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मिर्गी और ‘हलातोल’


एक जटिल संसार में चुनौती भरी कला यात्रा

हलातोल मालवी भाषा (बोली) का शब्द है। इसका अर्थ समझना तो कठिन है। एक प्रकार की उथलपुथल, रचनात्मक बेचैनी या कुछ कर गुजरने की छटपटाहट। इन्दौर नगर व समीपस्थ क्षेत्रों के चित्रकारों/कलाकारों/पेन्टर्स के एक छोटे से समूह ने अपने आपको यह नाम दिया था।

मिर्गी रोग के दौरों में मस्तिष्क की विद्युतीय और रासायनिक गतिविधियों में अपने आप बारम्बार, लघुअवधि की, एक जैसी उथलपुथल छटपटाहट व अराजकता होती है, जो प्रायः रचनात्मक नहीं होती। इस रोग से ग्रस्त व्यक्तियों का जीवन अनिश्चितता की आशका के साथ में गुजरता है। यूँ दौरों के अलावा व्यक्ति शेष समय पूरी तरह या लगभग पूरी तरह सामान्य व सयाना होता है। फिर भी कुछ तो है जो मन- मस्तिष्क को सालता है, बींधता है, सताता है, घटाता है, और व्यथित करता है। रोग से ज्यादा खराब है रोग के प्रति लोगों का रवैया और नज़रें जिसमें अनेक अरुचिकर व निंदनीय भाव भरे होते हैं जैसे कि भय, घृणा, उपेक्षा, दुत्कार, तिरस्कार, गलित दया और अंधविश्वास ।

हलातोल की कलाकार मण्डली के साथ न्यूरॉलाजिस्ट (डॉ. अपूर्व पौराणिक) की एक मीटिंग 1993 में हुई थी। एक छोटा सा ब्रेन स्टार्मिंग सत्र था दिमाग में सोचविचार का तूफान जगाने हेतु गोष्ठी थी। उपरोक्त खास-खास बातें बताई गई। सवाल जवाब हुए। कुछ चिकित्सा साहित्य पढ़ने को दिया गया। और फिर आव्हान किया गया कृपया सोचिये, विचारिये, बूझिये, कल्पना कीजिये कैसा होता होगा मिर्गी से पीड़ित व्यक्ति का अन्तरमन। कृपया उस मनः स्थिति को चित्र या बिम्ब के रूप में कैनवास पर उतारने का प्रयास कीजिये।

विश्व में यह अपने आप में अनूठा प्रथम प्रयोग था। उकसाने वाले न्यूरालॉजिस्ट के पास ज्ञान के साथ-साथ अपने मरीजों के प्रति संवेदना व व्यापक सम्यक दृष्टि थी। कलाकारों के पास अपनी निपुणता के साथ कुछ नई अभिव्यक्ति करने की ललक थी। परिणाम अच्छा रहा। कलाकारों के लिये यह एक नई प्रकार की बेचैन कर देने वाली चुनौती था जिसका निर्वाह उन्होंने ईमानदारी मेहनत और गुणवत्ता से किया।

बीमारी का विज्ञान और बीमारी की पीड़ा के साथ कलाकार रचनात्मकता के ब्रन्द्र ने अनेक जटिल, सुन्दर, विविध किस्म की पेंटिंग्स को जन्म दिया। कुछ पेंटर्स का काम, आत्मकथात्मक था स्वयं की अन्दरूनी अनुभूतियों, दृष्यों और व्याख्याओं को दर्शाता हुआ।

एक और चित्रकार व लेखक श्री सफदर शामी ने कहा- यथार्थ से परे हटकर अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता और प्रयोग धर्मिता बहुत जरूरी है।

श्री प्रभु जोशी ने टिप्पणी करी की कला का आधार बिम्बवाद है परन्तु जब उसका मेल विज्ञान के साथ होता है तो परा-बिम्ब (मेटा साइन) का उद्भव होता है। वे पेंटिंग्स दुनिया में धूम मचा चुकी है। आस्लो, नार्वे में मिर्गी रोग के अन्तरर्राष्ट्रीय सम्मेलन में इन्हें 2500 प्रतिनिधियों ने देखा व सराहा था। उक संग्रह में से छः रचनाएं यहाँ मुद्रित की जा रही हैं।

यह एक अजीब कवायद थी। नया अनुभव था। कलाकारों को विषय पहले से दिया जा रहा था। एक ही विषय – मिर्गी ।

जी हां मिर्गी एक रोग जो मस्तिष्क के भीतर से उठता है तथा मस्तिष्क की कार्य प्रणाली की समझ के साथ गहरे से जुड़ा हुआ है। मिर्गी के मरीजों द्वारा अनुभूत की जाने वाली भावनाओं को व्यक्त करना था। कलाकारों व समीक्षकों को यह काम चुनौतियों व संभावनाओं से भरा लगा। इन्दौर के सजग, प्रगतिशील चित्रकारों की संस्था हतातोल के सदस्यों ने प्रयोग करने का निश्चय किया। सभी कलाकार वरिष्ठ व अनुभवी थे। जब कोटि के रचना संसार के धनी थे। मालवी में हलातोल का अर्थ है सर्जनात्मक बैचेनी। यह संस्था अनेक सामाजिक मुद्दों पर जागरूक रही है तथा संप्रदायवाद, पर्यावरण आदि पर अपनी तूलिकाओं के स्वर मुखर कर चुकी है।

यह उचित व सुखद संयोग था कि न्यूरोलाजिस्ट डॉ. अपूर्व पौराणिक की पहल पर वे मिल बैठे। मिर्गी के बहाने मस्तिष्क की मायावी रहस्यमयी दुनिया पर चर्चा हुई। अनेक प्रश्न पूछे गये। विचारों, मानसिक प्रतिबिम्बों को निर्बाध उड़ान के लिये प्रेरित किया गया।

खुद से जूझने व खुद के बारे में अनुमान लगाने वाली कला को उकसाना, अनुभवों के नये आयामों को खोलता है, कलाकार की झिझक मिटाकर उसे उसके माध्यम की अनछुई गहराईयों तक ले जाता है। यह अनूठा विचार उत्तेजक था। इस चुनौती से उपजने वाले तनाव व हर्ष ने विस्तृत फलक वाली कला के सृजन को उर्जा दी और परिणाम मिला उच्च कोटि की गहरी रचनाएं । प्रायः कलाकृति उसके सर्जक की आपबीती होती है, जिसमें उनके स्वयं के बिम्ब व व्याख्याएं उभर कर आते हैं। लेकिन यह एक अपूर्व अवसर था। पहले सुझाए गये विषय से जूझते हुए खुद को अभिव्यक्त करना था, एक ऐसा विषय जो कल्पनाओं को पख देता है। अनेक कलाकारों ने कहा कि इस प्रक्रिया के चलते उनके मन में एक हलचल सी पैदा हुई है, एक पेंटिंग शायद काफी न हो, और बनाने की आन्तरिक ललक पैदा हुई है नयी अभिव्यंजनाएं उभर कर आ सकती है।

वरिष्ठ चित्रकार ईश्वरी रावल ने कहा कि विषय वस्तु जितनी नायाब व कठिन होगी, कलाकार की संवेदनाओं को उतनी ही तीव्रता से वह झकझोरेगी। हो सकता है कि कभी कभी वीक्षकों व दर्शकों को उसका सीधा-सीधा अर्थ सम्प्रेषित न हो पाए । परन्तु कला को ग्रहण करने में लगने वाला थोड़ा सा अतिरिक्त प्रयत्न व पारखीपन उसे उतनी ही ऊंचाईयों पर ले जाता है।

अबूझ को यदि किसी प्रतिभा द्वारा एक चटख दृश्यमान बिम्ब में प्रस्तुत कर दि या जावे तो निःसन्देह यह हमारी इंन्द्रियों के आगे अप्रतिम रूप से आ खड़ा होता है। मिर्गी एक बायोलाजिकल विषय है। लेकिन माध्यम के कुशल उपयोग से वह प्रकाश व रंगों की भौतिक दुनिया में बदल जाता है।

एक और चित्रकार व लेखक सफदर शामी ने भी अनुभूतियों की जटिलता की वकालत की। उन्होंने पूछा- क्यों लोग कलाकार की वह स्वतंत्रता छीनना चाहते हैं जिसके बूते पर यह यथार्थवादी सूजन से परे हटकर भटकना चाहता है, प्रयोग करना चाहता है। मिर्गी के मरीजों द्वारा भोगे जाने वाले अनुभव कठिन हैं। वे हमें सीधे-सीधे मस्तिष्क व मन की सत्ताओं की सीमा रेखा पर ले जाते हैं।

क्या मन की कोई स्वतंत्र सत्ता है? या वह मस्तिष्क द्वारा सम्पादित अनेक कार्यों में से एक है, हाँ अन्यों की तुलना में कुछ ऊंचे दर्जेका जरूर हो सकता है। पहले वैसे ही हुआ कि एक कहे मेरे पास मस्तिष्क है और दूसरा कहे मैं मस्तिष्क हूँ।

कहते हैं कि कला संकेतात्मक होती है। और यह कला जो मिर्गी के बहाने विज्ञान से संश्लेषित हुई एक प्रकार का परा- संकेत हुई। इन कलाकृतियों का बाह्य स्वरूप भले ही पृथक व छिटका हुआ, लगे वे सबकी सब मन की एक खास अवस्था के आस-पास सुन्दर सा जाल बुनती है।

कलाकारों ने स्वयं कोई शीर्षक नहीं दिये परन्तु समीक्षक की ओर से प्रयत्न किया जा सकता है।

● ईश्वरी रावल – मिर्गी – एक वायवीय संसार में पहचान का संकट

● मौरा गुप्ता – तरंगों के घने जंगल की पीड़ा

● शंकर शिंदे – चक्रव्यूह में फंसा मन व छूटने की छटपटाहट

● सफदर शामी निगीं से कोई बचा नहीं- कलाकार, स्त्री, पुरुष

● हरेन्द्र शाह मकड़जाल में उलझा चिडिया सा मन

● रंजना पोहनकर मन मस्तिष्क में बहती तरलता का अहसास

● अनीस नियाजी विन्सेन्ट बाग गाग का पोट्रेट व उनके मस्तिष्क से व्याप्त सर्विलाकृति

● कादिर खान मिर्गी अन्धविश्वासों का घेरा

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