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“ज्यों कोई चीटी शिलालेख पर चढ़ती हैं अक्षर-अक्षर रेंगती वही कुछ पढ़ती हैं| त्यों मन| भीतर के लेखों को छु लेता हैं…. बेचैन भटकता हैं, बेकार ठिठकता हैं…पर पकड़ नहीं पाता उसके अक्षर….”

मुक्ति बोध

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