पतंग दुनिया के बहुत से देशों में उडाई जाती है परन्तु लडाका पतंग (फाइटर काइट्स) केवल भारत और अपने उपमहादवीप के पडोसी देशों जैसे पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका में लोकप्रिय है। दो पतंगों के पेंच की लडाई में दूसरी पतंग की डोर को काट कर गिराने के खेल का आनन्द और रोमांच उसमें भाग लेने वाले ही महसूस कर सकते हैं | अजीब सा जुनून है। मकर संक्रांति (उत्तरायण) के अनेक दिन पहले से तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। खास दिन पर, आकाश रंगबिरंगी, नाचती, झूमती, डोलती, लहराती, इठलाती पतंगों से सज जाता है। सडकें सूनी हैं क्योंकि लोग छतों या मैदानों में जमा हैं।
पेंच की लडाई में कई हुनर होते हैं। पतंग का संतुलित होना। पतंगबाज का अनुभवी होना। दूसरे की डोर काटने के लिये खुद की पतंग को खूब तेजी से अपनी ओर खींचते जाना या बहुत तेजी से ठील देते जाना। और साथ में झटके या उचके देना। डोर को फुर्ती से लपेटने वाले तथा जरुरत पडने पर निर्बाध रूप से छोडते जाने वाले असिस्टेंट की भूमिका भी खास बन पडती है। जैसे ही एक डोर कटती है, उसे थामने वाले हाथों को मालूम पड जाता है – तनाव की जगह ढीलापन । उसकी – कटी पतंग – निस्सहाय सी जमीन की दिशा में डूबने लगती है। चेहरा उतर जाता है। जीतने वाले समूह की चीखें आकाश गूंजा देती हैं – वह काटा- वह काटा।
डोर का इतना महत्व क्यों?
इस लडाई में धागा/डोर का बहुत महत्व है। सूत का यह धागा न केवल मजबूत होना चाहिये बल्कि उसकी सतह के खुरदरे पन से दूसरे धागे को काटने की पैनी क्षमता होनी चाहिये। इस खास धागे को मांजा कहते हैं।
इसे बनाने का तरीका मेहनत भरा और खतरनाक है। एक खास किस्म की लोई तैयार करते हैं जिसमें चावल का आटा, आलू, पिसा हुआ बारीक कांच का बुरादा और रंग मिला रहता है। मजदूर इस लुग्दी को हाथों में रखकर, दो खम्बों के बीच बांधे गये सूत के सफेद धागों पर उक्त लोई की अनेक परत चढाते हैं। अहमदाबाद में उत्तरायण के कुछ सप्ताह पूर्व से सडक किनारे, फुटपाथों पर ऐसे सफेद और रंगीन धागों की अनेक पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं। उत्तर प्रदेश व बिहार से अनेक गरीब श्रमिक इसमें जुटे रहते हैं। उनके हाथ व ऊंगलियाँ कांच लगे कंटीले, खुरदुरे मांजे को लीपते पोतते, सहेजते, लपेटते, जगह-जगह से कट जाते हैं। छिल जाते हैं, बिंध जाते हैं, लहुलुहान हो जाते हैं। वे हाथ पर पट्टियाँ बांधते हैं, धागे लपेटते हैं। उनके चेहरे से पीडा टपकती है फिर भी मजबूरीवश करे जाते हैं। पारिश्रमिक कम ही मिलता है। पूरा परिवार वहीं सडक किनारे दिन गुजारता है।
पिछले कुछ वर्षों से कुछ शहरों में पतंगबाजी के खेल में मांजा के उपयोग को बंद करने की मुहिम शुरू हुई है, परन्तु उसका असर अभी क्षीण है। यह आवाज इसलिये उठी है कि आसानी से न दिखाई पडने वाले मांजे की चपेट में अनेक सडक चलते राहगीर व आकाश में विचरते पक्षी आ जाते हैं। निःसन्देह यह अपने आप में एक पर्याप्त कारण है। परन्तु इससे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है उन गरीब श्रमिकों के घावों की पीडा और व्यथा, जो लोगों को चंद घन्टों के जुनून और वहशी खुशी को पोसने के लिये अला क्यों सही जाना चाहिये ? दुनिया के दूसरे देशों में पतंगबाजी का आनंद एक शान्त, कलात्मक, सुन्दर हुनर के रूप में उठाया जाता है। वही क्यों न हो ? और फिर पेंच की लड़ाई सादे धागे से भी तो हो सकती है। उसमें ज्यादा कौशल लगेगा और अधिक देर मजा आयेगा।