सीटी स्कैन का पूरा नाम है कंप्यूटराइज्ड एक्सियल टोमोग्राफी। कंप्यूटराइज्ड का अर्थ है कंप्यूटरीकृत, एक्सियल का अर्थ है दिमाग के विभिन्न क्षेतीज वाले सेक्शन और टोमोग्राफी मतलब ऐसा एक्स-रे जो परत दर परत गहराई के चित्र लेता है। आपने छाती का एक्सरे देखा होगा, प्लेन एक्स-रे। जब छाती का एक्स-रे लेते हैं तो छाती के आगे की दीवार पर क्या है, पीछे की दीवार पर क्या है और बीच में फेफड़ों में क्या है, यह सारी चीजें 1 चपटी फिल्म के अंदर आ जाती है। उसमें हमको यह नहीं मालूम पड़ता है कि वह जो बीमारी दिख रही है, वह सामने की दीवार पर है या पीछे की दीवार पर। परत दर परत गहराई पर लिये जाने वाला एक्स-रे टोमोग्राफी कहलाता है। इसमें एक्स-रे किरणों का उपयोग किया जाता है। वही जो सादे या प्लेन एक्स-रे में उपयोग आती है। बस इसमें तकनीक का अंतर है।
जांच कैसे करते हैं?
इस जांच में एक मशीन के अंदर मरीज को लिटा देते हैं। उसके चारों तरफ एक गोलाई में एक्स-रे किरणे होती है, जबकि सामान्य में एक्स-रे में एक बीम होती है, एक गन होती है, बंदुक जैसी। उससे गोली के समान एक्स-रे निकलती है, बॉडी को क्रॉस करके फोटो ले लेती है। लेकिन सीटी स्कैन में जो एकस-रे की गन है, जिससे किरणें निकलती है वह अलग-अलग दिशाओं में घूमती है। इसमें 1 से अधिक बीम होती है। तो आपके शरीर को यहां वहां से इन किरणों द्वारा भेदा जाता है।
360- degree घूमकर ये एक्स-रे की किरणें आपके शरीर के आयताकार एवं वर्तुलाकार चित्र लेती है। एक्स-रे में एक पतली सी बीम होती है, जो शरीर के एक हिस्से को भेद कर जब बाहर निकलती है तो वहां पर एक्स-रे फिल्म वाली प्लेट लगा रखी होती है, परंतु सिटी स्कैन में वैसी प्लेट नहीं होती, यहां पर जहां से किरणें निकलती है, ठीक उसके सामने इन किरणों को कैप्चर करने वाले बिंदु होते हैं, जिन्हें डिटेक्टर कहा जाता है।
कल्पना कीजिए कि 360 डिग्री से अलग-अलग कोण से एक्स-रे की किरणें शरीर में प्रवेश कर रही है और ठीक उसके सामने 180 डिग्री के कोण पर डिटेकटर लगे हुए हैं और वे इन किरणों को कैप्चर कर रहे हैं। ऐसा एक पतली सी परत के रूप में किया, उसके बाद फिर एक पतली सी परत में किया, फिर उसकी नीचे एक पतली परत, जैसे हम आलू की पपड़ी की काटते जा रहे हैं, ककड़ी को परत दर परत काटते हैं। इसी प्रकार 360 डिग्री तक घुमने वाली एक्स-रे पतली-पतली परतों के रूप में शरीर के चित्र उतारती है, जो डिटेक्टर द्वारा कैप्चर कर लिए जाते हैं। यह जानकारी एकत्र कर कंप्यूटर उसकी गणना करता है। कितनी एनर्जी थी, भेजने से पहले, उस कीरण में एवं निकलने के बाद कितनी उर्जा उस किरण में बची, कितनी कम हुई उसके आधार पर कंप्यूटर गणना करता है कि जिस मार्ग से वह एक्स-रे किरण गुजरी है, उस मार्ग में क्या-क्या रचनाएं थी, कितनी हड्डी थी, कितना पानी था, कितना था, कितना ट्यूमर थ, कितना रक्त था। यह सब गणना केवल उसी किरण द्वारा होती थी कि जब वह शरीर में घुसी थी, जब कितनी उर्जा थी, और जब बाहर निकली, तक कितनी उर्जा बची।
अलग-अलग बिंदुओं से उन तमाम जानकारियों का संश्लेषण करके कंप्यूटर सॉफ्टवेयर द्वारा न केवल दिमाग बल्कि शरीर के तमाम अन्य अंगों के केट स्कैन किए जाते हैं। केट स्कैन का आविष्कार 1970 के दशक में इंग्लैंड के गॉडफ्रे हाउंसफील्ड नामक वैज्ञानिक ने किया था और इसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था। उन्हें ‘सर’ की उपाधि से इंग्लैंड की सरकार ने नवाजा था। सि.टी. स्कैन एक क्रांतिकारी खोज थी। इसने न्यूरोलॉजिकल बीमारियों के निदान और उपचार में बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन ला दिया। उसके पहले जितने भी निदान के साधन थे, वे अत्यंत सीमित जानकारी देते थे। उनमें से कुछ जाचे तो खतरनाक होती थी, मरीज को बड़ी पीड़ा होती थी।
केट स्कैन के आने के बाद 1970 के दशक के उत्तरार्ध और 1980 के दशक से अभी तक सीटी स्कैन की तकनीक में और भी अधिक विकास हुआ है, और भी अधिक परिवर्तन हुआ है। मस्तिष्क को और अन्य अंगों के भीतर की रचनाओं के विस्तृत बिम्ब हम पलक झपकते ही, कुछ ही मिनटों में प्राप्त कर लेते हैं। सीटी स्कैन की जांच में मरीज को किसी भी प्रकार की पीड़ा नहीं होती। हां एक्स-रे किरणों का एक्सपोजर जरूर होता है। किसी भी मरीज को जब साल में कई बार एक्स-रे कराने पड़ते हैं तो रेडिएशन का डोज होता है, वह क्रॉस नहीं होना चाहिए।
इसके अलावा सीटी स्कैन करते समय कई बार इंजेक्शन लगाकर सीटी स्कैन किया जाता है अर्थात मरीज को पहले बिना इंजेक्शन लगाए मशीन में लिटा दिया और चित्र प्राप्त कर लिया और फिर एक रक्त नली ‘शिरा’ में इंजेक्शन लगाकर वही प्रक्रिया दोहराते हैं। यह इंजेक्शन आयोडीन के एक योगिक का होता है और वह पदार्थ रक्त में घुलकर पूरे शरीर में फैल जाता है, दिमाग में भी पहुंचता है तब यह सीटी स्कैन की प्रक्रिया दोहराई जाती है। बिना इंजेक्शन वाली फिल्म और इंजेक्शन लगाने के बाद फला फला हिस्से में, रचना में यह परिवर्तन दिखाई पड़ रहा है, ये परिवर्तन फला फला बीमारी के कारण हो सकता है, इस तरह का निदान इंजेक्शन द्वारा किया जाता है। इस इंजेक्शन से कोई एकाध प्रतिशत लोगों को एलर्जी रिएक्शन हो सकता है। इसके लिए सीटी स्कैन करने वाले डॉक्टर को सावधान रहना पड़ता है इस प्रकार की रिएक्शन को रोकने के तमाम साधन इमरजेंसी के रूप में तैयार रखना पड़ते हैं। एसा बहुत कम होता है, बहुत विरले ही होता है। कई बार मरीजों को मालूम होता है कि उन्हें रिएक्शन होता है, ऐसी स्थिति में कुछ ऐसे इंजेक्शन दिए जाते हैं, जिनसे एलर्जी रिएक्शन होने की आशंका कम रहती है।
सी.टी. स्कैन का उपयोग
न्यूरोलॉजी के अंदर आज सीटी स्कैन का सर्वाधिक प्रयोग हेड इंजरी में हो रहा है। सिर के अंदर कितनी गहरी चोट है, मरीज कितने कोमा में है, सर के अंदर कितना रक्त जमा हुआ है, उसे तत्काल ऑपरेशन की आवश्यकता है या नहीं, यह सारे निर्णय सिटी स्कैन के आधार पर बड़ी सटीकता से लिए जाते हैं।
एक और अवस्था है, जिसमें सीटी स्कैन का प्रयोग किया जाता है, वह है पक्षाघात या लकवा। पक्षाघात में दिमाग के एक हिस्से में रक्त संचार में कमी आ जाती है और मरीज के शरीर का आधा हिस्सा कमजोर हो जाता है। उस समय अगर मरीज आरंभ के 3 घंटों के अंदर किसी अच्छे अस्पताल में किसी न्यूरोलॉजिस्ट के पास पहुंच जाए तो उसे एक खास प्रकार का इंजेक्शन दे सकते हैं, जो दिमाग की नली में रुकावट बने खून के थक्के को घोलकर हटा सकता है। यह इंजेक्शन देना कि नहीं देना, प्रथम 3 घंटे में देना, किस मरीज को खतरा है, किस मरीज को देने में फायदा है, इस निर्णय को लेने में सीटी स्कैन बडा सहायक है। अगर सी.टी. स्केन बताता है कि अंदर कोई हेमरेज नहीं है, केवल रूकावट हो सकती है तो इस इंजेक्शन को देने से मरीज को बड़ा लाभ होता है। इस प्रकार सीटी स्कैन का उपयोग इमरजेंसी में भी है और बिना इमरजेंसी के भी।
प्रयोगशाला जांच करवाने के पीछे कभी-कभी चिकित्सकों के मन में रक्षात्मक (डिफेंसिव) प्रैक्टिस की मानसिकता होती है। क्योंकि अब उपभोक्ता बचाओ कानून (कंजूमर प्रोटेक्शन एक्ट) के तहत अनेक मरीज, चिकित्सकों के खिलाफ दावा ठोकने लगे हैं कि हमारे इलाज में लापरवाही हुई और ठीक से इलाज नहीं हुआ। ऐसी स्थिति में डॉक्टर डिफेंसिव प्रेक्टिस करने लगते हैं, सुरक्षात्मक प्रेक्टिस करने लगते हैं कि कहीं कोई गलती ना हो जाए, इलाज में, निदान में, डायग्नोसिस में। इसलिए यह जांच भी करा, लो वह जांच भी करा लो। ताकि बाद में हमारे ऊपर आरोप नहीं आए कि आपने इस बीमारी में चुक कर दी। इसका निदान करने में आपने यह जांच क्यों नहीं करा ली, यह पहले करा दी होती, हम तो इस तरह की डिफेंसिव प्रेक्टिस कुछ हद तक जिम्मेदार है। आजकल के जमाने में चिकित्सा या इलाज होता चला जा रहा है।
एक और सवाल कभी-कभी लोगों के मन में उठता है कि डॉक्टर जांच करवाते हैं और कई बार जांच में कोई खराबी नहीं आती। डॉक्टर बोलता है रिपोर्ट नॉर्मल है, सब ठीक है, कोई खराबी नहीं है, फिर मरीज सोचते हैं कि जब रिपोर्ट नॉर्मल ही निकलनी थी तो फिर क्यों जांच करवाई? या मरीज़ सोचता है कि जब रिपोर्ट में कोई खराबी नहीं है परंतु मुझे तो बड़ी तकलीफ हो रही है, मेरे सिर में तो बहुत दर्द हो रहा है, मेरा सिर दर्द तो ठीक ही नहीं हो रहा है और आप कहते हैं कि मेरे सिटी स्कैन में कोई खराबी नहीं है, इसका क्या मतलब? इसका मतलब यह है कि जो बीमारी है, इतनी सूक्ष्म है या कुछ अलग प्रकार की है, कि सीटी स्कैन में या m.r.i. में या एक्सरे या खून की जांच में दिखाई नहीं पड़ रही है। रिपोर्ट सामान्य होने का अर्थ यह भी होता है डॉक्टर को अंदेशा था कि कहीं और कोई अन्य बीमारी तो नहीं है? उसका शक दूर करने के लिए उसने वह जांच कराई और अच्छा हुआ कि वह बीमारी नहीं निकली इसलिए रिपोर्ट सामान्य आई। ये अनेक कारण होते हैं। मरीज को बीमारी है, फिर भी रिपोर्ट में कोई खराबी नहीं आती और यह जो नार्मल रिपोर्ट है यह भी मरीज के निदान में उपयोगी होता है। ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि वह पैसे बर्बाद हुए, कही न कही वह जानकारी भी डॉक्टर और मरीज के द्वारा उस मरीज के उपचार में उनके निदान में उपयोगी सिद्ध होती है।