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वाचाघात (अफेज़िया, बोली का लकवा)


एक ही रोग पर अलग से खंड क्यों ?

इस अवस्था में ऐसा क्या खास हैं ? कुछ हैं तो सही !

मनुष्य को अनेक प्राणियों से अलग करने वाली अनेक विशेषताओं में से एक प्रमुख हैं – उसकी भाषा-संवाद क्षमता ।

वही योग्यता अफेज़िया रोग में कम हो जाती हैं या समाप्त हो जाती हैं ।

स्पीच और कम्युनिकेशन को प्रभावित करने वाले कुछ और रोग भी हैं, लेकिन वाचाघात में मेरी गहरी रुचि हैं |

ऐसा क्यों ? मैं नहीं जानता कि मैंने वाचाघात को क्यों चुना ? या कि वाचाघात ने मुझे चुना ?

मेरी अपनी मातृभाषा हिन्दी के प्रति मेरे मन में शुरू से अनुराग रहा हैं । साहित्य पढ़ना, सुनना, लिखना, बोलना, पढ़ाना, भाषण देना – सभी में मुझे आनंद मिलता हैं ।

इसकी नीवं अनुवांशिक रही होगी । परवरिश ने उस बीज को अच्छे से पाला पोसा । पापा और माँ दोनों को पढ़ने का शौक था । मेरे बचपन में (3-6 वर्ष) माँ ने संस्कृत में एम.ए. करा और मेरी किशोरावस्था में (10-11 वर्ष) उन्होंने हिन्दी में एम.ए. करा । उस समय तक मैंने होश सम्हाल लिया था । माँ की किताबे मैं पलटता रहता था । उनकी बाते मैं गौर से सुनता था । जयशंकर प्रसाद, निराला, सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा, तुलसीदास, सूरदास, बिहारी, जायसी, फणीश्वरनाथ रेणु, संजय राघव ……

और भी न जाने कितने लेखकों की रचनाओं में डूबता रहता था ।

भाषाविज्ञान (Linguistics) के प्रति रुचि उन्ही दिनों अंकुरित हुई थी । क्योंकि एम.ए. के अनेक पेपर्स में से यह माँ का मजबूत था ।

संस्कृत के लिये आदर और लगाव शुरू से था । हाई स्कूल तक इस विषय में मुझे अच्छे अंक आते थे । उज्जैन में वार्षिक कालिदास समारोह लोकप्रिय और प्रतिष्ठित था । अंतरविद्यालयीन वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने से कालिदास साहित्य एक से अधिक बार आद्योपान पढ़ डाला था ।

एम.बी.बी.एस. (1970-1975) प्रथम वर्ष से एनाटामी विषय में मुझे मस्तिष्क की रचना और कार्यप्रणाली प्रिय लगने लगे थे । एम्.डी. मेडिसिन करते करते न्यूरोलॉजी में आगे करियर बनाने का निर्णय हो चुका था | इंदौर मेडिकल कॉलेज की लाइब्रेरी के कोने में मेरे हाथ लगी थी डॉ. हेरोल्ड गुडग्लास की पुस्तक – “बोस्टन डायग्नोस्टिक अफेज़िया एग्जामिनेशन (BDAE) ।उसका हिन्दी उपांतरण किया । चित्र-कार्ड्स बनाये । मरीजों पर उनका उपयोग आरम्भ किया । अफेज़िया जगत में वे मेरे पहले कदम थे |

नई दिल्ली के AIIMS में डी.एम (1983-1986) करते समय डॉ. जी.के. आहुजा के निर्देशन में जब थीसिस का विषय चुनने का अवसर मिला तो वह aphasia पर था । न्यूरोलॉजिकल सोसायटी ऑफ़ इंडिया द्वारा युवा न्यूरोलॉजिस्ट की प्रदान की जाने वाली ट्रेवलिंग फेलोशिप पर मैं एक माह AIISH मैसूर रहा (फरवरी 1986) जहाँ डॉ. प्रतिभा कांत के विभाग में और संस्थान की लाइब्रेरी में खूब सीखा । रोटरी अन्तराष्ट्रीय के “ग्रुप अध्ययन विनिमय (GSE) कार्यक्रम के तहत मिसूरी (अमेरिका) (1987) में छः सप्ताह भ्रमण किया । तदुपरांत बिना अपॉइंटमेंट के बोस्टन में डॉ. हेरोल्ड गुडग्लास के ऑफिस में अपने दोनों बेग उठाए जा पहुँचा । उन्होंने पूरा विभाग दिखाया, सदस्यों से परिचय करवाया, मेरे लिये होटल का सस्ता कमरा ढूंढा और अपनी कार से मुझे वहाँ छोड़ा ।

पिछले 35 वर्षों में वाचाघात क्षेत्र में मेरे द्वारा किये गए कामों पर मुझे गर्व हैं लेकिन संतोष नहीं । और भी कितना कुछ कर सकता था तथा करना चाहिये था लेकिन नहीं कर पाया । एक जनरल न्यूरोलॉजिस्ट के रूप में मेरी व्यस्त प्रेक्टिस और एक इन्टर्निस्ट के रूप में मेडिकल कॉलेज में मेरी नौकरी में मेरा अधिकांश समय गुजरा । बार बार प्रण लेता रहा कि अब फोकस कर के वाचाघात पर काम करूँगा लेकिन ऐसा हो न पाया।

अफेज़िया से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण विषय

  1. भाषा और मस्तिष्क
  2. लिपि और मस्तिष्क
  3. वाचाघात क्या हैं ?
  4. वाचाघात – वाणी चिकित्सा की भूमिका
  5. संवाद साथी की भूमिका और उसका प्रशिक्षण
  6. वाचाघात से प्रभावित मरीजों के देखभालकर्ताओं द्वारा घर पर करवाये जाने वाले अभ्यास (Home Based Exercise)
  7. “शब्द चित्र ” – स्पीच लैंग्वेज थेरापी की एक विधि Intensive Language Action Therapy (ILAT) – एक प्रकार की ग्रुप थेरापी
  8. अफेज़िया से प्रभावित मरीजों के निदान में उपयोग अनेक परिक्षण विधियाँ (Testing Batteries)
    1. HASIT
    2. HABIT
    3. HAFIT
    4. HRWIT
    5. LEAP-Q
    6. HANDEDNES
    7. CAT
  9. मनोभाषिकी (psycholinguistics) के पैमानो पर आधारित शब्द सूचियाँ
  10. मनोभाषिकी के पैमानों पर आधारित चित्र संग्रह
  11. अफेज़िया कि पैरवी और शिक्षण
    1. जनजागरूकता
    2. मरीज व परिजनों का ज्ञान तथा आत्मविश्वास बढ़ाना
    3. मरीज सहायता समूहों का गठन
    4. स्वास्थकर्मियों का शिक्षण-प्रशिक्षण

2. लिपि और मस्तिष्क

अफेज़िया वाचाघात पीडित व्यक्ति से बर्ताव
तीव्र अफेजिया के मरीज उदास हो जाते हैं, निराश हो जाते हैं, थक जाते हैं, चिढ़ते हैं, झुंझलाते हैं, गुस्सा होते रोते हैं और फिर चुप रह जाते हैं, अकेले रह जाते हैं-अपनी खोल में बन्द हो जाते हैं, गतिविधियाँ कम कर देते हैं , आना-जाना, मिलना-जुलना अच्छा नहीं लगता। ऐसे मरीजों की वाणी चिकित्सा कठिन होती है। धैर्य लगता है। असफलता और….

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सुनने मे परेशानी के लक्षण एवम कारण
लंबे समय सर्दी-जुकाम रहने से होने वाला इंफेक्शन ईयर-ड्रम में होल करने के साथ-साथ मिडिल ईयर की हड्डियों को गलाने लगता है। इससे साउंड के ब्रेन तक ठीक तरह पहुंचने में रुकावट आती है यही नहीं………

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