बदला। उन्होंने कहा कि मृत्यु की परिभाषा न केवल हृदय की धडकन के रुकने से या श्वास की गति से रुकने से है बल्कि वह मस्तिष्क मृत्यु से भी है।
यह परिभाषा इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई कि इन व्यक्तियों के अगों को निकाला जा सकता है। जी ही उनका हृदय धड़क रहा है। उनके तमाम अगा में रक्त प्रवाह हो रहा है। लेकिन कि यह तकनीकी दृष्टि से या वैज्ञानिक दृष्टि से और कानूनी दृष्टि से. व्यावहारिक दृष्टि से हर दृष्टि से मृत्यु को प्राप्त हो चुका है।
इसलिए उनके धडकते हुए हृदय वाले शरीर में से भी अगा को निकालकर डोनेशन के लिए प्रत्यारोपण के लिए निकाला जा सकता है।
उस शव बन चुके व्यक्ति के शरीर से अग निकालना उपयोगी नहीं होता। क्योंकि उसके तमाम अगों को जब आप निकालने जायेंगे तो पहले ही उन अगों का रक्त संचार रुक चुका है। इसलिये वो अग प्रत्यारोपण के लिए काम के नहीं है। इसके विपरीत ऐसा व्यक्ति जिसको ब्रेन डेथ हो गई है। उसके तमाम शरीर में रक्तप्रवाह जारी है, ऑक्सीजन जारी है उसमें मेटाबोलिज्म जारी है। ऐसे अंग स्वस्थ अग होते है। केवल ब्रेन काम नहीं कर रहा था। बाकि अग अच्छे थे, तो उन अगों को निकाल लिया जाये इसलिये ब्रेन डेथ की अवधारणा अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
भारतीय कानून में भी ब्रेन डेथ को मान्यता प्रदान की गई है। हालांकि फिलहाल ये मान्यता केवल अंग प्रत्यारोपण के संबंध में की गई है। लेकिन दुनिया के अधिकाश देशो में मस्तिष्क मृत्यु को कानूनी मान्यता न केवल अग प्रत्यारोपण के लिए बल्कि तमाम परिस्थितियों के लिए दी गई है। अर्थात जिस व्यक्ति को ब्रेन डेथ होने का प्रमाण दिया गया है। उस व्यक्ति की मशीन को रोका जा सकता है। उसकी लाइनें हटाई जा सकती है। उसकी ऑक्सीजन हटाई जा सकती है। जैसे किसी व्यक्ति का हृद डकना बंद हो जाता है, तो डॉक्टर बाहर निकलकर मरीज के घरवालों से परमिशन नहीं लेता कि अब में उसकी लाईन निकाल रहा हूँ, अब मैं उसकी ऑक्सीजन निकाल रहा हूँ वो सब निकालकर बाहर आकर सूचित करता है कि इस व्यक्ति की मृत्यु हो चुकी है। वही अधिकार डॉक्टरों को दुनिया के अधिकांश देशों में ने दिया है, कि यदि आपको लगता है कानूनी दृष्टि से जो गाइडलाइन्स है कि इस व्यक्ति की मस्तिष्क मृत्यु हो चुकी है। तो उसके तमाम उपाय बंद करने का अधिकार डॉक्टरों को है।
डॉक्टर किस आधार पर यह फैसला करते हैं कि इस व्यक्ति की मस्तिष्क मृत्यु हो चुकी है।
मरीज की जब जाँच करते हैं तो डॉक्टर किस आधार पर यह फैसला करते हैं कि इस व्यक्ति की मस्तिष्क मृत्यु हो चुकी है। क्लिनिकल कसौटिया पर्याप्त हैं। प्रयोगशाला जांचो की प्राय: जरुरत नही पडती
नम्बर एक – वह व्यक्ति गहरे कोमा में होना चाहिए। कोमा का मतलब होता है बेहोशी, निश्चेतना। कोई किसी प्रकार चेतना नहीं। जो व्यक्ति गहरी बेहोशी में होता है, उसको आप आवाज लगाओ, पुकारो, उसको आप जोर से पिन गढ़ाओ या दर्द पैदा करो उसके शरीर में कोई हरकत नहीं होती। उसके हाथ-पाँव नहीं हिलते। उसेक चेहरे में कोई शिकन नहीं आती। किसी प्रकार की कोई गतिविधि नहीं होती। वह व्यक्ति कुछ बोल नहीं पाता उसके मुँह से कुछ आवाज नहीं निकल पाती। वह व्यक्ति अपनी आँखे नहीं खोलता। ना आँखें खुलती है, ना बोलता है, ना शरीर के अगों में कोई हरकत होती है।
नम्बर दो – उसके शरीर में ब्रेन स्टेम रिफ्लेक्सेस नहीं होते। रिफ्लेक्स का मतलब होता है प्रतिवर्ती क्रियाएं। यदि हम कलाई के पास हेमर से ठोकते हैं और हाथ में झटका आता है वह एक प्रकार का रिफ्लेक्स है। प्रतिवर्ती क्रिया। आँख में टॉर्च डालते हैं और आँख पुतली सकुचित हो जाती है, वह एक प्रकार का रिफ्लेक्स है। प्रतिवर्ती क्रिया ऐसी प्रतिवर्ती क्रियाए जो ब्रेन स्टेम पर निर्भर करती है। ब्रेन स्टेम क्या होता है? मस्तिष्क के पीछे का एक हिस्सा होता है। जिसे हम मस्तिष्क का डंठल बोलते हैं। ब्रेन स्टेम, दिमाग का तना हैं उसमें मिडब्रेन, और पोंस और मेड्युला आब्लांगेटा नाम के संवरचनाएं होती है। उस हिस्से से अनेक
प्रकार की प्रतिवर्ती क्रियाएं या रिफ्लेक्सेस संचालित होते हैं। वो सब के सब अनुपस्थित होना चाहिए उस मरीज के क्लीनिकल परीक्षण मे मैं उसके बहुत ज्यादा तकनीकी विस्तार में नहीं जाउंगा। केवल संक्षेप में इतना बताऊंगा कि इन बेन स्टेम रिमलेक्स में
आँख के अंदर टॉर्च की रोशनी डालकर पुतली का संकुचित होना देखते हैं,
गर्दन को हिलाकर आँख की पुतलियाँ हिल रही है कि नहीं यह देखते हैं।
एक रुई का फोहा लेकर आँख के कार्निया को टच करते हैं और पलक झपकती है कि नहीं यह एक रिफ्लेक्स होता है।
मुँह खोलकर गले में काडी गढ़ाते हैं और गले में खाँसी का रिफ्लेक्स आता है कि नहीं यह
भी एक प्रकार की प्रतिवर्ती क्रिया है।
दोनो बाह्य कर्ण नलिका में बर्फिला ठन्डा पानी डालते हैं, तथा गौर करते हैं आंख के गोलो का किसी दिशा मे मुड जाना
एप्निया टेस्ट। श्वांस के रुकने का परीक्षण।
सबसे प्रमुख है. श्वास का अनुपस्थित होना। जिसको एप्निया टेस्ट बोलते हैं। इसमें वेंटिलेटर को कुछ मिनट के लिए हटा देते हैं। खून में ऑक्सीजन की मात्रा को नापते रहते हैं, कार्बन-डाई-आक्साइड की मात्रा को नापते रहते हैं। ऑक्सीजन जरुर चलती रहती है, यह देखते रहते हैं कि आने वाले पाँच मिनट में, दस मिनट में कि श्वांस आ तो नहीं रही है। वेंटिलेटर हटा लेने के बाद। एप्निया टेस्ट। श्वांस के रुकने का परीक्षण। यह ब्रेन स्टेम का सबसे महत्वपूर्ण रिफ्लेक्स है। जिसमें श्वांस का अनुपस्थित होना मस्तिष्क मृत्यु की परिभाषा के लिये अनिवार्य है। जो बाकि रिफ्लेक्स गिनाये वो भी। जब एप्निया टेस्ट में मिनट तक हटा दिया. खून में कार्बन-डाई-आक्साइड की मात्रा बड भी गई. फिर भी मरीज को कोई श्वास नहीं आई, तो ऐसे मरीज में हम कहते हैं कि इसका एप्निया टेस्ट पॉजिटिव आया है। यह मस्तिष्क मृत्यु की परिभाषा की कसौटीयों को पूरा करता है।
यह परीक्षण चार डॉक्टरों की एक टीम के द्वारा किया जाता है। वह टीम भी हमारे भारतीय कानून में परिभाषित है। यह भी परिभाषित है कि इसमें न्यूरोलॉजिस्ट होंगे कोई इंटेसिविस्ट होंगे एक जनरल डॉक्टर होगे और ऐसे डॉक्टर होंगे जिनका अग प्रत्यारोपण के ऑपरेशन से कोई संबंध नहीं है। यानि कोई डॉक्टरों की टीम ऐसी नहीं होनी चाहिए कि जिनको लालच हो कि यार अपने को तो अंग मिल रहा है। तो ये भले ब्रेन डेथ ना हो तो भी उसको ब्रेन डेथ डिक्लेयर करने की कहीं जल्दबाजी ना हो जाये इस बात को राकने की तमाम सुनिश्चितताएं भारतीय कानून में की गई है। डॉक्टरों की इस निर्दिष्ट टीम के द्वारा मरीज का जो परीक्षण किया जाता है। उसे छ घण्टे के अंतराल पर दोहराया जाता है। तो छ-छ: घण्टे के अंतराल पर दोनों बार डॉक्टरों के दल के द्वारा मस्तिष्क मृत्यु के यदि क्लीनिकल मापदण्डों की यदि पूर्ति होती है तब यह प्रमाणित किया जाता है कि इस व्यक्ति की मस्तिष्क मृत्यु हो चुकी है। घरवालों को बताया जाता है। कि मरीज की मस्तिष्क मृत्यु हो चुकी है
यह उस अस्पताल के गहन चिकित्सा इकाई के संसाधनो का दूरुपयोग है। वो साधन जो किसी अन्य मरीज के लिये काम आ सकते थे, उस मरीज से आप उन अधिकारों को छिन रहे हैं। इसलिये अनेक देशों में एक के बाद एक पिछले तीस साल में पिछले बीस साल में कानून बदला। उन्होंने कहा कि मृत्यु की परिभाषा न केवल हृदय की धडकन के रुकने से या श्वास की गति से रुकने से है बल्कि वह मस्तिष्क मृत्यु से भी है।
इसमें जीवन के पुनः लौटने की कोई आशा नहीं है। इस क्षण मॉनिटर पर जो आपको हृदय की जो धडकन दिख रही है वो कृत्रिम तरीके से है। उसे चाहे कितने भी समय तक चालू रखें, वापस जीवन नहीं आने वाला है। अन्ततः हृदय का धडकना भी रुक जायेगा। ऐसी स्थिति में घरवाले यदि एक अच्छी धारणा के साथ निर्णय लें कि इस व्यक्ति के अंग अगर किसी और व्यक्ति के काम आ सकते हो तो उन्हें निकाला जा सके।
यह अगर हम उस समय निकालना चाहेंगे जबकि इदय धड़क रहा है। उन अंगों को ऑक्सीजनयुक्त रक्त का संचार अच्छी तरह से मिल रहा है। मैं एक बार पुनः दोहराना चाहूंगा कि कोमा अर्थात् बेहोशी और मस्तिष्क मृत्यु में अंतर यह है कि मस्तिष्क मृत्यु में ब्रेन से रिलेटेड जो रिफ्लेक्सेस हमने गिनाये थे। वो सबके सब अनुपिस्थत होते है। यदि इस प्रक्रिया में समय ज्यादा लगता है। यदि घरवाले या लोग यह निर्णय लेने में देर लगाते हैं, या डॉक्टरों की तरफ से मस्तिष्क मृत्यु की निदान में देर होती है। तो धीरे-धीरे हृदय का धडकना कमजोर हो सकता है। जो अंग पहले प्रत्यारोपण के लिए भले स्वास्थ्य की अवस्था में थे, उन अंगों का स्वास्थ्य बिगड़ सकता है। एक तरफ हमारी यह ख्वाहिश रहती है कि समय रहते मस्तिष्क मृत्यु की परिभाषा हो जाए। और दूसरी तरफ यह भी ख्वाहिश रहती है कि कहीं भी निदान में कोई गलती नहीं हो। कानून के अनुसार और चिकित्सा विज्ञान के अनुसार जो मस्तिष्क मृत्यु की कसौटियां है वो पूरी तरह से पुख्ता तरीके से साबित कर ली जाय।
एक शब्द में और बताना चाहूंगा परिभाषा की दृष्टि से और उसको बोलते हैं वेजिटेटिव स्टोरे। वेजिटेटिव स्टेट का अर्थ होता है, जड अवस्था। ये लोग कोमा से धीरे धीरे बाहर भी आ जाते हैं। लेकिर झपने चेतना नहीं आती। कभी-कभी मस्तिष्क में इतनी गभीर चोट आती है कि उसमें किसी प्रकार काशियसनेस नहीं आती। लेकिन यह व्यक्ति किसी तरह से जीवित रह जाते हैं उसका वेटिलेटर भी हट जाता हैं उसकी दवाइया भी सब हट जाती हैं, और जागता भी। लेकिन उससे कही किसी प्रकार की चेतना नही आती। इस अवस्था को वेजिटेटिव स्टेट बोलते है। इसका कोमा नहीं बोलते। इसको ब्रेन डेथ नहीं बोलते। वेजिटेटिव स्टेट है या जल अवस्था अनेक महीनों बल्कि अनेक वषों तक रह सकती है। इन व्यक्तियों का अंग प्रत्यारोपण के लिए नहीं निकाला जा सकता। क्योंकि यह ब्रेन डेथ नहीं है।
कुछ वर्ष पूर्व आपने अखबार में पढ़ा होगा मुम्बई के के ई एम अस्पताल की एक नर्स अरुणा शानबाग अनेक वर्षों से अस्पताल में वेजिटेटिव स्टेट में जीवित थी और कई वर्षों के बाद उनकी मृत्यु हुई। वहाँ पर अलग तरीके के नैतिक प्रश्न उठते हैं। जो इस बात को लेकर है कि क्या ऐसे मरीजों को नली के द्वारा या पेट की नली के द्वारा फीडिंग पोषण दिया जाना चाहिए या रोक देना चाहिए। ताकि वो शातिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त हो जाए। ब्रेन डेथ का मस्तिष्क, मृत्यु का, और अंग प्रत्यारोपण, का इस वेजिटेटिव स्टेट से कोई संबंध नहीं है।
ब्रेन डेथ के अंदर जब हम ऑर्गन निकालते हैं और यह सलाह देते हैं कि तमाम वेंटिलेटर आदि हटा लिये जाये तो उसको यूथनेशिया से नहीं जोड़ना चाहिए। यूथनेशिया का अर्थ होता है इच्छा मृत्यु। जो अपने आप में एक अलग चीज है। ब्रेन डेथ अपने आप में एक अलग चीज है। ब्रेन डेथ तो कार्डियक डेथ के समान ही है।