उपचार से रोकथाम बेहतर है । Prevention is better than cure इस जुमले को बार-बार सुन कर चाहे बोर हो जाओ, लेकिन है वह सबसे खास बात । अनेक मरीजों में बीमारी का निश्चित कारण ज्ञात नहीं किया जा सकता है । यहाँ तक कि विकसित देशों में भी, जहां जांच की आधुनिकतम सुविधाएं सब जगह उपलब्ध हैं । ऐसी स्थिति में रोकथाम की सम्भावनाएं सीमित हैं। फिर भी उनकी ओर अधिक सक्रियता से ध्यान दिया जाना चाहिये क्योंकि उसके लाभ अतुलनीय हैं ।
प्रशिक्षित दाइयों व अच्छी प्रसूति सेवाओं के अभाव में बहुत से बच्चे जन्म के समय आक्सीजन व खून के दौरे की कमी के शिकार हो जाते हैं । मस्तिष्क में नुकसान पहुंचता है। आगे चल कर मिर्गी का कारण बनता है । बेहतर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं, बेहतर मातृ-शिशु सेवाओं, पोषण कार्यक्रमों आदि द्वारा मिर्गी के मरीजों की संख्या में कुछ कमी लाई जा सकती है।
मस्तिष्क में अनेक प्रकार के इन्फेक्शन (मस्तिष्क ज्वर, मेनिन्जाइटिस, एनसेफेलाइटिस) मिर्गी रोग पैदा करते हैं । इनमें से कई की रोकथाम सम्भव है । मच्छरों, सूअरों पर नियंत्रण द्वारा जापानीज एनसेफेलाइटिस का प्रकोप घटाया जा सकता है। कान में पस बहने की बीमारी गरीब बच्चों में अधिकता से देखी जाती है क्योंकि,टांसिल, नाक व गले के इन्फेक्शन्स का उपचार वे नहीं करवा पाते हैं । वातावरण की साफ सफाई का भी असर मिर्गी पड़ता है। टी. बी. (ट्यूबरक्यूलोसिस) जिस पर नियंत्रण पा लिया जाना चाहिये था, आज विडम्बना है कि, पुन बढ़ रही है। मस्तिष्क में टी. बी. मेनिन्जाइटिस व टी.बी. गांठ के कारण अनेक लोगों को मिर्गी होती है जो सिद्धान्ततः रोकी जा सकती है।
सिस्टीसर्कस नामक कृमि (फीताकृमि या tapeworm का लार्वा) द्वारा मस्तिष्क में गांठ बनाकर मिर्गी पैदा करने के ढेर सारे उदाहरण पिछले १० वर्षों में देखे गये हैं। ऐसा लगता है कि उनकी संग्व्या बढ़ रही है, परन्तु ठोस वैज्ञानिक आंकड़े प्रस्तुत करना सम्भव नहीं। पहले सोचते थे कि सिस्टीमर्कोमिस रोग केवल मामाहारियों में होता है, वह भी सूअर का मांस खाने वालों में । अब यह भेद बेमानी है । शुद्ध शाकाहारियों को भी उतनी ही दर से होता है । टट्टी में निकलने वाले अण्डे, पेयजल व खेत-मिट्टी के माध्यम से अन्य खाद्य पदार्थो में इफरात से मिल जाते हैं। शुद्ध पेयजल, कच्चे भोज्य पदार्थों की सफाई-धुलाई, गन्दगी का नगर से बाहर निपटारा, भोजन पकाने व परोसने वालों के हाथ धुले होना, आदि उपायों से रोकथाम सम्भव है । यूं हम हिन्दुस्तानी व्यक्तिगत तौर पर खूब साफ रहते हैं या ढोंग करते हैं। रोज नहाते हैं। चौके में जूते नहीं ले जाते, जूठा-ऐठा मानते हैं। छुआछूत करते हैं । परन्तु सार्वजनिक रूप से हम बेहद गन्दे हैं । कूड़ा करकट, इधर-उधर थूकना, अशुद्ध भोजन, पानी आदि हमारी नियति है । साफ सफाई की संस्कृति की दिशा पलटनी होगी । सिस्टीसर्कोमिम द्वारा होने वाली मिर्गी उसके बगैर कम नहीं होगी।
शराब व अन्य नशों की लत के कारण होने वाले मिर्गी दौरे कम किये जा सकते हैं, पूरी तरह शायद न रुक पाएं । मनुष्य की कमजोरियों को मिटाना सम्भव नहीं परन्तु ऐसा माहौल बनाए रखा जा सकता है जिसमें उक्त कमजोरी को फैशन न माना जाए, तथा कानून का हलका बन्धन भी रहे। दुर्भाग्य से हमारा समाज विपरीत दिशा में प्रगति कर रहा है।
बाद की उम्र में पक्षाघात (दिमाग को खून के दौरे में कमी या रुकावट) द्वारा अनेक मरीजों को मिर्गी के दौरे आने लग जाते हैं। पक्षाघात की दर घटाई जा सकती है। सबसे प्रमुख कारण है – ऊंचा रक्तचाप । प्रौढ़ावस्था में नियमित स्वास्थ्य जांच द्वारा बढ़े हुए ब्लड प्रेशर के मरीजों को पहचाना जा सकता है । आजीवन नियमित उपचार व अनुगमन की जरूरत रहती है। पश्चिमी विकसित देशों में उक्त उपाय द्वारा पक्षाघात (स्ट्रोक) की दर में कमी आई है। शराब की लत, धूम्रपान, तम्बाखू खाना, व्यायाम का अभाव, मोटापा, खून में चर्बी की अधिकता, ह्रदय रोग आदि अन्य कारण हैं जिन पर नियंत्रण करने की मुहिम वहां चल पड़ी है। भारत जैसे विकासशील देशों को दोहरी मार सहना पड़ रही है। अविकसित हालातों में पाई जाने वाली बीमारियां (इन्फेक्शन-टी. बी., कुपोषण) आदि से हमें निजात मिला नहीं था, ऊपर से विकसित देशों में पाई जाने वाली बीमारियों ने हमें धर दबोचा।
मिर्गी के आनुवंशिक कारणों को रोक पाना मुश्किल है। माता व पिता दोनों को मिर्गी रोग हो तो बच्चों में उसके होने की आशंका बढ़ जाती है । परन्तु ऐसे दम्पति कितने होते होंगे? बहुत कम । उनकी शादी रुकवाना महत्वपूर्ण उपाय नहीं है। मिर्गी के कुछ गिने चुने सिण्ड्रोम (लक्षण-समूह) की पहचान की गई है जो किमी विशिष्ट जीन में खराबी आने से होते हैं । रक्त सम्बन्धियों में विवाह से बचा जाना चाहिये । यदि एक मन्तान में उक्त रोग हो तो बाद की सन्तानों में होने की आशंका बढ़ जाती है। प्रसव पूर्व निदान अब सम्भव हो चला है। जिनेटिक गड़बड़ी को जीन थेरापी द्वारा ठीक कर पाना अभी सुंदर भविष्य की कल्पना प्रतीत होती है, परन्तु कौन जाने वह भविष्य अभी कल ही हमारे द्वार पर दस्तक देने लग जाए।
मिर्गी की रोकथाम का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पहलू है – बीमारी को दीर्घकालिक (क्रॉनिक) होने से बचाना। यदि सभी मरीजों का प्रथम या द्वितीय दौरे के बाद उपचार आरम्भ हो जाए व पूरा चले, तो बहुत से मरीजों को इस समस्या से बचाया जा सकता है । यह सही है कि कुछ मरीजों में बीमारी की तीव्रता अधिक होती है, मस्तिष्क में विकृति गम्भीर होती है। उन मरीजों में शायद उपचार के बाद भी बीमारी न मिट पाए ।
परन्तु अधिकांश अभागे मरीज वे होते हैं जो गरीबी, अज्ञान व स्वास्थ्य सेवाओं में गुणात्मक दोष के कारण आरम्भिक व नियमित उपचार नहीं करा पाते । प्रत्येक दौरा, भविष्य में आने वाले दौरों की सम्भावना बढ़ाता है तथा औषधि की सफलता की सम्भावना घटाता है। मिर्गी एक प्रक्रिया है जो आरम्भिक एक वर्ष में अधिक सक्रिय रहती है । जहरीले नाग का सिर जन्मते ही कुचल देना चाहिये।