बीमारी का क्या हश्र होगा? कब ठीक होगी? ठीक होगी या नहीं? कितने प्रतिशत ठीक होगी? क्या करने से ठीक होगी? कौन सी औषधि बेहतर सिद्ध होगी? मिर्गी के अलावा शेष स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ेगा ? पढ़ाई-लिखाई कितनी कर पाएगा? काम-धंधा कर पायेगा या नहीं ? बच्चे कैसे होंगे ? गर्भावस्था में स्वास्थ्य कैसा रहेगा ?
जिसे सिर्फ एक दौरा आया है वह उपचार आरम्भ करें या न करे? दूसरा दौरा आने की सम्भावना कितनी? कब तक आयेगा/ चार-पांच साल अच्छे निकल जाने के बाद दुबारा बीमारी शुरू होने की कितनी सम्भावना ? क्या इस रोग मरीजों में मृत्यु की आशंका बढ़ जाती है?
प्रश्नों की लम्बी सूची है। उत्तर आसान नहीं है । सिर्फ अनुमान लगा सकते है । मरीजो की बड़ी संख्या का वर्षों तक अनुगमन (फालोअप) करते हैं। आंकड़े इकट्ठा करते हैं । किस के साथ क्या नोट करते जाते हैं। आंकड़ों से मिलते हैं औसत व प्रतिशत । मरीज को सुनाओ तो कहता है मुझे संख्याओं से क्या लेना-देना । मुझे तो मेरी बताओ । परंतु और कोई रास्ता भी नहीं । मरीज, बुद्धिमान व पढ़ालिखा हुआ तो समझने की कोशिश करता है । वह जानता है कि डाक्टर त्रिकालदर्शी नहीं है। कोई भी नहीं हो सकता है। भविष्य का आकलन करने वाले विज्ञान के अपने नियम है। आंकड़े, प्रतिशत और औसत सभी मरीजों का एक साथ निकालने के बजाय, अलग-अलग समूहों, वर्गो का निकालना अधिक उपयोगी होता है । कौन से समूह ? कौनसे वर्ग ? उदाहरण के लिए उम्र के आधार पर । रोग के प्रकार के आधार पर या उसे पैदा करने वाली मूल बीमारी के आधार पर साथ-साथ मस्तिष्क में और क्या कमियां हैं, इस आधार पर । इन्हें कहते है प्रॉग्नोसिस पर असर डालने वाले कारक। प्रत्येक कारक की अपनी अलग भूमिका होती है। किसी का प्रभाव कम तो किसी का अधिक । एक से अधिक कारक मौजूद हो तो सम्मिलित प्रभाव बहुगुणित हो जाते हैं।
मिर्गी के पुर्वानुमानों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य इस प्रकार हैं
१. पहला दौरा आने के बाद दूसरा कब आयेगा ? एक माह में ३० प्रतिशत, तीन माह में ५० प्रतिशत, तथा एक वर्ष में ८० प्रतिशत व्यक्तियों को दूसरा दौरा आ चुकता है। गौर करने की बात है कि प्रथम दौरे के बाद डाक्टर को रिपोर्ट करने में कितने दिन गुजरे । उपरोक्त प्रतिशत उसी स्थिति में सही है जबकि मरीज तुरंत डाक्टर के पास पहुंच गया हो। शुरू से इलाज आरंभ करें या नहीं यह विवादास्पद रहा है । दूसरा दौरा आने न आने के प्रतिशत में शायद बहुत ज्यादा अंतर नहीं पड़ता है। और अध्ययनों की जरूरत है। वर्तमान प्रवृत्ति प्रथम दौरे के बाद ही उपचार आरंभ करने की है क्योंकि माना जाता है मस्तिष्क, में विद्यमान मिर्गीजनित प्रक्रिया आरंभिक महीनों में अधिक सक्रिय रहती है तथा प्रत्येक नया दौरा, आगामी दौरों को निमंत्रण देता है। प्रथम दौरे के बाद जितना समय भली भांति गुजर जाए उतना अच्छा । एक वर्ष में यदि दूसरा दौरा न आया तो फिर उसके आने की सम्भावना २० प्रतिशत से कम रह जाती है।
2. पहला दौरा आने के बाद दूसरा दौरा होने की आशंका निम्न मरीजों में अधिक होती है:- मिर्गी पैदा करने वाली पुरानी मस्तिष्कीय विकृति का मौजूद होना, ईईजी असामान्य होना, न्यूरालाजिकल जांच में खराबी पाई जाना, परिवार के सदस्यों में मिर्गी होना । यदि उपरोक्त सभी कारक अनुपस्थित हों तो आशंका सिर्फ २० प्रतिशत रह जाती है।
३ – यदि मिर्गी के समस्त नये रोगियों को शुरू से अनुगमन (फालोअप) में रखा जाए तो कम से कम ७० प्रतिशत मरीजों में मिर्गी रुक जाती है – पांच साल से अधिक की अवधि के लिये ।
४ – यदि दो से पांच वर्ष तक दौरे रुके रह जाएं तो, ७५ प्रतिशत मरीजों में दवाइयां छूट सकती हैं।
५ – दवाइयों से सफलतापूर्वक छुटकारा मिलने की सम्भावना उन मरीजों में अधिक होती है जिनका ईईजी सामान्य हो, न्यूरालाजिकल जांच में खराबी न हो तथा बुद्धि अच्छी हो ।
६.- जनसंख्या पर आधारित अध्ययनों में (जिनमें समस्त मिर्गी रोगी व समस्त सामान्य लोग शामिल किये जाते हैं) इस बात का कोई सबूत नहीं मिलता कि मिर्गी मरीजों में अप्रत्याशित मृत्यु दर औरों की तुलना में अधिक होती है। परंतु यदि मिर्गी मरीजों के चुने हुए समूहों का अध्ययन किया जाए (युवा वर्ग, पुरुष लिंग, तीव्र बीमारी, जन्मजात न्यूरालाजिकल विकृति, सर्वव्यापी किस्म के बड़े दौरे) तो मृत्यु दर, सम्भावित आम दर से कुछ अधिक होती है। मिर्गी मरीजों में मृत्यु के निम्न कारण, अन्य सामान्य लोगों की तुलना में अधिकता से देख जाते हैं – दुर्घटनाएं, पक्षाघात, न्यूमोनिया, मस्तिष्क में गांठ य ट्यूमर, आत्महत्या ।
७ – यदि मिर्गी का कोई उपचार न किया जाए तो सिर्फ १५ प्रतिशत मरीजो में बीमारी की तीव्रता कम रहती है व स्वतः दौरे रुक जाते हैं, कभी नहीं आते या लम्बे अंतराल पर आते हैं । शेष अधिकांश मरीजों में मिर्गी बनी रहती है, मिटती नहीं, बल्कि बढ़ती जाती है। दो तिहाई मरीडो में, उपचार न मिलने की दशा में, दौरे जल्दी-जल्दी आने लगते हैं, उनके बीच का अंतराल कम होता जाता है, दौरों की तीव्रता बढ़ती जाती है. सतत् मिर्गी अवस्था (स्टेटस एपिलेप्टिकस) पैदा हो सकती है।
८ – मिर्गी का निदान होने के दस साल के भीतर कितने मरीजों के दौरे रुके हुए पाये जायेंगे ? उत्तर है ६५-७० प्रतिशत । परंतु यदि उन मरीजों का ध्यान किया जाए जिनके दौरे आरंभिक पांच वर्षों में नहीं रुके हैं तो फिर उनके अब रुक पाने की सम्भावना घट कर ३० प्रतिशत रह जाती है। तात्पर्य यह कि सफलता के लक्षण, उपचार के आरंभिक वर्षों में प्रगट होने लगते हैं।
मिर्गी के नियंत्रित हो पाने की सम्भावनाओं को लेकर आम चिकित्सतो व मरीजो के मन में गलत धारणाएं हैं । ठीक हो जाने वाले मरीज गायब हो जाते है। नजर नहीं आते । या कम नजर आते हैं। आपके सामने बार-बार वे ही प्रगट होते है जिनकी बीमारी की तीव्रता अधिक है। वे अल्पसंख्यक हैं. परंतु उन्हीं के आधार पर चिकित्सक अपनी धारणाएं गढ़ लेते हैं ।
क्लीनिक में आने वाले मरीजों के रजिस्टर के आधार पर आंकड़े मत बनाइये । बस्ती-बस्ती, घर-घर सर्वेक्षण करो। उन सबों की गिनती करो जिनकी बीमारी रुक जाने से वे क्लीनिक नहीं आये । तब असली तस्वीर खिंचती है, जो कि बहुत बुरी नहीं है। मरीजों से चर्चा करते समय यही शुभ समाचार अधिक जोर देकर दिया जाना चाहिए ।