विषय सूचि
ध्यान दे
1. तीव्र अफेजिया के मरीज उदास हो जाते हैं, निराश हो जाते हैं, थक जाते हैं, चिढ़ते हैं, झुंझलाते हैं, गुस्सा होते रोते हैं और फिर चुप रह जाते हैं, अकेले रह जाते हैं-अपनी खोल में बन्द हो जाते हैं, गतिविधियाँ कम कर देते हैं , आना-जाना, मिलना-जुलना अच्छा नहीं लगता। ऐसे मरीजों की वाणी चिकित्सा कठिन होती है। धैर्य लगता है। असफलता और असहयोग के बाद भी प्रयास जारी रखना पड़ता है।
2..अधिक तीव्रता वाले मरीजों की वाणी चिकित्सा के लिये अभ्यास चुनना या ढुंढना मुश्किल होता है सारी क्षमताएं जाती रहती है। ऐसी स्थिति में वाणी चिकित्सा के विकल्प सीमित रह जाती है।
3. शुरु में आसान विषय चुनें। ऐसा विषय चुनें जिससे सम्बन्धित वस्तुओं, व्यक्तियों, स्थानों आदि को सामने रखा जा सके जैसे कि किचन, बर्तन, टेबल, औजार, बाथरुम, एलबम, आदि या उन स्थानों पर मरीज को ले जाया जा सके।
4. स्पीच थेरापिस्ट (वाणी चिकित्सक) या देखभालकर्ता को चाहिये कि मरीजके साथ की जाने वाली चर्चा की स्क्रिप्ट (संवाद आदि) वह पहले से लिख ले या सोच कर रखें और सम्बन्धित वस्तुएं, चित्र आदि जुटा ले। एक ड्रामा का सेट और पटकथा तैयार कर लें |
5. वाणी चिकित्सक ने जो बोला उसे मरीज ठीक से समझ पाया या नहीं यह सुनिश्चित करता है | बार-बार मरीज से पूछ कर पक्का करता है कि मरीज ने क्या समझा | बातचीत को रुचिकर, मनोरंजक बनाये रखता है।
6. यदि मरीज थक जावे तो उसे आराम करने दें। थोड़ा सुस्ताने दें | विषय बदल दें | किसी ऐसे काम में लगा दें जिसमें बोलचाल की जरुरत न पड़ती हो
7. छोटे-छोटे पुरस्कार (प्रोत्साहन) उपयोग कर सकते हैं
8. किसी भी विषय पर बातचीत शुरु करने से पहले उसकी भूमिका बतायें। मरीज को बार-बार आगाह करें, याद दिलाते रहें कि किस बारे में चर्चा हो रही है।
9. संवाद को आगे तभी बढ़ायें जब यह स्पष्ट हो कि मरीज ने अभी तक बातें ठीक से समझकर, सही उत्तर दिये हैं। कथन स्पष्ट हो | बात को घुमाफिरा कर न कहें | सीधे-सीधे बात करें | छोटे वाक्य हों। बार-बार दोहराएं |
10. भाषा के साथ-साथ संदेशों के आदान-प्रदान हेतु दूसरे तमाम तरीकों को खूब उपयोग करें चेहरे के हावभाव, नकल, अभिनय, आवाज में उतार-चढ़ाव, इशारे, मुद्राएं, हरकतें, नाटक |
कुछ अन्य महत्वपुर्ण बिंदु
>वाचाघात और लकवे के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी प्राप्त करें।
>रोगी की शारीरिक असमर्थता और बोलने तथा समझने की सीमाओं को समझें।
>फालिज़ के बाद यथाशीघ्र एलोपैथिक डॉक्टर या स्नायुरोग विशेषज्ञ से मिलें। अगर घर के पास कोई एलोपैथिक डॉक्टर न हो तो सिविल अस्पताल में जाएं। जहाँ तक और जितनी जल्दी सम्भव हो रोगी को
स्नायुरोग के डाक्टर को दिखाएं।
>फालिज़ के बाद यथाशीघ्र चिकित्सकीय, शारीरिक, व्यावसायिक एवं
वाक्-चिकित्सक की सलाज लें।
>रोगी को बोलने का पूरा अवसर दें।
>रोगी के बात करने या चलने-फिरने के हर प्रयास की प्रशंसा करें। रोगी को नमस्ते या मैं ठीक हूँ, गिनती गिनना या दिनों के नाम बताना जैसी स्वाभाविक प्रक्रियाओं को करने के लिये प्रेरित करें।
>रोगी को आत्मनिर्भर बनाने में पूरी सहायता करें।
>जहाँ तक सम्भव हो, रोगी को व्यस्त रखें, लेकिन ध्यान रखें कि उसे थकवाट न हो।
>रोगी की दिनचर्या नियमित रखें। नियमित दिनचर्या में रोगी स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है और इससे उसका आत्मविश्वास बढ़ता है रोगी की दिनचर्या में उसे आराम के लिये अवसर दें। आराम के बाद रोगी की सीखने और समझने की क्षमता और सहनशीलता बढ़ जाती है। आराम करने के बाद परिवारीजन उसे बात करने तथा समझने की क्रियाओं के लिये प्रेरित कर सकते हैं।
>याद रखें कि रोगी एक वयस्क व्यक्ति है। उसके साथ बड़ों जैसा ही व्यवहार करें। पहले की तरह ही उसे परिवार का एक अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण सदस्य समझें। किसी भी निर्णय की प्रक्रिया में उसे पहले की तरह महत्व दें और शामिल करें
>रोगी की भावनाओं और इच्छाओं का पूरा आदर करें। बातचीत एवं समझने की अक्षमता से परेशान रोगी अकसर लोगों से नहीं मिलना चाहता हैं।
>फालिज के रोगी अकसर गालियों का प्रयोग करते हैं। गालियों का प्रयोग उनके लिये एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है और इस पर उनका वश नहीं होता है। मित्रों और परिवार के लोगों को गालियों का बुरा नहीं मानना चाहिये और न ही उनकी हंसी उड़ानी चाहिये ।
>अगर रोगी बिना किसी कारण के रोने या हंसने लगे तो उसकी तरफ ध्यान न दें तथा बातचीत के क्रम को बदल दें।
>रोगी के प्रति दया की भावना या सहानुभूति न दिखाएं क्योंकि इससे उसके आत्मविश्वास पर गलत प्रभाव पड़ता है।
>जब तक रोगी न कहे या जब तक जरूरी न हो तब तक उसकी तरफ से या उसके लिये न बोलें।
>रोगी यदि आपकी बात का तुरंत जवाब न दे पाए तो उसके लिये तुरंत शब्द चयन न करें। रोगी की बोलने में तभी सहायता करें जब वह या तो सहायता मांगे या बहुत परेशानी महसूस करे।
>रोगी से ऐसा करम करने को न कहें जिसे वह कर न पाए।
>रोगी पर इस बात का दबाव न डालें कि वह सही शब्द या वाक्य ही बोले
>रोगी को कभी हतोत्साहित न करें, चाहे वह कैसे भी बोल रहा हो और किसी भी तरह (लिखकर, इशारों से या बोलकर) अपने विचारों को व्यक्त करना चाहता हो।
>रोगी को कभी भी पूरी तरह स्वस्थ होने की झूठी आशा न दिखाएं।
>रोगी को अपने परिवार और मित्रों से दूर न रखें।
>रोगी को रोने से न रोंकें। रोना तो अभिव्यक्ति की एक स्वाभाविक क्रिया है। रोने से रोगी का दिल हल्का हो सकता है।
>अन्य लोगों से बात करते समय रोगी की उपेक्षा न करें।
>रोगी को परिवार में हो रही सब गतिविधियों के बारे में बताते रहना चाहिये और सब निर्णयों में उसकी राय लेते रहना चाहिये।
>रोगी की निजता के अधिकार का सम्मान करें। रोगी की इच्छा के विरुद्ध उसे किसी से मिलने-जुलने के लिये मजबूर न करें।
>रोगी के सामने ही उसके बारे में कभी विपरीत टिप्पणी या बातचीत न करें । क्योंकि रोगी में बोलने से अधिक समझने की शक्ति होती है।
>रोगी से बातचीत करते समय प्रसन्न मुद्रा में रहें। इससे रोगी का आत्मविश्वास बढ़ता है और यह उसकी आरोग्यता के लिये जरूरी है। यद्यपि परिवार में व्याप्त तनाव की पृष्ठभूमि में ऐसा करना कठिन हो सकता है फिर भी सकारात्मक दृष्टिकोण से रोगी को आरोग्यता में सहायता मिलती है।
>रोगी की दृष्टि से संबंधित विकार, शारीरिक अपंगता तथा संवेदनहीनता के प्रति समझदारी और उदारता दिखाएं।
>रोगी की शारीरिक सहनशीलता और थकावट का ध्यान रखें। अच्छी तरह से आराम कर लेने के बाद वह उपचार कराने या लोगों से मिलने जुलने की बेहतर मनस्थिति में होता है।
>रोगी को बताएं कि वह चाहे कितना भी गलत-सही बोले, उसे बोलने का प्रयत्न करना चाहिये।
>रोगी की भाषा सम्प्रेषण संबंधी गलतियों तथा कठिनाईयों को छुपाएं नहीं। सब लोगों को इस कठिनाई के बारे में बता देने से वे एक परिवार के लोग, रोगी से धैर्यपूर्वक और धीरे-धीरे बातचीत करने का प्रयास करेंगे।
>अच्छा होगा यदि बड़े-बड़े शब्दों में लिखे हुए इस सन्देश को रोगी के बिस्तर के पास रख दें।
>मुझे फालिज़ हो गया है। इस कारण से मुझे समझने, बोलने, पढ़ने तथा लिखने में मुश्किल होती है। मुझे समझने और बोलने में काफी समय लगता है। कृपया आप भी धीरे-धीरे बोलें और मुझसे बातचीत करते समय धैर्य रखें।
>ऐसा करने से रोगी से मिलने आए लोगों को मदद मिलेगी। पर्स/जेब में यह कार्ड रखकर रोगी की समस्या दूसरे लोगों को आसानी से समझा सकते हैं।
>जितना सम्भव हो सके रोगी को भाषा सम्प्रेषण के लिये प्रोत्साहन दें।
>खाली बैठने से अच्छाहै कि रोगी रेडियो सुने या टेलिविज़न देखे।
>रोगी को प्रत्येक अपेक्षित अवसर पर बिना किसी डर या झिझक के बोलने के लिये प्रोत्साहित करें।
>जहाँ तक सम्भव हो रोगी से वास्तविक जीवन की घटनाओं/अनुभवों के बारे में बात करें जिससे कि परिवारीजन और रोगी संकेतों, चेहरे के भावों तथा अभिनय के द्वारा भाषा सम्प्रेषण कर सकें।
>अकेले या लोगों के साथ-साथ गाने से भी रोगी को बोलने में मदद मिलती है
>जिन रोगियों का उच्चारण साफ न हो उनसे धीरे-धीरे बोलने को कहें। उन्हें कभी भी एक मिनट में २०-२५ से अधिक शब्द नहीं बोलने चाहिये।
>एक बार यह पता लगने के बाद कि रोगी की भाषा सम्प्रेषण क्षमता में क्या समस्या है, विशेष अभ्यासों के द्वारा उसकी सहायता की जा सकती है।
>समझने, बोलने, पढ़ने तथा लिखने आदि से सम्बन्धित अभ्यासों के लिये वाचाघात अभ्यास पुस्तिका का प्रयोग करें या इस बारे में किसी वाचिकित्सक से मिल लें।
>रोगी को भाषा सम्प्रेषण संबंधी अभ्यासों से तभी लाभ होता है जबकि कोई व्यक्ति रोगी के पास बैठकर नियमित रूप से उसे भाषज्ञ सम्प्रेषण का अभ्यास कराए। अभ्यास के लिये नियमित समय का पालन करने से रोगी का आत्मविश्वास बढ़ता है और वह सुरक्षित महसूस करता है।
>रोगी की भाषा सम्प्रेषण संबंधी कठिनाइयाँ दिन-प्रतिदिन घटती-बढ़ती रहती हैं। इन कठिनाईयों का घटना बढ़ना एक सामान्य बात है। वाचाघात के रोगी बहुत जल्दी थक भी जाते हैं।
>ये रोगी सोने के बाद या आराम करने के बाद प्रसन्नवदन तथा ज्यादा चौकस होते हैं। तब वे ज्यादा सीख सकते हैं और अच्छी तरह से बोल भी सकते हैं।
>ऐसे रोगियों को, जो बोलते नहीं है, इशारों में बात करने तथा सरल शब्दों के उच्चारण के लिये,प्रोत्साहित करें।
>सामान्यतया रोगी तब बेहतर ढंग से समझ सकते हैं जब उनसे धीरे-धीरे बोला जाए और सरल बातें की जाए।
>वाचाघात संबंधी समस्याएं लम्बे समय तक बनी रह सकती हैं। इसलिये वाचाघात के रोगी को कभी भी मन्दबुद्धिन समझ जाए।
>वाचाघात के रोगी एक समय में एक ही व्यक्ति से यदि बात करें तो वे सामने वाले की बात अच्छी तरह समझ सकते हैं और अपनी बात समझा सकते हैं यदि आसपास बहुत लोग हों या फिर पीछे कहीं बहुत शोर शराबा हो तो वे परेशान हो जाते हैं।
>वाचाघात के दो रोगियों का एक दूसरे से मेल कराने में लाभ हो सकता है। दुर्भाग्य से भारत में ऐसे रोगियों का कोई नेटवर्क नहीं है। इसलिये परिवारीजन से पुरजोर अपील है कि वे अपने आसपास किसी अन्य वाचाघात रोगी को खोजें और दोनों परिवार महीने में एक-दो बार आपस में मिलें। ऐसे मेलजोल से न केवल मरीजों को मदद मिलती है अपितु इन रोगियों के जीवन साथी को भी बाहरी मेल-मुलाकात का अवसर मिल जाता है।
शब्द उच्चारण (दोहराव) करवायें
ऐसे रोगियों से जिन्हें कि शब्द-चयन में या वस्तुओं के नाम याद करने में कठिनाई होती है, शब्दों का उच्चारण करवाने में निम्नलिखित सूत्रों से मदद मिल सकती है-
-किसी वस्तु का नाम पूछने के लिये कहें – इसे क्या कहते हैं ?
– किसी वस्तु की उपयोगिता बताने के लिये कहें – इससे क्या काम करते हैं ?
– किसी वस्तु को कैसे प्रयोग में लाते हैं, यह पूछने के लिये कहें- बताओ इसे कैसे प्रयोग करते हैं?
– कभी-कभी परिवार के लिये किसी वस्तु का उपयोग बताकर उसका नाम पूछे – इससे लिखने का काम करते हैं । बताओ क्या ?
– कोई ध्वनिरूपी संकेत दें । परिवार के लोग किसी शब्द का पहला अक्षर बोलें-जैसे कि -घ-घड़ी के लिये।
– किसी शब्द का पहला शब्दांश बोर्ले जैसे कि किताब के लिये – कि।
– वाक्य पूरा करना। परिवारीजन वाक्य की शुरूआत के शब्द बोलें और उसकी पूर्ति रोगी द्वारा की जाए जैसे कि मैं (रोगी कहेगा) पढ़ता
-रोगी की बात ध्यानपूर्वक सनें।
– बीच में न टोकें। रोगी को प्रत्युत्तर के लिये पर्याप्त समय दें।
– अगर आपको बीच में ही पता लग जाए कि रोगी को उचित शब्द-चयन में कठिनाई हो रही है तो भी उसे उचित शब्द न सुझार्वे जब तक वह न कहे।
– उसके द्वारा बातचीत के सभी प्रयासों को स्वीकार करें चाहे उनका कोई मतलब निकलता हो या नहीं।
-रोगी से एकान्त तथा शान्त जगह में ही बातचीत करें। रोगियों को शोर शराबे के वातावरण में सुनने तथा समझने में बहुत कठिनाई होती है।
-रोगी से हमेशा धीरे-धीरे ही बोलें। बातचीत की गति कभी भी २०-३० शब्द प्रति मिनट से अधिक नहीं होनी चाहिये।
-रोगी से चिल्लाकर बातचीत न करें।
-रोगी से बातचीत करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखें-
– सरल तथा छोटे वाक्यों का ही प्रयोग करें
– परिचित तथा जानी पहचानी संज्ञाओं एवं क्रियाओं का ही प्रयोग करें।
– छोटी-छोटी बातें ही बताएं।
– सम्भव हो और प्रभावी हो तो संकेतों तथा हाव-भाव का भी प्रयोग करें।
रोगी से तभी बातचीत करें जब वह थकान हो और स्वयं भी बातचीत करने का इच्छुक हो।