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डिजिटल सब्सट्रेशन एंजियोग्राफी (D.S.A.)


कम्पूटरीकृत आंकिकीय गणना के माध्यम की रक्तनलिकाओं के चित्र प्राप्त करना

सामान्य एक्स-रे में गर्दन व मस्तिष्क की खून की नलियाँ नहीं दिखाई पड़ती क्योंकि वे एक्स-रे के लिये पारदर्शी होती हैं | डी.एस.ए. जांच में खून की नलियाँ दिखाई देती हैं क़्योंकि अंदरुनी लम्बे केथेटर (तार-सलाई) द्वारा एक्स-रे के लिये  अपारदर्शी केमिकल घोल (कन्ट्रास्ट ऐजेन्ट) का इन्जेक्शन दिया गया है| मस्तिष्क में खून का संचार करने वाली नलि का एक्स-रे चित्र सेरीब्रल एन्जियोग्राफी कहलाता है| चूंकि इस जांच में डिजिटल (कम्प्यूटराइज्ड) तकनीक भी लगती है इसलिये नाम पड़ा ‘डी.एस.ए.’ |
ब्रेन अटैक के अनेक मरीजों में निदान और इलाज के लिये डी.एस.ए. की उपयोगिता बढ़ रही है। सफलता बढ रही  है। टेक्नोलोजी सरल हो रही है। ज्यादा अस्पतालों में उपलब्ध हो रही है। इसे करने वाले प्रशिक्षित डॉक्टर्स की संख्या भी बढ़ रही है |

विषय सुचि


डी.एस.ए. जांच करने की जरुरत कब पड़ती है

जांच इमर्जन्सी में तथा बिना इमर्जेन्सी केचूंकि डी.एस.ए. जांच महंगी, कठिन और अल्प उपलब्ध है, अत: डाक्टर्स इसे करने की सलाह बहुत सावधानी पूर्वक, सोच समझकर ही देते हैं। केवल उस समय जब उन्हें विश्वास हो कि यह जांच वास्तव में अनिवार्य है, या उसे करने से मरीज की बीमारी के निदान और उपचार में निश्चय ही उपयोगी जानकारी प्राप्त होगी। ऐसी जानकारियां जो अन्यथा नहीं प्राप्त हो सकती |

अनेक अवसरों पर डी.एस.ए. (आंकिकीय विधि से रक्त नलिकाओं का चित्रिकरण) जांच इमर्जन्सी में तात्कालिक रूप  से करना पड़ती है फिर चाहे छुट्टी हो या आधी रात |

कुछ अन्य अवसरों पर यह जांच बिना इसर्जन्सी के पहले से प्लानिंग करके समय तय कर के भी की जाती है।


1. यदि डॉक्टर को मालूम पड़ जावे कि तीव्र सिरदर्द के साथ होने वाला ब्रेन हेमरेज, एस.ए.एच. नामक बीमारी के कारण है तो इमर्जन्सी में डी.एस.ए. करना चाहिये ताकि एन्यूरिज्म का पता करके, तत्काल उसका
इलाज कॉयलिंग या क्लिपिंग द्वारा हो सके |


2. यदि मरीज, लकवा,पक्षाघात (ब्रेन अटैक) के प्रथम 2-3 घंटों में अस्पत्ताल आ गया हो तथा सी.टी. स्केन
के आधार पर मालूम पड़े कि दिमाग तक खून पहुंचाने वाली बड़ी धमनियों में से कोई एक नली, खून का थक्का बड़ी धमनियों में से कोई एक नली, खून का थक्‍्का (क्लाट) बनने के कारण बन्द हो गई है | ऐसी स्थिति में डी. एस.ए. द्वारा डायग्नोसिस के साथ-साथ उपचार हेतु क्लाट निकालने के उपाय भी किये जाते है।


3. यदि पक्षाघात के लघु अटैक के बाद, मरीज ठीक तो हो गया हो, परन्तु इस बात की आशंका हो कि मस्तिष्क तक खून ले जाने वाली, केरोटिड धमनी, गर्दन के मार्ग में, खूब संकरी हो सकती है। ऐसे मरीजों में पुन: लकवे का अटैक  आने की आशंका अधिक होती है| उक्त आशंका को कम करने के लिये डी.एस.ए. के दौरान केरोटिड धमनी में एन्जियोप्लास्टी द्वारा स्टेन्ट स्थापित करते हैं। धमनी ज्यादा खुल जाती है।

डी.एस.ए. जाँच द्वारा गर्दन के मार्ग से मस्तिष्क तक शुद्ध रक्त पहुंचाने वाली केरोटिड धमनी का संकरापन जाना जा सकता है तथा स्टेन्ट द्वारा ठीक किया जा सकता है


4. यदि मरीज के मस्तिष्क में ए.वी.एम. नाम का खून की  नलिकाओं का गुच्छा बने होने के प्रमाण मिले तो डी.एस.ए. द्वारा उक्त खराबी के आकार, प्रकार, स्थान आदि की सटीक डायग्नोसिस के साथ-साथ उस गुच्छे को गोंद जैसे पदार्थ से भरने और बूरने का काम भी डी.एस.ए. के दौरान किया जाता है |


5. युवावस्था में अप्रत्याशित रुप से लकवा / ब्रेन अटैक होने व  उसका कारण अज्ञात रहने पर, डी.एस.ए. द्वारा कारण  ज्ञात करने में मदद मिलती है।

6. कुछ दुर्लभ किस्म की बीमारियां जिनमें मस्तिष्क की रक्त वाहिकाएं रोगग्रस्त होती है जैसे- धमनी विच्छेदन (डिसेक्शन)

— मोया मोया रोग

– वास्क्यूलाईटिस रोग



डी.एस.ए. कौन करता है ?


1. न्यूरोलॉजिस्ट जिन्होंने 11-12 साल की डी.एम. की पढ़ाई के बाद दो साल की स्पेशल एण्डोवास्क्यूलर
ट्रेनिंग ली हो | डॉ निपुण पौराणिक कैन्द्रिय भारत में ऐसे एक मात्र न्यूरोलॉजिस्ट है |


2 न्यूरोसर्जन + स्पेशल ट्रेनिंग


3. न्यूरो रेडियोलॉजिस्ट (इन्टरवेंशनल) ये लोग मूल रूप से
एक्स-रे विशेषज्ञ होते हैं, न कि क्लीनिकल


भारत में फिलहाल मुश्किल से सौ-पचास डाक्टर्स डी.एस. ए. द्वारा जांच और इलाज का हुनर प्राप्त हैं। इसके लिये कठिन प्रशिक्षण और अनुभव जरूरी होता है। किताब पढने या कक्षा में बैठने से काम नहीं चलता। अपने हाथों से सीखना पड़ता है। बहुत धैर्य और अभ्यास लगता है। हाथों की सुघढ़ता और बारीकी जरूरी है | खूब सावधान और चौकन्ना रहना पड़ता है | डी.एस.ए. करने का हुनर बीमारी का कारण पता करने के अलावा उसके उपचार में भी काम आता है। डी.एस.ए. करने वाले डाक्टर को इस विधि द्वारा इलाज करने में भी निपुण होना चाहिए | केवल डायग्नोसिस करके छोड़ नहीं सकते | अनेक अवसरों पर डी.एस.ए. द्वारा उपचार का निर्णय उसी क्षण इमर्जन्सी में लेना पड़ता है |


कैसे करते हैं डी.एस.ए. जांच


दांयी (या कभी कभी बांयी) जांघ के उपरी हिस्से में ऊंगली रखकर धड़कती हुई नाड़ी (पल्स) (फीमोरल धमनी) को एक मोटी सुई से बेधते हैं। एक लम्बा तार (केथेटर) अन्दर घुसाते हैं जो एक्स-रे पर्दे पर दिखाई पड़ता रहता है | उक्त तार को उपर गर्दन की दिषा में धकेलते हैं। सुई से बेधते हैं| एक लम्बा तार (केथेटर) अन्दर घुसाते हैं जो एक्स-रे पर्दे पर दिखाई पड़ता रहता है | उक्त तार को उपर गर्दन की दिषा में धकेलते हैं|

जब डॉक्टर को विश्वास हो जाता है कि उसके द्वारा जांघ के रास्ते घुसाये गये केथेटर का अगला सिरा, गर्दन
में स्थित केराटिड धमनी में पहुंच गया है तो वह एक केमिकल (कन्ट्रास्ट ऐजेन्ट) सिरिज में भरकर सलाई के अन्दर धकेलता है| यह घोल कुछ ही सेकण्ड की अवधि के लिये एक्स-रे पर दिखाई पड़ता है। फिर गायब हो जाता है | इन्जेक्शन देते ही आगामी कुछ सेकण्ड्स तक लगातार वीडियो तथा स्टिल चित्र (अचलायमान) रिकार्ड किये जाते हैं | जिनके द्वारा दिमाग तक जाने वाली और फिर दिमाग के  भीतर स्थित खून की नलियों (आर्टरी और वेन) की रचना  और खराबी को पहचाना जा सकता है |

इन्हीं चित्रों को एक्स-रे नुमा फिल्‍म पर प्रिन्ट करके या कम्प्यूटर के पर्दे पर देखा व दिखाया जा सकता है। डी.
एस.ए. जाँच में लगभग 30-45 मिनिट का समय लगता है |


आमतौर पर इस जाँच में खतरा नहीं होता। 1-2 प्रतिशत केसेस में मामूली काम्पलीकेशन हो सकते हैं जो ठीक हो जाते हैं। इस जांच में दर्द या तकलीफ थोड़ी सी होती है। एक इंजेक्शन जितना दर्द होता है क्योंकि चमड़ी  को सुन्‍न करना पड़ता है (लोकल ऐनेस्थिसिया द्वारा)


कितना खर्च ?

ये जांचें और इलाज महंगे हैं। इसमें लगने वालेहार्डवेयर (केथेटर, काइलस, स्टेन्ट) देश में नहीं बनते |
 आयात होते हैं | भारत में सिर्फ दो चार सरकारी संस्थानों में ये मुफत लगाये जाते है। केथ लैब (स्पेशल आपरेशन थिएटर जहां डी.एस.ए. होता है |) बनाने का खर्च पांच करोड़ रू से अधिक है | इसकी ट्रेनिंग लेते लेते मेडिकल की पढ़ाई  15 साल की तथा डाक्‍्टर्स की उम्र 30-35 वर्ष की हो चुकी होती है। डाक्टरी शिक्षा महंगी है | वर्ष 2017 में भारत में डी. एस.ए. जांचा का लगभग खर्च 20000 रूपये पड़ता है।

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