डॉक्टर्स का माइंड कैसे काम करता है?
एम. वाय. अस्पताल की मेरी न्युरोलोजी ओपीडी में बहुत भीड़ रहने लगी थी, इसलिये सप्ताह मे एक अतिरिक्त दिन मैंने हेडेक क्लिनिक शुरु की थी, जिसमें केवल सिर दर्द के मरीज़ देखे जाते थे । सिर दर्द बहुतायत से देखे जाने वाली अवस्था है । अधिकांश मामलों में रोग का निदान हिस्ट्री सुन कर हो जाता है । हिस्ट्री सुनने सुनाने मे बहुत सारी बातो पर गौर करना पड़ता है ।
सरकारी अस्पताल के ओपीडी में इतने ज्यादा मरीज आते हैं कि 2-3 मिनिट से अधिक समय देना सम्भव नहीं होता हैं । इसके नुकसान जरूर होते हैं । पूरा इतिवृत (हिस्ट्री) ध्यान से नहीं सुना जाता । शारीरिक परीक्षण कुछ ही सेकंड में झूठ मुट का होता है । घर वालों के मन में और भी बहुत कुछ बताने को और पूछने का रहता है पर छूट जाता है ।मैंने उर्मिला को कहा तुम्हारा सिर दर्द माइग्रेन जैसा प्रतीत होता है । यह उपचार है । मेरी असिस्टेंट नर्स आपको बतायेगी कि कैसे लेना है । अभी नेत्र विभाग में भी जाँच करवालो ।
उर्मिला: मुझे जल्दी घर पहुँचना है । आँख की जाँच में लंबी लाइन है । चार महिने पहले करवाई थी । सब ठीक बताया था ।
डॉक्टर – सिर्फ फण्डस की जाँच करवा लो, मैंने आज कोशिश की परंतु तुम्हारी पुतलियाँ[pupil] सकरी हैं, छोटी हैं, इसलिये मैं, ठीक से देख नही पाया कि आँख के पर्दे पर स्थित डिस्क पर कोई सूजन तो नहीं है ।
आँख की जाँच में सामान्य टार्च के अलावा एक स्पेशल टार्च भी काम में आती है । “आफ्थेल्मोस्कोप” । फण्डस दर्शी । फण्डोस्कोपी । आँख – दर्शी । फण्ड्स यानी आँख का पर्दा । डॉक्टर मरीज के चेहरे के पास आकर, आँख के भीतर झांक कर देखता है । थोड़ा अभ्यास और अनुभव लगता है ।
फण्डस दर्शी जाँच न्युरोलोजी परीक्षण का अनिवार्य अंग है । वैसे तो प्रत्येक केस में लेकिन विशेष कर सिर दर्द तथा वे अवस्थाएँ जिनमें शक हो कि खोपड़ी की कोठारी के भीतर स्थित मस्तिष्क और उसके भीतर-बाहर भरे हुए पानी (c.s.f.) में दबाव (प्रेशर) बढ़ तो नही गया हो, आँख के पर्दे पर फण्डस को देखना जरूरी होता है । खोपड़ी के भीतर भरा हुआ द्रव (सी. एस. एफ.) आँख की नाड़ी (आप्टिक नर्व) को भी घेरे रहता है । यदि उसमें प्रेशर ज्यादा हो तो वह रेटिना के केंद्र में स्थित डिस्क पर गोचर होता है । पेपिलीडिमा । पेपिला अर्थात डिस्क । इडिमा अर्थात सूजन । आँख के फण्डस को तफसील से निहारने के लिये पुतली (वह छेद जिसमें से प्रकाश की किरणें अंदर प्रवेश करती है ) को विस्फारित (dilate) करना पड़ता है । बड़ा करना पड़ता है । यदि वह छिद्र संकुचित हो, छोटा हो, तथा पर्दे तक में मार्ग में प्रकाश को अवरोध हो तो रेटिना व फ़ण्ड्स के दर्शन अच्छे से नहीं हो पाते हैं । अनेक वर्षों के अभ्यास के साथ इस जाँच में मुझे 15-20 सेकंड लगते हैं। सौ में से एक केस में खराबी पकड़ में आती है जिसका असर डायग्नोसिस और इलाज पर पडता है । उर्मिला उस दिन रुकी नहीं । दो माह बाद आना था पर जल्दी आयी “सिर दर्द में आराम नहीं पड़ा” । अब ज्यादा होता है । जल्दी जल्दी होता है । देर तक बने रहता है । कभी कभी चक्कर आते हैं । आँखों के आगे क्षणिक अंधेरी आ जाती है । सॉरी सर मैं आँखों की जाँच नही करवा पायी ।”
“कोई बात नही, मैं आज पुनः देख़ता हूँ । आँखों में बुंद की दवाई डाल कर, बाहर आधा घण्टा बैठो ।”
30 मिनिट बाद दोनों पुतलियां पूरी तरह डायलेट हो गई थी । उर्मिला को चकाचौंध लग रही थी । पास का पढ़ते नहीं बन रहा था |
आँख के फण्ड्स के अवलोकन के लिये, डॉक्टर अपनी एक आँख बंद करता है, दूसरी आँख आफ्थेल्मोस्कोप यंत्र के छेद से चिपकी रहती है । फिर मरीज़ के चेहरे के बिल्कुल करीब जाकर, मशीन की रोशनी की पतली सी बिम उस की एक आँख की पुतली के अंदर डालते है । ठीक आमने सामने का मुक़ाबला होता है । एक सीधी रेखा में लाइट को डॉक्टर के रेटिना से लेकर मरीज़ के रेटिना तक की एक दो सेंटीमीटर की तय करना होती है ।मरीज़ का रेटिना जब प्रकाश से जगमगा उठता है तो किरणें वहाँ से परावर्तित(रिफ्लेक्शन) पुनः डॉक्टर की आँख के पर्दे पर लोटती है । एक दो मिली मीटर दायें बायें ऊपर, नीचे हुए तो लाइट वहाँ नहीं गिरेगी जहाँ गिरना चाहिए । एक हाथ में पकड़े गये आफ्थेल्मोस्कोप को बहुत होले से, बहुत थोड़ा-सा, 5-10 डिग्री इधर उधर घुमा कर देखना पड़ता है ।
मरीज को हिदायत रहती है कि आँखें स्थिर रखो, सीधे सामने देखो, रोशनी की चौंधियाहट को कुछ सेकंड के लिए सहन करो । कुछ मरीज सहयोग नहीं कर पाते । डॉक्टर को धैर्य रखना चाहिए लड़ना नहीं चाहिए । बार-बार प्रयास करना चाहिए । मरीज का सिर स्थिर रखने के लिए, डॉक्टर को अपने हाथ से उसे थामना पड़ता है, बालों की लटों को हटाना पड़ता है ।
साहित्य के लेखकों को आजादी है कि वह जहाँ’ चाहें रोमांटिक सीन की कल्पना कर लें । लव स्टोरी (1962) नामक बेस्टसेलर उपन्यास के लेखक एरिक सेगल की एक और रचना “मेन वुमन एंड चाइल्ड” में एक दृश्य वर्णित है । एक अमेरिकी डॉक्टर (नायक) पेरिस आया हुआ है, दंगे हो रहे हैं, एक युवती की जाँच में उसको फण्डोस्कोपी कर रहा है । दोनों एक दूसरे के स्पर्श व गंध के प्रति आकर्षित होते हैं । यह तो गल्प है, Fiction है, अफसाना है, वास्तविकता नहीं है । इसी कथा को आधार बनाकर शेखर कपूर ने ‘मासूम'(नसरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी) फिल्म बनाई थी ।
उर्मिला की दोनों आँखों के रेटिना की केंद्रीय डिस्क पर सूजन थी । पीपीली डीमा (Papilledema) । मैंने कहा तुम्हारे ब्रेन की M.R.I. जाँच करवाना पड़ेगी ।
“सर अभी 4 महीने पहले सिटी स्कैन करवाया था उसमें कोई खराबी नहीं आई थी”
“M.R.I. तथा एमआर विनोग्राम करवाना है कुछ ऐसी जानकारी प्राप्त करना है जो सीटी स्कैन से नहीं मिलती”
“क्या जरूरी है?”
इस तरह का प्रश्न हम डॉक्टर्स को पसोपेश में डाल देता है । क्या जरूरी है? क्या जरूरी नहीं है? इसकी सीमा रेखा धुंधली होती है
मैंने कहा “हाँ जरूरी है”
“डॉक्टर साहब फिर से दवाई देकर क्यों नहीं देख लेते?”
किसी भी प्रकार की जाँच (विशेषकर यदि वह महंगी हो तो) मरीजों द्वारा प्रतिरोध में अनेक उपाय अपनाए जाते हैं । “पहले इलाज करके क्यों ना देख लिया जाए”, इस तर्क के पीछे उम्मीद यह रहती है कि डॉक्टर चाहे तो बिना जाँच के भी इलाज कर सकते हैं लेकिन जानबुझ कर ऐसा नहीं करते, यदि फायदा हो गया तो इस खर्चे से बच जाएंगे ।
जाँच के खर्च और उसकी तोहमत को टालने के मरीज के आग्रह अनेक बार नुकसानदायक हो सकते हैं । उर्मिला का परिवार गरीब था । कुछ कर्जों की किश्त चुकानी थी । पति की नौकरी छूट गई थी । बच्चों की स्कूल फीस भरने का तगादा आ रहा था ।
M.R.I. केंद्र के नाम लिखी जाने वाली पर्ची पर मैंने लिखा “कृपया अधिकतम कंसेशन छूट प्रदान करें” ।
“कितना हो सकता है” ? 20 से 25 परसेंट । इससे क्या होगा?
रोज अनेक बार ऐसे कैसेस से हमें सामना करना पड़ता है । कोफ्त होती है। गुस्सा आता है। क्यों नहीं हमारे यहाँ शासकीय अस्पतालों में जाँच मुफ्त नहीं होती? क्यों नहीं चिकित्सा बीमा(मेडिक्लेम आदि) ओपीडी इलाज के खर्चों की भरपाई करता?
हमारे राजनेताओं ने स्वास्थ्य क्षेत्र की हमेशा उपेक्षा की । राष्ट्रीय सकल उत्पाद (जीडीपी) का महज 1.7% इस पर खर्च होता है । उसमें भी निजी क्षेत्र का प्रतिशत ज्यादा है । मेडिकल सिस्टम की कमियों के कारण जनता के गुस्से की मार बेचारे डॉक्टर को झेलना पड़ता है । जबकि गलती पॉलिटिकल और प्रशासनिक तंत्र की है ।
फिर एक महीना निकल गया । एक रविवार के दिन अलसुबह उर्मिला के पति का फोन आया । यह भारत में ही संभव है कि मरीज व घर वालों के पास डॉक्टर के व्यक्तिगत फोन नंबर भी हो सकते हैं तथा वे कभी भी बात कर सकते हैं । अन्यथा दूसरे देशों में यह संभव नहीं है ।
“उर्मिला को देखना बहुत कम हो गया है, चक्कर आ रहे हैं”
मैंने कहा कि तुरंत अस्पताल में दाखिल करवाओ और एमआर ब्रेन करवाओ ।
जब मरीजों के आँख के परदे (रेटिना) के केंद्रीय भाग (फण्डस) पर सूजन पर (पेपीली डीमा) दिखाई पड़ता है तो डॉक्टर को शंका होती है कि कहीं मरीज को ब्रेन ट्यूमर तो नहीं? दिमाग में गाँठ !!
उर्मिला के ब्रेन में ट्यूमर नहीं था । मैंने अपने परिचय पर सामान्य MRI के साथ एमआर विनोग्राम जाँच करने का भी लिखा था | जो बिना डॉक्टर के लिखे, रुटीनली नहीं की जाती ।
कभी-कभी डॉक्टर को देर से समझ आता है कि इस मरीज में यह अतिरिक्त जाँच भी करवाना है । बार-बार आने जाने, समय बिगड़ने, खर्चा करना बढ़ने, से मरीज व घरवाले चिढ़ते हैं, डॉक्टर पर नाराज होते हैं ।
पर क्या करें मेडिकल साइंस में बीमारी का निदान (डायग्नोसिस) बनाने की प्रक्रिया सीधी सरल रेखा के समान नहीं होती शतरंज की चाल के समान होती है ।
यदि ‘अ’ है तो ‘ब’ ‘स’ और ‘द’ हो सकते हैं । यदि ‘ई’ मिल गया या ‘ब’ और ‘स’ तो नहीं लेकिन ‘द’ और ‘फ’ हो सकते हैं । अब तो ‘ज’ नाम की जाँच करना पड़ेगी । यदि नहीं मिली तो ‘द’ के बजाय ‘फ’ हो सकता है । लेकिन ‘फ’ का निदान पक्का करने के लिये ‘ल’ के लिये ‘म’ और ‘न’ नाम के दो इलाजों मे से कौनसा ज्यादा असरकारक तथा कम खतरनाक होगा । इसका फैसला करने में ‘ल’ जाँच से आंशिक मदद मिलती है ।
गौर कीजिए शब्दों पर ‘संभावना’, ‘आशंका’, ‘आंशिक’, ‘शायद’ ।
मेडिकल साइंस, गणित या भौतिक शास्त्र के समान नहीं है । जहाँ 2 + 2 = 4 होते हैं, या दो पदार्थ सदैव एक दूसरे से गुरुत्वाकर्षण द्वारा खींचते हैं ।
एमआर विनोग्राम जाँच से मालूम पड़ता है, कि मस्तिष्क से अशुद्ध(कम ऑक्सीजन, ज्याद कार्बनडाइ ऑक्साइड) रक्त को लौटा करन लाने वाली रक्त नलिकाएँ – शिराएँ(Veins) में खून जम तो नहीं गया है, क्लोट तो नहीं बन गया है? ऐसा होने से खोपड़ी की सख्त और टाइट कोठरी में जगह कम पड़ने लगती है । ड्रेनेज लाइन चोक होने से नालियाँ ज्यादा भर जाती हैं । अंदर दबाव बढ़ जाता है ।
शिराओं में जमे हुए खून के थक्कों को घोलने के लिए, रक्त को पतला करने वाली औषधियाँ (एंटीकोआग्यूलेंट) इंजेक्शन व टेबलेट के रूप में देने से लाभ होता है । इनका असर धीरे-धीरे कुछ सप्ताह में नजर आता है ।
इस रोग को मेडिकल की भाषा में CUT सेरेब्रल विनस थ्रांबोसिस कहते हैं । उर्मिला की विनोग्राम रिपोर्ट में खराबी नहीं थी, मेरे साथ काम कर रहे सीनियर रेजीडेंट डॉक्टर ने उर्मिला के पति को दो और जाँच करवाने को कहा ।
- नेत्र रोग विशेषज्ञ परामर्श – विशेषकर विजुअल फील्ड – प्रत्येक आँख द्वारा देखे जाने वाले परिदृश्य का आकलन । खर्चा 2000/- ।
- लंबर पंक्चर – सीएसएफ – रीड की हड्डी में सुई डालकर ब्रेन का पानी निकालना और उसे जाँच के लिए भेजना । खर्चा 2000/- ।
उर्मिला और उसके परिजन उखड़ गए । यह क्या लगा रखा है? जाँच के बाद जाँच । आप लोग डॉक्टर्स को सिर्फ पैसा कमाने की लगी है । रेसिडेंट डॉक्टर थोड़ा बेबाक स्वभाव का था । नाराज हो गया ।
“खामख्वाह हम पर तोहमत लगाते हो, जो जरूरी है वह करवाना पड़ेगा । नहीं तो कहीं और जाकर इलाज करवाओ ।”
ऐसी परिस्थितियों को संभालने की कला धीरे-धीरे समय और अनुभव के साथ आती है ।
अगले दिन मैंने उन्हें बताया कि आँखों के परिदृश्य (विजुअल फील्ड) की जाँच इसलिए कराते हैं कि आज की तारीख में कितना नुकसान है? इसे सटीक तरह से नाप लें, ताकि आने वाले सप्ताहों और महीनों में इस जाँच को दुहरा कर मालूम कर सके कि इलाज से लाभ हो रहा है या नहीं । तथा बीमारी बढ़ रही है या कम हो रही है? इस जाँच का हम फिलहाल टाल सकते हैं हालांकि वह है उपयोगी ।
रीड की हड्डी में स्वयं द्वारा कुछ अतिरिक्त पानी(लगभग 50ml) निकालना, अंदर के प्रेशर को कुछ समय के लिए कम कर सकता है। सुई से बूंद बूंद कर टपक रहे पानी के दबाव नापने की एक सरल विधि है यह देखना कि वह पानी एक लम्बवत खड़ी ट्यूब में कितने सेंटीमीटर ऊपर चढ़ जाता है।
सी.एस.एफ. (द्रव) को प्रयोगशाला जाँच के लिए भेजते हैं। उसमें प्रोटीन, शर्करा और सफेद कोशिकाओं की संख्या को मापते हैं। मस्तिष्क के चारों और झिल्लियों की एक तीत परत होती है जिन्हें मेनिन्जिज कहते हैं। सी.एस.एफ. नाम का पानी इन्हीं झिल्लियों की दो परतों के बीच रहता है। वायरस या बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्म रोगाणुओं के कारण होने वाले इन्फेक्शन(एनसेफेलाइटिस,मेनिनन्जाइटिस) रोग में सी.एस.एफ.(पानी) की रिपोर्ट में खराबी पाई जाती है। उर्मिला की जाँच तीन कारणों से जरूरी थी। एक मेनिनजाइटिस है या नहीं, यह मालूम करना क्योंकि मस्तिष्क के अंदर पानी का दबाव बढ़ना और उस कारण से आँख के परदे पर सूजन दिखाई पड़ना, इस रोग में संभव है। नंबर दो, यह नापना की रीड़ की हड्डी के पानी का दबाव कितने सेंटीमीटर है और तीसरे 30-40 मिली लीटर पानी निकाल बाहर करना ताकि टेंपरेरी ही सही, कुछ समय के लिए खोपड़ी के भीतर का प्रेशर कम हो जाए।
रीड़ की हड्डी में सुई लगाकर पानी निकालने (लंबर पंक्चर) की जाँच का सुनते ही घरवाले घबरा जाते हैं, बिदक जाते हैं, टालते हैं, बहाने बनाते हैं, ढेर सारे सवाल और शंकाएँ खड़ी करते हैं। उर्मिला के साथ भी यही हुआ।
“यह जाँच जरूरी है क्या?” [एकदम जरूरी है]
“क्या इसके बिना इलाज नहीं चल सकता?” [नहीं चल सकता]
“क्यों ना थोड़े दिन इलाज करके देख ले”? [नहीं देख सकते]
“इस जाँच में बहुत दर्द होगा?” [बहुत थोड़ा सा]
“हमने तो सुना है कि इस जाँच में खतरा है, हमेशा के लिए मुश्किलें रह जाती है”? [कहाँ सुना, किससे सुना]
“हमारे काका की बहू की भाभी से?” [क्या उस भाभी की यह जाँच हुई थी]
“नहीं उसकी फ्रेंड ने बताया था?” [क्या फ्रेंड की यह जाँच हुई थी]
“यह तो हमें नहीं पता।”
कैसा स्वभाव है, कैसा सोच है मनुष्य का। एक ऐसी जाँच जो प्रतिदिन हजारों लाखों की संख्या में की जाती है। बिरले ही कभी कोई छोटा-मोटा दर्द (टेंपरेरी) रह जाता है, उसके प्रति इतना डर क्यों? इतना प्रतिरोध क्यों? अपने डॉक्टर्स पर भरोसा क्यों नहीं?
अब उर्मिला को याद आया-
“मेरी बहन को 10 साल पहले टीटी ऑपरेशन (परिवार नियोजन वाला) के समय सुन्न करने के लिए कमर में सुई लगाकर एनेस्थिसिया दिया गया था। उसकी कमर हमेशा दुखती रहती है।
“आपकी बहन को फोन लगाओ।”
“हेलो सुमन! मैं डॉ. अपूर्व पुराणिक बोल रहा हूँ। आप कैसी हैं? आपको कोई तकलीफ है क्या?”
“अच्छी हूँ। मुझे कोई तकलीफ नहीं है।”
“आपकी कमर दुखती है क्या?”
“क्या कहा? कमर दर्द? हूँ….हूँ….नहीं….हाँ 6 महीने पहले दुखी थी। अब ठीक है।”
“और उसके पहले भी दुखी थी?”
“हां दो-तीन साल में एकाध बार दुख जाती है। भारी वजन का उठाई भराई का काम करूँ तो या जब मौसम बदलता है, बादल होते हैं।”
“जब बादल नहीं होते तब नहीं दुखता?”
“दुख कभी भी सकता है।”
“टीटी ऑपरेशन के समय कोई कोई तकलीफ हुई थी क्या?”
“नहीं तो।”
“कमर दुखी थी क्या?”
“हाँ, जहाँ सुन्न करने का इंजेक्शन लगाया था वह 2 दिन दुखा था।”
“उसके बाद हमेशा बार-बार लगातार दुखता रहता है क्या?
“नहीं तो।”
“टीटी ऑपरेशन के पहले भी कमर दुखती थी क्या?”
“हाँ ऑपरेशन के पहले भी दुखी थी, जब दिवाली की सफाई, टेबल, कुर्सी, गादी-तकिये, अनाज के बोरे उठाए थे।”
मैंने उर्मिला से कहा आपकी बहन के कमर दर्द का इस लंबर पंचर जाँच से कोई संबंध नहीं है।
यह भी अजीबसा स्वभाव है इंसानों का कि जगह-जगह कार्य-करण संबंध ढूंढते हैं। मन में जैसी धारणाएँ पहले से बैठी हुई हैं, सोच भी वैसा ही हो जाता है।
इस तरह प्रतिरोध करने वाले, शंका करने वाले मरीजों में जाँच करते समय या ऑपरेशन करते समय हम डॉक्टर जरा ज्यादा ही डरे रहते हैं। खुदा न खास्ता, गाहे-बगाहे यदि कोई कॉम्प्लिकेशन हो गया तो मुश्किल हो जायेगी ।
उर्मिला की कमर की रीड़ की हड्डी के लम्बर कशेरु क्रमांक 3 और 4 के बीच एक लंबी सुई बिघ कर अंदर का पानी प्राप्त किया। तेजधार के रूप में प्रेशर से आ रहा था वरना अधिकांश में धीरे-धीरे बूंद बूंद टपकता है। पानी का दबाव 40 सेंटीमीटर था (सामान्य 18 सेंटीमीटर से कम होना चाहिए)। लगभग 50 मिलीलीटर निकाल कर फेंक दिया। 5 मिली लीटर प्रयोगशाला भेजा गया। रिपोर्ट नॉर्मल आई।
इतनी जद्दोजहद, उठापटक के बाद अब फाइनल डायग्नोसिस बना। आई.आई.एच. । Idiopathic Intracranial Hypertension ।
हाईपरटेंशन अर्थात उच्च दाब या हाई प्रेशर, इंट्रा अर्थात अंदर, क्रेनियल अर्थात खोपड़ी या कपाल | “खोपड़ी के अंदर हाई प्रेशर”
इडियोपेथिक एक फेंसी शब्द है, लेटिन भाषा का, जिसका अर्थ है “अज्ञात कारण” ।
“अज्ञात कारण अंतः कपाल उच्च दाब”
अंग्रेजी पर्याय अधिक कठिन है या हिंदी?
डायग्नोसिस बनाने के बाद भी कुछ पायदानें छूटी रहती हैं। इडियोपेथिक कह दिया फिर भी कारण ढूंढने का प्रयास करना चाहिए।
उर्मिला की ऊँचाई 5 फीट तथा वजन 70 किलो था।
मोटापा एक कारक हो सकता है।
उर्मिला को महावारी कम आती थी।
एक ही संतान हुई 20 वर्ष पूर्व ।
ब्लड शुगर कभी-कभी मामूली बढ़ा हुआ आता था लेकिन डायबिटीज का उपचार देने की आवश्यकता नहीं समझी गई थी। रक्त में कोलेस्ट्रॉल व ट्राइग्लिसराइड की मात्रा अधिक थी। ब्लड प्रेशर (140/90) बॉर्डर लाइन था। इस प्रकार के लक्षण संकुल को मेटाबॉलिक सिंड्रोम करते हैं। इन मरीजों में आईआईएच की आशंका अधिक होती है। अन्य कारक मौज़ूद नहीं थे, जैसे कि विटामिन ए का हाई डोज लेना, टेटरासाइक्लिन व हारमोंस वाली औषधियाँ लेना।
आई.आई.एच. का एक पर्यायवाची बी.आई.एच. है। Idiopathic की जगह Benign(सौम्य, अघातक) शब्द रखा है क्योंकि इस रोग में जान जाने का खतरा नहीं रहता। लेकिन एक खतरा जरूर है जो घातक(Malignant) होता है आँखों की रोशनी चले जाना।
उर्मिला और परिजन अब पहली बार डरे। कपाल के अंदर द्रव का दाब कम करने के लिए एसिटाजोलामाईड (डायमाक्स) गोली शुरू की गई। लंबर पंक्चर में अतिरिक्त पानी निकाल देने से सिर दर्द और चक्कर मिट गए थे।
“यह सुधार टेंपरेरी है। मुगालते में मत रहना। गोली के साथ-साथ जीवन शैली बदलो। वजन कम करना है। मीठा बंद। तला बंद। नियमित व्यायाम। 1 महीने में अच्छा लाभ हुआ। तीन माह बाद नेत्र परीक्षण में पर्दे की सूजन बहुत कम हो चुकी थी। दृष्टि क्षेत्र(Visual Field) सामान्य था। उपचार और जीवनशैली को जारी रखने को कहा गया।
फिर वही हुआ जो नहीं होना चाहिए।
उर्मिला 1 वर्ष के लिए गायब हो गई। अब बुरी हालत में लौटी। दोनों आँखों की रोशनी लगभग समाप्त होने की कगार पर थी।
अंग्रेजी का एक शब्द है Compliance कंप्लायंस अनुपालन। जो निर्देश दिए गए हैं, जो योजना बनाई गई है उसका ईमानदारी और अनुशासन के साथ पालन करना।
हम डॉक्टर्स परेशान रहते हैं कि अनुपालन को कैसे सुनिश्चित किया जाए। इंसान की कितनी कितनी कमजोरियों से हमें जूझना पड़ता है – बिना धैर्य खोए बिना क्रोध किये।
“हम गाँव चले गए थे।”
“क्या वहाँ पास के शहर में नेत्र विशेषज्ञ नहीं था ।”
“था तो सही पर पता नहीं कैसा था? ।”
अनजान के प्रति अविश्वास कितना घातक हो सकता है।
“डायमॉक्स टेबलेट बंद कर दी क्योंकि गरम पड़ रही थी ।”
“कैसे मालूम पड़ा कि गर्म पड़ रही थी?”
“पाइल्स होने लगे थे।”
“कैसे मालूम पड़ा की पाइल्स होने लगे थे?”
“1 दिन लैट्रिन में थोड़ा सा खून जैसा लाल-लाल दिखा था। कब्जियत रहने लगी थी। “
“किसी डॉक्टर को दिखाकर कंफर्म किया था कि पाइल्स है?”
“नहीं दिखाया था।”
कार्य कारण ढूँढने के मानव स्वभाव के चलते मान लिया गया था कि डायमॉक्स के कारण ही ऐसा हो रहा था।
फार्मोकोलॉजी (औषधि विज्ञान) में हम डॉक्टर्स विस्तार से पढ़ते हैं कि किस औषधि के क्या-क्या दुष्प्रभाव हो सकते हैं। मरीजों से उस आधार पर पूछते हैं यह तो नहीं हो रहा, वह तो नहीं हो रहा? जब मरीज खुद ही कर ऐसा दुष्प्रभाव बताते हैं जो हमने किताबों में नहीं पड़ा, अनुभव से नहीं जाना तो सोच में पड़ जाते हैं? क्या ऐसा हो सकता है? कुछ डॉक्टर एकदम से नकार देते हैं।
“इस दवाई से ऐसा नहीं हो सकता। तुम लोग सोचते ज्यादा हो।”
कुछ डॉक्टर्स मानते हैं कि कभी ऐसा भी हो सकता है कि किसी मरीज में कोई साइड इफेक्ट सच में उसी दवा के कारण हो रहा हो। अत्यंत दुर्लभ होने से या अति अल्प केसेस में पाए जाने से शायद उसके बारे में हमें भी ना पता हो।
मरीज के अनुभवों को सिरे से खारिज नहीं कर देना चाहिए।
हो सकता है वह गलत सोच रहा हो?
हो सकता है वह सही सोच रहा हो?
“हमें फोन लगाकर क्यों नहीं पूछ लिया?”
“अब क्या बतायें?”
“आपका वजन तो फिर बढ़ गया है?”
“गाँव में त्यौहार खूब मनाते थे । थोड़ा-थोड़ा मीठा और तला खाने में आ गया होगा।”
इस थोड़े-थोड़े की परिभाषा मनुष्य मनुष्य में अलग होती है।
“एक्सरसाइज क्यों बंद की”
“सासू माँ ने बोला ठंड का मौसम है, बाहर मत जाओ हवा लग जाएगी।”
‘दवाई का गरम पड़ना’, ‘हवा लग जाना’, ‘सीत का असर होना’ – अनेक धारणाएं कैसी बनी, कैसी पनपी, इस पर समाज विज्ञान में शोध होना चाहिए। हम आधुनिक चिकित्सा की प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टर्स पर आरोप लगाया जाता है, पश्चिमी देशों की पोथी पढ़पढ़ कर हम अपने देश की माटी से जुड़े Social Wisdom सामाजिक बुद्धि से दूर हो गए हैं, जो देश और काल के अनुरूप विकसित होती है। मेरी राय में इस धारणा में सत्य का अंश कम है। मैं मानता हूँ कि विज्ञान सार्वदैशिक, सार्वभौमिक, सार्वजनिक, सर्वकालिक होता है। क्या फिजिक्स, क्या गणित, क्या रसायन, क्या चिकित्सा विज्ञान। स्थानिकता की भूमिका अल्प होती है। मैं सोशल विजडम का सम्मान करता हूँ और मानता हूँ कि उसके चलते अनेक अच्छी परम्पराएँ विकसित होती है, लेकिन सामाजिक बुद्धि के कुप्रभावों की फेहरिस्त ज्यादा लंबी और ज्यादा खतरनाक है। जैसे कि लड़का-लड़की भेद, कन्या-भ्रूण हत्या, सतीप्रथा, बाल-विवाह, छुआछूत, विधवा के साथ बदसलूकी, जाति प्रथा, अंधविश्वास, झाड़-फूंक, जादू टोना, भूत प्रेत, गरीबों का शोषण, खोटे कर्म के नाम पर अन्याय के प्रति समर्पण, पशुओं के साथ क्रूरता।
उर्मिला की आँखों की रोशनी बस इतनी रह गई थी कि 1 मीटर की दूरी से सिर्फ अँगुलियाँ गिन सकती। पढ़ना और चेहरे पहचानना मुश्किल था। आँख के परदे पर डिस्क (फंडोस्कोपी) पर सूजन बढ़ गई थी। अधिक चिंता की बात थी उक्त डिस्क का रंग सामान्य गुलाबी की जगह सफेदी की दिशा में बदल रहा था।
“हे भगवान! ऑप्टिक एट्रॉफी”
आँख के पीछे रेटीना से निकलकर दिमाग तक जाने वाली नाड़ी “ऑप्टिक नर्व” का सिरा [डिस्क] जो फंडोस्कोपी जाँच में दिखाई पड़ता है, यदि सफेद रंग का होने लगे तो “ऑप्टिक एट्रॉफी” का चिन्ह माना जाता है। ऑप्टिक नर्व का गलना, सुखना, नष्ट होना जो शायद ठीक न हो पाए।
मस्तिष्क के द्रव (C.S.F.) का दबाव लंबे समय तक सहने के कारण हजारों फाइबर्स (अक्ष तंतु – Axon) में से जब अधिकांश मर जाते हैं तो डिस्क का रंग सफेद होने लगता है।
उर्मिला और पति घबरा गए।
यदि डॉक्टर स्वयं चिंतित दिखे तो परिजनों परिजनों का दिल गहरा डूब जाता है। यदि डॉक्टर ढांढस बँधाएँ तो अच्छा लगता है।
सच बोलो तो मुश्किल, ना बोलो तो मुश्किल।
बताए बिना कोई विकल्प भी नहीं।
बताने का सलीका आना चाहिए।
धीरे धीरे बताओ। एक बार में मत बताओ। कुछ रिश्तेदारों को पहले बताओ। मुख्य पात्रों व मरीजों को बाद में बताओ। ऐसा संदेश नहीं जाना चाहिए कि चूँकि अब कुछ हो नहीं सकता इसलिए मेरे पास आने की जरूरत नहीं है।
बुरी से बुरी, गिरी से गिरी हालत में भी संदेश यह जाना चाहिए कि:
“खतरा बहुत है, ठीक होने की उम्मीद बहुत कम है।
“फिर भी मैं कोशिश करूँगा।
“हमसे जितना बन पड़ेगा, अच्छे से अच्छा करेंगे।”
डॉक्टर अपने मरीज का साथ नहीं छोड़ सकता। उम्मीद की एक क्षीणसी किरण जरूर जीवित रखना चाहिए।
“कभी-कभी चमत्कार हो सकते हैं”
“कुछ ऐसे मरीज रिपोर्ट हुए हैं जो इस अवस्था में भी ठीक हो गए।”
“नई रिसर्च खूब चल रही है, हो सकता है शीघ्र कुछ बेहतर इलाज निकल आए।”
उर्मिला का केस इतना होपलेस नहीं था, डॉक्टर्स को क्रोध, चिढ़ और व्यंग्य पर पर काबू करते आना चाहिए।
ऐसा कभी ना बोले
“अब आए हो? अब मैं क्या कर सकता हूँ। चिड़िया चुग गई खेत, अब पछताओ। अपने हाथों, पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। खुद केस बिगाड़ेंगे, फिर डॉक्टर से चमत्कार की उम्मीद करेंगे। हम कोई भगवान है क्या? लापरवाही खुद करेंगे और ठीकरा डॉक्टर के सिर पर फोड़ेंगे। अब दिखाओ किसी और डॉक्टर को।”
कुछ ऐसे बोलना चाहिए: मुझे बहुत दु:ख है कि आपने इलाज बंद कर दिया फॉलोअप (अनुगमन) आने में,पुनः दिखाने में इतनी देर कर दी। मैं समझ सकता हूँ आपकी कुछ मजबूरियाँ रहीं होगीं। कभी-कभी तो यह कारण सचमुच कठिन होते हैं, पर क्या करें कई मरीजों के साथ कोई वाजिब वजह नहीं होती फिर भी वह गलतियाँ कर बैठते हैं। आपने भी ऐसी ही गंभीर चूके की हैं। काश आपने मुझे फोन कर लिया होता या किसी अन्य डॉक्टर को दिखा लिया होता। बहुतसी बीमारियों में ऐसा होता है कि इलाज के साथ मरीज ठीक होने लगता है, तो उसे लगता है कि बीमारी गई अब इलाज की क्या जरूरत। डॉक्टर्स तो यूं ही जबरदस्ती बोलते रहते की इलाज बंद मत करना। ठीक है, अब मैं देखता हूँ कि आपके लिए क्या कर सकता हूं।”
विकट से विकट परिस्थिति में भी डॉक्टर के लिए जरूरी है कि उसकी भूमिका से लगे कि वह कंट्रोल अपने हाथ में से छोड़कर भाग नहीं रहा है।
मेरे मन में आया कि उर्मिला की आँखों की VEP (Visual Evoked Potential) जाँच करवा लूँ। खर्च Rs2000/- लगभग । दोनों आँखों के ऊपर बारी-बारी से तेज चकाचौंध प्रकाश की झपकियाँ देते हैं। उक्त रोशनी रेटिना पर विद्युत तरंग पैदा करती है जो ऑप्टिक नर्व द्वारा ब्रेन के पिछले भाग में ओस्सीपीटल खंड तक पहुंचती है। VEP जाँच में बिजली की इस लहर का आकार (वोल्टेज) तथा पहुंचने में लगने वाला समय (Latency लेटेंसी -मिली सेकंड में) नापते हैं। लेटेंसी अर्थात विलंबता या प्रसुप्ति काल। मैं जानना चाहता था कि उर्मिला की आँखों की रोशनी में सुधार की संभावना कितनी है। यदि VEP रिपोर्ट अच्छी हो तो उम्मीद अधिक होगी। परिवार की आर्थिक हालत को ध्यान में रखते हुए हम डॉक्टर्स को प्रायः आदर्श से कमतर स्तर पर काम करना पड़ता है। मानो कोई सेना, मोर्चे पर एक हाथ पीठ पर बांधकर लड़ रही हो। मैंने स्वयं को सांत्वना दी। मालूम करके भी इलाज तो वही रहता है।
उर्मिला को अस्पताल में दाखिल कराया। ब्लड शुगर बढ़ने लगी थी। उसका इलाज तथा डायमॉक्स गोली शुरू करें। लम्बर पंचर कर के ढेर सारा सी.एस.एफ. उंडेल बाहर किया। मामूली सुधार हुआ। खतरा टला नहीं। लगभग एक माह बाद फिर बुलाया। लगभग वैसी ही स्थिति थी। करने को लम्बर पंचर करके बारबार पानी निकाल सकते हैं। तकलीफ होती है। टेम्पेररी उपचार हैं।
अब अंतिम उपाय बचा था। शंट ऑपरेशन। मस्तिष्क में बहने वाली पानी(CSF) के निकलने वाले चूँकि आंशिक रूप से ब्लॉक हो चुके हैं, कोई नया मार्ग बनाना पड़ेगा। एक प्रकार का बायपास। ब्रेन के अन्दर अंदर बाहर स्पाइनल कार्ड के बाहर भरा हुआ सीएसएफ आपस में जुड़े हुए, मिले हुए रहते हैं। बायपास कमर से करते हैं। लम्बर वर्टिब्रा के स्तर पर मेरुतान्त्रिका के बाहर सब-अरेक्नाईड स्पेस में भरे CSF में एक महीन ट्यूब या नली (शंट) डालते हैं, जिसका दूसरा सिर पेट की पेटी में (पेरीटोनीयम नाम की झिल्ली के अन्दर का स्थान) टांके द्वारा फसा देते हैं। एक छोटा सा वाल्व होता है जो वन-वे ट्रेफिक की अनुमति देता है। रीड़ की हड्डी का CSF बूंद-बूंद करके पेट के पानी में जाता रहता है, रिसता रहता हैं । उल्टी गंगा नहीं बह सकती।
मेन खराबी तो फिर भी दूर नहीं होती। पानी को बाहर ड्रेन करने के रास्तों को सामान्य रूप से खुले रखने का इलाज अभी नहीं निकला है – सिवाय इसके कि जीवन शैली में परिवर्तन करके, वजन, ब्लड प्रेशर, ब्लड शुगर, कोलेस्ट्रॉल नियंत्रण में रखा जाए। कहना आसान है। करना कठिन है। वरन उर्मिला वापस ही क्यों इस हालत में आती ? ऑपरेशन का सुनते ही कौन है जो उसे टालने की न सोचेगा।
क्या सच में जरूरी है? क्या उसके बिना काम नहीं चल सकता? क्या उसे फला शादी या फलां परीक्षा या फला मौसम तक टाल नहीं सकते? कितने पैसे लगेंगे? खर्चा कुछ कम नहीं हो सकता? पैसों का प्रबंध करने के लिए कृपया मोहलत दो (मानो मोहलत देना डॉक्टर के हाथ में हो) ठीक होने की गारंटी है कि नहीं? ऑपरेशन के कारण कोई साइड इफेक्ट तो नहीं होंगे?
गारंटी और साइड इफेक्ट की बात सुनकर (पहली बार में नहीं लेकिन जब वही बात बार-बार अनेक अलग-अलग रिश्तेदारों द्वारा दोहराई जाती है) बहुत से डॉक्टर चिढ़ जाते हैं, उखड़ जाते हैं। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। डॉक्टर को किसी भी परिस्थितियों में आपा खोने का अधिकार नहीं है। डॉक्टर पेशेंट का रिश्ता कुछ मायनों में (ए सिमिट्रिकल) है, गैर बराबरी का रिश्ता है। (विषम।असामयिक।असममित) अब ग्यारंटी का क्या है? यहाँ अस्पताल से घर जाते समय क्या गारंटी कि सड़क पर एक्सीडेंट नहीं हो जाएगा।
साइड इफेक्ट का क्या? यदि किसी औषधि या ऑपरेशन के कोई साइड इफेक्ट नहीं है तो मान कर चलो कि उसका कोई इफेक्ट भी नहीं होंगे। कर्म करोगे तो कर्म फल तो मिलेगा। दुष्फल या सुफल नहीं चाहिए तो कुछ ना करो। आईआईएच रोग के लिए किए जाने वाले ऑपरेशन का परिणाम प्रायः अच्छे होते हैं तथा दुष्प्रभाव बहुत कम।
न्यूरो सर्जन के लिए यह ऑपरेशन (Thecoperitoneal Shunt) या कभी-कभी (Ventriculoperitoneal Shunt) एक माइनर ऑपरेशन है जिसमें रिस्क नहीं होती। अब होने को तो, तमाम सावधानियों और अनुशासन के बाद भी, किसी ऑपरेशन में रक्त स्त्राव या संक्रमण या अन्य कॉम्प्लिकेशन हो सकते हैं। दुर्भाग्य से बहुत से मरीजों और परिजनों की साइकोलॉजी कुछ यूँ चलती है कि समस्या हुई मतलब डॉक्टर ने केस बिगाड़ा, डॉक्टर ने लापरवाही से काम किया। ऐसा सोच गलत है।
उर्मिला का ऑपरेशन सफल रहा। कुछ ही सप्ताहों में दृष्टि क्षमता में खूब सुधार हुआ। सिर दर्द, चक्कर, उबकाई, अंधेरी आना जैसे लक्षण मिट गए। फॉलोअप (अनुगमन) नियमित हो रहा था।
लगभग एक वर्ष बाद फिर से वही तकलीफ होने लगी। इस बार देर नहीं की। भागे भागे आए। बीमारी का रिलेप्स (पलटा) हुआ था। (पुनरावर्तन) ।
न्यूरो सर्जन ने कहा “शायद शंट ब्लॉक हो गया है, उसे फिर से डालना पड़ेगा, रिवीजन।”
उर्मिला और उसके परिजनों की रिएक्शन की कल्पना कर सकते हैं।
“अरे राम! फिर से ऑपरेशन।”
“कितनी तकलीफ, कितने दिन की छुट्टी, कंपलसरी बेड रेस्ट”
“कितना खर्चा? एक बार ढेर सारी फीस ले चुके हो इस बार तो फ्री में होना चाहिए।”
“ऑपरेशन आपने ठीक से नहीं किया होगा! वर्ना फेल क्यों हो गया?”
वकील किस्म के एक-दो रिश्तेदारों ने सलाह दी कि उपभोक्ता कोर्ट में लापरवाही का केस कर दो, अच्छे-खासे पैसे मिल जाएंगे।
डॉक्टर ने शांत, विनम्र तरीके से समझाने की कोशिश की “शंट फेल्युअर” एक आम समस्या है।
यदि दुनिया भर के चिकित्सा शोध पत्रों और पाठ्य पुस्तकों से संदर्भ निकाले जाए तो 1 वर्ष में लगभग 20 से 30% मामलों में ऐसा हो सकता है।
लेकिन जिस मरीज के साथ ऐसा होता है उसे इन आंकड़ों से सांत्वना नहीं मिलती। उसके लिए तो 100% हैं।
मरीज और चिकित्सक के रिश्ते खराब होने के अनेक कारण है डॉक्टर का व्यवहार, संवाद की क्षमता तथा कॉम्प्लिकेशन होना प्रमुख है। एक और प्रमुख कारण है पैसा। यदि मरीज का काम फ्री में या कम खर्चे में हो जाए तो डॉक्टर अच्छा। यदि पैसे लगे तो डॉक्टर लालची, लुटेरा न जाने क्या-क्या। यह समस्या सिर्फ भारत की नहीं है। दुनिया भर के उन देशों की है, जहाँ उपचार का खर्च मरीज को अपनी जेब से देना पड़ता है। काश इंग्लैंड और दूसरे यूरोपीय देशों के समान “राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा” (N.H.S. – National Health Service)हो, वरना वही हाल बेढंगे रहने वाले हैं।
दोबारा ऑपरेशन फ्री में कैसे हो सकता है? डॉक्टर की योग्यता, हुनर, समय का मूल्य अहम है। अस्पताल व दवाइयों के खर्चों की तुलना में डॉक्टर की फीस पूरे बिल का थोड़ा-सा हिस्सा होती है। जब भी मरीज की मदद करने का सवाल उठता है तो डॉक्टर ही अपने उस थोड़े से प्रतिशत में छूट देता है। अस्पताल और फॉर्मेसी पूरा बिल वसूलते हैं। लोग जहाँ जोर लगा सकते हैं वहीँ लगाते हैं। जहाँ नहीं लगा सकते वहाँ चूं भी नहीं करते। लेकिन बदनाम कौन होता है? केवल डॉक्टर।
इस बार का शंट लगातार काम करता रहा। इस कथा के लिखे जाने तक 8 वर्ष बीत चुके थे। उर्मिला अपनी बेटी की शादी का निमंत्रण देने आई तो मैं उसे पहचान नहीं पाया। इतनी दुबली, इतनी युवा लग रही थी।
“बधाई हो उर्मिला! तुमने अपने आप को बहुत अच्छे स्वास्थ्य रूप में रखा है।”
“धन्यवाद डॉक्टर साहब!ऑपरेशन के बाद मैंने ठान लिया था। दूध के जले को छाछ भी फूंक-फूंक कर पीनी पड़ती है।”
मैंने सोचा देर आए दुरुस्त आए। सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो भुला हुआ नहीं कहलाता। डॉक्टर साहब! आप ही ने मुझे यह मार्ग समझाया था।
मैंने सोचा कौन जाने शरीर की चर्बी के कारणों के साथ-साथ, उर्मिला के मस्तिष्क में सीएसएफ का निष्क्रमण करवाने वाले छिद्रों में कुछ अज्ञात कणों का कचरा भी निकल गया होगा। इस विषय पर रिसर्च खूब हुई है। कोई पुख्ता निष्कर्ष नहीं निकला है। यह भी सही है कि आई आई एच रोग दुबले लोगों को भी हो सकता है, कोकी कम प्रतिशत में। शायद मेरी थ्योरी उर्मिला जैसे मरीजों पर लागू होती हो।
अब मैं ठहरा खालिस प्रैक्टिशनर, मैं तो रिसर्च करने वाला नहीं ।