कनाडा के बर्फीले ठंडे विरान घूर उत्तरी प्रांतों में यहां-वहां पत्थरो को जमा कर, रखकर मानव आकृति के छोटे या बड़े पुतले जगह जगह नजर आते हैं। इन्हें इनुक्शुक कहते हैं।
यहां के मूल निवासियों की एक प्रजाति ‘इनुइत’ लोगों की भाषा में इस शब्द का अर्थ है – ‘इंसान की नकल’।
ध्रुविय प्रदेशों के प्रतीक चिन्ह अनेक हो सकते हैं। सफेद भालू, बर्फ, एस्किमो लोग, बर्फ के घर (इग्लू), नुकिले शंकु के आकार के चमड़े के घर(तीपी), रेनडीयर या कुत्तों द्वारा खींची जाने वाली स्लेज (बर्फ गाड़ियां) आदि। परंतु इन सबसे परे इनुक्शुक में कुछ खास बात है।
हम लोग, सुदूर क्षेत्रों में तो नहीं गए। परंतु संग्रहालय, चित्रों, कलारुपो, शहर के मार्गो या घरों के बाहर इनुक्शुक को खूब देखें, जो इस बात का प्रतीक है कि उत्तरी कनाडा के आदिवासियों की संस्कृति में अनगढ़ से दिखने वाले पत्थरों की इन मानव आकृतियों का कितना महत्वपूर्ण स्थान है। इस देश के सुदूर अतीत से आज तक प्राणी मात्र व इंसानी जीवन से इस रुपंकर का अंतरण नाता है। पत्थरो के छोटे बड़े टुकड़ों से जोड़ तोड़ कर बनाई गई इन मूर्तियों का भला क्या उपयोग? क्या उद्देश्य? क्या कहानी? क्या स्त्रोत?
कुछ इनुक्शुक जंगी या महाकाय होते है। तथा प्रायः पहाड़ियों के शिखर पर या घाटियों की कंगार पर बनाए जाते हैं। शायद किसी परिवार या कबीले की मिल्कियत दर्शाते हैं।
नदी के एक या दोनों किनारों पर इनुक्शुक नावों के ठहरने, तथा सामान व लोगों को चढ़ाने उतारने के स्थान का इशारा करते हैं।
बंजर, सुनसान, एकरस जमीन जो मिलो मिलो एक जैसा परिदृश्य दुहराती है, चली जाती है, वहां से इनुक्शुक लंबी दूरी के पैदल यात्रियों को दिशा बताने का काम करते हैं। कभी-कभी इनुक्शुक की एक ही भुजा बनाई जाती है जो मार्ग की दिशा बताती हैं। पथरीले उबड़ खाबड़ रास्तों पर अदृश्य सी पगडंडियों के क्रॉसिंग, या मार्ग संगम दर्शाने का काम करते हैं।
कुछ मूर्तियों के बीच में एक छेद होता है जिसमें से झांककर ध्यान से देखने पर दूर क्षितिज के पास बिंदु नुमा दूसरा इनुक्शुक नजर आता है। समुद्र या झिलो के किनारों पर इनुक्शुक जहाजों को रास्ता बताते हैं।
केरीबाऊ के शिकार में महिलाएं शोर मचाकर जानवरों को इनुक्शुक थी समानांतर पंक्तियों तक खदेडती है और फिर मूर्तियों के पीछे छिपे आदमी उन्हें मार डालते हैं। यह रचनाएं, एकाकीपन की पीड़ा, खालीपन की व्यथा, सन्नाटे की बेचैनी तोड़ने में मदद करती हैं।
अनंत विस्तार वाले इन विरान उत्तरी प्रदेशों में जिसने पैदल यात्राऐं करी हो उसे इन सब बातों का एहसास सालता है। घंटे, दिन, सप्ताह, महीने गुजरते जाते हैं। सूरज उगता है और डूबता है। सुबह होती है, शाम ढलती है। तारे छिटक आते हैं। चांदनी से वनप्रांतर नहा उठते हैं। बादल आते हैं, जाते हैं। पक्षी मिल जाते हैं। पर इंसान नहीं मिलता।
कल्पना करो कि ऐसे में सहसा एक इनुक्शुक आपके सामने आ खड़ा हो| कितना भावप्रणव क्षण होता होगा। कोई तो होगा जो मेरी तरह, कभी ना कभी यहां से गुजरा होगा। मेरी ही तरह व्याकुल हो रहा होगा किसी की संगत के लिए। आज ना सही, भूतकाल में ही सही, यहां कोई आया था। पत्थरों को ढूंढा था, जमाया था। अपने प्रतिरूप में इनुक्शुक को गढ़ा था। कोई बहाना नहीं चाहिए।
इंसान जब धरती से गुजरता है तो अपने पद चिन्हों के अलावा अपनी बौद्धिक पहचान को भी छोड़ने की लालसा रखता है। उसका यही गुण उसे अन्य प्राणियों से पृथक करता है। लेकिन उसे अन्य इंसानों से जोड़ता है जो देश और काल की दृष्टि से दूर है, भूगोल और इतिहास की नजर में बहुत परे हैं पर मानव मात्र की निरंतरता के आयाम में न पास है, ना दूर है। बस है।