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ग्रामीण क्षेत्रों में कम साधनों द्वारा गरीब मरीजों का पुनर्वास


शान्ता मेमोरियल पुनर्वास केंद्र, भुवनेश्वर, उड़ीसा की ओर से अशोक हंस की एक रिपोर्ट के अनुसार स्पाइनल इन्ज्युरी के मरीजों के पुनर्वास में संस्थागत तथा सामुदायिक, दोनों प्रकार के प्रयासों के समन्वय की जरुरत है। संस्थागत उपाय का अर्थ है, बड़ा अस्पताल, मेडिकल कालेज या सुपर स्पेश्यलिटी हास्पिटल जहाँ पूरी टीम व साधन हों।

ग्रामीण सामुदायिक स्तर पर हमें नई टीम गढ़ना होगी, शिक्षा व प्रशिक्षण पर जोर देना होगा, आसान व सस्ते साधनों की व्यवस्था करना होगी।

गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले इस प्रकार के मरीजों में से 2 से 5 वर्ष के भीतर लगभग 75% मर जाते हैं। क्या इन मरीजों के लिये स्थानीय स्तर पर कुछ किया जा सकता है? शायद हाँ। उनके घरों में छोटे-छोटे मामूली फेरबदल कर सकते हैं। व्यायाम चिकित्सा करा सकने वाले स्वयं सेवकों को प्रशिक्षित किया जा सकता है। कोई नया, सरल सा काम धन्धा सोचा जा सकता है। जिसमें मरीज का समय कटे दिल बहल जाये और चार पैसे मिल जायें। गांव के लोग व परिजन मरीज से कट न जाएं, उसे भुला न बैठें, इस बात की कोशिश की जा सकती है।
फिर भी कुछ काम ऐसे हैं जिनके लिये संस्थागत सुविधाओं व विशेषज्ञों की जरूरत रहती है। जैसे मूत्राशय का नियंत्रण, श्वास तंत्र देखभाल, मेरुदवण्ड का स्थिरिकरण » चलने में सहायक उपकरणों का चयन तथा उन्हें फिट करके अभ्यास करवाना यौन सम्बन्धों की वापसी, स्वचालित नाड़ियों का अति उद्दीपन (डिस रिफ्लेक्सिया) गहरे, बड़े, पस भरे, बेड-सोर, गुर्दों के काम में गड़बड़ी व पथरी बनना। भुवनेश्वर केंद्र पर देखे गये मरीजों को चार प्रकारों में बाटा गया –
आरम्भिक अवस्था में एक्यूट (अतिपाती) मरीज, कुछ समये गुजर चुकने वाले, पश्च-एक्यूट मरीज जिन्होंने अभी तक कोई उपचार न लिया हो, पुराने मरीज, बिना उपचार वाले, पुराने मरीज आंशिक उपचार वाले | इनमें से चतुर्थ वर्ग से गरीब मरीजों ने ग्रामीण सामुदायिक स्तर के पुनर्वास में रुचि दिखाई।

पुनर्वास के प्रथम दौर में मरीज के रिश्तेदारों को प्रशिक्षण देते हैं –
बिस्तर घाव (बेडसोर) रोकना, मूत्र प्रणाली की देखभाल, तथा हाथ पैरों को चलाकर जकड़न व विकृतियाँ न पैदा होने देना। स्थानीय भाषा में मुद्रित, सचित्र साहित्य दिया गया। मरीज को करवट दिलाना, पाखाना कराना, कमर ऊंची उठाना, स्थान परिवर्तन करना आदि क्रियाएं सिखाई जाती हैं।

10 बिस्तरों के विशेष वार्ड में मरीज को लगभग 15 दिन रखते हैं। इस अवधि में विशेषज्ञों की टीम दीर्घकालिक पुनर्वास की योजना बनाती है तथा उस बारे में मरीज व रिश्तेदारों से चर्चा करती हैं छुट्टी के समय सबके मन में स्पष्ट रहता है कि घर जाकर दिन भर का क्या कार्यक्रम रहेगा। प्रति सप्ताह व प्रति माह के क्या लक्ष्य होंगे।
सोशल वर्कर बाद में मरीज की प्रगति देखने उसके घर जाता है । घर में परिवर्तन, काम धन्धा और सामाजिक अंगीकार आदि पहलुओं का मुआयना करके मार्गदर्शन देता है। शासकीय योजनाओं व सुविधाओं को पाने में मदद करता है। उस गांव के चार-पांच लोगों को मरीज क हितैषी टीम का सदस्य बना कर उसके हालात पर सतत नज़र रखी जाती है तथा उसकी रिपोर्ट समय-समय पर भुवनेश्वर केंद्र भेजते हैं। यह समन्वयात्मक तरीका कम खर्चीला है।

पुनर्वास की गुनवत्ता में कमी नहीं आने दी जाती है। पूरे देश अनेक सरकारी और गैर सरकारी संगठन विकलांगों के पुनर्वास तथा उनके हितों की रक्षा में अच्छा काम कर रहे हैं। तत्सम्बन्धी समाचारों का आदान-प्रदान होना चाहिये। न्यूरोज्ञान के भविष्य में प्रकाशित होने वाले अंक, जो इस रोग को समर्पित होंगे, इस प्रकार की सूचनाओं को स्थान देंगे।

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